श्रीहरिवंशपुराण विष्णुपर्व द्वादशोऽध्यायः
कालियदमनम्
श्रीकृष्णद्वारा कालियनागका दमन, उसका समुद्रको प्रस्थान तथा गोपोंको श्रीकृष्णकी महत्ताका अनुभव -
वैशंपायन उवाच सोऽपसृत्य नदीतीरं बद्ध्वा परिकरं दृढम् । आरोहच्चपलः कृष्णः कदम्बशिखरं मुदा ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! चाल श्रीकृष्णने नदीके तटपर पहुँचकर दृढ़तापूर्वक अपनी कमर कस ली । फिर प्रसन्नतापूर्वक वे कदम्बकी शाखापर चढ़ गये ॥ १ ॥
कृष्णः कदम्बशिखराल्लम्बमानो घनाकृतिः । ह्रदमध्येऽकरोच्छब्दं निपतन्नम्बुजेक्षणः ॥ २ ॥
मेघके समान श्याम शरीरवाले कमलनयन श्रीकृष्णने कदम्बकी शाखासे लटककर कालियदहके बीचमें कूदते समय बड़े जोरका शब्द किया ॥ २ ॥
कृष्णेन तत्र पतता क्षुभितो यमुनाह्रदः । संप्रासिच्यत वेगेन भिद्यमान इवांबुदः ॥ ३ ॥
श्रीकृष्णके वहाँ कूदनेसे यमुनाके उस कुण्डमें हलचल पैदा हो गयी । बड़े वेगसे जल उछलकर तट भूमिसहित सिंच उठा । ऐसा जान पड़ा, मानो वहाँ जलसे भरा हुआ मेघ फट पड़ा हो ॥ ३ ॥
तेन शब्देन सङ्क्षुब्धं सर्पस्य भवनं महत् । उदतिष्ठज्जलात् सर्पो रोषपर्याकुलेक्षणः ॥ ४ ॥
उस शब्दसे नागराजका विशाल भवन क्षुब्ध हो उठा और वह सर्प जलसे ऊपरको उठा । उस समय उसके नेत्र क्रोधसे भरे हुए थे ॥ ४ ॥
स चोरगपतिः क्रुद्धो मेघराशिसमप्रभः । ततो रक्तान्तनयनः कालियः समदृश्यत ॥ ५ ॥
मेघोंकी घटाके समान काले रंगवाला वह नागराज कालिय जब पिन होकर उठा. उस समय उसके नेत्रप्रान्त रक्तवर्णके देव दे रहे थे ॥ ५ ॥
पञ्चास्यः पावकोछ्वासश्चलज्जिह्वोऽनलाननः । पृथुभिः पञ्चभिर्घोरैः शिरोभिः परिवारितः ॥ ६ ॥
उसके पाँच मुख थे और उनके उवासके साथ आगको लपट उठती थी । उसकी जीभ चञ्चल गतिसे लपलपा रही थी और मुखमें आग भरी थी । वह पाँच भयंकर एवं स्थूल सिरसे घिरा रहता था ॥ ६ ॥
पूरयित्वा ह्रदं सर्वं भोगेनानलवर्चसा । स्फुरन्निव च रोषेण ज्वलन्निव च तेजसा ॥ ७ ॥
अपने अग्रिके समान तेजस्वी विशाल शरीरके द्वारा सारे हृदको पूर्ण करके वह क्रोधसे काँपता तथा तेजसे जलता हुआ-सा प्रतीत होता था ॥ ७ ॥
क्रोधेन ज्वलतस्तस्य जलं शृतमिवाभवत् । प्रतिस्रोताश्च भीतेव जगाम यमुना नदी ॥ ८ ॥
क्रोधसे जलते हुए उस सर्पकी विषाग्निसे कालियकुण्डका जल खौलने-सा लगा तथा यमुनाका प्रवाह पीछेकी ओर लौट पड़ा । मानो वह नदी भयभीत-सी होकर पीछे भाग रही हो ॥ ८ ॥
