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श्रीहरिवंशपुराण
विष्णुपर्व
दशमोऽध्यायः


प्रावृड्वर्णनम्
वर्षा-ऋतुका वर्णन -


वैशंपायन उवाच
तौ तु वृन्दावनं प्राप्तौ वसुदेवसुतावुभौ ।
चेरतुर्वत्सयूथानि चारयन्तौ सुरूपिणौ ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! वृन्दावनमें पहुँचकर वसुदेवजीके वे दोनों पुत्र, जो बहुत ही सुन्दर थे, बछड़ोंके झुंडोंको चराते हुए वहाँ सब ओर विचरने लगे ॥ १ ॥

पूर्णस्तु घर्मसमयस्तयोस्तत्र वने सुखम् ।
क्रीडतोः सह गोपालैर्यमुनां चावगाहतोः ॥ २ ॥
वृन्दावनमें रहकर ग्वाल-बालोंके साथ क्रीडा और यमुना-स्नान करते हुए उन दोनों भाइयोंका ग्रीष्ममास सुखपूर्वक बीत गया ॥ २ ॥

ततः प्रावृडनुप्राप्ता मनसः कामदीपिनी ।
प्रववर्षुर्महामेघाः शक्रचापाङ्‌‌‍कितोदराः ॥ ३ ॥
तदनन्तर मनकी कामनाको उद्दीपित करनेवाली वर्षा-ऋतु आ पहुँची । मेघोंकी भारी घटा घिर आयी और वर्षा करने लगी । उन मेघोंके मध्यभाग इन्द्रधनुषसे अङ्कित दिखायी देते थे ॥ ३ ॥

बभूवादर्शनः सूर्यो भूमिश्चादर्शना तृणैः ।
पतता मेघवातेन नवतोयानुकर्षिणा ॥ ४ ॥
संमार्जिततला भूमिर्यौवनस्थेव लक्ष्यते ॥ ५ ॥
(म ?की आड़में छिपे हुए) सूर्यका दर्शन नहीं हो पाता था । घास इतनी बढ़ गयी कि धरती भी अदृश्य हो गयी । नूतन जलराशिको खींच लानेवाले मेघरूपी वायुने भूतलको झाड़-बुहार और धोकर साफ कर दिया । उस समय भूमि ऐसी दिखायी देती थी, मानो उसकी युवावस्था आ गयी हो ॥ ४-५ ॥

न ववर्षावसिक्तानि शक्रगोपकुलानि च ।
नष्टदावाग्निधूमानि वनानि प्रचकाशिरे ॥ ६ ॥
इन्द्रगोप नामक कीट नूतन वर्षाके जलसे भीग रहे थे । वनप्रान्तके दावानल और धूम नष्ट हो गये थे, इससे उन वनोंकी बड़ी शोभा हो रही थी ॥ ६ ॥

नृत्यव्यापारकालश्च मयूराणां कलापिनाम् ।
मदरक्ताः प्रवृत्ताश्च केकाः पटुरवास्तथा ॥ ७ ॥
बड़े-बड़े पंखों (कलापों)-से विभूषित मयूरोंके नृत्य-व्यापारका समय आ पहुंचा था; अतः उनकी मदमत्त दशाकी मधुर वाणी बड़ी पटुताके साथ श्रवणगोचर होती थी ॥ ७ ॥

नवप्रावृषि कान्तानां षट्पदाहारदायिनाम् ।
यौवनस्थकदम्बानां नवाभ्रैर्भ्राजते वपुः ॥ ८ ॥
नूतन वर्षामें जिनकी कमनीयता बढ़ गयी है, जो भ्रमरोंको आहार प्रदान करते तथा युवावस्थामें आ पहुंचे हैं, उन कदम्ब-वृक्षोंका आकार नये बादलोंके आनेसे अधिक शोभा पाने लगा ॥ ८ ॥

हासितं कुटजैर्वृक्षैः कदम्बैर्वासितं वनम् ।
नाशितं जलदैरुष्णं तोषिता वसुधा जलैः ॥ ९ ॥
कुटजके वृक्षोंने अपने फूलोंसे वहाँ सब ओर हास्यकी छटा छिटका दी । कदम्बोंने उस वनमें सुगन्ध भर दी । बादलोंने गरमी मिटा दी और जलकी धाराओंने वसुधाको पूर्णतः तृप्त कर दिया ॥ ९ ॥

