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श्रीहरिवंशपुराण
विष्णुपर्व
अष्टमोऽध्यायः


वृकवर्णनम्
श्रीकृष्ण-बलरामकी बालचर्या, श्रीकृष्णके द्वारा व्रजको अन्यत्र ले जानेकी चेष्टा और अपने शरीरसे भेड़ियोंको उत्पन्न करके उनका समूचे व्रजको डराना -


वैशंपायन उवाच
एवं तौ बाल्यमुत्तीर्णौ कृष्णसंकर्षणावुभौ ।
तस्मिन्नेव व्रजस्थाने सप्तवर्षौ बभूवतुः ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय । इस प्रकार श्रीकृष्ण और संकर्षण दोनों भाई उसी व्रजमें बाल्यावस्थाको पार करके सात वर्षके हो गये ॥ १ ॥

नीलपीताम्बरधरौ पीतश्वेतानुलेपनौ ।
बभूवतुर्वत्सपालौ काकपक्षधरावुभौ ॥ २ ॥
इनमेंसे एक (बलराम) तो नील वस्त्र धारण करते थे और दूसरे (श्रीकृष्ण) पीत वस्त्र । दोनोंके चन्दन और अङ्गराग भी क्रमश: पीले और श्वेत थे । दोनों ही काकपक्ष धारण करते थे । अब वे दोनों भाई बछड़े चराने लगे ॥ २ ॥

पर्णवाद्यं श्रुतिसुखं वादयन्तौ वराननौ ।
शुशुभाते वनगतौ त्रिशीर्षाविव पन्नगौ ॥ ३ ॥
उन दोनोंके मुख बड़े सुन्दर थे । वे वनमें जाकर कानोंको सुख देनेवाले पत्तोंके बाजे (पिपीहरी या सीटी) बजाते हुए तीन सिरवाले सपोंके समान शोभा पाते थे ॥ ३ ॥

मयूराङ्‌‌‍गदकर्णौ तु पल्लवापीडधारिणौ ।
वनमालाकुलोरस्कौ द्रुमपोताविवोद्‌गतौ ॥ ४ ॥
मोरपडके ही बाजूबंद और कर्णभूषण पहने तथा पत्तोंके ही मुकुट धारण किये वे दोनों भाई वृक्षके निकले हुए नये पौधोंके समान दिखायी देते थे । उनका वक्षःस्थल वनमालासे व्याप्त था ॥ ४ ॥

अरविन्दकृतापीडौ रज्जुयज्ञोपवीतिनौ ।
सशिक्यतुम्बकरकौ गोपवेणुप्रवादकौ ॥ ५ ॥
कमलपुष्पोंके शिरोभूषण और रस्सीके यज्ञोपवीत धारण करके वे दोनों ग्वालबालोंके समान मुरली बजाया करते थे । उनके साथ छींका, तुम्बी और करक (करुआ या पुरवा) भी थे ॥ ५ ॥

क्वचिद्वसन्तावन्योन्यं क्रीडमानौ क्वचित् क्वचित् ।
पर्णशय्यासु संसुप्तौ क्वचिन्निद्रान्तरेक्षणौ ॥ ६ ॥
कहीं एकदूसरेकी ओर देखकर हँसते-हँसाते, कहीं भौति-भांतिके खेल खेलते और कहीं पत्तोंके बिछौनोंपर सोकर आँखोंमें नींद भर लेते थे ॥ ६ ॥

एवं वत्सान् पालयन्तौ शोभयन्तौ महावनम् ।
चञ्चूर्यन्तौ रमन्तौ स्म किशोराविव चञ्चलौ ॥ ७ ॥
इस प्रकार बछड़े चराते, महावनकी शोभा बढ़ाते, बारम्बार सब ओर चक्कर लगाते और चशल गतिवाले अश्वशावकोंके समान बनमें विहार करते थे ॥ ७ ॥

