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श्रीहरिवंशपुराण
विष्णुपर्व
एकादशोऽध्यायः


यमुनावर्णनम्
श्रीकृष्णकी अङ्गच्छटा, भाण्डीर वट, यमुना और कालियदहका वर्णन तथा श्रीकृष्णद्वारा कालियनागके निग्रहका विचार -


वैशंपायन उवाच
कदाचित् तु तदा कृष्णो विना सङ्‌‌‍कर्षणेन वै ।
चचार तद्वनं रम्यं कामरूपी वराननः ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! एक दिन इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले सुमुख श्रीकृष्ण अपने भाई संकर्षणके बिना ही उस रमणीय वृन्दावनमें विचरने लगे ॥ १ ॥

काकपक्षधरः श्रीमाञ्छ्यामः पद्मदलेक्षणः ।
श्रीवत्सेनोरसा युक्तः शशाङ्‌‌‍क इव लक्ष्मणा ॥ २ ॥
उन्होंने मस्तकके पिछले भागमें काकपक्ष (बड़े-बड़े केश) धारण कर रखे थे । उनके नेत्र कमलदलके समान सुन्दर एवं विशाल थे । वे श्यामसुन्दर छविसे युक्त एवं श्रीसम्पन्न थे तथा वक्षःस्थलमें श्रीवत्सचिह्न धारण करके शशचिह्नसे संयुक्त चन्द्रमाके समान शोभा पाते थे ॥ २ ॥

साङ्‌‌‍गदेनाग्रहस्तेन पङ्‌‌‍कजोद्भिन्नवक्षसा ।
सुकुमाराभितान्रेण क्रान्तविक्रान्तगामिना ॥ ३ ॥
बाजूबन्दसे विभूषित हुए उनके हाथोंका अग्रभाग विकसित कमलके समान कान्तिमान् था; उनके पैर सुकुमार, लाल और क्रान्त-विक्रान्त गतिसे चलनेवाले थे, जिनसे उनकी अनुपम शोभा होती थी ॥ ३ ॥

पीते प्रीतिकरे नॄणां पद्मकिञ्जल्कसप्रभे ।
सूक्ष्मे वसानो वसने ससंध्य इव तोयदः ॥ ४ ॥
वे कमल-केसरके समान पीले रंगके दो महीन वस्त्र पहने हुए थे, जो मनुष्योंके आनन्दको बढ़ानेवाले थे । उन वस्त्रोंको धारण करनेवाले श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण संध्याकालकी स्वर्णिम आभासे युक्त मेघके समान सुशोभित होते थे ॥ ४ ॥

वत्सव्यापारयुक्ताभ्यां व्यघ्राभ्यां गण्डरज्जुभिः ।
भुजाभ्यां साधुवृत्ताभ्यां पूजिताभ्यां दिवौकसैः ॥ ५ ॥
उनकी दोनों भुजाएँ सुन्दर, गोल तथा देवताओंद्वारा पूजित थीं । वे बछड़ोंके व्यापारमें संलग्न थीं और उनके गलेमें धुंघरू बाँधनेकी रस्सियोंसे उलझी हुई थीं, ऐसी भुजाओंसे श्रीकृष्णकी बड़ी शोभा हो रही थी ॥ ५ ॥

सदृशं पुण्डरीकस्य गन्धेन कमलस्य च ।
रराज चास्य तद्बाल्ये रुचिरौष्ठपुटं मुखम् ॥ ६ ॥
बाल्य (पौगण्ड)-अवस्थामें सुन्दर ओठोंसे सुशोभित उनका मुख कमलके सदृश सुन्दर और उसीके समान गन्धसे सुवासित होकर अपनी अद्भुत शोभा फैला रहा था ॥ ६ ॥

शिखाभिस्तस्य मुक्ताभी रराज मुखपङ्‌‌‍कजम् ।
वृतं षट्पदपङ्‌‌‍क्तीभिर्यथा स्यात् पद्ममण्डलम् ॥ ७ ॥
उनका मुखारविन्द खुले अलकोंसे आवृत होकर ऐसी शोभा पा रहा था, मानो भ्रमरावलियोंसे युक्त कमलमण्डल सुशोभित हो रहा हो ॥ ७ ॥

