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श्रीहरिवंशपुराण
विष्णुपर्व
षष्ठोऽध्यायः


शकटभङ्‌‌‍गपूतनावधौ
शकट-भञ्जन और पूतना-वध -


वैशंपायन उवाच
तत्र तस्यासतः कालः सुमहानत्यवर्तत ।
गोव्रजे नन्दगोपस्य बल्लवत्वं प्रकुर्वतः ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! उस गोव्रजमें रहकर गोपकर्म करते हुए नन्दगोपके बहुत दिन बीत गये ॥ १ ॥

दारकौ कृतनामानौ ववृधाते सुखं च तौ ।
ज्येष्ठः संकर्षणो नाम कनीयान् कृष्ण एव तु ॥ २ ॥
वहाँ उन दोनों बालकोंका उन्होंने नामकरणसंस्कार कर दिया । तदनन्तर वे दोनों भाई वहाँ बड़े सुखसे रहने और दिनोंदिन बढ़ने लगे । उनमें बड़ेका नाम 'संकर्षण' था और छोटेका 'कृष्ण' ॥ २ ॥

मेघकृष्णस्तु कृष्णोऽभूद् देहान्तरगतो हरिः ।
व्यवर्धत गवां मध्ये सागरस्य इवाम्बुदः ॥ ३ ॥
दूसरे शरीरमें आये हुए भगवान् श्रीहरि ही 'कृष्ण' नामसे विख्यात हुए । उनकी अङ्गकान्ति श्याम मेघकी भाँति साँवली थी । जैसे समुद्रमें मेघकी वृद्धि होती है, उसी प्रकार वे गौओंके बीच में रहकर बढ़ने लगे ॥ ३ ॥

शकटस्य त्वधः सुप्तं कदाचित्पुत्रगृद्धिनी ।
यशोदा तं समुत्सृज्य जगाम यमुनां नदीम् ॥ ४ ॥
यशोदा अपने पुत्रको हदयसे चाहनेवाली थी । एक दिनकी बात है, लाला कन्हैया छकड़ेके नीचे सोया था, उसे उसी अवस्था छोड़कर यशोदा मैया यमुनाजीमें नहानेके लिये चली गयीं ॥ ४ ॥

शिशुलीलां ततः कुर्वन् स हस्तचरणौ क्षिपन् ।
रुरोद मधुरं कृष्णः पादावूर्ध्वं प्रसारयन् ॥ ५ ॥
फिर तो लाला कन्हैया बाललीला करता हुआ अपने दोनों हाथ-पैर फेंकने लगा । पैरोंको ऊँचेतक फैलाकर मधुर स्वरमें रोने लगा ॥ ५ ॥

स तत्रैकेन पादेन शकटं पर्यवर्तयत् ।
न्युब्जं पयोधराकाङ्‌‌‍क्षी चकार च रुरोद च ॥ ६ ॥
(अब उसके मनमें मैयाके दूध पीनेकी इच्छा जाग उठी, फिर तो) उसने वहाँ एक ही पैरके धक्केसे छकड़ेको औंधा उलट दिया । यह सब उसने स्तनपानकी इच्छासे ही किया था । यह अद्भुत लीला करके वह रोने लगा ॥ ६ ॥

एतस्मिन्नन्तरे प्राप्ता यशोदा भयविक्लवा ।
स्नाता प्रस्रवदिग्धाङ्‌‌‍गी बद्धावत्सेव सौरभी ॥ ७ ॥
इसी बीचमें भयसे व्याकुल हुई यशोदा मैया नहाकर लौट आयी । उसके स्तनोंसे दूध झर रहा था, जो उसके अन्य अङ्गोंमें भी फैलता जा रहा था । जिसका बछड़ा बँधा हुआ हो, उस गायकी भाँति वह अपने बच्चेको स्तन पिलानेके लिये उत्सुक थी ॥ ७ ॥

सा ददर्श विपर्यस्तं शकटं वायुना विना ।
हाहेति कृत्वा त्वरिता दारकं जगृहे तदा ॥ ८ ॥
उसने देखा, बिना आँधी-पानीके ही यह छकड़ा उलटा पड़ा है । फिर तो 'हाय ! हाय !' करके तुरंत ही लालाको गोदमें उठा लिया ॥ ८ ॥

