श्रीहरिवंशपुराण विष्णुपर्व त्रयोदशोऽध्यायः
धेनुकवधः
बलरामद्वारा धेनुकासुरका वध और भयरहित तालवनमें गौओं तथा गोपोंका विचरण -
वैशंपायन उवाच दमिते सर्पराजे तु कृष्णेन यमुनाह्रदे । तमेव चेरतुर्देशं सहितौ रामकेशवौ ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! जब श्रीकृष्णाने यमुनाजीके कुण्डमें रहनेवाले नागराज कालियका दमन कर दिया, उसके बादसे वे दोनों भाई बलराम और श्रीकृष्ण प्रायः उसी प्रदेशमें साथ-साथ विचरा करते थे ॥ १ ॥
आजग्मतुस्तौ सहितौ गोधनैः सह गामिनौ । गिरिं गोवर्धनं रम्यं वसुदेवसुतावुभौ ॥ २ ॥
एक दिन वसुदेवके वे दोनों पुत्र गोधनके साथ विचरते हुए परम रमणीय गोवर्धन पर्वतके निकट आये ॥ २ ॥
गोवर्धनस्योत्तरतो यमुनातीरमाश्रितम् । ददृशाते च तौ वीरौ रम्यं तालवनं महत् ॥ ३ ॥
वहाँ उन दोनों वीरोंने देखा-गोवर्धनसे उत्तर दिशामें यमुनाके तटका आश्रय लेकर एक विशाल एवं रमणीय तालवन शोभा पा रहा है ॥ ३ ॥
तौ तालपर्णप्रतते रम्ये तालवने रतौ । चेरतुः परमप्रीतौ वृषपोताविवोद्धतौ ॥ ४ ॥
ताड़के पत्तोंसे विस्तारको प्राप्त हुए उस रमणीय तालवनमें क्रीडापरायण हो वे दोनों भाई दो उद्दण्ड बछड़ोंके समान बड़ी प्रसन्नताके साथ विचरने लगे ॥ ४ ॥
स तु देशः सदा स्निग्धो लोष्ठपाषाणवर्जितः । दर्भप्रायस्थलीभूतः सुमाहान्कृष्णमृत्तिकः ॥ ५ ॥
वह विशाल प्रदेश सदा ही स्निग्ध (चिकना) रहता था, वहाँ ढेले और पत्थरोंके रोड़े नहीं थे । वहाँके स्थलोंपर प्रायः दर्भ (कुश, दूर्वा आदि) फैले हुए थे । उस स्थानकी मिट्टी काले रंगकी थी ॥ ५ ॥
तालैस्तैर्विपुलस्कन्धैरुच्छ्रितैः श्यामपर्वभिः । फलाग्रशाखिभिर्भाति नागहस्तैरिवोच्छ्रितैः ॥ ६ ॥
वहाँ जो ताड़के वृक्ष थे, उनके तने मोटे थे । वे सभी वृक्ष बहुत ऊँचे थे । उनके पर्वस्थान (गाँठ) काले रंगके थे और उनकी शाखाएँ फलोंसे भरी-पूरी थीं । उन तालवृक्षोंसे उस स्थानकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो वहाँ अपनी सूंड ऊपरको उठाये बहुत-से हाथी खड़े हों ॥ ६ ॥
तत्र दामोदरो वाक्यमुवाच वदतां वरः । अहो तालफलैः पक्वैर्वासितेयं वनस्थली ॥ ७ ॥ स्वादून्यार्य सुगन्धीनि श्यामानि रसवन्ति च । पक्वतालानि सहितौ पातयामो लघुक्रमौ ॥ ८ ॥
वहाँ वक्ताओंमें श्रेष्ठ दामोदर (श्रीकृष्ण)-ने संकर्षणसे कहा-'आर्य ! यहाँकी वनस्थली तो इन पके हुए तालफलोंको सुगन्धसे महक उठी है । ये काले और सुगन्धित तालफल अवश्य ही स्वादिष्ठ और सरस होंगे । हम दोनों भाई साथसाथ रहकर शीघ्रतापूर्वक कदम उठाते हुए इन फलोंको यहाँ गिरावें ॥ ७-८ ॥
यद्येषामीदृशो गन्धो माधुर्यघ्राणतर्पणः । रसेनामृतकल्पेन भवितव्यं च मे मतिः ॥ ९ ॥