संतप्ता भास्करकरैरभितप्ता दवाग्निभिः ।
जलैर्बलाहकोत्सृष्टैरुच्छ्‍वसन्तीव पर्वताः ॥ १० ॥
जो सूर्यकी किरणोंसे संतप्त तथा दावानलसे दग्ध हो गये थे, वे पर्वत मेघोंके बरसाये हुए जलसे अभिषिक्त हो पुनः साँस-सी लेने लगे ॥ १० ॥

महावातसमुद्भूतं महामेघगणार्पितम् ।
महीमहाराजपुरैस्तुल्यमापद्यते नभः ॥ ११ ॥
उठी हुई प्रचण्ड वायु पताकाके समान फहरा रही थी । बड़े-बड़े मेघोंके समुदाय प्रासादों (महलों)-के समान प्रतीत होते थे । इस प्रकार आकाश भूतलके महाराजोंके नगरके समान स्वरूप धारण किये था ॥ ११ ॥

क्वचित्कदम्बहासाढ्यं शिलीन्ध्राभरणं क्वचित् ।
संप्रदीप्तमिवाभाति फुल्लनीपद्रुमं वनम् ॥ १२ ॥
कहीं कदम्बका विकास हासकीसी छटा बिखेर रहा था । कहीं भुंइफोड़ या गोबर-छत्ता आभूषणके समान शोभा देता था । जगह-जगह नीपके वृक्ष खिले हुए थे । इन सबके कारण वृन्दावन अत्यन्त दीप्तिमान्-सा प्रतीत होता था ॥ १२ ॥

ऐन्द्रेण पयसा सिक्तं मारुतेन च विस्तृतम् ।
पार्थिवं गन्धमाघ्राय लोकः क्षुभितमानसः ॥ १३ ॥
इन्द्रदेवके बरसाये हुए जलसे अभिषिक्त तथा वायुसे विस्तारको प्राप्त हुई पृथ्वीकी सोंधी सुगन्ध सूंघकर लोगोंका मन क्षुब्ध (कामविकारसे युक्त) हो उठता था ॥ १३ ॥

दृप्तसारङ्‌‌‍गनादेन दर्दुरव्याहतेन च ।
नवैश्च शिखिविक्रुष्टैरवकीर्णा वसुन्धरा ॥ १४ ॥
मतवाले भ्रमरोंके गुंजारव, मेडकोंकी ध्वनि तथा मोरोंकी नूतन केकावाणीसे वहाँकी भूमि गूंज रही थी ॥ १४ ॥

भ्रमत्तूर्णमहावर्ता वर्षप्राप्तमहारयाः ।
हरन्त्यस्तीरजान्वृक्षान्विस्तारं यांति निम्नगाः ॥ १५ ॥
नदियोंमें तीव्र गतिसे बड़ी-बड़ी भंवरें उठ रही थीं । वर्षाके कारण उनका वेग महान् हो गया था । वे तटवर्ती वृक्षोंको बहा ले जाती थी और क्रमशः विस्तारको प्राप्त हो रही थीं ॥ १५ ॥

सन्ततासारनिर्यत्‍नाः क्लिन्नयत्‍नोत्तरच्छदाः ।
न त्यजन्ति नगाग्राणि श्रान्ता इव पतत्रिणः ॥ १६ ॥
निरन्तर जलकी धारा बरसनेके कारण जो उड़नेके प्रयत्नमें असफल हो गये थे, जिनके ऊपरी पंख शिथिलप्रयास होकर काम नहीं दे पाते थे, वे पक्षी थके-माँदेके समान वृक्षोंकी शाखाओंको छोड़ नहीं रहे थे ॥ १६ ॥

तोयगम्भीरलम्बेषु स्रवत्सु च नदत्सु च ।
उदरेषु नवाभ्राणां मज्जतीव दिवाकरः ॥ १७ ॥
सूर्यदेव नूतन जलधरोंके उदरोंमें, जो जलके कारण सघन और फैले हुए थे तथा वर्षाके साथ गर्जना भी करते थे, डूबते-से जा रहे थे ॥ १७ ॥

महीरुहैरुत्पतितैः सलिलोत्पीडसङ्‌‌‍कुला ।
अन्विष्यमार्गा वसुधा भाति शाद्वलमालिनी ॥ १८ ॥
भूमि एक तो घाससे ढकी हुई थी, दूसरे जलके प्रवाहमें डूब गयी थी, रास्तोंका पता चलना कठिन हो गया था, मार्गोंके किनारे उगे हुए वृक्षोंसे ही उन मार्गोंको ढूँढा या पाया जा सकता था ॥ १८ ॥