न सा बुबोध तत्त्वेन शकटं परिवर्तितम् ।
स्वस्ति ते दारकायेति प्रीता भीतापि साभवत् ॥ ९ ॥
वह इस बातको न जान सकी कि छकड़ेके उलट जानेका वास्तवमें क्या कारण है ? 'भगवान् मेरे लालाको सकुशल रखें'-ऐसा कहकर मैया पुत्र-प्रेममें मग्न हो गयी और 'बच्चेको कहीं चोट तो नहीं लगी'-इस आशङ्कासे उसको भय भी हुआ ॥ ९ ॥

किं तु वक्ष्यति ते पुत्र पिता परमकोपनः ।
त्वय्यधः शकटे सुप्ते अकस्माच्च विलोडिते ॥ १० ॥
(वह बच्चेकी ओर देखकर बोली-) 'बेटा ! तुम्हारे पिता बड़े क्रोधी हैं । तुम छकड़ेके नीचे सोये थे और वह अकस्मात् उलट गया । यह सुनकर वे न जाने मुझे क्या-क्या कहेंगे ? ॥ १० ॥

किं मे स्नानेन दुःस्नानं किं च मे गमने नदीम् ।
पर्यस्ते शकटे पुत्र या त्वां पश्याम्यपावृतम् ॥ ११ ॥
लाला ! मुझे नहानेसे क्या मिलता ? यदि तुम्हें कुछ हो जाता तो मेरा वह स्नान तो दुःस्नान ही था । मुझे नदीतटपर जानेको भी क्या आवश्यकता थी ? वहाँसे लौटकर देखती हूँ तो छकड़ा उलटा पड़ा है और तुम खुले आकाशके नीचे सोये हो ! (हाय ! हाय ! यह सब कैसे हुआ ?)' ॥ ११ ॥

एतस्मिन्नन्तरे गोभिराजगाम वनेचरः ।
काषायवाससी बिभ्रन् नन्दगोपो व्रजान्तिकम् ॥ १२ ॥
इसी समय गौओंके साथ वनमें विचरकर नन्दजी व्रजके निकट आये । उन्होंने गेरुए रंगके दो वस्त्र धारण कर रखे थे ॥ १२ ॥

स ददर्श विपर्यस्तं भिन्नभाण्डघटीघटम् ।
अपास्तधूर्विभिन्नाक्षं शकटं चक्रमौलिनम् ॥ १३ ॥
उन्होंने देखा, इकड़ा औंधा पड़ा है । उसपर लदे हुए सारे बर्तन, घड़े, माँट और मटके चकनाचूर हो गये हैं । जुआ निकलकर दूर जा पड़ा है । धुरा टूट गया है और पहिया मुकुटके समान ऊपरको उठ गया है ॥ १३ ॥

भीतस्त्वरितमागत्य सहसा साश्रुलोचनः ।
अपि मे स्वस्ति पुत्रायेत्यसकृद् वचनं वदन् ॥ १४ ॥
यह देखकर वे डर गये और जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाते हुए सहसा घर आ पहुँचे । उस समय उनके नेत्रोंमें आँसू भरे हुए थे । वे बार-बार पूछने लगे, 'महर ! मेरा लाला कुशलसे तो है न ?' ॥ १४ ॥

पिबन्तं स्तनमालक्ष्य पुत्रं स्वस्थोऽब्रवीत् पुनः ।
वृषयुद्धं विना केन पर्यस्तं शकटं मम ॥ १५ ॥
फिर बेटेको स्तनपान करते देख उनके जी-में-जी आया । उन्होंने पुन: पूछा, 'महर ! बैलोंमें लड़ाई तो हुई नहीं, फिर यह छकड़ा कैसे उलट गया ?' ॥ १५ ॥

प्रत्युवाच यशोदा तं भीता गद्‌गदभाषिणी ।
न विजानाम्यहं केन शकटं परिवर्तितम् ॥ १६ ॥
अहं नदीं गता सौम्य चैलप्रक्षालनार्थिनी ।
आगता च विपर्यस्तमपश्यं शकटं भुवि ॥ १७ ॥
यशोदाने भयभीत होकर गद्गद वाणीमें कहा'नाथ ! मैं नहीं जानती कि किसने छकड़ा उलट दिया । सौम्य ! मैं तो कपड़े धोनेके लिये यमुनाजीके तटपर गयी थी । लौटकर देखती हूँ तो छकड़ा धरतीपर औंधा पड़ा है' ॥ १६-१७ ॥

