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श्रीहरिवंशपुराण
विष्णुपर्व
पञ्चमोऽध्यायः


नन्दव्रजगमनम्
वसुदेवजीका नन्दको व्रजमें लौटनेकी सम्मति देना और नन्दजीका गोव्रजकी शोभा निहारते हुए वहाँ पधारना -


वैशंपायन उवाच
प्रागेव वसुदेवस्तु व्रजे शुश्राव रोहिणीम् ।
प्रजातां पुत्रमेवाग्रे चन्द्रात्कान्ततराननम् ॥ १ ॥
स नन्दगोपं त्वरितः प्रोवाच शुभया गिरा ।
गच्छानया सहैव त्वं व्रजमेव यशोदया ॥ २ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! वसुदेवजीने प्रसवसे पहले ही रोहिणीको व्रजमें भेज दिया था । जब उन्होंने सुना कि रोहिणीने पहले ही एक ऐसे पुत्रको जन्म दिया है, जिसका मुख चन्द्रमासे भी अधिक कान्तिमान् है, तब वे तुरंत ही (कंसका कर चुकानेके लिये पलीसहित मथुरामें आये हुए) नन्दगोपके पास जाकर मङ्गलमयी वाणीमें बोले-'मित्र ! तुम इन यशोदाजीके साथ ही शीघ्र व्रजको लौट जाओ ॥ १-२ ॥

तत्र तौ दारकौ गत्वा जातकर्मादिभिर्गुणैः ।
योजयित्वा व्रजे तात संवर्धय यथासुखम् ॥ ३ ॥
तात ! वहाँ जाकर उन दोनों बालकोंको जातकर्म आदि संस्कारोंसे सम्पन्न करके व्रजमें ही सुखपूर्वक उनका पालन-पोषण और संवर्धन करो' ॥ ३ ॥

रौहिणेयं च पुत्रं मे परिरक्ष शिशुं व्रजे ।
अहं वाच्यो भविष्यामि पितृपक्षेषु पुत्रिणाम् ॥ ४ ॥
योऽहमेकस्य पुत्रस्य न पश्यामि शिशोर्मुखम् ।
ह्रियते हि बलात् प्रज्ञा प्राज्ञस्यापि ततो मम ॥ ५ ॥
अस्माद्धि मे भयं कंसान्निर्घृणाद् वै शिशोर्वधे ।
तद्यथा रौहिणेयं त्वं नन्दगोपं ममात्मजम् ॥ ६ ॥
गोपायसि यथा तात तत्त्वान्वेषी तथा कुरु ।
विघ्ना हि बहवो लोके बालानुत्त्रासयन्ति हि ॥ ७ ॥
वजमें रोहिणीके गर्भसे उत्पन्न हुआ जो मेरा शिशु पुत्र है, उसकी भी रक्षा करना । भाई ! मैं तो पितृपक्षों में पुत्रवानोंके द्वारा निन्दनीय ही होऊँगा; क्योंकि मैं ऐसा भाग्यहीन हूँ कि अपने एकमात्र शिशुपुत्रका मुख नहीं देख पाता हूँ । यद्यपि मुझे इस बातका ज्ञान है कि सुख-दुःख और संयोग-वियोग आदि प्रारब्धके ही अधीन हैं; तथापि निरन्तर बना रहनेवाला भय मुझ बुद्धिमान्की भी बुद्धिको बलपूर्वक हर लेता है । इस निर्दय कंससे मुझे सदा यह डर लगा रहता है कि कहीं यह मेरे इस शिशुका भी वध न कर डाले । अतः तात ! नन्दगोप ! तुम मेरे पुत्र रोहिणीकुमारकी जिस उपायसे भी रक्षा कर सको, करो । बाल-द्रोहियोंके स्वरूपका यथावद्रूपसे विचार करके जैसे बने, उसके जीवनकी रक्षा करो; क्योंकि जगत्में बहुत-से ऐसे विघ्न खड़े हुए हैं, जो बालकोंको त्रास दे रहे हैं ॥ ४-७ ॥

स च पुत्रो मम ज्यायान् कनीयांश्च तवाप्ययम् ।
उभावपि समं नाम्ना निरीक्षस्व यथासुखम् ॥ ८ ॥
मेरा वह पुत्र बड़ा है और तुम्हारा यह बालक छोटा । तुम इन दोनोंको ही सुखपूर्वक समान दृष्टि से देखो । जैसे इनके नाम एक-से (एक अर्थवाले) हैं', उसी तरह इनपर तुम्हारा वात्सल्य भी एक-सा ही होना चाहिये ॥ ८ ॥

