श्रीहरिवंशपुराण विष्णुपर्व नवमोऽध्यायः
वृन्दावनप्रवेशः
शभेड़ियोंके उत्पातसे व्रजवासियोंका उस स्थानको छोड़कर श्रीवृन्दावनमें जाना -
वैशंपायन उवाच एवं वृकांश्च तान् दृष्ट्वा वर्धमानान् दुरासदान् । सस्त्रीपुमान् स घोषो वै समस्तोऽमन्त्रयत् तदा ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! इस स्त्री-पुरुष एकत्र हो उस समय इस प्रकार मन्त्रणा करने लगे- ॥ १ ॥
स्थाने नेह न नः कार्यं व्रजामोऽन्यन्महद्वनम् । यच्छिवं च सुखोष्यं च गवां चैव सुखावहम् ॥ २ ॥
'अब हमें इस स्थानपर रहनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । हमलोग दूसरे किसी विशाल वनमें चले चलें, जो हमारे लिये कल्याणकारी, सुखपूर्वक रहनेयोग्य तथा गौओंके लिये भी सुखदायक हो ॥ २ ॥
अद्यैव किं चिरेण स्म व्रजामः सह गोधनैः । यावद् वृकैर्वधं घोरं न नः सर्वो व्रजो व्रजेत् ॥ ३ ॥
विलम्ब करनेसे क्या लाभ ? हम आज ही अपने गोधनोंके साथ यहाँसे चल दें । भेड़ियोंसे हमारे सारे व्रजका भयंकर वध न हो जाय-इसके पहले ही हमें यहाँसे प्रस्थान कर देना चाहिये ॥ ३ ॥
एशां धूम्रारुणाङ्गानां दंष्ट्रिणां नखकर्षिणाम् । वृकाणां कृष्णवक्त्राणां बिभीमो निशि गर्जताम् ॥ ४ ॥
इन भेड़ियोंके सारे अङ्ग धूमिल और लाल रंगके हैं, इनकी बड़ी-बड़ी दाढ़ें हैं । ये नखोंसे बकोट लेते हैं । इनके मुख काले हैं और रातके समय ये भीषण गर्जना करते हैं । हमें इनसे बड़ा भय लगता है' ॥ ४ ॥
मम पुत्रो मम भ्राता मम वत्सोऽथ गौर्मम । वृकैर्व्यापादिता ह्येवं क्रन्दन्ति स्म गृहे गृहे ॥ ५ ॥
'घर-घरकी स्त्रियाँ करुणक्रन्दन करती हुई यों कहती हैं कि हाय ! इन भेड़ियोंने मेरे पुत्रको, मेरे भाईको, मेरे बछड़ेको और मेरी गायको मार डाला | है' ॥ ५ ॥
तासां रुदितशब्देन गवां हंभारवेण च । व्रजस्योत्थापनं चक्रुर्घोषवृद्धाः समागताः ॥ ६ ॥
उनके रोनेके शब्दसे और गायोंके रंभानेसे चिन्तित हो एकत्र हुए व्रजके वृद्ध पुरुषोंने व्रजको वहाँसे उठा देनेका ही निश्चय किया ॥ ६ ॥
तेषां मतमथाज्ञाय गन्तुं वृन्दावनं प्रति । व्रजस्य विनिवेशाय गवां चैव हिताय च ॥ ७ ॥ वृन्दावननिवासाय ताञ्ज्ञात्वा कृतनिश्चयान् । नन्दगोपो बृहद्वाक्यं बृहस्पतिरिवाददे ॥ ८ ॥
जब नन्दजीने वृन्दावनमें जानेके लिये उनके मतको जान लिया तथा व्रजको नयी जगह बसाने एवं गौओंके हितके लिये वृन्दावनमें निवास करनेके निमित्त उन सबके दृढ़ निश्चयको समझ लिया, तब वे बृहस्पतिके समान यह महत्त्वपूर्ण वचन बोले- ॥ ७-८ ॥
अद्यैव निश्चयप्राप्तिर्यदि गन्तव्यमेव नः । शीघ्रमाज्ञाप्यतां घोषः सज्जीभवत मा चिरम् ॥ ९ ॥