वज्रेणेवावरुग्णानां नगानां नगशालिनाम् ।
स्रोतोभिः परिकृत्तानि पतन्ति शिखराण्यधः ॥ १९ ॥
वृक्षोंसे सुशोभित होनेवाले पर्वतोंके शिखर जलके स्रोतोंसे कटकर नीचे गिर रहे थे ऐसा जान पड़ता था, मानो वे पर्वत वजके प्रहारसे विदीर्ण हो गये हों ॥ १९ ॥

पतता मेघवर्षेण यथा निम्नानुसारिणा ।
पल्वलोत्कीर्णमुक्तेन पूर्यन्ते वनराजयः ॥ २० ॥
मेघोंकी वर्षाका जल नीचे गिरकर नीची भूमिका अनुसरण करता हुआ गड्डेमें जाता था । उसके भर जानेपर उससे निकलकर बाहर फैलता था और सारी वन-श्रेणियोंको आप्लावित कर देता था ॥ २० ॥

हस्तोच्छ्रितमुखा वन्या मेघनादानुसारिणः ।
भ्रान्तातिवृष्ट्या मातङ्‌‌‍गा गां गता इव तोयदाः ॥ २१ ॥
अत्यन्त वर्षासे भ्रान्त हुए जंगली हाथी सूंड और मुँहको ऊपर उठाये मेघकी गर्जनाका अनुकरण करते (गर्जते) थे । उस समय वे पृथ्वीपर उतरे हुए मूर्तिमान् मेधके समान जान पड़ते थे ॥ २१ ॥

प्रावृट्प्रवृत्तिं संदृश्य दृष्ट्वा चाम्बुधरान् घनान् ।
रौहिणेयो मिथः काले कृष्णं वचनमब्रवीत् ॥ २२ ॥
वर्षा-ऋतु आ गयी और आकाशमें बादल घिर आये; यह देखकर रोहिणीनन्दन बलरामजीने श्रीकृष्णसे यह सामयिक बात कही- ॥ २२ ॥

पश्य कृष्ण घनान् कृष्णान् बलाकोज्ज्वलभूषणान् ।
गगने तव गात्रस्य वर्णचोरान् समुच्छ्रितान् ॥ २३ ॥
'श्रीकृष्ण ! आकाशमें उन ऊँचे उठे हुए काले बादलोंको तो देखो, जो वकपंक्तिरूपी उज्ज्वल हारोंसे विभूषित हैं । वे तुम्हारी अङ्गकान्ति चुराये लेते हैं ॥ २३ ॥

तव निद्राकरः कालस्तव गात्रोपमं नभः ।
त्वमिवाज्ञातवसतिं चन्द्रो वसति वार्षिकीम् ॥ २४ ॥
यह तुम्हारे नींद लेनेका समय है' । काले मेघोंके कारण आकाश तुम्हारे अङ्गोंके समान श्यामवर्णका दिखायी देता है तथा वर्षा-ऋतुमें चन्द्रमा भी तुम्हारी तरह अज्ञातवास कर रहे हैं ॥ २४ ॥

एतन्नीलाम्बुदश्यामं नीलोत्पलदलप्रभम् ।
संप्राप्ते दुर्दिने काले दुर्दिनं भाति वै नभः ॥ २५ ॥
जो काले मेघोंके छा जानेसे श्याम दिखायी देता है तथा जिसकी आभा नील कमलदलके समान हो गयी है, वह आकाश दुर्दिन (वर्षाका समय) आनेपर स्वयं भी दुर्दिन (मेघाच्छन दिवस)-सा प्रतीत होता है ॥ २५ ॥

पश्य कृष्ण जलोदग्रैः कृष्णैरुद्‌ग्रथितैर्घनैः ।
गोवर्धनो यथा रम्यो भाति गोवर्धनो गिरिः ॥ २६ ॥
श्रीकृष्ण ! देखो, जलसे भरकर परस्पर गुंथे हुए इन काले बादलोंसे गौओंकी वृद्धि करनेवाला गोवर्धन पर्वत कैसा रमणीय प्रतीत होता है । ॥ २६ ॥