वर्धमानावुभावेतौ समानवयसौ यथा ।
शोभेतां गोव्रजे तस्मिन् नन्दगोप तथा कुरु ॥ ९ ॥
नन्दगोप ! इन दोनोंकी अवस्था प्रायः समान है । ये दोनों जिस तरह साथ-साथ तुम्हारे उस व्रजमें बढ़ते हुए शोभा पा सकें, वैसा यत्न करो' ॥ ९ ॥

बाल्ये केलिकिलः सर्वो बाल्ये मुह्यति मानवः ।
बाल्ये चण्डतमः सर्वस्तत्र यत्‍नपरो भव ॥ १० ॥
'बाल्यावस्थामें सब लोग खेल-कूदसे मन बहलाते हैं । बालकपनमें प्राय: सभी मनुष्य मोहग्रस्त रहते हैं । उन्हें कर्तव्याकर्तव्यका बोध नहीं रहता तथा बचपनमें सभी बात-बातपर बहुत चिढ़ते और रूठते हैं । अतः बच्चोंको इन सभी दशाओंमें संभालते हुए उनके लालनपालनके लिये प्रयत्नशील रहो ॥ १० ॥

न च वृन्दावने कार्यो गवां घोषः कथंचन ।
भेतव्यं तत्र वसतः केशिनः पापदर्शिनः ॥ ११ ॥
देखो, वृन्दावनमें किसी तरह भी गौओंके ठहरनेका स्थान न बनाना । वहाँ निवास करनेवाले पापदी केशीसे तुम्हें सदा डरते रहना चाहिये ॥ ११ ॥

सरीसृपेभ्यः कीटेभ्यः शकुनिभ्यस्तथैव च ।
गोष्ठेषु गोभ्यो वत्सेभ्यो रक्ष्यौ ते द्वाविमौ शिशू ॥ १२ ॥
वनमें साँप-बिच्छ, कीड़े-मकोड़े तथा पक्षियोंसे और गोव्रजमें गौओं तथा बछड़ोंसे इन दोनों शिशुओंकी तुम्हें सदा रक्षा करनी चाहिये ॥ १२ ॥

नन्दगोप गता रात्रिः शीघ्रयानो व्रजाशुगः ।
इमे त्वां व्याहरन्तीव पक्षिणः सव्यदक्षिणाः ॥ १३ ॥
नन्दगोप ! रात बीत गयी । तुम तेज चलनेवाली सवारीपर बैठकर शीघ्रतापूर्वक यहाँसे पधारो । ये दायें-बायें उड़नेवाले पक्षी मानो तुम्हें जानेके लिये कह रहे हैं-विदा दे रहे हैं' ॥ १३ ॥

रहस्यं वसुदेवेन सोऽनुज्ञातो महात्मना ।
यानं यशोदया सार्धमारुरोह मुदान्वितः ॥ १४ ॥
महात्मा वसुदेवके द्वारा किसी गुप्त रहस्यका ज्ञान करा दिये जानेपर नन्दबाबा यशोदाजीके साथ प्रसन्नतापूर्वक सवारीपर बैठे ॥ १४ ॥

कुमारस्कन्धवाह्यायां शिबिकायां समाहितः ।
संवेशयामास शिशुं शयनीयं महामतिः ॥ १५ ॥
तदनन्तर सदा सावधान रहनेवाले परम बुद्धिमान् नन्दजीने छोटे-छोटे बालक जिसे कंधेपर ढो सकें, ऐसी शिबिका (डोली)-में अपने शयन करनेयोग्य शिशुको सुला दिया ॥ १५ ॥

जगाम च विविक्तेन शीतलानिलसर्पिणा ।
बहूदकेन मार्गेण यमुनातीरगामिना ॥ १६ ॥
फिर यमुनाजीके किनारे-किनारे जानेवाले ऐसे एकान्त मार्गसे वे चले, जहाँ जलकी बहुतायत थी और ठंडीठंडी हवा चल रही थी ॥ १६ ॥

स ददर्श शुभे देशे गोवर्धनसमीपगे ।
यमुनातीरसंबद्धं शीतमारुतसेवितम् ॥ १७ ॥
गोवर्धनके निकटवर्ती शुभ प्रदेशमें पहुँचकर उन्होंने गौओंका बज देखा, जो यमुनाजीके तटसे जुड़ा हुआ था और शीतल वायु उसकी सेवा करती थी ॥ १७ ॥