'यदि यह बात निश्चित हो गयी और हमें जाना ही होगा तो आज ही यात्रा कर देनी चाहिये । शीघ्र ही सारे व्रजमें यह आदेश दे दिया जाय कि तुम सब लोग शीघ्र ही यहाँसे प्रस्थानके लिये तैयार हो जाओ, देर न करो' ॥ ९ ॥
ततोऽवघुष्यत तदा घोषे तत् प्राकृतैर्जनैः । शीघ्रं गावः प्रकल्प्यन्तां भाण्डं समभिरोप्यताम् ॥ १० ॥ वत्सयूथानि काल्यन्तां युज्यन्तां शकटानि च । वृन्दावनमितः स्थानान्निवेशाय च गम्यताम् ॥ ११ ॥
फिर तो प्राकृत जनोंद्वारा व्रजमें यह घोषणा करा दी गयी कि 'व्रजवासियो ! शीघ्र ही गौओंको तैयार कर लो । अपने वर्तन-भाँड़ोंको छकड़ोंपर लाद लो । बछड़ोंके समूहोंको अभी हाँक दो । गाड़ियाँ जोतो और यहाँसे वृन्दावनमें रहनेके लिये प्रस्थान करो' ॥ १०-११ ॥
तच्छ्रुत्वा नन्दगोपस्य वचनं साधु भाषितम् । उदतिष्ठद् व्रजः सर्वः शीघ्रं गमनलालसः ॥ १२ ॥
नन्दगोपका कहा हुआ यह उत्तम वचन सुनकर सारे व्रजके लोग जानेके लिये उत्सुक हो शीघ्र ही उठ खड़े हुए ॥ १२ ॥
प्रयाह्युत्तिष्ठ गच्छामः किं शेषे साधु योजय । उत्तिष्ठति व्रजे तस्मिन् गोपकोलाहलो ह्यभूत् ॥ १३ ॥
इस प्रकार जब वह व्रज वहाँसे उठने लगा, तब गोपोंका कोलाहल इस तरह सुनायी देने लगा-'अरे ! चलो, उठो, हम सब लोग चल रहे हैं, क्या सो रहे हो, जाओ, छकड़ा जोतो' ॥ १३ ॥
उत्तिष्ठमानः शुशुभे शकटीशकटस्तु सः । व्याघ्रघोषमहाघोषो घोषः सागरघोषवान् ॥ १४ ॥
गाड़ियों और छकड़ोंसे युक्त वह व्रज जब वहाँसे उठकर चला, उस समय ऐसा भयंकर कोलाहल हुआ, मानो वहाँ व्याघ्रोंके दहाड़नेकी भारी आवाज हो रही हो अथवा समुद्रकी गर्जना सुनायी देती हो ॥ १४ ॥
गोपीनां गर्गरीभिश्च मूर्ध्नि चोत्तम्भितैर्घटैः । निष्पपात व्रजात् पङ्क्तिस्तारापङ्क्तिरिवांबरात् ॥ १५ ॥
सिरपर माट और घड़े उठाये गोपियोंकी पंक्ति जब व्रजसे निकली, उस समय ऐसा जान पड़ा, मानो आकाशसे ताराओंकी पाँत उतर आयी हो ॥ १५ ॥
नीलपीतारुणैस्तासां वस्त्रैरग्रस्तनोच्छ्रितैः । शक्रचापायते पङ्क्तिर्गोपीनां मार्गगामिनी ॥ १६ ॥
उनके नीले, पीले और लाल वस्त्र स्तनोंके अग्रभागपर ऊँचे दिखायी देते थे । उन वस्त्रोंसे सुशोभित हो मार्गपर चलती हुई गोपियोंकी पंक्ति इन्द्रधनुषके समान शोभा पाती थी ॥ १६ ॥
दामनी दामभारैश्च कैश्चित्कायावलम्बिभिः। गोपा मार्गगता भान्ति सावरोहा इव द्रुमाः ॥ १७ ॥
कुछ गोप मोटी और पतली रस्सियोंके बोझ लिये मार्गमें चल रहे थे । वे रस्सियाँ उनके अङ्गोंपर लटक रही थीं । उनसे उपलक्षित होनेवाले वे गोप, बरोहोंसे युक्त वटवृक्षके समान प्रतीत होते थे ॥ १७ ॥
स व्रजो व्रजता भाति शकटौघेन भास्वता । पोतैः पवनविक्षिप्तैर्निष्पतद्भिरिवार्णवः ॥ १८ ॥