तस्यार्जुनकदम्बाढ्या नीपकन्दलमालिनी ।
रराज माला शिरसि नक्षत्राणां यथ दिवि ॥ ८ ॥
उनके मस्तकपर अर्जुन और कदम्बके फूलोंसे युक्त एक माला शोभा पा रही थी, जो नीपके पुष्पों तथा नूतन अंकुरोंसे सुशोभित थी । वह आकाशमें तारिकाओंकी भाँति अपनी छटा छिटका रही थी ॥ ८ ॥

स तया मालया वीरः शुशुभे कण्ठसक्तया ।
मेघमालाम्बुदश्यामो नभस्य इव मूर्तिमान् ॥ ९ ॥
वैसी ही माला उनके कण्ठमें भी पड़ी हुई थी, जिससे वीरवर घनश्याम श्रीकृष्ण मेघमालाओंकी श्यामकान्तिसे सम्पन्न मूर्तिमान् भाद्रपदमासकी भाँति शोभा पा रहे थे ॥ ९ ॥

एकेनामलपत्रेण कण्ठसूत्रावलम्बिना ।
रराज बर्हिपत्रेन मन्दमारुतकम्पिना ॥ १० ॥
उनके कण्ठगत सूत्रमें एक निर्मल मोरपड लटक रहा था, जो मन्दगतिसे बहनेवाली वायुके हलके आघातसे हिल रहा था । उस मोरपडसे भी उनके श्रीअङ्गोंकी शोभावृद्धि हो रही थी ॥ १० ॥

क्वचिद्‌ गायन् क्वचित् क्रीडंश्चञ्चूर्यंश्च क्वचित् क्वचित् ।
पर्णवाद्यं श्रुतिसुखम् वादयंश्च क्वचिद् वने ॥ ११ ॥
वे वनमें कहीं गाते, कहीं खेलते, कहाँ भ्रमण करते और कहीं कानोंको सुख देनेवाला पत्तोंका बाजा बजाते थे ॥ ११ ॥

गोपवेणुं सुमधुरं कामात् तमपि वादयन् ।
प्रह्लादनार्थम् च गवां क्वचिद् वनगतो युवा ॥ १२ ॥
किसी समय वनमें जाकर तरुणरूप धारण करके गौओंको आनन्दित करनेके लिये इच्छानुसार अत्यन्त मधुर स्वरमें मुरली बजाया करते थे, जो उस समयके गोपोंका प्रमुख वाद्य थी ॥ १२ ॥

गोकुलेऽम्बुधरश्यामश्चचार द्युतिमान् प्रभुः ।
रेमे च तत्र रम्यासु चित्रासु वनराजिषु ॥ १३ ॥
नूतन जलधरके समान श्याम एवं कान्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण गोकुलके आसपास विचरने तथा रमणीय एवं विचित्र वनश्रेणियोंमें विहार करने लगे ॥ १३ ॥

मयूररवघुष्टासु मदनोद्दीपनीषु च ।
मेघनादप्रतिव्यूहेर्नादितासु समन्ततः ॥ १४ ॥
वहाँ मयूरोंकी केकाध्यनि गूंजती रहती थी । वे वन-पंक्तियाँ कामी पुरुषोंके मनमें कामभावका उद्दीपन करनेवाली थीं । मेघोंकी गर्जनाकी प्रतिध्वनियोंसे वहाँ सब ओर कोलाहल मचा रहता था ॥ १४ ॥

शद्‌वलच्छन्नमार्गासु शिलीन्ध्राभरणासु च ।
कन्दलामलपत्रासु स्रवन्तीषु नवं जलम् ॥ १५ ॥
उनके मार्ग घासोंसे ढक गये थे । जगह-जगह उगे हुए छत्राक उनके आभूषण-से प्रतीत होते थे । उनमें नये-नये पल्लव अंकुरित हो रहे थे तथा वे नूतन जल टपका रही थीं ॥ १५ ॥

केसराणां नवैर्गन्धैर्मदनिःश्वसितोपमैः ।
अभीक्ष्णं निःश्वसन्तीषु कामिनीष्विव नित्यशः ॥ १६ ॥
मदजनित निःश्वासके समान केसरोंकी नूतन गन्धसे वे वनश्रेणियाँ कामिनियोंकी भौति प्रतिदिन बारम्बार उच्चास ले रही थीं ॥ १६ ॥