यदि इनकी गन्ध ऐसी है, जो अपनी मधुरतासे हमारी प्राणेन्द्रियोंको तृप्त किये देती है तो मेरा विश्वास है कि इन फलोंको अमृततुल्य रससे युक्त होना चाहिये' ॥ ९ ॥
दामोदरवचः श्रुत्वा रौहिणेयो हसन्निव । पातयन्पक्वतालानि चालयामास तांस्तरून् ॥ १० ॥
दामोदरकी यह बात सुनकर रोहिणीनन्दन बलराम हंसते हुए-से पके हुए तालफलोंको गिरानेके उद्देश्यसे उन वृक्षोंको हिलाने लगे ॥ १० ॥
तत्तु तालवनं नॄणामसेव्यं दुरतिक्रमम् । निर्माणभूतमिरिणं पुरुषादालयोपमम् ॥ ११ ॥
उस तालवनका सेवन मनुष्योंके लिये असम्भव हो गया था । उस वनको इस पारसे उस पारतक सकुशल लांघ जाना अत्यन्त कठिन था । यद्यपि वह सारभूत स्थान था, तथापि राक्षसके घरकी भाँति मनुष्योंसे शून्य दिखायी देता था ॥ ११ ॥
दारुणो धेनुको नाम दैत्यो गर्दभरूपधृक् । खरयूथेन महता वृतः समनुसेवते ॥ १२ ॥
गर्दभरूपधारी धेनुक नामक दारुण दैत्य विशाल गदहोंकी टोलीसे घिरा हुआ उस वनमें रहता था ॥ १२ ॥
स तु तालवनं घोरं गर्दभः परिरक्षति । नृपक्षिश्वापदगनणांस्त्रासयानः सुदुर्मतिः ॥ १३ ॥
वह गदहा असुर उस तालवनकी सब ओरसे रक्षा करता था । उसकी बुद्धि बहुत ही खोटी थी । वह मनुष्यों, पक्षियों तथा हिंसक जन्तुओंको भी आतड़ित किये रहता था ॥ १३ ॥
तालशब्दं स तं श्रुत्वा संघुष्टं फलपातनात् । नामर्षयत् स संक्रुद्धस्तालस्वनमिव द्विपः ॥ १४ ॥
उन तालफलोंके गिरानेसे जो धमाकेकी आवाज होती थी, उसे सुनकर धेनुकासुर सहन न कर सका । जैसे ताल ठोंकनेकी आवाज सुनकर हाथी कुपित हो उठता है, उसी प्रकार वह भी अत्यन्त क्रोधमें भर गया ॥ १४ ॥
शब्दानुकारी संक्रुद्धो दर्पाविद्धसटाननः । स्तब्धाक्षो ह्रेषितपटुः खुरैर्निर्दारयन्महीम् ॥ १५ ॥ आविद्धपुच्छो हृषितो व्यात्तानन इवान्तकः । आपतन्नेव ददृशे रौहिणेयमुपस्थितम् ॥ १६ ॥
वह उस धमाकेके शब्दका अनुसरण करता हुआ बड़े रोषके साथ चला । घमंडमें भरकर अपने अयाल और सिरको घुमाता आ रहा था । उसकी आँखें स्तब्ध हो गयी थीं । वह बड़ी पटुताके साथ रेंक रहा था और अपनी टापोंसे पृथ्वीको विदीर्ण-सा किये देता था । उसकी पूँछ घूम रही थी, रोंगटे खड़े हो गये थे, वह मुँह बाये हुए कालके समान जान पड़ता था । उसने आते ही रोहिणीनन्दन बलरामको वहाँ उपस्थित देखा ॥ १५-१६ ॥
तालानां तमधो दृष्ट्वा स ध्वजाकारमव्ययम् । रौहिणेयं खरो दुष्टः सोऽदशद् दशनायुधः ॥ १७ ॥
ध्वजाकीसी आकृतिवाले अविनाशी रोहिणीकुमारको लाड़ोंके नीचे खड़ा देख दाँतोंसे ही शस्त्रका काम लेनेवाले उस दुष्ट गदहेने उन्हें दाँतसे काट लिया ॥ १७ ॥
पद्भ्यामुभाभ्यां च पुनः पश्चिमाभ्यां पराङ्मुखः । जघानोरसि दैत्येन्द्रो रौहिणेयं निरायुधम् ॥ १८ ॥
फिर दूसरी ओर मुँह करके उस दैत्यराज धेनुकने बिना हथियार लिये खड़े हुए रोहिणीकुमारकी छातीमें अपने पिछले दो पैरोंद्वारा चोट पहुँचायी ॥ १८ ॥
