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श्रीहरिवंशपुराण
विष्णुपर्व
सप्तमोऽध्यायः


यमलार्जुनभङ्‌‌‍गः
श्रीकृष्ण और बलरामका व्रजमें घुटनोंके बल चलना तथा श्रीकृष्णका उलूखलमें बँधकर यमलार्जुन-भङ्गकी लीला करना -


वैशंपायन उवाच
काले गच्छति तौ सौम्यौ दारकौ कृतनामकौ ।
कृष्णसङ्‌‌‍कर्षणौ चोभौ रिङ्‌‌‍गिणौ समपद्यताम् ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! कुछ काल बीतनेपर वे दोनों सौम्य बालक, जिनके नामकरणसंस्कार हो चुके थे और जो कृष्ण और संकर्षण नामसे प्रसिद्ध थे, घुटनोंके बल चलने-फिरने लगे ॥ १ ॥

तावन्योन्यगतौ बालौ बाल्यादेवैकतां गतौ ।
एकमूर्तिधरौ कान्तौ बालचन्द्रार्कवर्चसौ ॥ २ ॥
बचपनसे ही वे दोनों बच्चे एक दूसरेमें अन्तर्भूत-से होकर एकताको प्राप्त हो गये थे । ऐसा जान पड़ता था कि ये दोनों एक ही शरीर धारण करते हैं । वे दोनों भाई बालचन्द्र और बालसूर्यके समान कान्तिमान् थे ॥ २ ॥

एकनिर्माणनिर्मुक्तावेकशय्यासनाशनौ ।
एकवेषधरावेकं पुष्यमानौ शिशुव्रतम् ॥ ३ ॥
वे दोनों मानो एक ही साँचेके ढले थे (अथवा अभिन्न और जन्मरहित थे) । एक-सी शय्या, आसन और भोजनका उपभोग करते थे । एक समान वेष धारण करते थे और एक ही शिशुव्रतका पालन करनेवाले थे ॥ ३ ॥

एककार्यान्तरगतावेकदेहौ द्विधाकृतौ ।
एकचर्यौ महावीर्यावेकस्य शिशुतां गतौ ॥ ४ ॥
वे एक ही कार्यमें संलग्न थे और एक ही शरीरके दो भाग-से प्रतीत होते थे । उनकी दिनचर्या एक-सी थी । वे महापराक्रमी बालक एक ही पिताके शिशु थे ॥ ४ ॥

एकप्रमाणौ लोकानां देववृत्तान्तमानुषौ ।
कृत्स्नस्य जगतो गोपा संवृत्तौ गोपदारकौ ॥ ५ ॥
लोगोंकी दृष्टि में वे एक जैसे कदके थे । उन्होंने देवताओंके 'दुष्टदमन और धर्मस्थापन' रूप सिद्धान्तके पालनके लिये मानव-शरीर ग्रहण किया था । वे सम्पूर्ण जगत्के संरक्षक होकर भी गोपबालक बन गये थे ॥ ५ ॥

अन्योन्यव्यतिषक्ताभिः क्रीडाभिरभिशोभितौ ।
अन्योन्यकिरणग्रस्तौ चन्द्रसूर्याविवांबरे ॥ ६ ॥
वे दोनों भाई एक दूसरेसे मिली हुई क्रीड़ाओद्वारा सुशोभित होते थे, जैसे आकाशमें चन्द्रमा और सूर्य एक-दूसरेकी किरणोंसे बँधकर एक साथ हो गये हों ॥ ६ ॥

विसर्पन्तौ तु सर्वत्र सर्पभोगभुजावुभौ ।
रेजतुः पांसुदिग्धाङ्‌‌‍गौ दॄप्तौ कलभकाविव ॥ ७ ॥
उन दोनोंकी भुजाएँ सपोंके शरीरके समान जान पड़ती थीं । वे उनके द्वारा सब ओर चलते-फिरते और सरकते थे । उस समय धूलसे भरे हुए शरीरवाले वे दोनों भाई दर्पभरे दो हस्ति-शावकोंके समान शोभा पाते थे ॥ ७ ॥

