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श्रीहरिवंशपुराण
विष्णुपर्व
प्रथमोऽध्यायः


नारदागमनम्
मङ्गलाचरण - नारदजीका मथुरामें आकर कंसको आनेवाले भयकी सूचना देना और कंसका अपने सेवकोंके सामने बढ़-बढ़कर बातें बनाना -


नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥
बदरिकाश्रमनिवासी प्रसिद्ध ऋषि श्रीनारायण (अथवा अन्तर्यामी नारायण), नर (नारायणसखा अर्जुन अथवा आदि जीव हिरण्यगर्भ) तथा नरोत्तम (इन हिरण्यगर्भ एवं अन्तर्यामीसे भी श्रेष्ठ शुद्ध सच्चिदानन्दधन पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण)-को और (इन नर-नारायण तथा नरोत्तमके तत्त्वको प्रकट करनेवाली) देवी सरस्वतीको एवं (देवी सरस्वतीने संसारपर अनुग्रह करनेके लिये जिनके शरीरमें प्रवेश किया है, उन) व्यासजीको प्रणाम करके अविद्यारूपी अज्ञानान्धकारको जीतनेवाले इतिहास-पुराण आदि ग्रन्थोंका पाठ आरम्भ करे ।

वैशम्पायन उवाच
ज्ञात्वा विष्णुं क्षितिगतं भागांश्च त्रिदिवौकसाम् ।
विनाशशंसी कंसस्य नारदो मथुरां ययौ ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! भगवान् विष्णु और देवताओंके अंश भूतलपर अवतीर्ण हो चुके हैं, यह जानकर देवर्षि नारद कंसको उसके निकटवर्ती विनाशकी सूचना देनेके लिये मथुराको गये ॥ १ ॥

त्रिविष्टपादापतितो मथुरोपवने स्थितः ।
प्रेषयामास कंसस्य दूतं स मुनिपुङ्‌‍गवः ॥ २ ॥
स्वर्गसे उतरकर वे मथुराके उपवनमें खड़े हो गये और वहाँसे उन मुनिश्रेष्ठने कंसके पास एक दूत भेजा ॥ २ ॥

स दूतः कथयामास मुनेरागमनं वने ।
स नारदस्यागमनं श्रुत्वा त्वरितविक्रमः ॥ ३ ॥
निर्जगामासुरः कंसः स्वपुर्या पद्मलोचनः ।
स ददर्शातिथिं श्लाघ्यं देवर्षिं वीतकल्मषम् ॥ ४ ॥
तेजसा ज्वलनाकारं वपुषा सूर्यवर्चसम् ।
सोऽभिवाद्यर्षये तस्मै पूजां चक्रे यथाविधि ॥ ५ ॥
उस दूतने कंसके पास जाकर बताया कि नगरके उपवनमें देवर्षि नारद पधारे हैं । नारदजीके आगमनका समाचार सुनकर कमललोचन असुर कंस जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाता हुआ अपनी पुरीसे बाहर निकला । उपवनमें पहुँचकर उसने वहाँ अपने स्पृहणीय अतिथि देवर्षि नारदका दर्शन किया, जो पाप-तापसे रहित थे । उनका तेज प्रज्वलित अनिके समान जान पड़ता था, वे शरीरसे सूर्यके समान दीप्तिमान् दिखायी देते थे । कंसने देवर्षिको प्रणाम करके उनका विधिपूर्वक पूजन किया ॥ ३-५ ॥

आसनं चाग्निवर्णाभं विसृज्योपजहार सः ।
निषसादासने तस्मिन् स वै शक्रसखो मुनिः ॥ ६ ॥
उसने उनके लिये अग्निके समान कान्तिमान् सुवर्णमय आसन देकर क्रमश: अर्घ्य, पाद्य आदि उपहार प्रस्तुत किये । तत्पश्चात् इन्द्रके सखा नारद मुनि उस आसनपर बैठे ॥ ६ ॥