विरुतश्वापदै रम्यं लतावल्लीमहाद्रुमम् ।
गोभिस्तृणविलग्नाभिः स्यन्दन्तीभिरलङ्‌‌‍कृतम् ॥ १८ ॥
विशेष प्रकारको बोली बोलनेवाले शिकारी जीवोंके रहनेसे उस प्रदेशकी रमणीयता बढ़ गयी थी । वहाँ लता और वाल्लरियोंसे लिपटे हुए बड़े-बड़े वृक्ष शोभा पा रहे थे । घास चरती और धनोंसे दूध झरती हुई गौओंसे वह स्थान अलंकृत था ॥ १८ ॥

समप्रचारं च गवां समतीर्थजलाशयम् ।
वृषाणां स्कन्धघातैश्च विषाणोद्घृष्टपादपम् ॥ १९ ॥
वहाँ गौओंके चरने-फिरनेके लिये सम भूमि थी, विषम नहीं; जलाशयोंमें उतरनेके लिये जो मार्ग थे, वे भी सम ही थे । बैलों या साँड़ोंके कंधोंकी टक्करसे तथा उनके सींगोंकी रगड़से वहाँके कई वृक्ष घिसे हुए दिखायी देते थे ॥ १९ ॥

भासामिषादानुसृतैः श्येनैश्चामिषगृध्नुभिः ।
सृगालमृगसिंहैश्च वसामेदाशिभिर्वृतम् ॥ २० ॥
वहाँ गीध और मांसभक्षी वनबिलाव आदिके पीछे मांसकी इच्छा रखनेवाले बाज तथा वसा और मेदा खानेवाले गीदड़, चीते एवं बाघ-सिंह आदि लगे हुए थे । इन सबके द्वारा वह प्रदेश घिरा हुआ था ॥ २० ॥

शार्दूलशब्दाभिरुतं नानापक्षिसमाकुलम् ।
स्वादुवृक्षफलं रम्यं पर्याप्ततृणवीरुधम् ॥ २१ ॥
सिंहोंके दहाड़नेसे वहाँका वन-प्रान्त गूंजता रहता था । नाना प्रकारके पक्षी वहाँ सब ओर व्यास थे । उस व्रजमें जो वृक्षोंमें फल लगे थे, वे बड़े स्वादिष्ठ थे । वहाँ घास-पात और लता-बेलोंकी बहुलता थी ॥ २१ ॥

गोव्रजं गोरुतं रम्यं गोपनारीभिरावृतम् ।
हम्भारवैश्च वत्सानां सर्वतः कृतनिःस्वनम् ॥ २२ ॥
इस प्रकार वह गोव्रज गौओंके (भानेके शब्दसे मुखरित था । गोपाङ्गनाओंसे घिरा हुआ वह भूभाग बड़ा रमणीय दिखायी देता था । बछड़ोंके बोलनेसे वहाँका स्थान सब ओरसे गूंजता रहता था ॥ २२ ॥

शकटावर्तविपुलं कण्टकीवाटसङ्‌‌‍कुलम् ।
पर्यन्तेष्वावृतं वन्यैर्बृहद्भिः पतितैर्द्रुमैः ॥ २३ ॥
छकड़ोंकी गोलाकार श्रेणियोंसे वहाँका भूभाग बहुत विशाल जान पड़ता था । वहाँ चारों ओर काँटोंके बाड़ लगे थे । सीमाओंपर जंगलके गिरे हुए बड़े-बड़े वृक्ष रखे गये थे ॥ २३ ॥

वत्सानां रोपितः कीलैर्दामभिश्च विभूषितम् ।
करीषाकीर्णवसुधं कटच्छन्नकुटीमठम् ॥ २४ ॥
बछड़ोंके लिये गाड़े गये बँटों और बाँधनेकी रस्सियोंसे उस व्रजकी बड़ी शोभा हो रही थी । वहाँ धरतीपर सब ओर सूखे कंडे (या करसी)-के ढेर पड़े थे । कुटी और मठ चटाइयों अथवा तृण-समूहसे छाये गये थे ॥ २४ ॥

क्षेम्यप्रचारबहुलं हृष्टपुष्टजनावृतम् ।
दामनीपाशबहुलं गर्गरोद्‌गारनिःस्वनम् ॥ २५ ॥
कुशलपूर्वक घूमने-फिरनेके लिये वहाँ बहुत-से स्थान थे (अथवा उत्तम लक्षणोंसे युक्त भटोंके प्रचारसे वह व्रज समृद्धिशाली प्रतीत होता था*) । वह भूभाग हष्टपुष्ट मनुष्योंसे भरा था । वहाँ मोटी और पतली रस्सियोंकी बहुतायत थी । दूध-दही मथनेके लिये जो बड़े-बड़े माट या घड़े होते हैं, उनमेंसे मन्थनके समय जो शब्द प्रकट होता था, वह वहाँ सब ओर फैला हुआ था ॥ २५ ॥