क्वचिद् भस्मप्रदीप्ताङ्‌‌‍गौ करीषप्रोक्षितौ क्वचित् ।
तौ तत्र पर्यधावेतां कुमाराविव पावकी ॥ ८ ॥
कहीं तो उनके दीसिमान् अङ्गोंमें राख लिपट जाती और कहीं वे करसी (कंडोंके चूर्ण)से नहा उठते थे । वे वहाँ अग्निके दो कुमार शाख और विशाखके समान सुशोभित होते हुए सब ओर दौड़ लगाते थे ॥ ८ ॥

क्वचिज्जानुभिरुद्घृष्टैः सर्पमानौ विरेजतुः ।
क्रीडन्तौ वत्सशालासु शकृद्दिग्धाङ्‌‌‍गमूर्धजौ ॥ ९ ॥
कभी घिसे हुए घुटनोंके बल सरकते हुए श्रीकृष्ण-बलराम बड़ी शोभा पाते थे । कभी वे बछड़ोंके स्थानों में जाकर खेलने लगते और सारे अङ्गों तथा सिरके बालोंमें गोबर लपेट लेते थे ॥ ९ ॥

शुशुभाते श्रिया जुष्टावानन्दजननौ पितुः ।
जनं च विप्रकुर्वाणौ विहसन्तौ क्वचित् क्वचित् ॥ १० ॥
कान्तिरूपिणी श्रीसे सेवित होकर वे दोनों भाई अनुपम शोभा पाते और पिताको आनन्द प्रदान करते थे । कभीकभी बालस्वभाववश किसी-किसीके विपरीत कार्य कर बैठते और जोर-जोरसे हँसने लगते थे ॥ १० ॥

तौ तत्र कौतूहलिनौ मूर्धजव्याकुलेक्षणौ ।
रेजतुश्चन्द्रवदनौ दारकौ सुकुमारकौ ॥ ११ ॥
वे सदा क्रीड़ा-कौतूहलमें ही लगे रहते थे । उनके सिरके धुंघराले बाल नेत्रोंपर लटककर उन्हें व्याकुल एवं चञ्चल कर देते थे । उन दोनोंके मुख चन्द्रमाके समान सुन्दर थे, अतः वे सुकुमार बालक बड़े सुहावने लगते थे ॥ ११ ॥

अतिप्रसक्तौ तौ दृष्ट्‍वा सर्वव्रजविचारिणौ
नाशकत्तौ वारयितुं नन्दगोपः सुदुर्मदौ ॥ १२ ॥
वे क्रीड़ामें ही आसक्त हो सारे व्रजमें विचरते रहते थे । उन दोनों अत्यन्त मतवाले बालकोंको सर्वत्र जाते देखकर भी नन्दगोप रोक नहीं पाते थे ॥ १२ ॥

ततो यशोदा सङ्‌‌‍क्रुद्धा कृष्णं कमललोचनम् ।
आनाय्य शकटीमूले भर्त्सयन्ती पुनः पुनः ॥ १३ ॥
दाम्ना चैवोदरे बद्ध्वा प्रत्यबन्धदुलूखले ।
यदि शक्तोऽसि गच्छेति तमुक्त्वा कर्म साकरोत् ॥ १४ ॥
तब एक दिन यशोदा मैया अत्यन्त कुपित हो कमलनयन श्रीकृष्णको एक गाड़ी के पास ले जाकर बारम्बार डाँटनेफटकारने लगी । इतना ही नहीं, उसने उनके पेट और कमरमें रस्सी बाँधकर उस रस्सीको ओखलीमें कस दिया और कहा-'अब जा सको तो जाओ । ' इतना कहकर वह घरके काम-धंधोंमें लग गयी ॥ १३-१४ ॥