तयोः कथयतोरेवमब्रुवंस्तत्र दारकाः ।
अनेन शिशुना यानमेतत्पादेन लोडितम् ॥ १८ ॥
अस्माभिः संपतद्‌भिश्च दृष्टमेतद् यदृच्छया ।
नन्दगोपस्तु तच्छ्रुत्वा विस्मयं परमं ययौ ॥ १९ ॥
प्रहृष्टश्चैव भीतश्च किमेतदिति चिन्तयन् ।
न च ते श्रद्धधुर्गोपाः सर्वे मानुषबुद्धयः ॥ २० ॥
आश्चर्यमिति ते सर्वे विस्मयोत्फुल्ललोचनाः ।
स्वे स्थाने शकटं प्राप्य चक्रबन्धमकारयन् ॥ २१ ॥
वे दोनों जब इस प्रकार वार्तालाप कर रहे थे, उस समय वहाँ आये हुए व्रजके बालकोंने कहा-'बाबा ! तुम्हारे इस लालाने ही अपने पैरसे मारकर यह गाड़ी लुढ़का दी है । हमलोग अकस्मात् यहाँ दौड़े हुए आये थे । हमने अपनी आँखों यह घटना देखी है । 'बालकोंकी वह बात सुनकर नन्दगोपको बड़ा विस्मय हुआ । वे पहले तो प्रसन्न हुए, परंतु ऐसा सोचते हुए कि यह क्या है, वे फिर डर गये । वहाँ जो बड़ेबड़े गोप थे, उन सबको इस बातपर विश्वास नहीं हुआ; क्योंकि वह उस बच्चेको साधारण मनुष्यका ही बालक समझते थे । फिर भी वे सब-के-सब इस घटनासे आचर्य करने लगे थे । उनके नेत्र विस्मयसे खिल उठे थे । वे छकड़ेको अपनी जगहपर खड़ा करके उसमें पहिये जोड़ने लगे ॥ १८-२१ ॥

वैशंपायन उवाच
कस्यचित्त्वथ कालस्य शकुनी वेषधारिणी ।
धात्री कंसस्य भोजस्य पूतनेति परिश्रुता ॥ २२ ॥
पूतना नाम शकुनी घोरा प्राणिंभयङ्‌‌‍करी ।
आजगामार्धरात्रे वै पक्षौ क्रोधाद् विधुन्वती ॥ २३ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! कुछ कालके बाद व्रजमें आधी रातके समय क्रोधपूर्वक अपने दोनों पंख हिलाती हुई पक्षिणीका वेष धारण किये एक राक्षसी आयी । वह भोजराज कंसकी धाय थी, उसका नाम पूतना था । पूतना नामवाली वह घोर पक्षिणी समस्त प्राणियोंके लिये भयंकर थी ॥ २२-२३ ॥

ततोऽर्धरात्रसमये पूतना प्रत्यदृश्यत ।
व्याघ्रगंभीरनिर्घोषं व्याहरन्ती पुनः पुनः ॥ २४ ॥
आधी रातके समय जब पूतना दिखायी दी, उस समय वह व्याघ्रके दहाड़नेके-से गम्भीर घोषमें बारम्बार गर्जना कर रही थी ॥ २४ ॥

निलिल्ये शकटस्याक्षे प्रस्रवोत्पीडवर्षिणी ।
ददौ स्तनं च कृष्णाय तस्मिन् सुप्ते जने निशि ॥ २५ ॥
वह मानवी स्त्रीका वेष धारण करके छकड़ेके धुरेके नीचे छिप गयी । उस समय उसके स्तनोंमें इतना दूध बढ़ आया था कि उनमें पीड़ा होने लगी थी, इसीलिये वह दूधकी वर्षा-सी करने लगी । उस निशीथकालमें जब सब लोग सो गये थे, उसने कृष्णके मुख में अपना स्तन दे दिया ॥ २५ ॥