अथ दामोदरः श्रीमान् सङ्‌‌‍कर्षणमुवाच ह ।
आर्य नास्मिन् वने शक्यं गोपालैः सह क्रीडितुम् ॥ ८ ॥
अवगीतमिदं सर्वमावाभ्यां भुक्तकाननम् ।
प्रक्षीणतृणकाष्ठं च गोपैर्मथितपादपम् ॥ ९ ॥
तदनन्तर एक दिन शोभासम्पन्न दामोदर श्रीकृष्णने अपने भाई संकर्षणसे कहा-'आर्य ! अब इस वनमें ग्वालबालोंके साथ खेलना सम्भव नहीं है । हमलोगोंने इस सारे वनको अपने उपभोगमें लाकर इसकी शोभा-सम्पत्ति नष्ट कर दी है । यहाँकी घास चर ली गयी और काठ भी तोड़ लिये गये हैं । गोपोंने यहाँक एक-एक वृक्षको मथ डाला है ॥ ८-९ ॥

घनीभूतानि यान्यासन् काननानि वनानि च ।
तान्याकाशनिकाशानि दृश्यन्तेऽद्य यथासुखम् ॥ १० ॥
जो वन और कानन सघन थे, वे अब आकाशके समान सूने दिखायी देते हैं । इन्हें देखकर अब सुख नहीं मिलता ॥ १० ॥

गोवाटेष्वपि ये वृक्षाः परिवृत्तार्गलेषु च ।
सर्वे गोष्ठाग्निषु गताः क्षयमक्षयवर्चसः ॥ ११ ॥
"जिनके फाटकोंमें गोलाकार कुंडे लगे हैं, उन गोशालाओंमें भी अमिट शोभावाले जो वृक्ष थे, वे सब गोष्ठको आगमें जलकर नष्ट हो गये ॥ ११ ॥

संनिकृष्टानि यान्यासन् काष्ठानि च तृणानि च ।
तानि दूरावकृष्टासु मार्गितव्यानि भूमिषु ॥ १२ ॥
जो तृण और काष्ठ बहुत निकट थे, वे दूरतककी जोती हुई भूमियोंमें अब ढूँढ़नेके योग्य रह गये हैं ॥ १२ ॥

अरण्यमिदमल्पोदमल्पकक्षं निराश्रयम् ।
अन्वेषितव्यविश्रामं दारुणं विरलद्रुमम् ॥ १३ ॥
इस वनमें जल बहुत थोड़ा है, सूखे काठ और तृण भी बहुत कम हैं, यहाँ आश्रय लेनेयोग्य कोई स्थान नहीं है, यहाँ विश्रामके लिये भूमि खोजनी पड़ती है, विरले ही वृक्ष बच गये हैं, अतः इसकी बड़ी दारुण अवस्था हो गयी है ॥ १३ ॥

अकर्मण्येषु वृक्षेषु स्थितविप्रस्थितद्विजम् ।
संवासस्यास्य महतो जनेनोत्सादितद्रुमम् ॥ १४ ॥
यहाँके वृक्ष अब कामके नहीं रहे (इनमें फल-फूलका अभाव हो गया है) । इनपर जो पक्षी रहते थे, वे अब अन्यत्र प्रस्थान कर चुके हैं । इस विशाल बस्तीके लोगोंने यहाँकै वृक्षोंको उजाड़ कर दिया है ॥ १४ ॥

निरानन्दं निरास्वादं निष्प्रयोजनमारुतम् ।
निर्विहङ्‌‌‍गमिदं शून्यं निर्व्यञ्जनमिवाशनम् ॥ १५ ॥
यहाँ कोई आनन्द नहीं रहा, फलोंका आस्वाद दुर्लभ हो गया । यहाँ वायुका चलना भी निष्फल है (क्योंकि न तो वह सुगन्ध देती है और न फल ही गिराती हैइन दोनों वस्तुओंका यहाँ सर्वथा अभाव है) । पक्षियोंसे रहित यह सूना वन बिना व्यञ्जनके भोजनकी भाँति अच्छा नहीं लगता ॥ १५ ॥

