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श्रीहरिवंशपुराण
विष्णुपर्व
चतुर्थोऽध्यायः


विष्णुवतारवर्णनम्
कंसद्वारा देवकीके नवजात शिशुओंकी हत्या, योगमायाद्वारा सातवें गर्भका संकर्षण, श्रीकृष्णका प्राकट्य और नन्दभवनमें प्रवेश, कंसद्वारा नन्दकन्याको मारनेका प्रयत्न और उसका दिव्य रूपमें दर्शन देना, कंसद्वारा क्षमा-प्रार्थना और देवकीद्वारा उसे क्षमा-दान -


वैशंपायन उवाच
कृते गर्भविधाने तु देवकी देवतोपमा ।
जग्राह सप्त तान गर्भान् यथावत्समुदाहृतान् ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! तदनन्तर पतिद्वारा गर्भाधान किये जानेपर देवताके समान तेजस्विनी देवकीने पहले बताये हुए सात गर्भोको क्रमशः यथोचितरूपसे ग्रहण किया ॥ १ ॥

षड्गर्भान् निस्सृतान् कंसस्ताञ्जघान शिलातले ।
आपन्नं सप्तमं गर्भं सा निनायाथ रोहिणीम् ॥ २ ॥
पहले जो छः गर्भ प्रकट हुए. उन सबको कंसने पत्थरपर पटककर मार डाला । जब सातवाँ गर्भ प्राप्त हुआ, तब योगमायाने उसे रोहिणीके उदरमें स्थापित कर दिया ॥ २ ॥

अर्धरात्रे स्थितं गर्भं पातयन्ती रजस्वला ।
निद्रया सहसाविष्टा पपात धरणीतले ॥ ३ ॥
रजस्वला रोहिणी आधी रातके समय अपने भीतर स्थापित हुए उस गर्भको गिरानेकी चेष्टा करने लगी; परंतु सहसा निद्रासे आविष्ट होकर वह स्वयं पृथ्वीपर गिर पड़ी ॥ ३ ॥

सा स्वप्नमिव तं दृष्ट्‍वा गर्भं निःसृतमात्मनः ।
अपश्यन्ती च तं गर्भं मुहूर्तं व्यथिताभवत् ॥ ४ ॥
उसने अपने पेटसे निकले हुए उस गर्भको स्वनकी भाँति देखकर फिर नहीं देखा (क्योंकि योगमायाने उसे अदृश्य कर दिया था); इससे दो घड़ीतक उसके मनमें बड़ी व्यथा हुई ॥ ४ ॥

तामाह निद्रा संविग्नां नैशे तमसि रोहिणीम् ।
रोहिणीमिव सोमस्य वसुदेवस्य धीमतः ॥ ५ ॥
रात्रिके अन्धकारमें बुद्धिमान् वसुदेवको पत्नी रोहिणी चन्द्रमाकी प्यारी भार्या रोहिणीके समान दिखायी देती थी । वह उस गर्भके लिये उद्विग्न हो रही थी । उस समय निद्राने उससे कहा- ॥ ५ ॥

कर्षणेनास्य गर्भस्य स्वगर्भे चाहितस्य वै ।
संकर्षणो नाम सुतः शुभे तव भविष्यति ॥ ६ ॥
'शुभे ! तुम्हारे उदरमें स्थापित हुआ जो यह गर्भ है, इसका आकर्षण हुआ है, इस कारण यह पुत्र संकर्षण नामसे प्रसिद्ध होगा' ॥ ६ ॥

सा तं पुत्रमवाप्यैवं हृष्टा किञ्चिदवाङ्‌‌‍मुखी ।
विवेश रोहिणी वेश्म सुप्रभा रोहिणी यथा ॥ ७ ॥
इस प्रकार उस पुत्रको पाकर रोहिणी मनही-मन प्रसन्न हुई: किंतु लज्जासे उसका मुख कुछ नीचेको झुक गया । फिर तो वह उत्तम प्रभासे युक्त रोहिणीके समान अपने भवनके भीतर चली गयी ॥ ७ ॥