आगे बढ़ते हुए शोभाशाली शकटोंके समूहसे उस व्रजकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो पवनकी प्रेरणासे वेगपूर्वक चलते हुए असंख्य जलपोतों (जहाजों)-से युक्त महासागर सुशोभित हो रहा हो ॥ १८ ॥
क्षणेन तद् व्रजस्थानमीरिणं समपद्यत । द्रव्यावयवनिर्धूतं कीर्णं वायसमण्डलैः ॥ १९ ॥
एक ही क्षणमें व्रजका वह स्थान ऊसरभूमिके समान सूना हो गया । वहाँ जो अन्न आदि द्रव्योंके कण बिखरे हुए थे, उनके कारण उस स्थानपर कौओंकी मण्डली छा गयी थी ॥ १९ ॥
ततः क्रमेण घोषः स प्राप्तो वृन्दावनं वनम् । निवेशं विपुलं चक्रे गवां चैव हिताय च ॥ २० ॥
तदनन्तर क्रमशः आगे बढ़ता हुआ वह व्रज वृन्दावनमें जा पहुंचा और गौओंके हितके लिये बहुत दूरतक फैलकर बस गया ॥ २० ॥
शकटावर्तपर्यन्तं चन्द्रार्धाकारसंस्थितम् । मध्ये योजनविस्तीर्णं तावद्द्विगुणमायतम् ॥ २१ ॥
सीमापर छकड़ोंके बाड़ लगा दिये गये । सारा ब्रज अर्धचन्द्रकी आकृतिमें स्थित हो गया । बीचके भूभागकी चौड़ाई एक योजन और लम्बाई दो योजनकी थी ॥ २१ ॥
कण्टकीभिः प्रवृद्धाभिस्तथा कण्टकितद्रुमैः । निखातोच्छ्रितशाखाग्रैरभिगुप्तं समन्ततः ॥ २२ ॥
बढ़ी हुई कण्टकी (नीलकाँटे आदि) तथा शाखाग्रभागको ऊँचे रखकर गाड़े गये काँटेदार वृक्षोंके द्वारा वह व्रज चारों ओरसे सुरक्षित था ॥ २२ ॥
मन्थैरारोप्यमाणैश्च मन्थबन्धानुकर्षणैः । अद्भिः प्रक्षाल्यमानाभिर्गर्गरीभिरितस्ततः ॥ २३ ॥ कीलैरारोप्यमाणैश्च दामनीपाशपाशितैः । स्तम्भनीभिर्धृताभिश्च शकटैः परिवर्तितैः ॥ २४ ॥ नियोगपाशैरासक्तैर्गर्गरीस्तम्भमूर्धसु । छादनार्थं प्रकीर्णैश्च कटकैस्तृणसंकटैः ॥ २५ ॥ शाखाविटङ्कैर्वृक्षाणां क्रियमाणैरितस्ततः । शोध्यमानैर्गवां स्थानैः स्थाप्यमानैरुलूखलैः ॥ २६ ॥ प्राङ्मुखैः सिच्यमानैश्च संदीप्यद्भिश्च पावकैः । सवत्सचर्मास्तरणैः पर्यङ्कैश्चावरोपितैः ॥ २७ ॥ तोयमुत्तारयन्तीभिः प्रेक्षन्तीभिश्च तद्वनम् । शाखाश्चाकर्षमाणाभिर्गोपीभिश्च समन्ततः ॥ २८ ॥ युवभिः स्थविरैश्चैव गोपैर्व्यग्रकरैर्भृशम् । विशसद्भिः कुठारैश्च काष्ठान्यपि तरूनपि ॥ २९ ॥ तद् व्रजस्थानमधिकं शुशुभे काननावृतम् । रम्यं वननिवेशं वै स्वादुमूलफलोदकम् ॥ ३० ॥