तस्य क्रोधाग्निपूर्णेभ्यो वक्त्रेभ्योऽभूच्च मारुतः । दृष्ट्वा कृष्णं ह्रदगतं क्रीडन्तं शिशुलीलया ॥ ९ ॥ सधूमाः पन्नगेन्द्रस्य मुखान्निश्चेरुरर्चिषः । सृजता तेन रोषाग्निं समीपे तीरजा द्रुमाः ॥ १० ॥ क्षणेन भस्मसान्नीता युगान्तप्रतिमेन वै । तस्य पुत्राश्च दाराश्च भृत्याश्चान्ये महोरगाः ॥ ११ ॥ वमन्तः पावकं घोरं वक्त्रेभ्यो विशसंभवम् । सधूमं पन्नगेन्द्रास्ते निपेतुरमितौजसः ॥ १२ ॥
श्रीकृष्णको अपने हृदमें आकर बालकोंके समान खेलते देख कालिय नागके क्रोधाग्निपूर्ण मुखोंसे उच्छ्वास वायु प्रकट हुई । उस नागराजके मुखसे धूमसहित आगकी लपटें निकलने लगीं । अपनी क्रोधाग्नि प्रकट करते हुए उस प्रलयंकर-जैसे सर्पने उस कुण्डके आसपास उगे हुए तीरवर्ती वृक्षोंको क्षणभरमें जलाकर भस्म कर दिया । उसके स्त्री, पुत्र, सेवक तथा अन्य बड़े-बड़े नाग एवं नागराज, जो अनन्त बलशाली थे, अपने मुखोंसे विषजनित, धूममिश्रित भयंकर आग उगलते हुए उनपर टूट पड़े ॥ ९-१२ ॥
प्रवेशितश्च तैः सर्पैः स कृष्णो भोगबन्धनम् । निर्यत्नचरणाकारस्तस्थौ गिरिरिवाचलः ॥ १३ ॥
उन सभी सोने श्रीकृष्णको अपने शरीरोंके बन्धनमें बाँध लिया । उनके हाथ-पैर एवं सारे अङ्ग निश्चेष्ट हो गये । वे पर्वतकी भाँति अविचल भावसे खड़े रह गये ॥ १३ ॥
अदशन् दशनैस्तीक्ष्णैर्विषोत्पीडजलाविलैः । ते कृष्णं सर्पपतयो न ममार च वीर्यवान् ॥ १४ ॥
उन समस्त नागराजोंने विषके प्रवाहसे मिश्रित जलके द्वारा मलिन हुए अपने तीखे दाँतोंसे श्रीकृष्णको डंसना आरम्भ किया; परंतु शक्तिशाली श्रीकृष्ण मर न सके ॥ १४ ॥
एतस्मिन्नन्तरे भीता गोपालाः सर्व एव ते । क्रन्दमाना व्रजं जग्मुर्बाष्पगद्गदया गिरा ॥ १५ ॥
इसी बीचमें समस्त ग्वालबाल भयभीत हो रोते हुए व्रजमें गये और अश्रुगद्गद वाणीमें इस प्रकार बोले ॥ १५ ॥
गोपा ऊचुः एष मोहं गतः कृष्णो मग्नो वै कालिये ह्रदे । भक्ष्यते सर्पराजेन तदागच्छत मा चिरम् ॥ १६ ॥
गोपोंने कहा-ये श्रीकृष्ण कालियदहमें डूबकर मूर्छित हो गये हैं और नागराज इन्हें खाये जाता है । अतः जल्दी आओ, देर न करो ॥ १६ ॥
नन्दगोपाय वै क्षिप्रं सबलाय निवेद्यताम् । एष ते कृष्यते कृष्णः सर्पेणेति महाह्रदे ॥ १७ ॥
दल-बलसहित नन्दगोपसे कोई शीघ्र जाकर कह दो कि 'तुम्हारे कृष्णको सर्प महान् कुण्डमें खींचे लिये जाता है' ॥ १७ ॥