तस्य गर्भस्य मार्गेण गर्भमाधत्त देवकी ।
यदर्थं सप्त ते गर्भाः कंसेन विनिपातिताः ॥ ८ ॥
उधर देवकीके उस सातवें गर्भको खोज होने लगी; इतनेहीमें उसने आठवीं गर्भ धारण किया, जिसके लिये कंसने उसके पहलेके सात गर्भ मार गिराये थे ॥ ८ ॥

तं तु गर्भं प्रयत्‍नेन ररक्षुस्तस्य मन्त्रिणः ।
सोऽप्यत्र गर्भवसतौ वसत्यात्मेच्छया हरिः ॥ ९ ॥
कंसके मन्त्री उस आठवें गर्भकी रक्षामें यत्नपूर्वक लग गये । इधर भगवान् विष्णु भी स्वेच्छासे ही उस गर्भमें निवास करने लगे ॥ ९ ॥

यशोदापि समाधत्त गर्भं तदहरेव तु ।
विष्णोः शरीरजां निद्रां विष्णुनिर्देशकारिणीम् ॥ १० ॥
उसी दिन (गोकुलमें) यशोदाने भी भगवान् विष्णुकी आज्ञाका पालन करनेवाली तथा उन्हींक शरीरसे प्रकट हुई योगनिद्राको अपने गर्भमें धारण किया ॥ १० ॥

गर्भकाले त्वसंपूर्णे अष्टमे मासि ते स्त्रियौ ।
देवकी च यशोदा च सुषुवाते समं तदा ॥ ११ ॥
गर्भका समय पूर्ण होनेसे पहले ही आठवें मासमें उन दोनों स्त्रियों-देवकी और यशोदाने प्रायः एक ही साथ प्रसव किया ॥ ११ ॥

यामेव रजनीं कृष्णो जज्ञे वृष्णिकुलोद्वहः ।
तामेव रजनीं कन्यां यशोदापि व्यजायत ॥ १२ ॥
वृष्णिकुलका भार वहन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण जिस रातमें प्रकट हुए, उसी रातमें यशोदाने भी एक कन्याको जन्म दिया ॥ १२ ॥

नन्दगोपस्य भार्यैका वसुदेवस्य चापरा ।
तुल्यकालं च गर्भिण्यौ यशोदा देवकी तथा ॥ १३ ॥
एक यशोदा नन्दगोपकी भार्या थी और दूसरी देवकी वसुदेवकी । वे दोनों प्रायः एक ही समयमें गर्भवती हुईं ॥ १३ ॥

देवक्यजनयद् विष्णुं यशोदा तां तु दारिकाम् ।
मुहूर्तेऽभिजिति प्राप्ते सार्धरात्रे विभूषिते ॥ १४ ॥
(आठवें मासमें) आधी रातके समय सुन्दर अभिजित् मुहूर्तका योग प्राप्त होनेपर देवकीने भगवान् विष्णुको पुत्ररूपसे जन्म दिया और यशोदाने उस कन्याको ॥ १४ ॥

सागराः समकम्पन्त चेलुश्च धरणीधराः ।
जज्वलुश्चाग्नयः शान्ता जायमाने जनार्दने ॥ १५ ॥
भगवान् श्रीकृष्णके जन्म (अवतार) ग्रहण करते समय समुद्रोंमें ज्वार-सा उठने लगा । पृथ्वीको धारण करनेवाले शेष आदि विचलित हो उठे और बुझी हुई अग्नियाँ अपने-आप प्रज्वलित हो गयीं ॥ १५ ॥

शिवाश्चप्रववुर्वाताः प्रशान्तमभवद् रजः ।
ज्योतींष्यतिव्यकाशन्त जायमाने जनार्दने ॥ १६ ॥
श्रीकृष्णके अवतार लेते समय शीतल मन्द सुखदायिनी हवा चलने लगी । उड़ती हुई धूल शान्त हो गयी तथा ग्रह और नक्षत्र अत्यन्त प्रकाशित होने लगे ॥ १६ ॥