ताभ्यांएव स जग्राह पद्भ्यां तं दैत्यगर्दभम् । आवर्जितमुखस्कन्धं प्रेरयंस्तालमूर्धनि ॥ १९ ॥
तब बलरामजीने उस गर्दभरूपधारी दैत्यके उन्हीं दोनों पैरोंको पकड़ लिया तथा उसके मुंह और कंधोंको घुमाते हुए उसे ताइवृक्षके ऊपर दे मारा ॥ १९ ॥
सम्भग्नोरुकटिग्रीवो भग्नपृष्ठो दुराकृतिः । खरस्तालफलैः सार्धं पपात धरणीतले ॥ २० ॥
उसकी दोनों जाँघे, कमर और गर्दन टूट गयीं । पीठकी हड्डी भी चूर-चूर हो गयी । उसकी आकृति बहुत बिगड़ गयी और वह गर्दभासुर तालफलोंके साथ ही पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ २० ॥
तं गतासुं गतश्रीकं पतितं वीक्ष्य गर्दभम् । ज्ञातींस्तथापरांस्तस्य तृणराजनि सोऽक्षिपत् ॥ २१ ॥
धेनुकासुरको प्राणशून्य और श्रीहीन होकर पृथ्वीपर पड़ा देख बलरामजीने उसके दूसरे भाई-बन्धुओंको भी उसी प्रकार ताड़वृक्षपर दे मारा ॥ २१ ॥
सा भूर्गर्दभदेहैश्च तालैः पक्वैश्च पातितैः । बभासे छन्नजलदा द्यौरिवाव्यक्तशारदी ॥ २२ ॥
वहाँकी भूमि गधोंकी लाशों तथा गिराये गये परिपक्क तालफलोंसे आच्छादित हो. जिसमें शरदऋतुके लक्षण प्रकट न हुए हों और बादल छा रहे हों, ऐसे आकाशके समान सुशोभित होने लगी ॥ २२ ॥
तस्मिन्गर्दभदैत्ये तु सानुगे विनिपातिते । रम्यं तालवनं तद्धि भूयो रम्यतरं बभौ ॥ २३ ॥
सेवकोंसहित उस गर्दभरूपधारी दैत्यके मारे जानेपर वह सुरम्य तालवन और अधिक रमणीय प्रतीत होने लगा ॥ २३ ॥
विप्रमुक्तमयं शुभ्रं विविक्ताकारदर्शनम् । चरन्ति स्म सुखं गावस्तत् तालवनमुत्तमम् ॥ २४ ॥
उस शुभ्र तालवनका सारा भय दूर हो गया । उसके एकान्त प्रदेशका भी सबको दर्शन होने लगा तथा उस उत्तम वनमें गौएँ सुखपूर्वक चरने लगीं ॥ २४ ॥
ततः प्रविष्टास्ते सर्वे गोपा वनविचारिणः । वीतशोकभयायासाश्चञ्चूर्यन्ते समन्ततः ॥ २५ ॥
तदनन्तर वनमें विचरनेवाले सभी गोप उस तालवनमें जा घुसे । उनका शोक, भय और आयास दूर हो गया था, अत: वे वहाँ सब ओर बारम्बार विचरण करने लगे ॥ २५ ॥
ततः सुखं प्रकीर्णासु गोषु नागेन्द्रविक्रमौ । द्रुमपर्णासनं कृत्वा तौ यथार्हं निषीदतुः ॥ २६ ॥
तदनन्तर जव गौएँ सुखपूर्वक सब ओर फैलकर चरने लगी, तब गजराजके समान पराक्रमी श्रीकृष्ण और बलराम वृक्षोंके पत्तोंका आसन लगाकर यथोचित रीतिसे बैठ गये ॥ २६ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेशु हरिवंशे विष्णुपर्वणि शिशुचर्यायां धेनुकवधे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाणहरिवंसके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें बाललीलाके प्रसंगमें धेनुकासुरका वधविषयक तेरहवां अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥
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