पतितेनाम्भसा ह्येते समन्तान्मददर्पिताः ।
भ्राजन्ते कृष्णसारङ्‌‌‍गाः काननेषु मुदान्विताः ॥ २७ ॥
ये कृष्णमृग चारों ओर जल गिरनेसे मदमत्त हो उठे हैं और आनन्दमग्न होकर काननोंमें विचरते हुए शोभा पा रहे हैं ॥ २७ ॥

एतान्यम्बुप्रहृष्टानि हरितानि मृदूनि च ।
तृणानि शतपत्राक्ष पत्रैर्गूहन्ति मेदिनीम् ॥ २८ ॥
कमलनयन ! जलसे अभिषिक्त होकर हर्षोल्लासमें भरे हुए ये कोमल हरित तृण अपने पत्तोंसे पृथ्वीको ढकते जा रहे हैं ॥ २८ ॥

क्षरज्जलानां शैलानां वनानां जलदागमे ।
ससस्यानां च सीमानां न लक्ष्मीर्व्यतिरिच्यते ॥ २९ ॥
'मेघोंके आनेपर जलके झरने बहानेवाले पर्वतोंकी, वनोंकी तथा सस्य (हरी-भरी खेती)-से सम्पन्न खेतोंकी लक्ष्मी (शोभा) एक-सी हो रही है । कहीं न्यून या अधिक नहीं है (अथवा इन तीनोंकी शोभा इनसे पृथक् नहीं होती है) ॥ २९ ॥

शीघ्रवातसमुद्भूताः प्रोषितौत्सुक्यकारिणः ।
दामोदरोद्‌दामरवाः प्रागल्भ्यं यान्ति तोयदाः ॥ ३० ॥
दामोदर ! शीघ्रगामी वायुसे प्रेरित हो ऊपर उठे हुए तथा परदेशमें रहनेवाले पुरुषोंको घर आनेके लिये उत्सुक बनानेवाले ये बादल प्रचण्ड गर्जना करते हुए अपनी प्रगल्भताका परिचय देते हैं ॥ ३० ॥

हरे हर्यश्वचापेन त्रिवर्णेन त्रिविक्रम ।
विबाणज्येन रचितं तवेदं मध्यमं पदम् ॥ ३१ ॥
त्रिविक्रमरूप धारण करनेवाले हरे ! बाण और प्रत्यञ्चासे रहित तिरंगे इन्द्रधनुषसे तुम्हारे मध्यम पद (अन्तरिक्ष)का शृङ्गार-सा किया गया है ॥ ३१ ॥

नभस्येष नभश्चक्षुर्न भात्येव चरन्नभः ।
मेघैः शीतातपकरो विरश्मिरिव रश्मिवान् ॥ ३२ ॥
श्रावणमासमें आकाशके नेत्रस्वरूप ये अंशुमाली सूर्य प्रभाहीन-से होकर आकाशमें विचरते हुए अधिक शोभा नहीं पा रहे हैं तथा बादलोंसे आच्छन होनेके कारण इनकी तापदायिनी किरणें शीतल हो गयी हैं ॥ ३२ ॥

द्यावापृथिव्योः संसर्गः सततं विततैः कृतः ।
अव्यवच्छिन्नधारौघैः समुद्रौघसमैर्घनैः ॥ ३३ ॥
आकाशमें फैलकर समुद्रके जलप्रवाह-से प्रतीत होनेवाले इन बादलोंने अविच्छिन्नरूपसे जलकी धाराएँ गिराकर आकाश और पृथ्वीको मानो सदाके लिये एक-दूसरेके साथ जोड़ दिया है ॥ ३३ ॥

नीपार्जुनकदम्बानां पृथिव्यां चातिवृष्टिभिः ।
गन्धैः कोलाहला वान्ति वाता मदनदीपनाः ॥ ३४ ॥
पृथ्वीपर अत्यन्त वर्षा होनेके कारण नीप, अर्जुन और कदम्बोंकी गन्धसे वासित हुई कोलाहलयुक्त वायु कामियोंका कामोद्दीपन करती हुई बह रही है ॥ ३४ ॥

संप्रवृत्तमहावर्षं लम्बमानमहांबुदम् ।
भात्यगाधमपर्यन्तं ससागरमिवाम्बरम् ॥ ३५ ॥
बड़े जोरसे वर्षा आरम्भ हो गयी है । बड़ेबड़े मेघ बरसनेके लिये नीचेको झुक आये हैं, जिनसे यह आकाश अथाह अनन्त महासागरसे संयुक्त-सा प्रतीत होता है ॥ ३५ ॥

