श्रीहरिवंशपुराण विष्णुपर्व द्वितीयोऽध्यायः
कंससंकेतः आर्यानुशासनं च
कंसद्वारा देवकीके गर्भके विनाशका प्रयत्न, भगवान् विष्णुका पाताललोकमें स्थित 'षड्गर्भ' नामक दैत्योंके जीवोंका आकर्षण करके उन्हें निद्रा देवीके हाथमें देना और देवकीके गर्भमें क्रमश: स्थापित करनेका आदेश देकर अन्य कर्तव्य बताना तथा कार्यसाधनके अनन्तर बढ़नेवाली उस देवीकी महिमाका उल्लेख -
वैशंपायन उवाच सोऽज्ञापयत संरब्धः सचिवानात्मनो हि तान् । यत्ता भवत सर्वे वै देवक्या गर्भकृन्तने ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! क्रोधमें भरे हुए कंसने अपने हितैषी मन्त्रियोंको आज्ञा दी कि तुम सब लोग देवकीके गर्भका उच्छेद करनेके लिये उद्यत हो जाओ ॥ १ ॥
प्रथमादेव हन्तव्या गर्भास्ते सप्त एव हि । मूलादेव तु हन्तव्यः सोऽनर्थो यत्र संशयः ॥ २ ॥
पहले गर्भसे ही आरम्भ करके वे सातों गर्भ नष्ट कर देने चाहिये । जहाँ संशय हो, उस अनर्थका मूलसे ही उच्छेद कर देना आवश्यक है ॥ २ ॥
देवकी च गृहे गुप्ता प्रच्छन्नैरभिरक्षिता । स्वैरं चरतु विश्रब्धा गर्भकाले तु रक्ष्यताम् ॥ ३ ॥
देवकी अपने भवनमें गुप्त रक्षकोंद्वारा सुरक्षित रहकर अपनी इच्छाके अनुसार निर्भय विचरे; परंतु जब वह गर्भवती हो जाय, उस समय उसे विशेष नियन्त्रणमें रखना चाहिये ॥ ३ ॥
मासान् वै पुष्पमासादीन् गणयन्तु मम स्त्रियः । परिणामे तु गर्भस्य शेषं ज्ञास्यामहे वयम् ॥ ४ ॥
मेरी स्त्रियाँ रजस्वलावस्थासे ही आरम्भ करके उसके गर्भधारणके मासोंकी गणना करती रहें । जब गर्भके परिपक्व होकर प्रकट होनेका समय आ जाय, तबसे जो शेष कृत्य है, उसे हमलोग स्वयं ही समझ लेंगे ॥ ४ ॥
वसुदेवस्तु संरक्ष्यः स्त्रीसनाथासु भूमिषु । अप्रमत्तैर्मम हितै रात्रावहनि चैव हि । स्त्रीभिर्वर्षवरैश्चैव वक्तव्यं न तु कारणम् ॥ ५ ॥
मेरे हितैषी सेवक रात-दिन सावधान रहकर स्त्रियोंसे सनाथ अन्तःपुरमें वसुदेवजीकी भलीभाँति रक्षा (देखभाल) करें । स्त्रियाँ और हिंजड़े भी उनपर कड़ी दृष्टि रखें, परंतु इसका कारण उन्हें नहीं बताना चाहिये ॥ ५ ॥
एष मानुष्यको यत्नो मानुषैरेव साध्यते । श्रूयतां येन दैवं हि मद्विधैः प्रतिहन्यते ॥ ६ ॥
मनुष्योंद्वारा किया जानेवाला यह उपाय उन्हींसे साध्य हो सकता है, परंतु मेरे-जैसे शक्तिशाली पुरुष जिस उपायसे दैवको भी प्रतिहत (निष्फल) कर देते हैं, उसे सुनो ॥ ६ ॥
मन्त्रग्रामैः सुविहितैरौषधैश्च सुयोजितैः । यत्नेन चानुकूलेन दैवमप्यनुलोम्यते ॥ ७ ॥