उवाच चोग्रसेनस्य सुतं परमकोपनम् ।
पूजितोऽहं त्वया वीर विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ ७ ॥
गते त्वेवं मम वचः श्रूयतां गृह्यतां त्वया ।
अनुसृत्य दिवोलोकानहं ब्रह्मपुरोगमान् ॥ ८ ॥
गतः सूर्यसखं तात विपुलं मेरुपर्वतम् ।
सनन्दवनं चैव दृष्ट्‍वा चैत्ररथं वनम् ॥ ९ ॥
आप्लुतं सर्वतीर्थेषु सरित्सु सह दैवतैः ।
दिव्या त्रिधारा दृष्टा मे पुण्या त्रिपथगा नदी ॥ १० ॥
स्मरणादेव सर्वेषामंहसां या विभेदिनी ।
उपस्पृष्टं च तीर्थेषु दिव्येषु च यथाक्रमम् ॥ ११ ॥
दृष्टं मे ब्रह्मसदनं ब्रह्मर्षिगणसेवितम् ।
देवगन्धर्वनिर्घोषैरप्सरोभिश्च नादितम् ॥ १२ ॥
बैठनेके बाद वे परम क्रोधी उग्रसेनपुत्र कंससे बोले-'वीर ! तुमने मेरा शास्त्रीय विधिसे पूजन किया है, इसलिये मैं तुम्हें एक आवश्यक बात बताता हूँ, तुम मेरे उस वचनको सुनो और ग्रहण करो । तात ! मैं ब्रह्मलोक आदि सभी स्वर्गीय लोकोंमें घूमता हुआ उस विशाल मेरुपर्वतपर जा पहुँचा, जो सूर्यदेवका सखा है । फिर नन्दनवन और चैत्ररथवनका दर्शन करके मैंने देवताओंके साथ सम्पूर्ण तीर्थों और सरिताओंमें स्नान किया । उसके बाद तीन धाराओंमें बँटी हुई दिव्य त्रिपथगा नदी पुण्यसलिला गङ्गाका दर्शन किया, जो स्मरणमात्रसे ही समस्त पापोंका विनाश कर देनेवाली हैं । तत्पश्चात् क्रमशः दिव्य तीर्थोंमें स्रान एवं आचमन करके मैंने ब्रह्मर्षियोंसे सेवित ब्रह्माजीके भवनका दर्शन किया, जो देव-गन्धवोंके वाद्यघोषसे गूंजता और अप्सराओंके मधुर गीतोंसे निनादित होता रहता है ॥ ७-१२ ॥

सोऽहं कदाचित् देवानां समाजे मेरुमूर्धनि ।
संगृह्य वीणा संसक्तामगच्छं ब्रह्मणः सभाम् ॥ १३ ॥
वहाँसे होकर मैं किसी समय हाथमें वीणा लिये मेरुके शिखरपर विराजमान ब्रह्माजीकी सभामें गया, जहाँ देवताओंका समाज जुटा हुआ था ॥ १३ ॥

सोऽहं तत्रसितोष्णीषान् नानारत्‍नविभूषितान् ।
दिव्यासनगतान् देवानपश्यं सपितामहान् ॥ १४ ॥
वहाँ मैंने देखा कि श्वेत पगड़ी धारण किये नाना रनोंसे विभूषित ब्रह्मा आदि सभी देवता दिव्य सिंहासनपर बैठे हुए हैं ॥ १४ ॥

तत्र मन्त्रयतामेवं देवतानां मया श्रुतः ।
भवतः सानुगस्यैव वधोपायः सुदारुणः ॥ १५ ॥
उस सभामें देवताओंकी जो गुप्त मन्त्रणा हो रही थी, उसमें मैंने सुना कि सेवकोंसहित तुम्हारे वधके अत्यन्त दारुण उपायका ही विचार हो रहा है ॥ १५ ॥