तस्याः स्तनं पपौ कृष्णः प्राणैः सह विनद्य च ।
छिन्नस्तनी तु सहसा पपात शकुनी भुवि ॥ २६ ॥
लाला कन्हैया उस स्तनको उसके प्राणोंके साथ ही पी गया, उसका स्तन कट गया और वह पक्षिणी घोर चीत्कार करके सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ी ॥ २६ ॥

तेन शब्देन वित्रस्तास्ततो बुबुधिरे भयात् ।
स नन्दगोपो गोपा वै यशोदा च सुविक्लवा ॥ २७ ॥
उसके उस शब्दसे संत्रस्त होकर नन्दगोप, दूसरे-दूसरे गोप तथा अत्यन्त व्याकुल हुई यशोदा-ये सब-के-सब भयके मारे जाग उठे ॥ २७ ॥

ते तामपश्यन् पतितां विसंज्ञां विपयोधराम् ।
पूतनां पतितां भूमौ व्रजेणेव विदारिताम् ॥ २८ ॥
उन्होंने देखा, पूतना पृथ्वीपर अचेत होकर पड़ी है । उसका स्तन कट गया है और वह ऐसी प्रतीत होती है, मानो वज्रसे विदीर्ण कर दी गयी हो ॥ २८ ॥

इदं किं त्विति संत्रस्ताः कस्येदं कर्म चेत्यपि ।
नन्दगोपं पुरस्कृत्य गोपास्ते पर्यवारयन् ॥ २९ ॥
यह क्या है ? किसका यह कर्म है ? ऐसी बातें करते हुए वे गोप भयभीत हो गये और नन्दजीको आगे करके पूतनाको घेरकर खड़े हो गये ॥ २९ ॥

नाध्यगच्छन्त च तदा हेतुं तत्र कदाचन ।
आश्चर्यमाश्चर्यमिति ब्रुवन्तोऽनुययुर्गृहान् ॥ ३० ॥
वे उस समय उस घटनाके कारणका पता कदापि न लगा सके और 'आश्चर्य है ! आश्चर्य है । ' ऐसा कहते हुए अपने-अपने घरोंको चले गये ॥ ३० ॥

गतेषु तेषु गोपेषु विस्मितेषु यथागृहम् ।
यशोदां नन्दगोपस्तु पप्रच्छ गतसंभ्रमः ॥ ३१ ॥
उन विस्मित हुए गोपोंके अपनेअपने घर चले जानेपर सम्भ्रमरहित हुए नन्दगोपने यशोदासे पूछा- ॥ ३१ ॥

कोऽयं विधिर्न जानामि विस्मयो मे महानयम् ।
पुत्रस्य मे भयं तीव्रं भीरुत्वं समुपागतम् ॥ ३२ ॥
'विधाताका यह कैसा विधान है, यह मेरी समझमें नहीं आता । इस घटनासे मुझे महान् विस्मय हो रहा है । यहाँ मेरे पुत्रके लिये तीव्र भय उपस्थित हुआ है, जिससे हमलोगोंमें भीरुता आ गयी है' ॥ ३२ ॥

यशोदा त्वब्रवीद् भीता नार्य जानामि किं त्विदम् ।
दारकेण सहानेन सुप्ता शब्देन बोधिता ॥ ३३ ॥
यह सुनकर यशोदाने भयभीत होकर कहा-'आर्य ! मैं भी नहीं जानती कि यह क्या है ? मैं तो इस बच्चेके साथ सोयी थी । इस राक्षसीके चीत्कारसे ही जग गयी हूँ' ॥ ३३ ॥

यशोदायामजानन्त्यां नन्दगोपः सबान्धवः ।
कंसाद् भयं चकारोग्रं विस्मयं च जगाम ह ॥ ३४ ॥
जब यशोदाने भी अपनी अनभिज्ञता प्रकट की, तब बन्धुबान्धवोंसहित नन्दगोप कंससे अत्यन्त भय मानने लगे और मन-ही-मन विस्मयको प्राप्त हुए ॥ ३४ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवांशे विष्णुपर्वणि
शिशुचर्यायां शकटभङ्‌‌‍गपूतनावधे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें श्रीकृष्णको बाललीलाके प्रसझमें शकट भङ्ग और पूतनाका वधविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥




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