भलीभीत किये हुए मन्त्रसमूहोंके जप, अच्छी तरह उपयोगमें लाये हुए औषधोंके सेवन तथा अनुकूल प्रयत्नसे दैवको भी अपने अनुकूल बना लिया जाता है ॥ ७ ॥
वैशंपायन उवाच एवं स यत्नवान् कंसो देवकीगर्भकृन्तने । भयेन मन्त्रयामास श्रुतार्थो नारदात् स वै ॥ ८ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! इस प्रकार कंस देवकीके गर्भका विनाश करनेके यत्नमें लग गया । नारदजीसे सारी बातें वह सुन चुका था, इसलिये भयसे प्रेरित होकर अपनी रक्षाके लिये मन्त्रियोंके साथ मन्त्रणा करने लगा ॥ ८ ॥
एवं श्रुत्वा प्रयत्नं वै कंसस्यारिष्टसंज्ञितम् । अन्तर्धानं गतो विष्णूश्चिन्तयामास वीर्यवान् ॥ ९ ॥
कंसका सारा प्रयत्न जगत्के लिये उत्पातरूप ही था, उसे सुनकर अदृश्यभावसे वहाँ स्थित हुए परम पराक्रमी भगवान् विष्णुने इस प्रकार विचार किया- ॥ ९ ॥
सप्तेमान् देवकीगर्भान् भोजपुत्रो वधिष्यति । अष्टमे च मया गर्भे कार्यमाधानमात्मनः ॥ १० ॥
'भोजकुमार कंस देवकीके इन सात गौंको मार डालेगा । अथवा आठवें गर्भमें मुझे अपने स्वरूपका आधान करना चाहिये' ॥ १० ॥
तस्य चिन्तयतस्त्वेवं पातालमगमन्मनः । यत्र ते गर्भशयनाः शड्गर्भा नाम दानवाः ॥ ११ ॥
इस प्रकार सोचते हुए भगवान्का मन सहसा पातालकी ओर गया, जहाँ वे गर्भमें शयन करनेवाले षड्गर्भ नामक दानव विद्यमान थे ॥ ११ ॥
विक्रान्तवपुषो दीप्तास्तेऽमृतप्राशनोपमाः । अमरप्रतिमा युद्धे पुत्रा वै कालनेमिनः ॥ १२ ॥
उनके शरीर बल-विक्रमसे सम्पन्न थे । वे अमृतभोजी देवताओंके समान तेजस्वी थे और युद्धमें देवताओंके तुल्य पराक्रम प्रकट करते थे । वे सब-के-सब कालनेमि नामक दैत्यके पुत्र थे ॥ १२ ॥
ते ताततातं संत्यज्य हिरण्यकशिपुं पुरा । उपासांचक्रिरे दैत्याः पुरा लोकपितामहम् ॥ १३ ॥
पहलेकी बात है, वे दैत्य अपने पिताके भी पिता हिरण्यकशिपुको छोड़कर लोकपितामह ब्रह्माजीकी उपासना करने लगे ॥ १३ ॥
तप्यमानास्तपस्तीव्रं जटामण्डलधारिणः । तेषां प्रीतोऽभवद् ब्रह्मा षड्गर्भाणां वरं ददौ ॥ १४ ॥
सिरपर जटाका भार धारण किये वे तीन तपस्यामें लग गये । तब ब्रह्माजी उन 'घगर्भ' नामक दैत्योंपर प्रसन्न हो गये और उन्हें वर देने लगे ॥ १४ ॥
ब्रह्मोवाच भो भो दानवशार्दूलास्तपसाहं सुतोषितः । ब्रूत वो यस्य यः कामस्तस्य तं तं करोम्यहम् ॥ १५ ॥
ब्रह्माजीने कहा-दानवकुलमें सिंहके समान पराक्रमी वीरो ! मैं तुम्हारी तपस्यासे बहुत संतुष्ट हूँ । तुममेंसे जिसे जिस वस्तुकी इच्छा हो, उसे बताओ मैं वह सब पूर्ण करूँगा ॥ १५ ॥
