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श्रीहरिवंशपुराण
विष्णुपर्व
तृतीयोऽध्यायः


आर्यास्तवः
आर्याकी स्तुति -


वैशंपायन उवाच
आर्यास्तवं प्रवक्ष्यामि यथोक्तमृषिभिः पुरा ।
नारायणीं नमस्यामि देवीं त्रिभुवनेश्वरीम् ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! पूर्वकालमें जैसा ऋषियोंने बताया है, उसके अनुसार मैं आर्यादेवीकी स्तुतिका वर्णन करता हूँ । मैं तीनों लोकोंकी अधीश्वरी नारायणीदेवीको नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥

त्वं हि सिद्धिर्धृतिः कीर्तिः श्रीर्विद्या संनतिर्मतिः ।
संध्या रात्रिः प्रभा निद्रा कालरात्रिस्तथैव च ॥ २ ॥
देवि ! तुम्हीं सिद्धि, धृति, कीर्ति, श्री, विद्या, संनति, मति, संध्या, रात्रि, प्रभा, निद्रा और कालरात्रि हो ॥ २ ॥

आर्या कात्यायनी देवी कौशिकी ब्रह्मचारिणी ।
जननी सिद्धसेनस्य उग्रचारी महाबला ॥ ३ ॥
आर्या, कात्यायनी, देवी, कौशिकी. ब्रह्मचारिणी, सिद्धसेन (कुमार कार्तिकेय)-की जननी, उग्रचारिणी तथा महान् बलसे सम्पन्न हो ॥ ३ ॥

जया च विजया चैव पुष्टिस्तुष्टिः क्षमा दया ।
ज्येष्ठा यमस्य भगिनी नीलकौशेयवासिनी ॥ ४ ॥
जया, विजया, पुष्टि, तुष्टि, क्षमा, दया, यमकी ज्येष्ठ बहिन तथा नीले रंगको रेशमी साड़ी पहननेवाली हो ॥ ४ ॥

बहुरूपा विरूपा च अनेकविधिचारिणी ।
विरूपाक्षी विशालाक्षी भक्तानां परिरक्षिणी ॥ ५ ॥
तुम्हारे बहुत-से रूप हैं, इसलिये तुम बहुरूपा हो । विकराल रूप धारण करनेके कारण तुम विरूपा हो । अनेक प्रकारकी विधियोंको आचरणमें लानेवाली हो । तीन होनेके कारण तुम्हारे नेत्र विरूप प्रतीत होते हैं, इसलिये तुम विरूपाक्षी हो । तुम्हारे नेत्र बड़े-बड़े हैं, इस कारण विशालाक्षी हो । तुम सदा अपने भक्तों की रक्षा करनेवाली हो ॥ ५ ॥

पर्वताग्रेषु घोरेषु नदीषु च गुहासु च ।
वासस्ते च महादेवि वनेषूपवनेषु च ॥ ६ ॥
महादेवि ! पर्वतोंके घोर शिखरोंपर, नदियोंमें, गुफाओंमें तथा वनों और उपवनोंमें भी तुम्हारा निवास है ॥ ६ ॥

शबरैर्बर्बरैश्चैव पुलिन्दैश्च सुपूजिता ।
मयूरपिच्छध्वजिनी लोकान् क्रमसि सर्वशः ॥ ७ ॥
शबरों, बर्बरों और पुलिन्दोंने भी तुम्हारा अच्छी तरहसे पूजन किया है । तुम मोरपडकी ध्वजासे सुशोभित हो और क्रमशः सभी लोकोंमें विचरती रहती हो ॥ ७ ॥

कुक्कुटैश्छागलैर्मेषैः सिंहैर्व्याघ्रैः समाकुला ।
घण्टानिनादबहुला विन्ध्यवासिन्यभिश्रुता ॥ ८ ॥
मुगें, बकरे, भेंड़, सिंह तथा व्याघ्र आदि पशु-पक्षी तुम्हें सदा घेरे रहते हैं । तुम्हारे पास घण्टाकी ध्वनि अधिक होती है । तुम 'विन्ध्यवासिनी' नामसे विख्यात हो ॥ ८ ॥

त्रिशूलपट्टिशधरा सूर्यचन्द्रपताकिनी ।
नवमी कृष्णपक्षस्य शुक्लस्यैकादशी तथा ॥ ९ ॥
देवि ! तुम त्रिशूल और पट्टिश धारण करनेवाली हो । तुम्हारी पताकापर सूर्य और चन्द्र के चिह्न हैं । तुम प्रत्येक मासके कृष्णपक्षकी नवमी और शुक्लपक्षकी एकादशी हो ॥ ९ ॥