अभिजिन्नाम नक्षत्रं जयन्ती नाम शर्वरी
मुहूर्तो विजयो नाम यत्र जातो जनार्दनः ॥ १७ ॥
जब भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हुए. उस समय अभिजित् नामक मुहूर्त था, रोहिणी नक्षत्रका योग होनेसे अष्टमीकी वह रात जयन्ती कहलाती थी और विजय नामक विशिष्ट मुहूर्त व्यतीत हो रहा था ॥ १७ ॥

अव्यक्तः शाश्वतः सूक्ष्मो हरिर्नारायणः प्रभुः ।
जायमानो हि भगवान्नयनैर्मोहयन् प्रभुः ॥ १८ ॥
अव्यक्त सनातन सूक्ष्मस्वरूप पापहारी तथा सर्वसमर्थं भगवान् नारायणने प्रकट होते ही अपने नेत्रोंसे सबका मन मोह लिया ॥ १८ ॥

अनाहता दुन्दुभयो देवानां प्राणदन् दिवि ।
आकाशात् पुष्पवृष्टिं च ववर्ष त्रिदशेश्वरः ॥ १९ ॥
स्वर्गलोकमें बिना बजाये ही देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं । देवेश्वर इन्द्र आकाशसे फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ १९ ॥

गीर्भिर्मङ्‌‌‍गलयुक्ताभिः स्तुवन्तो मधुसूदनम् ।
महर्षयः सगन्धर्वा उपतस्थुः सहाप्सराः ॥ २० ॥
गन्धर्व और अप्सराओंसहित महर्षिगण अपने मङ्गलमय वचनोंद्वारा भगवान् मधुसूदनकी स्तुति करते हुए उनकी सेवामें उपस्थित हुए ॥ २० ॥

जायमाने हृषीकेशे प्रहृष्टमभवज्जगत् ।
इन्द्रश्च त्रिदशैः सार्धं तुष्टाव मधुसूदनम् ॥ २१ ॥
भगवान् श्रीकृष्णका प्राकट्य होते ही सम्पूर्ण जगत्में हर्षोल्लास छा गया । देवताओंके साथ इन्द्रने उन भगवान् मधुसूदनकी स्तुति की ॥ २१ ॥

वसुदेवश्च तं रात्रौ जातं पुत्रमधोक्षजम् ।
श्रीवत्सलक्षणं दृष्ट्‍वा युतं दिव्यैश्च लक्षणैः ।
उवाच वसुदेवस्तु रूपं संहर वै प्रभो ॥ २२ ॥
वसुदेवने भी रात्रिमें प्रकट हुए अपने पुत्ररूप भगवान् अधोक्षजका स्तवन किया । उन्हें श्रीवत्सके चिह्न और दिव्य लक्षणोंसे सम्पन्न देखकर वसुदेवने कहा-'प्रभो ! आप अपने स्वरूपको समेट लीजिये ॥ २२ ॥

भीतोऽहं देव कंसस्य तस्मादेवं ब्रवीम्यहम् ।
मम पुत्रा हतास्तेन तव ज्येष्ठाम्बुजेक्षण ॥ २३ ॥
देव ! मैं कंसके भयसे डरा हुआ हूँ, इसीलिये ऐसी बात कहता हूँ । कमलनयन ! उसने मेरे बहुत-से पुत्र मार डाले हैं, जो तुमसे जेठे थे' ॥ २३ ॥

वैशम्पायन उवाच
वसुदेववचः श्रुत्वा रूपं चाहरदच्युतः ।
अनुज्ञाप्य पितृत्वेन नन्द गोपगृहं नय ॥ २४ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! वसुदेवका यह वचन सुनकर भगवान् अच्युतने पिता होनेके कारण उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली और उनसे कहा, 'आप मुझे नन्दगोपके घर पहुंचा दीजिये (तथा उनकी नवजात कन्याको यहाँ उठा लाइये) । ' ऐसा कहकर उन्होंने अपने चतुर्भुजरूपका उपसंहार कर लिया ॥ २४ ॥

वसुदेवस्तु संगृह्य दारकं क्षिप्रमेव च ।
यशोदाया गृहं रात्रौ विवेश सुतवत्सलः ॥ २५ ॥
तब पुत्रवत्सल वसुदेव शीघ्र ही उस बालकको गोदमें लेकर रातके समय यशोदाके घरमें घुस गये ॥ २५ ॥