ते तु सर्वे समानार्था दैत्या ब्रह्माणमब्रुवन् । यदि नो भगवान् प्रीतो दीयतां नो वरो वरः ॥ १६ ॥
उन सब दैत्योंका प्रयोजन या मनोरथ एक-सा ही था । वे ब्रह्माजीसे बोले-'भगवन् ! यदि आप हमपर प्रसन्न हों तो हमें यह श्रेष्ठ वर दीजिये ॥ १६ ॥
अवध्याः स्याम भगवन् देवतैः समहोरगैः । शापप्रहरणैश्चैवं स्वस्ति नोऽस्तु महर्षिभिः ॥ १७ ॥
भगवन् ! हम देवताओं तथा बड़े-बड़े नागोंसे भी अवध्य हों । जो शापद्वारा प्रहार करनेवाले हैं, उन महर्षियोंसे भी हमारा सदा कल्याण ही हो ॥ १७ ॥
यक्षगन्धर्वपतिभिः सिद्धचारणमानवैः । मा भूद् वधो नो भगवन् ददासि यदि नो वरम् ॥ १८ ॥
भगवन् ! यदि आप हमें वर दे रहे हैं तो यक्ष, गन्धर्वपति, सिद्ध, चारण तथा मनुष्योंद्वारा हमारा वध न हो' ॥ १८ ॥
तानुवाच ततो ब्रह्मा सुप्रीतेनान्तरात्मना । भवद्भिर्यदिदं प्रोक्तं सर्वमेतद् भविष्यति ॥ १९ ॥
तब ब्रह्माजीने उनके प्रति अत्यन्त प्रसन्नचित्तसे कहा-'तुमलोगोंने यह जो कुछ कहा है, वह सब पूरा होगा' ॥ १९ ॥
षड्गर्भाणां वरं दत्वा स्वयंभूस्त्रिदिवं गतः । ततो हिरण्यकशिपुः सरोषो वाक्यमब्रवीत् ॥ २० ॥
'उन 'षड्गर्भ' नामवाले दैत्योंको इस प्रकार वर देकर स्वयम्भू ब्रह्माजी ब्रह्मलोकको चले गये । उधर हिरण्यकशिपुने रोषमें भरकर उनसे कहा- ॥ २० ॥
मामुत्सृज्य वरो यस्माद् धृतो वः पद्मसम्भवात् । तस्माद् वस्त्याजितः स्नेहः शत्रुभूतांस्त्यजाम्यहम् ॥ २१ ॥
अरे ! तुमने मुझे छोड़कर कमलयोनि ब्रह्माजीसे वर ग्रहण किया है । अतः अपने प्रति मेरे स्रेहका त्याग करा दिया । अब तुमलोग मेरे शत्रुभूत हो, इसलिये तुम्हें त्याग देता हूँ ॥ २१ ॥
षड्गर्भा इति योऽयं वः शब्दः पित्राभिवर्धितः । स एव वो गर्भगतान् पिता सर्वान् वधिष्यति ॥ २२ ॥
जिस पिताने तुम्हें 'षड्गर्भ' नाम दिया और पाल-पोसकर बड़ा किया है, वही गर्भमें स्थित होनेपर तुम सब लोगोंका वध कर डालेगा ॥ २२ ॥
षडेव देवकीगर्भाः शड्गर्भा वै महासुराः । भविष्यथ ततः कंसो गर्भस्थान् वो वधिष्यति ॥ २३ ॥
तुम छहों 'घगर्भ' नामक महान् असुर देवकीके गर्भमें स्थित होओगे । तब कंस (जो तुम्हारे पिता कालनेमिका ही स्वरूप होगा) तुम गर्भस्थ बालकोंका वध कर डालेगा ॥ २३ ॥