व्यग्रायां तु यशोदायां निर्जगाम ततोऽङ्‌‌‍गणात् ।
शिशुलीलां ततः कुर्वन् कृष्णो विस्मापयन् व्रजम् ॥ १५ ॥
सोऽङ्‌‌‍गणान्निस्सृतः कृष्णः कर्षमाण उलूखलम् ।
यमलाभ्यां प्रवृद्धाभ्यामर्जुनाभ्यां चरन् वने ।
मध्यान्निश्चक्राम तयोः कर्षमाण उलूखलम् ॥ १६ ॥
यशोदाके कार्यमें तत्पर होते ही लाला कन्हैया बाल-लीला करता और व्रजके लोगोंको विस्मयमें डालता हुआ आँगनसे निकला । वह ओखलीको घसीटता हुआ वनकी ओर चला । मार्गमें एक साथ उत्पन्न हुए दो अर्जुनके वृक्ष थे, जो बहुत बड़े हो गये थे । कन्हैया अपनी ओखलीको खींचता हुआ उन्हीं दोनों वृक्षोंके बीचसे होकर निकला ॥ १५-१६ ॥

तत् तस्य कर्षतो बद्धं तिर्यग्गतमुलूखलम्
लग्नं ताभ्यां सुमूलाभ्यामर्जुनाभ्यां चकर्ष च ॥ १७ ॥
खींचते हुए कन्हैयाके उदरसे बंधी हुई वह ओखली टेढ़ी होकर उन दोनों अर्जुन-वृक्षोंकी जड़में जा लगी और वहीं अटक गयी । फिर तो उसने उन वृक्षासहित ओखलीको जोरसे खींचा ॥ १७ ॥

तावर्जुनौ कृष्यमाणौ तेन बालेन रंहसा ।
समूलविटपौ भग्नौ स तु मध्ये जहास वै ॥ १८ ॥
निदर्शनार्थं गोपानां दिव्यं स्वबलमास्थितः ।
तद्दाम तस्य बालस्य प्रभावादभवद् दृढम् ॥ १९ ॥
यमुनातीरमार्गस्था गोप्यस्तं ददृशुः शिशुम् ।
क्रन्दन्त्यो विस्मयन्त्यश्च यशोदां ययुरङ्‌‌‍गनाः ॥ २० ॥
बालक कन्हैयाद्वारा वेगसे खींचे गये वे दोनों अर्जुन-वृक्ष जड़ और शाखाऑसहित टूटकर गिर पड़े और वह अपने दिव्य बलका आश्रय ले गोपोंको दिखानेके लिये उन दोनों वृक्षोंके बीच में खड़ा-खड़ा हँसने लगा । उस बालकके प्रभावसे वह रस्सी और भी दृढ़ हो गयी । यमुनातीरके मार्गपर खड़ी हुई गोपियोंने जब बाल कृष्णको उस अवस्थामें देखा, तब वे आश्चर्यचकित हो करुण-क्रन्दन करती हुई यशोदाजीके पास गयीं ॥ १८-२० ॥

तास्तु संभ्रान्तवदना यशोदामूचुरङ्‌‌‍गनाः ।
एह्यागच्छ यशोदे त्वं संभ्रमात् किं विलम्बसे ॥ २१ ॥
यौ तावर्जुनवृक्षौ तु व्रजे सत्योपयाचनौ ।
पुत्रस्योपरि तावेतौ पतितौ ते महीरुहौ ॥ २२ ॥
उन सबके मुखपर घबराहट छायी हुई थी । उन गोपाङ्गनाओंने यशोदासे कहा-'यशोदाजी ! वेगसे आओ ! आओ ! ! सम्भ्रमके कारण तुम विलम्ब क्यों करती हो ? व्रजमें वे जो दोनों अर्जुन-वृक्ष थे, जहाँ हमारी प्रत्येक याचना और मनौती सफल होती थी, वे दोनों वृक्ष तुम्हारे पुत्रके ऊपर गिर पड़े ॥ २१-२२ ॥