यशोदायास्त्वविज्ञातस्तत्र निक्षिप्य दारकम् ।
प्रगृह्य दारिकां चैव देवकीशयनेऽन्यसत् ॥ २६ ॥
यशोदाको उनके आनेका कुछ पता न चला । वहाँ उन्होंने अपने बालकको रख दिया और उस कन्याको लेकर अपने निवासस्थानमें आनेके बाद उसे देवकीकी शय्यापर सुला दिया ॥ २६ ॥

परिवर्ते कृते ताभ्यां गर्भाभ्यां भयविक्लवः ।
वसुदेवः कृतार्थो वै निर्जगाम निवेशनात् ॥ २७ ॥
इस प्रकार उन दोनों नवजात बालकोंकी अदला-बदली करके कृतार्थ हुए वसुदेवजी भयसे व्याकुल हो उस घरसे बाहर निकल गये ॥ २७ ॥

उग्रसेनसुतायाथ कम्सायानकदुन्दुभिः ।
निवेदयामास तदा तां कन्यां वरवर्णिनीम् ॥ २८ ॥
आनकदुन्दुभि नामसे प्रसिद्ध वसुदेवने उग्रसेनपुत्र कंसके पास जाकर उसे अपनी सुन्दरी कन्याके जन्मका समाचार निवेदन किया ॥ २८ ॥

तच्छ्रुत्वा त्वरितः कंसो रक्षिभिः सह वेगिभिः ।
आजगाम गृहद्वारं वसुदेवस्य वीर्यवान् ॥ २९ ॥
यह सुनकर पराक्रमी कंस बड़ी उतावलीके साथ पैर बढ़ाता हुआ वेगशाली रक्षकोंको साथ लिये वसुदेवके गृहके द्वारपर आया ॥ २९ ॥

स तत्र त्वरितं द्वारि किं जातमिति चाब्रवीत्
दीयतां शीघ्रमित्येवं वाग्भिः समतर्जयत् ॥ ३० ॥
वहाँ द्वारपर पहुंचते ही उसने तुरंत पूछा-'कौन-सा बच्चा पैदा हुआ है ? उसे शीघ्र मेरे हवाले कर दो' ऐसी बातें कहकर वह वहाँ जोर-जोरसे गर्जन-तर्जन करने लगा ॥ ३० ॥

ततो हाहाकृताः सर्वा देवकीभवने स्त्रियः ।
उवाच देवकी दीना बाश्पगद्‌गदया गिरा ॥ ३१ ॥
तब देवकीके घरमें एकत्रित हुई सारी स्त्रियाँ हाहाकार करने लगीं । देवकीने अत्यन्त दीन होकर अश्रुगद्गद वाणीमें कहा- ॥ ३१ ॥

दारिका तु प्रजातेति कंसं समभियाचती ।
श्रीमन्तो मे हताः सप्त पुत्रगर्भास्त्वया विभो ॥ ३२ ॥
'प्रभो । यह तो कन्या पैदा हुई है', ऐसा कहकर वह कंससे उसके लिये याचना करती हुई बोली-'भैया ! तुमने मेरे सात तेजस्वी पुत्र जो अभी गर्भावस्थामें ही थे, मार डाले हैं ॥ ३२ ॥

दारिकेयं हतैवैषा पश्यस्व यदि मन्यसे ।
दृष्ट्‍वा कंसस्तु तां कन्यामाकृष्यत मुदा युतः ॥ ३३ ॥
यह तो कन्या है । यह बेचारी आप ही मरी हुई है, देखो ! यदि समझमें आये तो मेरी बात मान लो (यह कन्या मुझे दे दो) । ' कंस उस कन्याको देखकर उसकी ओर आकृष्ट हुआ और मन-ही-मन प्रसन्नताका अनुभव करने लगा ॥ ३३ ॥