वैशंपायन उवाच जगामाथ ततो विष्णुः पातालं यत्र तेऽसुराः । षड्गर्भाः संयताः सन्ति जले गर्भगृहेशयाः ॥ २४ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! उनकी याद आते ही भगवान् विष्णु पाताललोकमें गये, जहाँ वे 'षड्गर्भ' नामक असुर संयमनिष्ठ होकर जलके भीतर गर्भगृहमें शयन करते थे ॥ २४ ॥
संददर्श जले सुप्तान् षड्गर्भान् गर्भसंस्थितान् । निद्रया कालरूपिण्या सर्वानन्तर्हितान् स वै ॥ २५ ॥
उन्होंने देखा, सब 'षगर्भ' नामक दैत्य कालरूपिणी निद्रासे तिरोहित होकर जलके भीतर गर्भगृहमें सो रहे हैं ॥ २५ ॥
स्वप्नरूपेण तेषां वै विष्णुर्देहानथाविशत् । प्राणेश्वरांश्च निष्कृष्य निद्रायै प्रददौ तदा ॥ २६ ॥
तब भगवान् विष्णु स्वप्ररूपसे उनके शरीरोंमें प्रविष्ट हुए और उनके जीवोंको खींचकर उन्होंने निद्राकी अधिष्ठात्री देवीके हाथमें दे दिया ॥ २६ ॥
तां चोवाच ततो निद्रां विष्णुः सत्यपराक्रमः । गच्छ निद्रे मयोत्सृष्टा देवकीभवनान्तिकम् ॥ २७ ॥ इमान् प्राणेश्वरान् गृह्य षड्गर्भान् दानवोत्तमान् । षड्गर्भान् देवकीगर्भे योजयस्व यथाक्रमम् ॥ २८ ॥
तत्पश्चात् सत्यपराक्रमी भगवान् विष्णु उस निद्रासे बोले-'निद्रे ! तुम मेरी प्रेरणासे इन जीवोंको लेकर देवकीके घरके निकट जाओ । ये सब-के-सब 'षड्गर्भ' नामवाले श्रेष्ठ दानव हैं । इन सब पगभौंको क्रमश: देवकीके गर्भ में स्थापित करती रहो ॥ २७-२८ ॥
जातेष्वेतेषु गर्भेषु नीतेषु च यमक्षयम् । कंसस्य विफले यत्ने देवक्याः सफले श्रमे ॥ २९ ॥ प्रसादं ते करिष्यामि मत्प्रभावसमं भुवि । येन सर्वस्य लोकस्य देवि देवी भविष्यसि ॥ ३० ॥
जब ये गर्भ जन्म लेकर कंसद्वारा यमलोक पहुंचा दिये जायेंगे, जब कंसका प्रयत्न निष्फल और देवकीका परिश्रम सफल हो जायगा, तब मैं तुमपर विशेष कृपा करूँगा । देवि ! उस समयसे भूतलपर तुम्हारा प्रभाव मेरे प्रभावके समान ही हो जायगा, जिससे तुम सम्पूर्ण जगत्की आराध्या देवी बन जाओगी ॥ २९-३० ॥
सप्तमो देवकीगर्भो योंऽशः सौम्यो ममाग्रजः । स संक्रामयितव्यस्ते सप्तमे मासि रोहिणीम् ॥ ३१ ॥
देवकीका जो सातवाँ गर्भ होगा, वह मेरा ही सौम्य अंश होगा और मुझसे पहले अवतीर्ण होनेके कारण मेरा बड़ा भाई होगा । वह गर्भ जब सात महीनेका हो जाय, तब उस सातवें मासमें ही तुम उसे खींचकर रोहिणीदेवीके गर्भमें स्थापित कर देना ॥ ३१ ॥
संकर्षणात्तु गर्भस्य स तु संकर्षणो युवा । भविष्यत्यग्रजो भ्राता मम शीतांशुदर्शनः ॥ ३२ ॥
गर्भका संकर्षण होनेसे वह तरुण वीर 'संकर्षण' नामसे प्रसिद्ध होगा, चन्द्रमाके समान गौरवर्णसे सुशोभित दिखायी देगा तथा वह मेरा बड़ा भाई होगा ॥ ३२ ॥