भगिनी बलदेवस्य रजनी कलहप्रिया ।
आवासः सर्वभूतानां निष्ठा च परमा गतिः ॥ १० ॥
बलदेवजीको बहिन हो । रात्रि तुम्हारा स्वरूप है । कलह तुम्हें प्रिय लगता है । तुम सम्पूर्ण भूतोंका आवासस्थान, मृत्यु तथा परम गति हो ॥ १० ॥

नन्दगोपसुता चैव देवानां विजयावहा ।
चीरवासाः सुवासाश्च रौद्री संध्याचरी निशा ॥ ११ ॥
तुम नन्दगोपकी पुत्री, देवताओंको विजय दिलानेवाली, चीर वस्त्रधारिणी, सुवासिनी, रौद्री, संध्याकालमें विचरनेवाली और रात्रि हो ॥ ११ ॥

प्रकीर्णकेशी मृत्युश्च सुरामांसबलिप्रिया ।
लक्ष्मीरलक्ष्मीरूपेण दानवानां वधाय च ॥ १२ ॥
तुम्हारे केश बिखरे हुए हैं । तुम्हीं प्राणियोंकी मृत्यु हो । मधुसे युक्त तथा मांससे रहित बलि तुम्हें प्रिय है । तुम्हीं लक्ष्मी हो तथा तुम्ही दानवोंका वध करनेके लिये अलक्ष्मी बन जाती हो ॥ १२ ॥

सावित्री चापि देवानां माता मन्त्रगणस्य च ।
कन्यानां ब्रह्मचर्यं त्वं सौभाग्यं प्रमदासु च ॥ १३ ॥
तुम्ही सावित्री, देवमाता अदिति तथा समस्त भूतोंकी जननी हो । कन्याओंका ब्रह्मचर्य तुम्ही हो और विवाहिता युवतियोंका सौभाग्य भी तुम्ही हो ॥ १३ ॥

अन्तर्वेदी च यज्ञानामृत्विजां चैव दक्षिणा ।
कर्षुकाणां च सीतेति भूतानां धरणीति च ॥ १४ ॥
तुम्हीं यज्ञोंकी अन्तर्वेदी तथा ऋत्विजोंकी दक्षिणा हो । किसानोंकी सीता (हल जोतनेसे उभरी हुई रेखा) तथा समस्त प्राणियोंको धारण करनेवाली धरणी भी तुम्ही हो ॥ १४ ॥

सिद्धिः सांयात्रिकाणां तु वेला त्वं सागरस्य च ।
यक्षाणां प्रथमा यक्षी नागानां सुरसेति च ॥ १५ ॥
नौका या जहाजसे यात्रा करनेवाले व्यापारियोंको प्राप्त होनेवाली सिद्धि भी तुम्ही हो । तुम्ही समुद्रकी तट-भूमि, यक्षोंकी प्रथम यक्षी (कुबेरकी माता) तथा नागोंकी जननी सुरसा हो ॥ १५ ॥

ब्रह्मवादिन्यथो दीक्षा शोभा च परमा तथा ।
ज्योतिषां त्वं प्रभा देवि नक्षत्राणां च रोहिणी ॥ १६ ॥
देवि ! तुम ब्रह्मवादिनी दीक्षा तथा परम शोभा हो । ज्योतिर्मय ग्रहों एवं तारिकाओंकी प्रभा हो तथा नक्षत्रों में रोहिणी हो ॥ १६ ॥

राजद्वारेषु तीर्थेषु नदीनां सङ्‌‌‍गमेषु च ।
पूर्णा च पूर्णिमा चन्द्रे कृत्तिवासा इति स्मृता ॥ १७ ॥
राजद्वारों, तीर्थों तथा नदियोंके संगमोंमें तुम पूर्ण लक्ष्मीरूपसे स्थित हो । तुम्हीं चन्द्रमामें पूर्णिमारूपसे विराजमान होती हो तथा तुम्हीं कृत्तिवासा हो ॥ १७ ॥

सरस्वती च वाल्मीके स्मृतिर्द्वैपायने तथा ।
ऋषीणां धर्मबुद्धिस्तु देवानां मानसी तथा ॥ १८ ॥
तुम महर्षि वाल्मीकिमें सरस्वतीरूपसे, श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासमें स्मृतिरूपसे तथा ऋषि-मुनियोंमें धर्म-बुद्धिरूपसे स्थित हो । देवताओंमें सत्यसंकल्पात्मक चित्तवृत्ति भी तुम्ही हो ॥ १८ ॥