तत्रैषा देवकी या ते मथुरायां लघुस्वसा ।
योऽस्यां गर्भोऽष्टमः कंस स ते मृत्युर्भविष्यति ॥ १६ ॥
कंस ! वहाँ जो कुछ मैंने सुना है, उसके अनुसार मथुरामें जो तुम्हारी यह छोटी बहिन देवकी है, इसका आठवाँ गर्भ तुम्हारे लिये मृत्युरूप होगा ॥ १६ ॥

देवानां स तु सर्वस्वं त्रिदिवस्य गतिश्च सः ।
परं रहस्यं देवानां स ते मृत्युर्भविष्यति ॥ १७ ॥
वह गर्भ देवताओंका सर्वस्व तथा स्वर्ग-लोकका आश्रय होगा । वह देवताओंका परम गोपनीय रहस्य है । वही तुम्हारी मृत्युका कारण होगा' ॥ १७ ॥

परश्चैवापरस्तेषां स्वयम्भूश्च दिवौकसाम् ।
ततस्ते तन्महद्‍भूतं दिव्यं च कथयाम्यहम् ॥ १८ ॥
'वही देवताओंका पर और अपर (मोक्ष और स्वर्ग) है । वही उन स्वर्गवासियोंका स्वयम्भू ब्रह्मा है । इसीलिये मैं तुमसे कहता हूँ कि वह महान् दिव्य भूत है ॥ १८ ॥

श्लाघ्यश्च स हि ते मृत्युर्भूतपूर्वश्च तं स्मर ।
यत्‍नश्च क्रियतां कंस एवक्या गर्भकृन्तने ॥ १९ ॥
कंस ! वही पहले भी तुम्हारी मृत्यु रहा है और इस समय भी तुम्हारे लिये प्रशंसनीय मृत्युरूप होगा, अतः तुम देवकीके गर्भका उच्छेद करनेके लिये प्रयत्न करो ॥ १९ ॥

एषा मे द्वद्‌गता प्रीतिर्यदर्थं चाहमागतः ।
भुज्यन्तां सर्वकामार्थाः स्वस्ति तेऽस्तु व्रजाम्यहम् ॥ २० ॥
यह मेरा तुम्हारे ऊपर प्रेम है, जिसके लिये मैं यहाँतक आया हूँ । अच्छा, अब तुम सम्पूर्ण मनोवाञ्छित भोगोंका उपभोग करो, तुम्हारा कल्याण हो, मैं जाता हूँ' ॥ २० ॥

इत्युक्त्वा नारदे याते तस्य वाक्यं विचिन्तयन् ।
जहासोच्चैस्ततः कंसः प्रकाशदशनश्चिरम् ॥ २१ ॥
ऐसा कहकर जब नारदजी चले गये, तब कंस बहुत देरतक उनकी बातोंपर विचार करता रहा; फिर वह दाँत दिखाकर जोर-जोरसे अट्टहास करने लगा ॥ २१ ॥

प्रोवाच सस्मितं चैव भृत्वानामग्रतः स्थितः ।
हास्यः खलु स सर्वेषु नारदो न विशारदः ॥ २२ ॥
और अपने सेवकोंके सामने खड़ा हो मुसकराकर बोला-'यह नारदमुनि सर्वसाधारणमें उपहासके ही पात्र हैं, विशेष चतुर नहीं हैं ॥ २२ ॥

नाहं भीषयितुं शक्यो देवैरपि सवासवैः ।
आसनस्य शयानो वा प्रमत्तो मत्त एव च ॥ २३ ॥
मैं बैठा अथवा सोया रहूँ, असावधान या मतवाला होऊँ, किसी भी दशामें इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी मुझे डरा नहीं सकते ॥ २३ ॥

योऽहं दोर्भ्यामुदाराभ्यां क्षोभयेयं धरामिमाम् ।
कोऽस्ति मां मानुषे लोके यः क्षोभयितुमुत्सहेत् ॥ २४ ॥
मैं अपनी दोनों विशाल भुजाओंसे इस धरातलको क्षुब्ध कर सकता हूँ । मनुष्यलोकमें कौन ऐसा पुरुष है, जो मुझे क्षोभमें डालनेका साहस कर सके ॥ २४ ॥