पतितो देवकीगर्भः सप्तमोऽयं भयादिति । अष्टमे मयि गर्भस्थे कंसो यत्नं करिष्यति ॥ ३३ ॥
'उस समय लोग यही कहेंगे कि 'देवकीका सातवाँ गर्भ कंसके भयसे गिर गया । ' आठवें शिशुके रूपमें जब मैं गर्भमें आऊँगा, तब कंस मुझे भी मारनेका प्रयास करेगा ॥ ३३ ॥
या तु सा नन्दगोपस्य दयिता भुवि विश्रुता । यशोदा नाम भद्रं ते भार्या गोपकुलोद्वहा ॥ ३४ ॥
देवि ! तुम्हारा भला हो, इस समय भूतलपर 'यशोदा' नामसे विख्यात जो नन्दगोपकी प्यारी पत्नी हैं, वे गोपकुलकी स्वामिनी हैं ॥ ३४ ॥
तस्यास्त्वं नवमो गर्भः कुलेऽस्माकं भविष्यसि । नवम्यामेव संजाता कृष्णपक्षस्य वै तिथौ ॥ ३५ ॥
तुम उन्हींके नवम' गर्भके रूपमें हमारे कुलमें उत्पन्न होओगी । भाद्रपद कृष्णपक्षकी नवमी तिथिको ही तुम्हारा जन्म होगा ॥ ३५ ॥
अहं त्वभिजितो योगे निशायां यौवने स्थिते । अर्धरात्रे करिष्यामि गर्भमोक्षं यथासुखम् ॥ ३६ ॥
जब रात्रि युवावस्थामें स्थित होगी, उस आधी रातके समय अभिजित् मुहूर्तके योगमें मैं सुखपूर्वक गर्भवासका त्याग करूँगा (अर्थात् माताके उदरसे बाहर निकल आऊँगा) ॥ ३६ ॥
अष्टमस्य तु मासस्य जातावावां ततः समम् । प्राप्स्यावो गर्भव्यत्यासं प्राप्ते कंसस्य नाशने ॥ ३७ ॥
हम दोनों भाई-बहिन गर्भके आठवें महीनेमें जन्म लेंगे । फिर कंसके भावी विनाशका कारण प्राप्त होनेपर हम दोनों साथ ही गर्भव्यत्यासको प्राप्त होंगे (बदल दिये जायेंगे) ॥ ३७ ॥
अहं यशोदां यास्यामि त्वं देवि भज देवकीम् । आवयोर्गर्भसंयोगे कंसो गच्छतु मूढताम् ॥ ३८ ॥
देवि ! मैं तो यशोदा माताके पास पहुँच जाऊँगा और तुम देवकीका आश्रय लेना । हम दोनोंके परिवर्तित गर्भसंयोगके विषयमें कंस मूढभावको ही प्राप्त हो (वह इस अदला-बदलीके रहस्यसे अनभिज्ञ ही रहे) ॥ ३८ ॥
ततस्त्वां गृह्य चरणे शिलायां पातयिष्यति । निरस्यमाना गगने स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥ ३९ ॥
तदनन्तर कंस तुम्हारे पैर पकड़कर तुम्हें शिलापर पटक देगा. परंतु तुम उसके हाथसे निकलकर आकाशमें शाश्वत स्थान प्राप्त कर लोगी ॥ ३९ ॥
मच्छवीसदृशी कृष्णा संकर्षणसमानना । बिब्रती विपुलौ बाहू मम बाहूपमौ दिवि ॥ ४० ॥
तुम्हारी अङ्ग-कान्ति मेरी ही छविके समान श्याम होगी, परंतु मुख भैया संकर्षणके समान गौर होगा । तुम आकाशमें मेरी ही भुजाओंके समान दोनों ओर दो-दो हष्ट-पुष्ट विशाल बाहें धारण करोगी ॥ ४० ॥