हतैवैषा यदा कन्या जातेत्युक्त्वा वृथा मतिः ।
सा गर्भशयने क्लिष्टा गर्भाम्बुक्लिन्नमूर्धजा ॥ ३४
कंसस्य पुरतो न्यस्ता पृथिव्यां पृथिवीसमा ।
स चैनां गृह्य पुरुषः समाविध्यावधूय च ॥ ३५ ॥
उद्यच्छन्नेव सहसा शिलायां समपोथयत् ।
सावधूता शिलापृष्टेऽनिष्पिष्टा दिवमुत्पतत् ॥ ३६ ॥
हित्वा गर्भतनुं सा तु सहसा मुक्तमूर्धजा ।
जगाम कंसमादिश्य दिव्यस्रगनुलेपना ॥ ३७ ॥
उसने कहा-'जब यह कन्या मरी ही हुई है, तब इसे पैदा हुई कहकर इसकी ओर मन चलाना व्यर्थ है । ' वह कन्या अभी गर्भशव्यापर क्लेशपूर्वक लेटी हुई थी । अभी उसके केश गर्भस्थ जलसे भीगे हुए थे । उसी अवस्थामें वह कंसके आगे पृथ्वीपर रख दी गयी । उस समय वह पृथ्वीके समान ही जान पड़ती थी । उस दुरात्मा पुरुष कंसने उसे पकड़कर घुमाया और तुच्छ मानकर ऊपरसे ही सहसा शिलापर दे मारा । वह शिलापृष्ठपर फेंकी गयी, परंतु उसपर चूर-चूर होनेसे पहले ही आकाशमें उड़ गयी । उस गर्भदेहको त्यागकर कंसको ललकारती हुई वह सहसा आकाशमें जा पहुंची । उस समय उसके लम्बे-लम्बे केश खुले हुए थे । दिव्य फूलोंके हार और अनुलेपन उसकी शोभा बढ़ाते थे ॥ ३४-३७ ॥

हारशोभितसर्वाङ्‌‌‍गी मुकुटोज्ज्वलभूषिता ।
कन्यैव साभवन्नित्यं दिव्य देवैरभिष्टुता ॥ ३८ ॥
हारोंसे उसके समस्त अङ्गोंकी शोभा बढ़ गयी थी । मस्तकपर उज्वल मुकुटसे विभूषित हो वह देवी सदाके लिये कन्या (कुमारी) ही रह गयीं । उसकी आकृति दिव्य थी और सब देवता उसको स्तुति करते थे ॥ ३८ ॥

नीलपीताम्बरधरा गजकुम्भोपमस्तनी ।
रथ विस्तीर्ण जघना चन्द्रवक्त्रा चतुर्भुजा ॥ ३९ ॥
वह अपने अङ्गोंपर नील और पीत वस्त्र धारण किये हुए थी । उसके उन्नत उरोज हाथीके कुम्भस्थलके समान जान पड़ते थे । उसका जघनप्रदेश रथके समान विस्तृत था । मुख चन्द्रमाके सदृश मनोरम था । वह चार भुजाओंसे सुशोभित थी ॥ ३९ ॥

विद्युद्‌विस्पष्टवर्णाभा बालार्कसदृशेक्षणा ।
पयोधरस्तनवती संध्येव सपयोधरा ॥ ४० ॥
उसकी अङ्गकान्ति विद्युत्के समान प्रकाशित हो रही थी । दोनों नेत्र प्रभातकालके सूर्यकी भाँति लाल थे । मेघोंके समान उन्नत उरोजोंवाली वह देवी बादलोंसे युक्त संध्याके समान सुशोभित हो रही थी ॥ ४० ॥

सा वै निशि तमोग्रस्ते बभौ भूतगणाकुले ।
नृत्यति हसति चैव विपरीतेन भास्वती ॥ ४१ ॥
अन्धकारसे आच्छन हुई रात्रिके समय जब कि भूतोंके समुदाय सब ओर भरे हुए थे, वह दीप्तिमती देवी नाचती, हँसती और चारों ओर उछलती-कूदती हुई अद्भुत शोभा पा रही थी ॥ ४१ ॥