सुरा देवी च भूतेषु स्तूयसे त्वं स्वकर्मभिः ।
इन्द्रस्य चारुदृष्टिस्त्वं सहस्रनयनेति च ॥ १९ ॥
तुम समस्त भूतोंमें सुरा देवी हो और अपने कर्मोद्वारा सदा प्रशंसित होती हो । इन्द्रकी मनोहर दृष्टि भी तुम्हीं हो; सहस्रों नेत्रोंसे युक्त होनेके कारण 'सहस्त्रनयना' नामसे तुम्हारी ख्याति है ॥ १९ ॥

तापसानां च देवी त्वमरणी चाग्निहोत्रिणाम् ।
क्षुधा च सर्वभूतानां तृप्तिस्त्वं दैवतेषु च ॥ २० ॥
तुम तपस्वी मुनियोंकी देवी हो । अग्रिहोत्र करनेवाले ब्राह्मणोंकी अरणी हो । समस्त प्राणियोंकी क्षुधा तथा देवताओंमें सदा बनी रहनेवाली तृप्ति हो ॥ २० ॥

स्वाहा तृप्तिर्धृतिर्मेधा वसूनां त्वं वसूमती ।
आशा त्वं मानुषाणां च पुष्टिश्च कृतकर्मणाम् ॥ २१ ॥
तुम्हीं स्वाहा, तृप्ति, धृति और मेधा हो । वसुओंकी वसुमती भी तुम्ही हो । तुम्हीं मनुष्योंकी आशा तथा कृतकृत्य पुरुषोंकी पुष्टि हो ॥ २१ ॥

दिशश्च विदिशश्चैव तथा ह्यग्निशिखा प्रभा ।
शकुनी पूतना त्वं च रेवती च सुदारुणा ॥ २२ ॥
तुम्हीं दिशा, विदिशा, अग्निशिखा, प्रभा, शकुनी, पूतना तथा अत्यन्त दारुण रेवती हो ॥ २२ ॥

निद्रापि सर्वभूतानां मोहिनी क्षत्रिया तथा ।
विद्यानां ब्रह्मविद्या त्वमोङ्‌‌‍कारोऽथ वषट् तथा ॥ २३ ॥
समस्त प्राणियोंको मोहमें डालनेवाली निद्रा भी तुम्ही हो । तुम क्षत्रिया हो, विद्याओंमें ब्रह्मविद्या हो तथा तुम्हीं ॐकार एवं वषट्कार हो ॥ २३ ॥

नारीणां पार्वतीं च त्वां पौराणीमृषयो विदुः ।
अरून्धती च साध्वीनां प्रजापतिवचो यथा ॥ २४ ॥
ऋषि तुम्हें नारियोंमें पुराण-प्रसिद्ध पार्वतीदेवीके रूपमें जानते हैं । तुम साध्वी स्त्रियोंमें अरुन्धती हो, जैसा कि प्रजापतिका कथन है ॥ २४ ॥

पर्यायनामभिर्दिव्यैरिन्द्राणी चेति विश्रुता
त्वया व्याप्तमिदं सर्वं जगत्स्थावरजङ्‌‌‍गमम् ॥ २५ ॥
तुम अपने पर्यायवाची दिव्य नामोंद्वारा इन्द्राणीके रूपमें विख्यात हो । तुमने इस समस्त चराचर जगत्को व्याप्त कर रखा है ॥ २५ ॥

संग्रामेषु च सर्वेषु अग्निप्रज्वलितेषु च ।
नदीतीरेषु चौरेषु कान्तारेषु भयेषु च ॥ २६ ॥
प्रवासे राजबन्धे च शत्रूणां च प्रमर्दने ।
प्राणात्ययेषु सर्वेषु त्वं हि रक्षा न संशयः ॥ २७ ॥
समस्त संग्रामोंमें, आगसे जलते हुए घरोंमें, नदीके तटॉपर, चोरों और लुटेरोंके दलोंमें, दुर्गम स्थानोंमें, भयके सभी अवसरोंमें, परदेशमें, राजाके द्वारा बन्धन प्राप्त होनेपर, शत्रुओंका मर्दन करते समय एवं सभी प्राणसंकटकी घड़ियोंमें तुम्हीं सबकी रक्षा करनेवाली हो, इसमें संशय नहीं है ॥ २६-२७ ॥