विक्रीयमाणैः काष्ठैश्च शाकैश्च वनसंभवैः ।
उच्छिन्नसञ्चयतृणैर्घोषोऽयं नगरायते ॥ १६ ॥
यहाँकै सूखे काठ और इस वनमें होनेवाले शाक प्रतिदिन बेचे जा रहे हैं । यहाँ जो ढेर-के-ढेर तृण थे, उनका उच्छेद हो गया; इससे यह घोष (ब्रज) नगरके समान जान पड़ता है ॥ १६ ॥

शैलानां भूषणं घोषो घोषाणां भूषणं वनम् ।
वनानां भूषणं गावस्ताश्चास्माकं परा गतिः ॥ १७ ॥
पर्वतोंका भूषण है घोष (गोष्ठ), घोषोंका भूषण है वन और वनोंका आभूषण हैं गौएँ । वे गौएँ ही हमलोगोंकी परम गति (सबसे बड़ा सहारा) हैं ॥ १७ ॥

तस्मादन्यद् वनं यामः प्रत्यग्रयवसेन्धनम् ।
इच्छन्त्यनुपभुक्तानि गावो भोक्तुं तृणानि च ॥ १८ ॥
अतः अब हम दूसरे वनमें चलें, जहाँ नयी-नयी घास और ईंधनकी अधिकता हो । हमारी गौएँ उन नयी-नयी घासोंको चरना चाहती हैं, जो अबतक चरी नहीं गयी हैं ॥ १८ ॥

तस्माद्वनं नवतृणं गच्छन्तु धनिनो व्रजाः ।
न द्वारबन्धावरणा न गृहक्षेत्रिणस्तथा ।
प्रशस्ता वै व्रजा लोके यथा वै चक्रचारिणः ॥ १९ ॥
अत: जो व्रज धनसे सम्पन्न हों, वे उस वनमें चलें जहाँ नयीनयी घास उपलब्ध हो । जिनमें दरवाजे बँध गये हैं और चारों ओरसे बाड़ लग गये हैं, जहाँ स्थायी घर बन गये और खेत कर लिये गये; ऐसे व्रज लोकमें अच्छे नहीं माने जाते । उन्मुक्त विचरनेवाले हंसोंके समान बन्धनरहित होकर विभिन्न स्थानोंमें घूमते रहनेवाले व्रज ही श्रेष्ठ हैं ॥ १९ ॥

शकृन्मूत्रेषु तेष्वेव जातक्षाररसायनम् ।
न तृणं भुञ्जते गावो नापि तत् पयसे हितम् ॥ २० ॥
उन्हीं गोबर-मूत्रोंके हेरपर जो तृण पैदा होते हैं अथवा अन्यत्र पैदा हुए तृणोंपर जब गोबर-गोमूत्र पड़ जाते हैं, तब उनमें क्षार एवं रसायनके गुण आ जाते हैं; अतः गौएँ उन घासोंको चाहसे नहीं खाती हैं तथा वे तृण दूधके लिये भी हितकारी नहीं होते हैं' ॥ २० ॥

स्थलीप्रायासु रथ्यासु नवासु वनराजिषु ।
चरावः सहितौ गोभिः क्षिप्रं संवाह्यतां व्रजः ॥ २१ ॥
'आजकल इस बनकी सारी गलियाँ स्थल-सी हो गयी हैं । उनमें घास-फूसका नाम भी नहीं रह गया है । अतः चलिये, हम दोनों गौओंके साथ नूतन वन-श्रेणियोंमें विचरें । अब शीघ्र ही यहाँसे व्रजको अन्यत्र ले जाना चाहिये ॥ २१ ॥

श्रूयते हि वनं रम्यं पर्याप्तं तृणसंस्तरम् ।
नाम्ना वृन्दावनं नाम स्वादुवृक्षफलोदकम् ॥ २२ ॥
सुना जाता है कि वृन्दावन नामक वन बड़ा ही रमणीय है । वहाँ पर्याप्त घास फैली हुई है । वहाँकै वृक्षोंमें स्वादिष्ठ फल लगे हैं और वहाँका जल भी सुस्वादु है ॥ २२ ॥