तक्रानिःस्रावबहुलं दधिमण्डार्द्रमृत्तिकम् ।
मन्थानवलयोद्‌गारैर्गोपीनां जनितस्वनम् ॥ २६ ॥
वहाँ तक्र (मट्ठा) बहानेके लिये बहुत-सी नालियाँ बनी थीं । दहीके ऊपरका जो सारभाग (मण्ड) होता है, उससे वहाँकी मिट्टी गीली हो रही थी । मथानी चलानेके समय गोपियोंके हाथोंके कंगन खन खनाते रहते थे । उनकी मधुर झनकार वहाँ सब ओर गूंजती रहती थी ॥ २६ ॥

काकपक्षधरैर्बालैर्गोपालक्रीडनाकुलम् ।
सार्गलद्वारगोवाटं मध्ये गोस्थानसंकुलम् ॥ २७ ॥
उस व्रजमें काकपक्ष (पीछेकी ओर सिरपर बड़े-बड़े बाल) धारण करनेवाले बालक खेल रहे थे । ग्वालोंके अखाड़ोंसे वहाँका भूभाग भरा था । गौओंके बाड़ों (रहनेके स्थानों) के दरवाजोंपर काठके कुंडे लगे हुए थे । बीचमें गौओंके ठहरने, विश्राम करने आदिके लिये पर्याप्त स्थान था । ऐसी गोशालाओंसे वह व्रज भरा हुआ था ॥ २७ ॥

सर्पिषा पच्यमानेन सुरभीकृतमारुतम् ।
नीलपीताम्बराभिश्च तरुणीभिरलङ्‌‌‍कृतम् ॥ २८ ॥
आगपर खौलाये जाते हुए घृतकी मनोरम गंधसे वहाँको वायु सुवासित हो रही थी । नीली-पीली साड़ियोंसे सुशोभित तरुणी स्त्रियाँ उस व्रजको अलंकृत किये हुए थीं ॥ २८ ॥

वन्यपुष्पावतंसाभिर्गोपकन्याभिरावृतम् ।
शिरोभिर्घृकुम्भभिर्बद्धैरग्रस्तनाम्बरैः ॥ २९ ॥
यमुनातीरमार्गेण जलहारीभिरावृतम् ।
स तत्र प्रविशन् हृष्टो गोव्रजं गोपनादितम् ॥ ३० ॥
प्रत्युद्‌गतो गोपवृद्धैः स्त्रीभिर्वृद्धाभिरेव च ।
निवेशं रोचयामास परिवर्ते सुखाश्रये ॥ ३१ ॥
वनके फूलोंका कर्णभूषण धारण किये बहुत-सी गोपकन्याएँ वहाँ सिरपर घड़े लिये आती-जाती थी । उनके स्तनोंके अग्रभाग चोलीसे बंधे थे और उनपर आँचल पड़ा हुआ था । यमुनाजीके तटपर गये हुए मार्गसे जल लानेवाली उन गोपकुमारियोंसे वह व्रज घिरा हुआसा जान पड़ता था । ग्वालोंके शब्दसे गूंजते हुए उस गोव्रजमें प्रवेश करते समय नन्दरायजीको बड़ा हर्ष हुआ । वृद्ध गोपों तथा बड़ी-बूढ़ी स्त्रियोंने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया । तत्पश्चात् उन्होंने चारों ओरसे घिरे हुए उस सुखदायक आवासस्थानमें रहनेके लिये रुचि प्रकट की ॥ २९-३१ ॥

सा यत्र रोहिणी देवी वसुदेवसुखावहा ।
तत्र तं बालसूर्याभं कृष्णं गूढं न्यवेशयत् ॥ ३२ ॥
वसुदेवजीको सुख देनेवाली रोहिणीदेवी जहाँ रहती थीं, वहीं उन्होंने व्रजमें गुप्तरूपसे रहनेवाले बालसूर्यके समान तेजस्वी श्रीकृष्णको सुला दिया ॥ ३२ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि
गोव्रजगमनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें नन्दजीका गोत्रज्में गमनविषयक पांचवां अध्याय पूरा हुआ ॥ ५ ॥




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