धारानिर्मलनाराचं विद्युत्कवचवर्मिणम् ।
शक्रचापायुधधरं युद्धसज्जमिवाम्बरम् ॥ ३६ ॥
जलकी धाराओंका निर्मल नाराच, विधुदूपी कवच तथा इन्द्रधनुषरूपी आयुधको धारण किये हुए यह आकाश युद्धके लिये सुसज्जित हुआ-सा जान पड़ता है ॥ ३६ ॥

शैलानां च वनानां च द्रुमाणां च वराननम् ।
प्रतिच्छन्नानि भासन्ते शिखराणि घनैर्घनैः ॥ ३७ ॥
सुमुख श्रीकृष्ण ! पर्वतोंके शिखर तथा वनों और वहाँके वृक्षोंकी शिखाएँ घने बादलोंसे आच्छादित होकर कैसी शोभा पा रही हैं ॥ ३७ ॥

गजानीकैरिवाकीर्णं सलिलोद्‌गारिभिर्घनैः ।
वर्णसारूप्यतां याति गगनं सागरस्य च ॥ ३८ ॥
अपनी सूंडोंसे जल छोड़नेवाले गजसमूहोंकी भांति इन काले घने बादलोंसे आच्छादित हुआ आकाश रंग-रूपमें समुद्रके समान हो गया है ॥ ३८ ॥

समुद्रोद्धूतजनिता लोलशाद्‌वलकम्पिनः ।
शीताः सपृषतोद्दामाः कर्कशा वान्ति मारुताः ॥ ३९ ॥
समुद्रके हिलोरें लेनेसे उत्पन्न हो चञ्चल घासोंको कम्पित करती हुई जलबिन्दुओंसहित उद्दाम गतिसे चलनेवाली शीतल एवं कर्कश वायु वह रही है ॥ ३९ ॥

निशासु सुप्तचन्द्रासु मुक्ततोयासु तोयदैः ।
मग्नसूर्यस्य नभसो न विभान्ति दिशो दश ॥ ४० ॥
जिनमें चन्द्रमा भी सोये हुएके समान अदृश्य हो गये हैं, बादलोंने पानी बरसाना आरम्भ कर दिया है और आकाशके सूर्य भी डूब चुके हैं, ऐसी बरसाती रातोंमें दसों दिशाओंका कुछ पता नहीं चलता है ॥ ४० ॥

चेतनं पुष्करं कोशैः क्षुधाध्मातैः समन्ततः ।
न घृणीनां न रम्याणां विवेकं यान्ति कृष्टयः ॥ ४१ ॥
'सब ओर वायुसे मेघोंद्वारा उपलक्षित आकाश चेतन-सा प्रतीत होता है, किसानोंको न दिनका पता चलता है न रातका ॥ ४१ ॥

घर्मदोषपरित्यक्तं मेघतोयविभूषितम् ।
पश्य वृन्दावनं कृष्ण वनं चैत्ररथं यथा ॥ ४२ ॥
श्रीकृष्ण ! देखो, घामरूपी दोषसे रहित और मेघोंके बरसाये हुए जलसे विभूषित हुआ वृन्दावन चैत्ररथ वनके समान शोभा पा रहा है' ॥ ४२ ॥

एवं प्रावृड्गुणान्सर्वाञ्छ्रीमान् कृष्णस्य पूर्वजः ।
कथयन्नेव बलवान् व्रजमेव जगाम ह ॥ ४३ ॥
इस प्रकार श्रीकृष्णके बड़े भ्राता महाबली श्रीमान् बलराम वर्षाकालके गुणोंका वर्णन करते हुए ही उनके साथ व्रजमें चले गये ॥ ४३ ॥

अन्योन्यं रममाणौ तु कृष्णसङ्‌‌‍कर्षणावुभौ ।
तत्कालज्ञातिभिः सार्द्धं चेरतुस्तद् वनं महत् ॥ ४४ ॥
एक-दूसरेके साथ खेलते और घूमते हुए दोनों भाई श्रीकृष्ण और संकर्षण उस समयके भाई-बन्धुओंके साथ उस विशाल वनमें विचरने लगे ॥ ४४ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवांशे
विष्णुपर्वणि प्रावृड्वर्णने दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें वर्षांका वर्णनविषयक दसवां अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥




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