दृढेन दाम्ना तत्रैव बद्धो वत्स इवोदरे ।
जहास वृक्षयोर्मध्ये तव पुत्रः स बालकः ॥ २३ ॥
जैसे बँधा हुआ बछड़ा हो, उसी प्रकार उदरमें मजबूत रस्सीसे बँधा हुआ तुम्हारा वह बालक उन वृक्षोंके बीचमें खड़ा-खड़ा हँस रहा था ॥ २३ ॥

उत्तिष्ठ गच्छ दुर्मेधे मूढे पण्डितमानिनि ।
पुत्रमानय जीवन्तं मुक्तं मृत्युमुखादिव ॥ २४ ॥
अपनेको पण्डित माननेवाली मूल दुर्बुद्धि यशोदे ! उठो । चलो हमारे साथ और अपने जीवित पुत्रको, जो मानो मौतके मुखसे बचकर निकला है, घर ले आओ' ॥ २४ ॥

सा भीता सहसोत्थाय हाहाकारं प्रकुर्वती ।
तं देशमगमद् यत्र पातितौ तावुभौ द्रुमौ ॥ २५ ॥
यशोदा भयभीत हो सहसा उठी और हाहाकार करती हुई उस स्थानपर गयी, जहाँ उसके लालाने उन दोनों वृक्षोंको धराशायी कर दिया था ॥ २५ ॥

सा ददर्श तयोर्मध्ये द्रुमयोरात्मजं शिशुम् ।
दाम्ना निबद्धमुदरे कर्षमाणमुलूखलम् ॥ २६ ॥
उसने अपने पुत्रको उन दोनों वृक्षोंके बीचमें खड़ा देखा, जो रस्सीसे पेटमें बंधी हुई ओखलीको अपनी ओर खींच रहा था ॥ २६ ॥

सगोपीगोपवृद्धश्च समुवाच व्रजस्तदा ।
पर्यागच्छन्त ते द्रष्टुं गोपेषु महदद्भुतम् ॥ २७ ॥
गोपियों और बड़े-बूढे गोपॉसहित सारे ब्रजमें उस समय इसी घटनाकी चर्चा होने लगी । गोपोंके यहाँ जो यह महान् और अद्भुत घटना घटित हुई थी, इसे देखनेके लिये चारों ओरसे लोग आने लगे ॥ २७ ॥

जजल्पुस्ते यथाकामं गोपा वनविचारिणः ।
केनेमौ पातितौ वृक्षौ घोषस्यायतनोपमौ ॥ २८ ॥
वनमें विचरनेवाले वे गोप अपनी इच्छाके अनुसार वहाँ आकर कहने लगे-'अहो ! व्रजके ये दोनों वृक्ष देवमन्दिरके समान थे, इनको किसने गिरा दिया ? ॥ २८ ॥

विना वातं विना वर्षं विद्युत्प्रपतनं विना ।
विना हस्तिकृतं दोषं केनेमौ पातितौ द्रुमौ ॥ २९ ॥
न आँधी चली, न वर्षा हुई, न बिजली गिरी और न किसी हाथीने ही आकर टक्कर मारा, इन सब दोषोंके बिना ही ये दोनों वृक्ष किसके द्वारा गिराये गये ? ॥ २९ ॥

अहो बत न शोभेतां विमूलावर्जुनाविमौ ।
भूमौ निपतितौ वृक्षौ वितोयौ जलदाविव ॥ ३० ॥
अहो ! जड़से अलग हो जानेके कारण पृथ्वीपर गिरे हुए ये दोनों अर्जुन-वृक्ष जलहीन बादलोंके समान शोभारहित हो गये हैं ॥ ३० ॥