नन्दगोपस्तु तच्छ्रुत्वा वज्रपातोपमं वचः । आर्तः स्खलितविक्रान्तस्तं जगाम ह्रदोत्तमम् ॥ १८ ॥
वह वज्रपातके समान दारुण वचन सुनकर नन्दगोप शोकसे व्याकुल हो लड़खड़ाते हुए उस विशाल हृदके पास जा पहुँचे ॥ १८ ॥
सबालयुवतीवृद्धः स च सङ्कर्षणो युवा । आक्रीडं पन्नगेन्द्रस्य जलस्थं समुपागमत् ॥ १९ ॥
उनके साथ व्रजके बहुत-से बालक, वृद्ध और युवतियाँ भी थीं । रोहिणीके युवक पुत्र संकर्षण भी आ पहुंचे थे । ये सब-के-सब नागराजकी जलस्थ क्रीडाभूमिके पास आये ॥ १९ ॥
नन्दगोपमुखा गोपास्ते सर्वे साश्रुलोचनाः । हाहाकारं प्रकुर्वन्तस्तस्थुस्तीरे ह्रदस्य वै ॥ २० ॥
नन्द आदि वे सभी गोप नेत्रोंसे आँसू बहाते और हाहाकार करते हुए कालियदहके तटपर खड़े हो गये ॥ २० ॥
व्रीडिता विस्मिताश्चैव शोकार्ताश्च पुनः पुनः । केचित्तु पुत्र हा हेति हा धिगित्यपरे पुनः ॥ २१ ॥
वे अपनी विवशतापर लज्जित थे । श्रीकृष्णका साहस देख-सुनकर आश्चर्यमें पड़े थे और उनके जीवनकी आशङ्कासे बारम्बार शोकात हो जाते थे । कोई 'हाय बेटा ! हाय !' कहकर रो देते और दूसरे 'हाय ! धिकार है हम सबके जीवनको' ऐसा कहते हुए चिन्तामग्न हो जाते थे ॥ २१ ॥
अपरे हा हताः स्मेति रुरुदुर्भृशदुःखिताः । स्त्रियश्चैव यशोदां तां हा हतासीति चुक्रुशुः ॥ २२ ॥ या पश्यसि प्रियं पुत्रं सर्पराजवशं गतम् । स्पन्दितं सर्पभोगेन कृष्यमाणं यथा मृतम् ॥ २३ ॥
दूसरे लोग अत्यन्त दुःखी हो 'हाय ! हम मारे गये । ' ऐसा कहते हुए जोर-जोरसे रोते थे । व्रजकी स्त्रियाँ यशोदाकी ओर देख चिल्ला-चिल्लाकर कहती थीं'हाय यशोदे ! तू बेमौत मारी गयी, क्योंकि अपने प्यारे लालाको आज इस नागराजके वशमें पड़ा हुआ देख रही हो । हाय ! वह सर्पके शरीरसे आबद्ध हो मृतककी भांति घसीटा जा रहा है ॥ २२-२३ ॥
अश्मसारमयं नूनं हृदयं ते विलक्ष्यते । पुत्रं कथमिमं दृष्ट्वा यशोदे नावदीर्यसे ॥ २४ ॥
यशोदे ! निश्चय ही तुम्हारा हृदय लोहेका बना हुआ दिखायी देता है । अरी ! पुत्रको इस दशामें देखकर तुम्हारी छाती फट क्यों नहीं जाती है ? ॥ २४ ॥
दुःखितं बत पश्यामो नन्दगोपं ह्रदान्तिके । न्यस्य पुत्रमुखे दृष्टिं निश्चेतनमवस्थितम् ॥ २५ ॥
हाय ! हम देखते हैं, नन्दबाबा अत्यन्त दुःखी हो कालियदहके निकट लाला कन्हैयाके मुखपर अपनी दृष्टि जमाये अचेत-से खड़े हैं' ॥ २५ ॥
यशोदामनुगच्छन्त्यः सर्पावासमिमं ह्रदम् । प्रविशामो न यास्यामो विना दामोदरं व्रजम् ॥ २६ ॥