सेव्यमानो नवैर्वातैर्द्रुमसङ्‌‌‍घातनिःसृतैः ।
तासु कृष्णो मुदं लेभे सौम्यासु वनराजिषु ॥ १७ ॥
वृक्षोंके समूहसे निकली हुई नूतन वायुसे सेवित हुए श्रीकृष्ण उन सौम्य वनराजियोंमें बड़े आनन्दका अनुभव करने लगे ॥ १७ ॥

स कदाचिद् वने तस्मिन् गोभिः सह परिभ्रमन् ।
ददर्श विपुलोदग्रं शाखिनं शाखिनां वरम् ॥ १८ ॥
एक दिन उस बनमें गौओंके साथ भ्रमण करते हुए श्रीकृष्णाने वहाँ एक वृक्षको देखा, जो बहुत ही ऊँचा तथा सभी वृक्षोंमें बड़ा था ॥ १८ ॥

स्थितं धरण्यां मेघाभं निबिडं दलसञ्चयैः ।
गगनार्धोच्छ्रिताकारं पर्वताभोगधारिणम् ॥ १९ ॥
अपने पत्तोंके संचबसे अत्यन्त घना प्रतीत होनेवाला वह वृक्ष पृथ्वीपर मूर्तिमान् मेघके समान खड़ा था । अपनी ऊँचाईसे उसने आकाशके आधे भागको रोक लिया था और वह पर्वतके समान विस्तृत आकार धारण करता था ॥ १९ ॥

नीलचित्राङ्‌‌‍गवर्णैश्च सेवितं बहुभिः खगैः ।
फलैः प्रवालैश्च घनैः सेन्द्रचापघनोपमम् ॥ २० ॥
नीले एवं चितकबरे रंगवाले बहुतसे मोर उस वृक्षका सेवन करते थे । वह मूंगोंके समान लाल-लाल घने फलोंके द्वारा इन्द्रधनुषसहित मेघके समान जान पड़ता था ॥ २० ॥

भवनाकारविटपं लतापुष्पसुमण्डितम् ।
विशालमूलावनतं पवनाम्भोदधारिणम् ॥ २१ ॥
उसकी एक-एक शाखा विशाल गृहके समान प्रतीत होती थी । लताओं और फूलोंसे वह अच्छी तरह अलंकृत था । उसकी विशाल जड़ें बहुत दूरतक फैली हुई थीं । वह अपने ऊपर वायु और मेघको भी धारण करता था ॥ २१ ॥

आधिपत्यमिवान्येषां तस्य देशस्य शाखिनाम् ।
कुर्वाणं शुभकर्माणं निरावर्षमनातपम् ॥ २२ ॥
ऐसा जान पड़ता था कि वह वृक्ष उस प्रदेशके दूसरे सभी वृक्षोंका आधिपत्य-सा कर रहा है । उसके कर्म बड़े शुभ थे । वह वर्षा और धूपका निवारण करता था ॥ २२ ॥

न्यग्रोधं पर्वताग्राभं भाण्डीरं नाम नामतः ।
दृष्ट्‍वा तत्र मतिं चक्रे निवासाय ततः प्रभुः ॥ २३ ॥
वह बरगदका वृक्ष था और पर्वत-शिखरके समान प्रतीत होता था । उसका नाम था भाण्डीर वट । उसे देखकर भगवान्ने वहीं निवास करनेका विचार किया ॥ २३ ॥

स तत्र वयसा तुल्यैर्वत्सपालैः सहानघ ।
रेमे वै वासरं कृष्णः पुरा स्वर्गगतो यथा ॥ २४ ॥
निष्पाप जनमेजय । उस वटके नीचे समान अवस्थावाले वत्सपालक मित्रोंके साथ श्रीकृष्ण दिनभर बड़े सुखसे रहे । पहले अपने धाममें रहते समय उन्हें जैसे सुखका अनुभव होता था, वैसा ही वहाँ भी हुआ ॥ २४ ॥