त्रिशिखं शूलमुद्यम्य खड्गं च कनकत्सरुम् । पात्रीं च पूर्णां मधुना पङ्कजं च सुनिर्मलम् ॥ ४१ ॥
चार भुजाओंमें तीन शिखाओंसे युक्त शूल (त्रिशूल), सोनेकी मूठ लगी हुई तलवार, मधुसे भरा हुआ पात्र तथा अत्यन्त निर्मल कमल धारण करके सुशोभित होओगी ॥ ४१ ॥
नीलकौशेयसंवीता पीतेनोत्तरवाससा । शशिरश्मिप्रकाशेन हारेणोरसि राजता ॥ ४२
तुम्हारे श्रीअङ्गमें नीले रंगकी रेशमी साड़ी शोभा पायेगी और तुम रेशमी पीताम्बरकी चादर ओढ़े रहोगी । तुम्हारे वक्षःस्थलमें चन्द्रमाकी किरणोंके समान प्रकाशमान श्वेत हार शोभा दे रहा होगा ॥ ४२ ॥
दिव्यकुण्डलपूर्णाभ्यां श्रवणाभ्यां विभूषिता । चन्द्रसापत्नभूतेन मुखेन त्वं विराजिता ॥ ४३ ॥
दिव्य कुण्डलोंसे मण्डित कर्णयुगल तुम्हें विभूषित करेंगे और चन्द्रमाकी भी शोभाको छीन लेनेवाले अपने मनोरम मुखसे तुम अत्यन्त शोभायमान होओगी' ॥ ४३ ॥
मुकुटेन विचित्रेण केशबन्धेन शोभिना । भुजङ्गाभैर्भुजैर्भीमैर्भूषयन्ती दिशो दश ॥ ४४ ॥
'तुम्हारे मस्तकपर विचित्र मुकुट और शोभाशाली केशबन्ध फबते होंगे । भुजङ्गोंकी-सी आभावाली अपनी भयानक भुजाओंसे तुम दसों दिशाओंकी शोभा बढ़ाओगी ॥ ४४ ॥
ध्वजेन शिखिबर्हेण उच्छ्रितेन विराजिता । अङ्गजेन मयूराणामङ्गदेन च भास्वता ॥ ४५ ॥
मोरपंखसे विभूषित ऊँचे ध्वज तथा मयूरपिच्छके ही बने हुए प्रकाशमान अङ्गद (भुजबंद)से तुम प्रकाशित होओगी ॥ ४५ ॥
कीर्णा भूतगणैर्घोरैर्मन्नियोगानुवर्तिनी । कौमारं व्रतमास्थाय त्रिदिवं त्वं गमिष्यसि ॥ ४६ ॥
भयंकर भूतगणोंसे धिरकर मेरी आज्ञाके अधीन रहती हुई तुम सदा कुमारी रहनेका व्रत लेकर स्वर्गलोकको चली जाओगी ॥ ४६ ॥
तत्र त्वां शतदृक्छक्रो मत्प्रदिष्टेन कर्मणा । अभिषेकेण दिव्येन देवतैः सह योक्ष्यसे ॥ ४७ ॥
वहाँ देवताओंसहित सहस्र नेत्रधारी इन्द्र मेरी आज्ञाके अनुसार सब कार्योंका सम्पादन करनेके कारण (अथवा मेरी बतायी हुई पद्धतिके अनुसार) तुम्हारा दिव्य विधिसे अभिषेक करेंगे ॥ ४७ ॥
तत्रैव त्वां भगिन्यर्थे ग्रहीष्यति स वासवः । कुशिकस्य तु गोत्रेण कौशिकी त्वं भविष्यसि ॥ ४८ ॥
वहीं इन्द्र अपनी बहिन बनानेके लिये तुम्हें सादर ग्रहण करेंगे । कुशिकके गोत्रसे सम्बन्ध होनेके कारण तुम कौशिकी' नामसे प्रसिद्ध होओगी ॥ ४८ ॥
स ते विन्ध्ये नगश्रेष्ठे स्थानं दास्यति शाश्वतम् । ततः स्थानसहस्रैस्त्वं पृथिवीं शोभयिष्यसि ॥ ४९ ॥
वे देवराज इन्द्र पर्वतोंमें श्रेष्ठ विन्ध्यगिरिपर तुम्हें शाश्वत स्थान प्रदान करेंगे । तत्पश्चात् तुम अपने सहस्रों स्थानोंद्वारा सारी पृथ्वीको सुशोभित करोगी ॥ ४९ ॥