कहीं दही-दूधके माटोंमें मथानी डाली जा रही थी, कहीं मथानीमें बँधी हुई रस्सी खींची जाती थी, कहीं इधर-उधर गगरियों या माटोंको जलसे धोया जाता था, कहीं कील या खूटे गाड़े जाते थे, जिनमें मोटी-पतली रस्सियाँ बंधी होती थीं; कहीं बहुत-से खम्भे खड़े किये जा रहे थे, कहीं छकड़े घुमाये जाते थे, कहीं मन्धनपात्र या माटमें डाले गये थम्भके सिरेपर रस्सियाँ बाँधी जाती थीं, कहीं घर छानेके लिये संचित चटाइयों तथा तिनकोंके समूह बिखरे पड़े थे, कहीं यत्रतत्र वृक्षोंकी शाखाओंपर पक्षियोंके रहनेयोग्य स्थान बनाये जाते थे, कहीं गौओंके रहनेयोग्य स्थानोंकी शोध हो रही थी, कहीं ओखलियाँ रखी जाती थीं, उन्हें पूर्वाभिमुख करके धोया जा रहा था, कहीं आग जलायी जाती थी, कहीं छकड़ोंपरसे (अपनी मौतसे मरे हुए) बछड़ोंके चर्मसे निर्मित बिछौनोंसहित पलंग उतारे जा रहे थे, कहीं गोपियाँ अपने सिरसे जलका घड़ा उतारती हुई उस वनकी शोभा देखती थीं, कुछ गोपाङ्गनाएँ सब ओर घूम-घूमकर वृक्षोंकी डालियाँ खींच रही थीं, क्या बूढ़े, क्या जवान, सभी गोपोंके हाथ कार्यमें अत्यन्त व्यस्त थे, वे कुठारोंसे काठ और वृक्षोंको भी काट रहे थे । इन सबके कारण बनसे घिरा हुआ वह व्रजका स्थान अधिक शोभा पा रहा था । वृन्दावनका वह रमणीय प्रदेश स्वादिष्ठ फल, मूल और जलसे सम्पन्न था ॥ २३-३० ॥
तास्तु कामदुघा गावः सर्वपक्षिरुतं वनम् । वृन्दावनमनुप्राप्ता नन्दनोपमकाननम् ॥ ३१ ॥
ब्रजकी वे सभी कामधेनु गौएँ समस्त पक्षियोंके कलरवोंसे मुखरित और नन्दन-सदृश कानोंसे युक्त वृन्दावनमें पहुँच गयीं ॥ ३१ ॥
पूर्वमेव तु कृष्णेन गवां वै हितकारिणा । शिवेन मनसा दृष्टं तद्वनं वनचारिणा ॥ ३२ ॥
वनमें विचरनेवाले, गौओंके हितकारी श्रीकृष्णने पहले ही अपने मनसे कल्याणचिन्तनपूर्वक उस वनको देखा था ॥ ३२ ॥
पश्चिमे तु ततो रूक्षे धर्मे मासे निरामये । वर्षतीवामृतं देवे तृणं तत्र व्यवर्धत ॥ ३३ ॥
अतः यद्यपि उस समय बहुत ही रूखे गर्मीक महीनेका अन्तिम भाग (आषाढ़) बीत रहा था, तो भी वहाँ घास-पात बहुत बढ़ने लगा, मानो इन्द्रदेव वहाँ अमृतकी वर्षा कर रहे हों ॥ ३३ ॥
न तत्र वत्साः सीदन्ति न गावो नेतरे जनाः । यत्र तिष्ठति लोकाणां भवाय मधुसूदनः ॥ ३४ ॥
जहाँ भगवान् मधुसूदन सम्पूर्ण विश्वके हितके लिये विराजमान थे, उस वृन्दावनमें न तो बछड़े कभी शिथिल होते थे, न गौएँ कष्ट पाती थीं और न दूसरे ही लोगोंको कभी दुःखका अनुभव होता था ॥ ३४ ॥
ताश्च गावः स घोषस्तु स च सङ्कर्षणो युवा । कृष्णेन विहितं वासं तमध्यासत निर्वृताः ॥ ३५ ॥
वे गौएँ, वह व्रज तथा वे तरुण वीर बलरामजी सब-केसब श्रीकृष्णद्वारा विहित उस निवासस्थानमें बड़े आनन्दसे रहने लगे ॥ ३५ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि वृन्दावनप्रवेशे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें श्रीकृन्दावन-प्रवेशविषयक नवा अध्याय पूरा हुआ ॥ ९ ॥
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