तं क्रीडमानं गोपालाः कृष्णं भाण्डीरवासिनम् ।
रमयन्ति स्म बहवो वन्यैः क्रीडनकैस्तदा ॥ २५ ॥
वहाँ खेलते हुए भाण्डीरवासी श्रीकृष्णको उस समय बहुतसे ग्वालबाल जंगली खिलौने देकर प्रसन्न करनेकी चेष्टा करते थे ॥ २५ ॥

अन्ये स्म परिगायन्ति गोपा मुदितमानसाः ।
गोपालाः कृष्णमेवान्ये गायन्ति स्म रतिप्रियाः ॥ २६ ॥
दूसरे ग्वालबाल मन-ही-मन प्रसन्न हो अनेक प्रकारके गीत गाते थे । अन्य गोपबालक जिन्हें श्रीकृष्णकी वह मधुर क्रीडा बहुत ही प्रिय थी अथवा जो श्रीकृष्णविषयक अनुरागको ही अपनी प्रिय वस्तु मानते थे, वे श्रीकृष्णका ही यशोगान करने लगे ॥ २६ ॥

तेषां स गायतामेव वादयामास वीर्यवान् ।
पर्णवाद्यान्तरे वेणुं तुम्बीवीणां च तत्र ह ॥ २७ ॥
उन ग्वालबालोंके गाते समय बलवान् श्रीकृष्ण पत्तोंके बनाये हुए वाद्योंके बीच-बीचमें मुरली, तुम्बी (तँबूरा) तथा बीन बजाते थे ॥ २७ ॥

कदाचिच्चारयन्नेव गाः स गोवृषभेक्षणः ।
जगाम यमुनातीरं लतालङ्‌‌‍कृतपादपम् ॥ २८ ॥
गाय-बैलोंके समान विशाल नेत्रोंवाले श्रीकृष्ण किसी समय अपनी गौओंको चराते हुए ही यमुनाजीके तटपर जा पहुंचे । जहाँका प्रत्येक वृक्ष लताओंसे अलंकृत था ॥ २८ ॥

तरङ्‌‌‍गापाङ्‌‌‍गकुटिलं वारिस्पर्शमुखानिलाम् ।
तां च पद्मोत्पलवतीं ददर्श यमुनां नदीम् ॥ २९ ॥
जो अपनी चञ्चल तरङ्गरूपी कुटिल कटाक्षोंसे कुछ वक्र दिखायी देती थी, जिसके जलका स्पर्श करके सुखदायिनी हवा चल रही थी तथा जिसमें कमल और उत्पल खिले हुए थे, उस यमुना नदीको श्रीकृष्णने देखा ॥ २९ ॥

सुतीर्थां स्वादुसलिलां ह्रदिनीं वेगगामिनीम् ।
तोयवातोद्यतैर्वेगैरवनामितपादपाम् ॥ ३० ॥
उसमें उतरनेके लिये उत्तम मार्ग थे । उसका जल स्वादिष्ठ था । उसके भीतर कई कुण्ड थे तथा वह बड़े वेगसे प्रवाहित हो रही थी । जल और वायुके द्वारा प्रकट हुए वेगसे उसने किनारेके वृक्षोंको झुका दिया था ॥ ३० ॥

हंसकारण्डवोघुद्ष्टां सारसैश्च विनादिताम् ।
अनर्घमिथुनैश्चैव सेवितां मिथुनेचरैः ॥ ३१ ॥
हंसों और कारण्डवोंके उद्घोष तथा सारसोंके कलनादसे वहाँ सदा कोलाहल होता रहता था । अपने जोड़ेके साथ विचरनेवाले चक्रवाक आदि पक्षी परस्पर मैथुनमें प्रवृत्त हो यमुनातटका सेवन करते थे ॥ ३१ ॥

जलजैः प्राणिभिः कीर्णां जलजैर्भूषितां गुणैः ।
जलजैः कुसुमैश्चित्रां जलजैर्हरितोदकाम् ॥ ३२ ॥
जलमें उत्पन्न होनेवाले प्राणी (मत्स्य आदि) यमुनाजीमें भरे हुए थे । वे जलजनित शीतलता आदि गुणोंसे विभूषित थीं । जलमें होनेवाले कमल आदि पुष्प उनमें विचित्र शोभाका आधान करते थे तथा जलजनित सेवार आदिके कारण उनका जल हरा दिखायी देता था ॥ ३२ ॥




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