'हम सब-की-सब यशोदाजीके पीछे-पीछे सपॉके निवासस्थान इस इदमें प्रवेश कर जायँगी, किंतु दामोदर (श्रीकृष्ण)-को साथ लिये बिना ब्रजको नहीं लौटेंगी ॥ २६ ॥
दिवसः को विना सूर्यं विना चन्द्रेण का निशा । विना वृषेण का गावो विना कृष्णेन को व्रजः । विना कृष्णं न यास्यामो विवत्सा इव धेनवः ॥ २७ ॥
सूर्यके बिना दिन कैसा ? चन्द्रमाके बिना रात्रि कैसी ? साँड़के बिना गौएँ क्या ? तथा श्रीकृष्णके बिना व्रज कैसा ? बिना बछड़ेको धेनुओंके समान हम श्रीकृष्णके बिना व्रजको नहीं लौटेंगी' ॥ २७ ॥
तासां विलपितं श्रुत्वा तेषां च व्रजवासिनाम् । विलापं नन्दगोपस्य यशोदारुदितं तथा ॥ २८ ॥ एकभावशरीरज्ञ एकदेहो द्विधा कृतः । सङ्कर्षणस्तु सङ्क्रुद्धो बभाषे कृष्णमव्ययम् ॥ २९ ॥
उन गोपियोंका, व्रजवासियोंका तथा नन्दबाबाका विलाप और यशोदाजीका करुणापूर्ण रोदन सुनकर श्रीकृष्णके साथ अपने एक भाव और एक शरीरके सम्बन्धको जाननेवाले संकर्षण, जो वास्तवमें एक ही देहके दो भागोंमेंसे एक थे, कुपित हो अविनाशी श्रीकृष्णसे इस प्रकार बोले- ॥ २८-२९ ॥
कृष्ण कृष्ण महाबाहो गोपानां नन्दवर्धन । गम्यतामेष वै क्षिप्रं सर्पराजो विषायुधः ॥ ३० ॥
'गोपोंका आनन्द बढ़ानेवाले महाबाहु श्रीकृष्ण ! कृष्ण ! विष ही जिसका अस्त्र-शस्त्र है, उस सर्पराजका अब शीघ्र दमन करो ॥ ३० ॥
इमे नो बान्धवास्तात त्वां मत्वा मानुषं विभो । परिदेवन्ति करुणं सर्वे मानुषबुद्धयः ॥ ३१ ॥
तात ! प्रभो ! ये हमारे समस्त बन्धु-बान्धव तुममें मानव-बुद्धि ही रखते हैं और तुम्हें मनुष्य मानकर ही करुणाजनक विलाप करते हैं' ॥ ३१ ॥
तच्छ्रुत्वा रौहिणेयस्य वाक्यं संज्ञासमीरितम् । विक्रम्यास्फोटयद् बाहू भित्त्वा तन्नागबन्धनम् ॥ ३२ ॥
रोहिणीनन्दन संकर्षणका यह सांकेतिक वचन सुनकर श्रीकृष्णने सर्पोके उस बन्धनको तोड़ डाला और पराक्रम दिखाते हुए अपनी बाँहोंपर ताल ठोंका ॥ ३२ ॥
तस्य पद्भ्यामथाक्रम्य भोगराशिं जलोत्थितम् । शिरस्तु कृष्णो जग्राह स्वहस्तेनावनाम्य च ॥ ३३ ॥
तत्पश्चात् जलके ऊपर उठे हुए उस सर्पके भारी शरीरको अपने दोनों पैरोंसे दबाकर श्रीकृष्णने अपने हाथसे ही उसके मस्तकको झुकाकर पकड़ लिया ॥ ३३ ॥
तस्यारुरोह सहसा मध्यमं तन्महच्छिरः । सोऽस्य मूर्ध्नि स्थितः कृष्णो ननर्त रुचिराङ्गदः॥ ३४ ॥