अझिल्लिकण्टकवनं सर्वैर्वनगुणैर्युतम् ।
कदम्बपादपप्रायं यमुनातीरसंश्रितम् ॥ २३ ॥
उस वनमें न झिल्लियाँ (झींगुर) हैं, न काँटे । उसमें सभी वनसम्बन्धी गुणोंका संयोग है । वहाँ अधिकतर कदम्बके वृक्ष हैं तथा वह वन यमुनाके तटपर ही स्थित है ॥ २३ ॥

स्निग्धशीतानिलवनं सर्वर्तुनिलयं शुभम् ।
गोपीनां सुखसञ्चारं चारुचित्रवनान्तरम् ॥ २४ ॥
उसमें सदा स्निग्ध एवं शीतल वायु चलती रहती है । वहाँ सभी ऋतुओंका निवास है । वह वन बड़ा सुन्दर एवं सुखद है । वहाँ गोपियाँ बड़े सुखसे सब ओर विचर सकती हैं । वृन्दावनके भीतरी भागमें और भी बहुत-से विचित्र एवं मनोहर वन हैं ॥ २४ ॥

तत्र गोवर्धनो नाम नातिदूरे गिरिर्महान् ।
भ्राजते दीर्घशिखरो नन्दनस्येव मन्दरः ॥ २५ ॥
वहाँ गोवर्धन नामक महान् पर्वत है, जो उस वनसे अधिक दूर नहीं है । उसके बड़े-बड़े शिखर हैं । जैसे नन्दनवनके पास मन्दराचलकी शोभा होती है, उसी प्रकार वृन्दावनके निकट गोवर्धन सुशोभित होता है । ॥ २५ ॥

मध्ये चास्य महाशाखो न्यग्रोधो योजनोच्छ्रितः ।
भाण्डीरो नाम शुशुभे नीलमेघ इवाम्बरे ॥ २६ ॥
उस बनके मध्यभागमें विशाल शाखाओंसे सुशोभित एक बरगदका वृक्ष है, जो एक योजन ऊंचा है । उसका नाम है भाण्डीर वट । वह आकाशमें श्याम मेघके समान शोभा पाता है ॥ २६ ॥

मध्येन चास्य कालिन्दी सीमन्तमिव कुर्वती ।
प्रयाता नन्दनस्येव नलिनी सरितां वरा ॥ २७ ॥
जैसे नन्दनवनके बीचमें सरिताओंसे श्रेष्ठ नलिनी प्रवाहित होती है, उसी प्रकार वृन्दावनके मध्यभागमें सीमन्त-सा बनाती हुई कालिन्दी बहती है ॥ २७ ॥

तत्र गोवर्धनं चैव भाण्डीरं च वनस्पतिम् ।
कालिन्दीं च नदीं रम्यां द्रक्ष्यावश्चरतः सुखम् ॥ २८ ॥
हमलोग वहाँ चलनेपर गोवर्धन पर्वत, भाण्डीर वट तथा रमणीय कालिन्दी नदीका सुखपूर्वक दर्शन करेंगे ॥ २८ ॥

तत्रायं कल्प्यतां घोषस्त्यज्यतां निर्गुणं वनम् ।
संत्रासयावो भद्रं ते किञ्चिदुत्पाद्य कारणम् ॥ २९ ॥
'वहीं चलकर इस व्रजको बसाया जाय और इस गुणहीन वनको छोड़ दिया जाय । भैया ! आपका भला हो, कोई नवीन कारण उत्पन्न करके हम इन व्रजवासियोंको डरावें ॥ २९ ॥