अद्यप्रभृति देवानामेष देवानुवर्तिनाम् ।
नृपक्षिपशुसंघानां करोमि कदनं महत् ॥ २५ ॥
यह लो, आजसे मैं देवताओं तथा उनका अनुसरण करनेवाले मनुष्यों, पक्षियों और पशुसमूहोंका महान् संहार करूँगा ॥ २५ ॥

आज्ञाप्यतां हयः केशी प्रलम्बो धेनुकस्तथा ।
अरिष्टो वृषभश्चैव पूतना कालियस्तथा ॥ २६ ॥
अटध्वं पृथिवीं कृत्स्नां यथेष्टं कामरूपिणः ।
प्रहरध्वं च सर्वेषु येऽस्माकं पक्षदूषकाः ॥ २७ ॥
अश्वरूपधारी केशी, प्रलम्ब, धेनुक, वृषभरूपधारी अरिए, पूतना और कालियनागको आज्ञा दे दो कि तुम सब लोग इच्छानुसार रूप धारण करके सारी पृथ्वीपर अपनी मौजसे घूमो और जो हमारे पक्षकी निन्दा करनेवाले हों, उन सबपर प्रहार करो ॥ २६-२७ ॥

गर्भस्थानामपि गतिर्विज्ञेया चैव देहिनाम् ।
नारदेन हि गर्भेभ्यो भय नः समुदाहृतम् ॥ २८ ॥
जो प्राणी गर्भमें निवास करते हों, उनका भी पता लगा लेना चाहिये; क्योंकि नारदजीने मेरे लिये गर्भोसे ही भय बताया है ॥ २८ ॥

भवन्तो हि यथाकामं मोदन्तां विगतज्वराः ।
मां च वो नाथमाश्रित्य नास्ति देवकृतं भयम् ॥ २९ ॥
तुमलोग निश्चिन्त होकर इच्छानुसार आनन्द भोगो । मैं तुम्हारा स्वामी और संरक्षक हूँ । मेरा आश्रय लेकर तुम्हें देवताओंकी ओरसे कोई भय नहीं है ॥ २९ ॥

स तु केलिकिलो विप्रो भेदशीलश्च नारदः ।
सुश्लिष्टानपि लोकेऽस्मिन् भेदयँल्लभते रतिम् ॥ ३० ॥
नारद बाबा तो युद्ध करानेका ही खेल खेलते हैं । लोगोंमें फूट डाल देना उनका स्वभाव है । इस संसारमें जो लोग बड़े नेहसे भलीभाँति मिल-जुलकर रहते हैं, उनमें भी फूट डालनेमें इन्हें आनन्द आता है' ॥ ३० ॥

कण्डूयमानः सततं लोकानटति चञ्चलः ।
घटमानो नरेन्द्राणां तन्त्रैवराणि चैव हि ॥ ३१ ॥
'ये बड़े चञ्चल हैं और लोगोंमें सदा संघर्ष पैदा करते हुए घूमते रहते हैं । विभिन्न उपायोंद्वारा राजाओंमें वैर बढ़ा देनेके लिये ये सर्वदा सचेष्ट रहते हैं' ॥ ३१ ॥

एवं स विलपन्नेव वाङ्‌‍मात्रेणैव केवलम् ।
विवेश कंसो भवनं दह्यमानेन चेतसा ॥ ३२ ॥
इस प्रकार केवल वाणीमात्रसे प्रलाप करता हुआ कंस अपने भवनमें चला गया । उस समय उसका चित्त चिन्ताकी आगमें जल रहा था ॥ ३२ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि
नारदागमने कंसवाक्ये प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्ष नारदजीका आगमन तथा कंसका वाक्यविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥




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