फिर श्रीकृष्ण सहसा उसके बिचले विशाल सिरपर चढ़ गये और उसीपर खड़े हो नृत्य करने लगे । उस समय उनकी भुजाओंमें सुन्दर बाजूबंद शोभा पा रहे थे ॥ ३४ ॥
मृद्यमानः स कृष्णेन शान्तमूर्धा भुजङ्गमः । आस्यैः सरुधिरोद्गारैः कातरो वाक्यमब्रवीत् ॥ ३५ ॥
श्रीकृष्णके द्वारा मस्तकके कुचल दिये जानेपर उस सर्पका दिमाग ठंडा हो गया-उसके मस्तिष्कको गरमी शान्त हो गयी । वह अपने मुखोंसे खून उगलता हुआ कातरभावसे बोला ॥ ३५ ॥
अविज्ञानन्मया कृष्ण रोषोऽयं संप्रदर्शितः । दमितोऽहं हतविषो वशगस्ते वरानन ॥ ३६ ॥
'सुमुख श्रीकृष्ण ! मैंने अज्ञानवश आपके सामने इस क्रोधका प्रदर्शन किया है । आपने मेरा दमन कर दिया । मेरा सारा विष नष्ट हो गया । अब मैं आपके अधीन हूँ ॥ ३६ ॥
तदाज्ञापय किं कुर्यां सदा सापत्यबान्धवः । कस्य वा वशतां यामि जीवितं मे प्रदीयतां ॥ ३७ ॥
अतः आज्ञा दीजिये, मैं सदा ही अपने पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित आपकी क्या सेवा करूँ ? अथवा किसके अधीन हो जाऊँ ? मुझे जीवन-दान दीजिये' ॥ ३७ ॥
पञ्चमूर्धानतं दृष्ट्वा सर्पं सर्पारिकेतनः । अक्रुद्ध एव भगवान् प्रत्युवाचोरगेश्वरम् ॥ ३८ ॥
उस सर्पको अपने पाँचों मस्तकोंसे प्रणत हुआ देख भगवान् गरुडध्वजने क्रोध न करके नागराज कालियसे इस प्रकार कहा- ॥ ३८ ॥
तवास्मिन् यमुनातोये नैव स्थानं ददाम्यहम् । गच्छार्णवजलं सर्प सभार्यः सहबान्धवः ॥ ३९ ॥
ओ सर्प ! मैं तुम्हें इस यमुनाजीके जलमें नहीं रहने दूंगा । तुम अपनी पत्नी तथा भाई-बन्धुओंके साथ समुद्रके जलमें चले जाओ' ॥ ३९ ॥
यश्चेह भूयो दृश्येत स्थाने वा यदि वा जले । तव भृत्यस्तनूजो वा क्षिप्रं वध्यः स मे भवेत् ॥ ४० ॥
'अब फिर यहाँ इस स्थानपर या जलमें यदि कोई भी सर्प दिखायी देगा तो वह तुम्हारा भृत्य हो या पुत्र, मेरे हाथसे शीघ्र मार डाला जायगा ॥ ४० ॥
शिवं चास्य जलस्यास्तु त्वं च गच्छ महार्णवम् । स्थाने त्विह भवेद् दोषस्तवान्तकरणो महान् ॥ ४१ ॥
इस जलकी शुद्धि हो जाय-यह लोगोंके लिये मङ्गलकारी हो, इसलिये तुम महासागरमें चले जाओ । यहाँ रहनेपर तुम्हारे जीवनका अन्त कर देनेवाला महान् दोष प्राप्त होगा ॥ ४१ ॥
मत्पदानि च ते सर्प दृष्ट्वा मूर्धसु सागरे । गरुडः पन्नगरिपुस्त्वयि न प्रहरिष्यति ॥ ४२ ॥
सर्प ! समुद्रमें रहते समय भी तुम्हारे पाँचों मस्तकोंपर मेरे चरण-चिह्न देखकर सोके शत्रु गरुड़ तुमपर प्रहार नहीं करेंगे' ॥ ४२ ॥