यदीमौ घोषरचितौ घोषकल्याणकारिणौ ।
नन्दगोप प्रसन्नौ ते द्रुमावेवं गतावपि ।
यच्च ते दारको मुक्तो विपुलाभ्यामपि क्षितौ ॥ ३१ ॥
नन्दगोप ! यदि ये दोनों वृक्ष इस गोष्ठमें लगाये गये थे और समस्त घोषवासियोंका कल्याण करते थे तो आज इस अवस्थामें पहुँचकर भी ये दोनों आपपर प्रसन्न ही हैं, जिससे विशाल होनेपर भी इन वृक्षोंने पृथ्वीपर गिरते समय तुम्हारे बालकको जीवित छोड़ दिया है ॥ ३१ ॥

औत्पातिकमिदं घोषे तृतीयं वर्तते त्विह ।
पूतनाया विनाशश्च द्रुमयोः शकटस्य च ॥ ३२ ॥
इस व्रजमें यह तीसरी बार औत्पातिक घटना हुई है । पूतनाका विनाश, छकड़ेका उलटना और वृक्षोंका धराशायी होना-ये तीन उपद्रव यहाँ हो चुके ॥ ३२ ॥

अस्मिन्स्थाने च वासोऽयं घोषस्यास्य न युज्यते ।
उत्पाता ह्यत्र दृश्यन्ते कथयन्तो न शोभनम् ॥ ३३ ॥
इस स्थानपर हमारे इस व्रजका रहना अब उचित नहीं जान पड़ता; क्योंकि यहाँ अशुभ परिणामकी सूचना देनेवाले उत्पात दिखायी देने लगे हैं' ॥ ३३ ॥

नन्दगोपस्तु सहसा मुक्त्वा कृष्णमुलूखलात् ।
निवेश्य चाङ्‍के सुचिरं मृतं पुनरिवागतम् ॥ ३४ ॥
नातृप्यत्प्रेक्षमाणो वै कृष्णं कमललोचनम् ।
ततो यशोदां गर्हन् वै नन्दगोपो विवेश ह ॥ ३५ ॥
स च गोपजनः सर्वो व्रजमेव जगाम ह ।
स च तेनैव नाम्ना तु कृष्णो वै दामबन्धनात् ।
गोष्ठे दामोदर इति गोपीभिः परिगीयते ॥ ३६ ॥
इतनेहीमें नन्दगोपने सहसा बन्धन खोलकर श्रीकृष्णको ओखलीसे मुक्त कर दिया और मानो वह बालक मरकर पुनः जी उठा हो, ऐसा मानते हुए वे देरतक उसे अपनी गोदमें चिपकाये रहे । उस समय वे कमलनयन श्रीकृष्णकी ओर देखते-देखते तृस नहीं होते थे । तदनन्तर नन्दगोप यशोदाकी निन्दा करते हुए घरमें गये, साथ ही अन्य सब गोप भी व्रजमें ही पधारे । उस दाम अर्थात् रस्सीसे उदरमें बाँधे जानेके कारण श्रीकृष्णका नाम दामोदर हो गया । ब्रजमें गोपियाँ उसी नामसे उनकी लीलाओंका गान करने लगीं ॥ ३४-३६ ॥

एतदाश्चर्यभूतं हि बालस्यासीद् विचेष्टितम् ।
कृष्णस्य भरतश्रेष्ठ घोषे निवसतस्तदा ॥ ३७ ॥
भरतश्रेष्ठ ! व्रजमें निवास करते समय बालक श्रीकृष्णकी ऐसी ही आश्चर्यमयी लीलाएँ होती रहती थीं ॥ ३७ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवांशे विष्णुपर्वणि
शिशुचर्यायां यमलार्जुनभङ्‌‌‍गे नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णपर्वमें बाललीलाके प्रसङ्गमें यमलार्जुनमविषयक सातवां अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥




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