त्वयि मे हृदयं देवि त्वयि चित्तं मनस्त्वयि ।
रक्ष मां सर्वपापेभ्यः प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥ २८ ॥
देवि ! मेरा हदय तुममें लगा हुआ है । मेरा चित्त और मन भी तुम्हारे ही चिन्तन एवं मननमें तत्पर है । तुम समस्त पापोंसे मेरी रक्षा करो । तुम्हें मुझपर कृपा करनी चाहिये ॥ २८ ॥

इमं यः सुस्तवं दिव्यमिति व्यासप्रकल्पितम् ।
यः पठेत्प्रातरुत्थाय शुचिः प्रयतमानसः ॥ २९ ॥
त्रिभिर्मासैः काङ्‌‌‍क्षितं च फलं वै संप्रयच्छसि ।
षद्भिर्मासैर्वरिष्ठं तु वरमेकं प्रयच्छसि ॥ ३० ॥
जो मनुष्य मेरे (विष्णु)-द्वारा किये गये तथा व्यासजीके द्वारा पद्यमें आबद्ध किये हुए इस सुन्दर दिव्य स्तोत्रका प्रातःकाल उठकर शुद्धभावसे संयतचित्त होकर पाठ करता है, उसे तुम तीन ही महीनोंमें मनोवाञ्छित फल प्रदान कर देती हो तथा जो छ: महीनोंतक लगातार पाठ करता रहे, उसे कोई एक विशिष्ट वर देती हो ॥ २९-३० ॥

अर्चिता तु त्रिभिर्मासैर्दिव्यं चक्षुः प्रयच्छसि ।
संवत्सरेण सिद्धिं तु यथाकामं प्रयच्छसि ॥ ३१ ॥
तीन महीनोंतक पूजित होनेपर तुम उपासकको दिव्य दृष्टि प्रदान करती हो और एक वर्षतक आराधना करनेपर उसे उसकी इच्छाके अनुसार सिद्धि देती हो ॥ ३१ ॥

सत्यं ब्रह्म च दिव्यं च द्वैपायनवचो यथा ।
नृणां बन्धं वधं घोरं पुत्रनाशं धनक्षयम् ॥ ३२ ॥
व्याधिमृत्युभयं चैव पूजिता शमयिष्यसि ।
भविष्यसि महाभागे वरदा कामरूपिणी ॥ ३३ ॥
श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजीने जैसा बताया है, उसके अनुसार तुम्ही सत्य एवं दिव्य ब्रह्म हो । महाभागे ! तुम पूजित होनेपर मनुष्योंके बन्धन, भयानक वध, पुत्र और धनके नाश तथा रोग और मृत्युका भय दूर कर दोगी और इच्छानुसार रूप धारण करके उपासकोंके लिये वरदायिनी होओगी ॥ ३२-३३ ॥

मोहयित्वा च तं कंसमेका त्वं भोक्ष्यसे जगत् ।
अहमप्यात्मनो वृत्तिं विधास्ये गोषु गोपवत् ॥ ३४ ॥
इतना ही नहीं, तुम उस कंसको मोहमें डालकर अकेली ही सम्पूर्ण जगत्का उपभोग करोगी । मैं भी व्रजमें गौओंके बीचमें रहकर गोपके समान ही अपना व्यवहार बनाऊँगा ॥ ३४ ॥

स्ववृद्ध्यर्थमहं चैव करिष्ये कंसगोपताम् ।
एवं तां स समादिश्य गतोऽन्तर्धानमीश्वरः ॥ ३५ ॥
मैं अपनी पुष्टिके लिये कंसके गौओंकी चरवाही करूंगा । योगनिद्राको ऐसा आदेश देकर भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गये ॥ ३५ ॥

सा चापि तं नमस्कृत्य तथास्त्विति च निश्चिता ॥ ३६ ॥
उस समय उस देवीने भी उन्हें नमस्कार करके 'बहत अच्छा' कहकर उनकी आज्ञाके पालन करनेका निश्चित विचार कर लिया ॥ ३६ ॥

यश्चैतत् पठते स्तोत्रं शृणुयाद् वाप्यभीक्ष्णशः ।
सर्वार्थसिद्धिं लभते नरो नास्त्यत्र संशयः ॥ ३७ ॥
जो मनुष्य बारम्बार इस स्तोत्रका पाठ अथवा श्रवण करता है, वह अपने सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि प्राप्त कर लेता है, इसमें कोई संशय नहीं है ॥ ३७ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि
स्वप्नगर्भविधाने आर्यास्तुतौ त्रितीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें स्वप्नगर्भ-विधान तथा आपदियोको स्तुतिविषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥




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