त्रैलोक्यचारिणी सा त्वं भुवि सत्योपयाचना । चरिष्यसि महाभागे वरदा कामरूपिणी ॥ ५० ॥
महाभागे ! तुम इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली और वरदायिनी होकर तीनों लोकोंमें विचरोगी तथा तुमसे की हुई उपयाचना (मनौती) अवश्य सफल होगी ॥ ५० ॥
तत्र शुम्भनिशुम्भौ द्वौ दानवौ नगचारिणौ । तौ च कृत्वा मनसि मां सानुगौ नाशयिष्यसि ॥ ५१ ॥
वहाँ मुझे मनमें स्थान देकर तुम विन्ध्यपर्वतपर विचरनेवाले शुम्भ और निशुम्भ नामक दानवोंको उनके अनुयायियोंसहित नष्ट कर डालोगी ॥ ५१ ॥
कृत्वानुयात्रां भूतैस्त्वं सुरामांसबलिप्रिया । तिथौ नवंयां पूजां त्वं प्राप्स्यसे सपशुक्रियाम् ॥ ५२ ॥
वहाँ तुम्हें मधुयुक्त एवं मांसरहित बलि (उपहार-सामग्री) प्रिय होगी और सब लोग बारम्बार तुम्हारे तीर्थकी यात्रा करके नवमी तिथिको पशुपूजन कर्मके साथ तुम्हें पूजा देंगे, जिसे तुम प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करोगी ॥ ५२ ॥
ये च त्वां मत्प्रभावज्ञाः प्रणमिष्यन्ति मानवाः । तेषां न दुर्लभं किंचित् पुत्रतो धनतोऽपि वा ॥ ५३ ॥
मेरे प्रभावको जाननेवाले जो मनुष्य तुम्हें प्रणाम करेंगे, उनके लिये पुत्र अथवा धन आदि कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं होगी ॥ ५३ ॥
कान्तारेष्ववसन्नानां मग्नानां च महार्णवे । दस्युभिर्वा निरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम् ॥ ५४ ॥
कोई दुर्गम स्थानमें फंस जाय, महासागरमें डूबने लगें अथवा लुटेरों या डाकुओंके द्वारा कैद कर लिये जाय, उन सभी संकटग्रस्त मनुष्योंके लिये तुम सबसे बड़ा सहारा होओगी ॥ ५४ ॥
त्वां तु स्तोष्यन्ति ये भक्त्या स्तवेनानेन वै शुभे । तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ ५५ ॥
शुभे ! जो लोग भक्तिपूर्वक इस (आगे बताये जानेवाले) स्तोत्रसे तुम्हारी स्तुति करेंगे, उनके लिये न तो मैं अदृश्य रहूँगा और न वे ही मेरी दृष्टिसे ओझल रहेंगे' ॥ ५५ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि भारावतरणे निद्रासंविज्ञाने द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अनार्णत विष्णुपर्वमें पृथ्वीके भारको उतारने के प्रसंगमें भगवानद्वारा निद्राको कर्तव्यका ज्ञापनविषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥
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