गृह्य मूर्ध्ना तु चरणौ कृष्णस्योरगपुङ्गवः । पश्यतामेव गोपानां जगामादर्शनं ह्रदात् ॥ ४३ ॥
तब नागप्रवर कालिय भगवान् श्रीकृष्णके दोनों चरणों में मस्तक झुकाकर गोपोंके देखते-देखते उस कुण्डसे अदृश्य हो गया ॥ ४३ ॥
निर्जिते तु गते सर्पे कृष्णमुत्तीर्य धिष्ठितम् । विस्मितास्तुष्टुवुर्गोपाश्चक्रुश्चैव प्रदक्षिणम् ॥ ४४ ॥
जब वह सर्प हार मानकर चला गया और श्रीकृष्ण जलसे निकलकर किनारे खड़े हो गये, तब सब गोप आश्चर्यसे चकित हो उनकी स्तुति और परिक्रमा करने लगे ॥ ४४ ॥
ऊचुः सर्वे च संप्रीता नन्दगोपं वनेचराः । धन्योऽस्यनुगृहीतोऽसि यस्य ते पुत्र ईदृशः ॥ ४५ ॥
समस्त वनचारी गोपोंने अत्यन्त प्रसन्न होकर नन्दगोपसे कहा-'गोपराज ! आप धन्य हैं, आपपर भगवान्की बड़ी भारी कृपा है, जिससे आपको ऐसा पुत्र मिला ॥ ४५ ॥
अद्यप्रभृति गोपानां गवां गोष्ठस्य चानघ । आपत्सु शरणं कृष्णः प्रभुश्चायतलोचनः ॥ ४६ ॥
निष्पाप नन्द ! आजसे सभी आपदाओंके समय गोपों, गौओं और गोष्ठ (व्रज)-के लिये ये विशाललोचन भगवान् श्रीकृष्ण ही शरणदाता और स्वामी हैं ॥ ४६ ॥
जाता शिवजला सर्वा यमुना मुनिसेविता । तिरे चास्याः सुखं गावो विचरिष्यन्ति नः सदा ॥ ४७ ॥
"मुनियोंसे सेवित समस्त यमुनाका जल अब सबके लिये सुखद एवं मङ्गलमय हो गया । अब हमारी गौएँ सदा इसके तटपर चरती-फिरती रहेंगी ॥ ४७ ॥
व्यक्तमेव वयं गोपा वने यत्कृष्णमीदृशम् । महद्भूतं न जानीमश्छन्नमग्निमिव व्रजे ॥ ४८ ॥
'हम बनमें रहनेवाले गँवार-ग्वारियाँ हैं'-यह बात स्पष्ट ही सत्य दिखायी देती है । क्योंकि ऐसे महान् आत्मा श्रीकृष्ण राखमें छिपी हुई आगकी तरह व्रजमें विद्यमान हैं, परंतु हम इनके महत्त्वको समझते ही नहीं हैं' ॥ ४८ ॥
एवं ते विस्मिताः सर्वे स्तुवन्तः कृष्णमव्ययम् । जग्मुर्गोपगणा घोषं देवाश्चैत्ररथं यथा ॥ ४९ ॥
इस प्रकार वे विस्मित हुए समस्त गोपगण अविनाशी भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति करते हुए गोष्ठमें चले गये, | मानो देवता चैत्ररथ वनमें गये हों ॥ ४९ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि शिशुचर्यायां कालियदमने द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥ इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें बाललीलाके प्रसंगणे कालियदमनविषयक बारहवां अध्याय पूरा हुआ ॥ १२ ॥
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