विहायसी गता रौद्रा पपौ पानमनुत्तमम् ।
जहास च महाहासं कंसं च रुषिताब्रवीत् ॥ ४२ ॥
उसका स्वरूप बड़ा ही भयंकर था । वह आकाशमें पहुँचकर परम उत्तम मधुका पान तथा बड़े जोरसे अट्टहास करने लगी । फिर रोषमें भरकर कंससे बोली- ॥ ४२ ॥

कंस कंसात्मनाशाय यदहं घातिता त्वया ।
सहसा च समुत्क्षिप्य शिलायामभिपोथिता ॥ ४३ ॥
तस्मात् तवान्तकालेऽहं कृष्यमाणस्य शत्रुणा ।
पाटयित्वा करैर्देहमुष्णं पास्यामि शोणितम् ॥ ४४ ॥
'कंस ! ओ कंस ! ! तूने अपने हो विनाशके लिये जो मुझे मार डालनेका प्रयत्न किया है और सहसा उठाकर शिलापर दे मारा है, उसके कारण मैं भी तेरे अन्तकालमें जिस समय तू शत्रुके द्वारा घसीटा जा रहा होगा, अपने हाथोंसे तेरी इस देहको फाड़कर तेरा गरम-गरम रक्त पीऊँगी' ॥ ४३-४४ ॥

एवमुक्त्वा वचो घोरं सा यथेष्टेन वर्त्मना ।
खं सा देवालयं देवी सगणा विचचार ह ॥ ४५ ॥
ऐसा घोर वचन कहकर वह देवी यथेष्ट मार्गसे अपने गणोंसहित आकाश और देवलोकमें विचरने लगी ॥ ४५ ॥

सा कन्या ववृधे तत्र वृष्णीसङ्‌‌‍घसुपूजिता ।
पुत्रवत् पाल्यमाना सा वसुदेवाज्ञया तदा ॥ ४६ ॥
वहाँ वृष्णिवंशिवोंके समुदायसे भलीभाँति पूजित हो वह कन्या बढ़ने लगी । वसुदेवकी आज्ञासे उस समय उसका पुत्रवत् पालन होने लगा* ॥ ४६ ॥

विद्धि चैनामथोत्पन्नामंशाद् देवीं प्रजापतेः ।
एकानंशां योगकन्यां रक्षार्थं केशवस्य तु ॥ ४७ ॥
जनमेजय ! तुम इस देवीको प्रजापालक भगवान् विष्णुके अंशसे उत्पन्न हुई समझो । वह एक होती हुई अनंशाअंशरहित अर्थात् अविभक्त थी, इसलिये एकानंशा कहलाती थी । योगबलसे कन्यारूपमें प्रकट हुई वह देवी भगवान् श्रीकृष्णकी रक्षाके लिये आविर्भूत हुई थी ॥ ४७ ॥

तां वै सर्वे सुमनसः पूजयन्ति स्म यादवाः ।
देववद् दिव्यवपुषा कृष्णः संरक्षितो यया ॥ ४८ ॥
यदुकुलमें उत्पन्न हुए समस्त देवता उस देवीका आराध्यदेवके समान पूजन करते थे; क्योंकि उसने अपने दिव्य देहसे श्रीकृष्णकी रक्षा की थी ॥ ४८ ॥

तस्यां गतायां कंसस्तु तां मेने मृत्युमात्मनः ।
विविक्ते देवकीं चैव व्रीडितः समभाषत ॥ ४९ ॥
उसके चले जानेपर कंसने उसे ही अपनी मृत्यु समझा और एकान्तमें देवकीके पास जाकर लजित हो वह इस प्रकार बोला ॥ ४९ ॥

कंस उवाच
मृत्योः स्वसुः कृतो यत्‍नस्तव गर्भा मया हताः ।
अन्य एवान्यता देवि मम मृत्युरुपस्थितः ॥ ५० ॥
कंसने कहा-बहिन ! मैंने मृत्युको टालनेका प्रयत्न किया और इसी धोखेमें मैंने तुम्हारे बच्चोंको मार डाला, परंतु देवि ! कोई दूसरा ही दूसरी जगहसे मेरी मृत्यु बनकर उपस्थित हो गया है ॥ ५० ॥