एवं कथयतस्तस्य वासुदेवस्य धीमतः ।
प्रादुर्बभूवुः शतशो रक्तमांसवसाशनाः ॥ ३० ॥
घोराश्चिन्तयतस्तस्य स्वतनूरुहजास्तदा ।
विनिष्पेतुर्भयकराः सर्वशः शतशो वृकाः ॥ ३१ ॥
बुद्धिमान् वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ऐसा कह ही रहे थे कि उनके रोमरोमसे सैकड़ों भयानक भेड़िये उत्पन्न होने लगे, जो रक्त, मांस और वसाका आहार करनेवाले थे । उनके चिन्तन करते ही सब ओर सैकड़ों भयंकर बृक निकल पड़े थे ॥ ३०-३१ ॥

निष्पतन्ति स्म बहवो व्रजस्योत्सादनाय वै ।
वृकान् निष्पतितान् दृष्ट्वा गोषु वत्सेष्वथो नृषु ॥ ३२ ॥
गोपीषु च यथाकामं व्रजे त्रासोऽभवन्महान् ।
ते वृकाः पञ्चबद्धाश्च दशबद्धास्तथ परे ॥ ३३ ॥
त्रिंशद्विंशतिबद्धाश्च शतबद्धास्तथा परे ।
निश्चेरुस्तस्य गात्रेभ्यः श्रीवत्सकृतलक्षणाः ॥ ३४ ॥
व्रजको वहाँसे उजाड़नेके लिये जब श्रीकृष्णकी इच्छाके अनुसार बहुत-से भेड़िये प्रकट होने लगे, तब उन्हें देखकर गौओं, बछड़ों, मनुष्यों तथा गोपाङ्गनाओंमें अथवा यों कहिये सम्पूर्ण ब्रज महान् त्रास छा गया । वे भेड़िये पाँच, दस, बीस, तीस तथा सौ-सौके झुंड बनाकर श्रीकृष्णके अङ्गोंसे निकल रहे थे । वे सभी श्रीवत्सके चिह्नसे सुशोभित थे ॥ ३२-३४ ॥

कृष्णस्य कृष्णवदना गोपानां भयवर्धनाः ।
भक्षयद्भिश्च तैर्वत्सांस्त्रासयद्भिश्च गोव्रजान् ॥ ३५ ॥
निशि बालान् हरद्भिश्च वृकैरुत्साद्यते व्रजः ।
न वने शक्यते गन्तुं न गाश्च परिरक्षितुम् ॥ ३६ ॥
न वनात् किञ्चिदाहर्तुं न च वा तरितुं नदीम् ।
त्रस्ता ह्युद्विग्नमनसोऽगतास्तस्मिन् वनेऽवसन् ॥ ३७ ॥
एवं वृकैरुदीर्णैस्तु व्याघ्रतुल्यपराक्रमैः ।
व्रजो निष्पन्दचेष्टः स एकस्थानचरः कृतः ॥ ३८ ॥
श्रीकृष्णके अङ्गोंसे प्रकट हुए वे काले मुखवाले बृक गोपोंका भय बढ़ा रहे थे । वे बछड़ोंको खा जाते, गौओंके झुंडोंको त्रास देते तथा रातमें बालकोंका अपहरण कर लेते थे । इस प्रकार भेड़ियोंद्वारा वह व्रज उजाड़ा जाने लगा । उस समय वनमें जाना, गौओंकी रक्षा करना, वनसे कोई वस्तु ले आना अथवा नदीको पार करना असम्भव हो गया । वे सब-के-सब भयभीत थे, उनका चित्त उद्विग्र हो गया था । वे कहीं भी आ-जा न सके । डरके मारे केवल उस वनमें ही बैठे रहे । इस प्रकार बढ़े हुए व्याघ्रतुल्य पराक्रमी भेड़ियोंने सारे व्रजको निश्चेष्ट तथा एक स्थानमें ही सीमित रहनेवाला बना दिया ॥ ३५-३८ ॥

इति श्रीमहभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि
शिशुचर्यायां वृकदर्शनेऽष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें बाललीलाके प्रसङ्ग में प्रदर्शनविषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥




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