नैराश्येन कृतो यत्‍नः स्वजने प्रहृतं मया ।
दैवं पुरुषकारेण न चातिक्रान्तवानहम् ॥ ५१ ॥
मैंने क्रूरतापूर्वक अपने उद्देश्यकी सिद्धिके लिये प्रयास किया; किंतु जो मेरे अपने जन थे, उनपर ही मैं प्रहार कर बैठा । मैं दैवके विधानको अपने पुरुषार्थसे लाँघ न सका ॥ ५१ ॥

त्यज गर्भकृतां चिन्तां संतापं पुत्रजं त्यज ।
हेतुभूतस्त्वहं तेषां सति कालविपर्यये ॥ ५२ ॥
बहिन ! अपने ग के लिये चिन्ता न करो । पुत्रोंकी मृत्युके कारण होनेवाले शोक-संतापको त्याग दो । काल ही उनके विपरीत हो गया था । मैं तो उनके वधर्म केवल निमित्तमात्र बन गया हूँ ॥ ५२ ॥

काल एव नृणां शत्रुः कालश्च परिणामकः ।
कालो नयति सर्वं वै हेतुभूतस्तु मद्विधः ॥ ५३ ॥
काल ही मनुष्योंका शत्रु है, काल ही एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें ला देता है और काल ही सबको संसारसे उठा ले जाता है । मेरे-जैसा व्यक्ति तो इसमें निमित्तमात्र ही होता है ॥ ५३ ॥

आगमिष्यन्ति वै देवि यथाभागमुपद्रवाः ।
इदं तु कष्टं यज्जन्तुः कर्ताहमिति मन्यते ॥ ५४ ॥
देवि ! अपने भाग्य या कर्मके अनुसार उपद्रव तो आयेंगे ही, किंतु कष्टकी बात यही है कि जीव इसमें अपनेको ही कर्ता मानने लगता है ॥ ५४ ॥

मा कार्षीः पुत्रजां चिन्तां विलापं शोकजं त्यज ।
एवं प्रायो नृणां योनिर्नास्ति कालस्य संस्थितिः ॥ ५५ ॥
पुत्रोंके वियोगसे होनेवाली चिन्ता न करो । शोकजनित विलापको त्याग दो । मनुष्य-योनिकी प्रायः ऐसी ही दशा है । कालको टालना या मिटा देना असम्भव है ॥ ५५ ॥

एष ते पादयोर्मूर्ध्ना पुत्रवत्तव देवकि ।
मद्‌गतस्त्यज्यतां रोषो जानाम्यपकृतं त्वयि ॥ ५६ ॥
देवकी ! यह लो, मैं पुत्रकी भाँति तुम्हारे चरणोंपर मस्तक रखकर पड़ा हूँ । जानता हूँ, मैंने तुम्हारा अपराध किया है तो भी मेरे प्रति अपना रोष त्याग दो (यह मेरी प्रार्थना है) ॥ ५६ ॥

इत्युक्तवन्तं कंसं सा देवकी वाक्यमब्रवीत् ।
साश्रुपूर्णमुखा दीना भर्तारमुपवीक्षती ।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ वत्सेति कंसं मातेव जल्पती ॥ ५७ ॥
जब कंसने ऐसी बात कही, तब देवकीके मुखपर आँसुओंकी धारा बह चली । वह पतिकी ओर देखती हुई अत्यन्त दीन होकर कंससे माताके समान कहने लगी-'बेटा ! उठो ! उठो !' ॥ ५७ ॥

देवक्युवाच
ममाग्रतो हता गर्भा ये त्वया कामरूपिणा ।
कारणं त्वं न वै पुत्र कृतान्तोऽप्यत्र कारणम् ॥ ५८ ॥
देवकीने फिर कहा-वत्स ! तुम तो इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले हो । तुमने मेरे सामने ही जिनजिन गर्भस्थ शिशुओंकी हत्या की है, उसमें केवल तुम्हीं कारण हो-ऐसी बात नहीं है, काल भी इसमें कारण है ॥ ५८ ॥

गर्भकर्तनमेतन्मे सहनीयं त्वया कृतम् ।
पादयोः पतता मूर्ध्ना स्वं च कर्म जुगुप्सता ॥ ५९ ॥
परंतु आज तुम अपने कर्मकी निन्दा करते हुए जो मेरे पैरोंपर सिर रखकर पड़ गये, इससे तुम्हारे द्वारा किये गये इस गर्भोच्छेदरूप असह्य कष्टको भी मैं किसी तरह सह लूँगी ॥ ५९ ॥

गर्भे तु नियतो मृत्युर्बाल्येऽपि न निवर्तते ।
युवापि मृत्योर्वशगः स्थविरो मृत एव तु ॥ ६० ॥
गर्भमें भी मृत्यु निश्चितरूपसे होती है । बाल्यावस्थामें भी वह टलती नहीं है । जवान मनुष्य भी मृत्युके अधीन होता है और वृद्ध पुरुष तो मरा हुआ है ही ॥ ६० ॥

कालपक्वमिदं सर्वं हेतुभूतस्तु तद्विधः ।
अजाते दर्शनं नास्ति यथा वायुस्तथैव च ॥ ६१ ॥
इस सम्पूर्ण जगत्को काल ही पका देता है (मार डालता है) । तुम्हारे-जैसे लोग तो केवल निमित्तमात्र होते हैं । जिसका जन्म नहीं हुआ है, उसका दर्शन नहीं होता । जैसे वायुकी सत्ता होनेपर भी वह दिखायी नहीं देती, उसी प्रकार जीवकी सत्ता होनेपर भी जन्मसे पहले वह दृष्टिगोचर नहीं होता है ॥ ६१ ॥

जातोऽप्यजाततां याति विधात्रा यत्र नीयते ।
तद्‌ गच्छ पुत्र मा ते भून्मद्‌गतं मृत्युकारणम् ॥ ६२ ॥
जो जन्म ले चुका है, वह भी मृत्युके बाद अजातभावको ही प्राप्त हो जाता है (अर्थात् उसका भी दर्शन नहीं होता) । विधाता उसे जहाँ ले जाते हैं, वहाँ वह चला जाता है । अतः पुत्र ! तुम जाओ । मुझे जो पुत्रोंकी मृत्युके कारण दुःख हो रहा है, उसके लिये तुम्हारे हृदयमें विचार न हो ॥ ६२ ॥

मृत्युनाऽपहृते पूर्वं शेषो हेतुः प्रवर्तते ।
विधिना पूर्वदृष्टेन प्रजासर्गेण तत्त्वतः ॥ ६३ ॥
मातापित्रोस्तु कार्येण जन्मतस्तूपपद्यते ।
पहले मौत प्रहार करती है, इसके बाद मृत्युके शेष हेतुओंकी प्रवृत्ति होती है । विधि (संस्कार), पूर्वदृष्ट कर्म (जन्मान्तरीय कर्म या प्रारब्ध), प्रजाकी सृष्टि करनेवाले काल, वास्तवमें घटित हुए तात्कालिक कारण, माता-पिताके दूषित अन्न-भक्षण आदि कार्य तथा जातिगत स्वभावसे भी मृत्यु सम्भव होती है (इन्हीं सब कारणोंसे मेरे बच्चे मारे गये और तुम इसमें निमित्त बने, अतः इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है) ॥ ६३.५ ॥

वैशंपायन उवाच
निशम्य देवकीवाक्यं स कंसः स्वं निवेशनम् ॥ ६४ ॥
प्रविवेश स संरब्धो दह्यमानेन चेतसा ।
कृत्ये प्रतिहते दीनो जगाम विमना भृशम् ॥ ६५ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! देवकीका यह वचन सुनकर कंस अपनी असफलतापर क्षुब्ध हो मन-ही-मन जलता हुआ अपने भवनमें चला गया । अपने किये प्रयत्नके प्रतिहत (विफल) हो जानेपर वह मनमें बहुत ही खिन्न और दीन हो गया था, अत: वहाँसे चुपचाप चला गया ॥ ६४-६५ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे
विष्णुपर्वणि श्रीकृष्णजन्मनि चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाण हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें श्रीकृष्णाजन्मविषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥




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