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श्रीहरिवंशपुराण
विष्णुपर्व
चतुर्दशोऽध्यायः


प्रलम्बवधः
बलरामद्वारा प्रलम्बासुरका वध -


वैशंपायन उवाच
अथ तौ जातहर्शौ तु वसुदेवसुतावुभौ ।
तत्तालवनमुत्सृज्य भूयो भाण्डीरमागतौ ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! तदनन्तर हर्षमें भरे हुए वे दोनों वसुदेवकुमार उस तालवनको छोड़कर पुनः भाण्डीरवटके पास आ गये ॥ १ ॥

चारयन्तौ विवृद्धानि गोधनानि शुभाणि च ।
स्फीतसस्यप्ररूढानि वीक्षमाणौ वनानि च ॥ २ ॥
वहाँ वे हष्ट-पुष्ट और सुन्दर गोधनोंको चराते तथा बढ़ी हुई खेतीसे सम्पन्न वनस्थलियोंकी शोभा निहारते हुए विचरने लगे ॥ २ ॥

क्ष्वेडयन्तौ प्रगायन्तौ प्रचिन्वन्तौ च पादपान् ।
नामभिर्व्याहरन्तौ च सवत्सा गाः परंतपौ ॥ ३ ॥
शत्रुओंको संताप देनेवाले वे दोनों भाई कभी ताल ठोंकते, कभी गीत गाते, कभी वृक्षोंके फल-फूल और पत्ते तोड़ते और कभी बछड़ेवाली गौओंको उनके नाम ले-लेकर पुकारते थे ॥ ३ ॥

नियोगपाशैरासक्तैः स्कन्धाभ्यां शुभलक्षणौ ।
वनमालाकुलोरस्कौ बालशृङ्‌‌‍गाविवर्षभौ ॥ ४ ॥
कंधेपर गौ बाँधनेकी रस्सी डाले, सुन्दर लक्षणोंसे सम्पन्न तथा वनमालासे विभूषित वक्षःस्थलवाले वे दोनों वीर नये सींगोंवाले बछड़ोंके समान शोभा पाते थे ॥ ४ ॥

सुवर्णाञ्जनचूर्णाभावन्योन्यसदृशाम्बरौ ।
महेन्द्रायुधसंसक्तौ शुक्लकृष्णाविवाम्बुदौ ॥ ५ ॥
उन दोनोंमेंसे एकके शरीरकी कान्ति सुवर्ण-चूर्णके समान गौर थी, तो दूसरेकी अञ्जन-चूर्णके समान श्याम । वे दोनों एकदूसरेके अङ्गोंके समान रंगवाले वस्त्र धारण करते थे (अर्थात् गोरे बलभद्रका वस्त्र श्रीकृष्णकी अङ्गकान्तिके समान नीला था और श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका वस्त्र बलभद्रकी अङ्गप्रभाके समान सुनहरा एवं पीला था) । वे दोनों इन्द्रधनुषसे सटे हुए श्वेत और काले रंगके दो बादलोंके समान जान पड़ते थे ॥ ५ ॥

कुशाग्रकुसुमानां च कर्णपूरौ मनोरमौ ।
वनमार्गेषु कुर्वाणौ वन्यवेषधरावुभौ ॥ ६ ॥
वे दोनों वनके मार्गोपर कुशोंके अग्रभाग तथा फूलोंके मनोरम कर्णपूर बनाकर धारण करते और वन्य वेष ग्रहण करके शोभा पाते थे ॥ ६ ॥

गोवर्धनस्यानुचरौ वने सानुचरौ तु तौ ।
चेरतुर्लोकसिद्धाभिः क्रीडाभिरपराजितौ ॥ ७ ॥
वनमें उन दोनोंके पीछे चलनेवाले बहुत-से गोप-बालक थे । उन्हें साथ लेकर वे दोनों भाई गोवर्धनके आस-पास विचरा करते थे । वे कभी किसीसे पराजित होनेवाले नहीं थे । भाण्डीरवटके पास लोक-प्रचलित बालक्रीडाओंद्वारा मन बहलाते हुए श्रीकृष्ण और बलराम विचरण करने लगे ॥ ७ ॥

तावेव मानुषीं दीक्षां वहन्तौ सुरपूजितौ ।
तज्जातिगुणयुक्ताभिः क्रीडाभिश्चेरतुर्वनम् ॥ ८ ॥
इस प्रकार देवताओंद्वारा पूजित होनेपर भी वे दोनों मानवी दीक्षा ग्रहण करके मनुष्य-जातिके गुणोंसे युक्त क्रीडाएँ करते हुए बनमें घूमने लगे ॥ ८ ॥

तौ तु भाण्डिरमाश्रित्य बालक्रीडानुवर्तिनौ ।
प्राप्तौ परमशाखाढ्यं न्यग्रोधं शाखिनां वरम् ॥ ९ ॥
भाण्डीरके निकट आकर बालोचित क्रीडामें लगे हुए वे दोनों भाई उस उत्तम शाखाओंसे सम्पन्न एवं वृक्षों में श्रेष्ठ वटके नीचे आ गये ॥ ९ ॥

तत्र त्वान्दोलिकाभिश्च युद्धमार्गविशारदौ ।
अश्मभिः क्षेपणीयैश्च तौ व्यायममकुर्वताम् ॥ १० ॥
युद्धकी प्रणालीमें परम चतुर वे दोनों भाई वहाँ कभी झूला झूलकर और कभी फेंकनेयोग्य पत्थर फेंककर व्यायाम करने लगे ॥ १० ॥

युद्धमार्गैश्च विविधैर्गोपालैः सहितावुभौ ।
मुदितौ सिंहविक्रान्तौ यथाकामं विचेरतुः ॥ ११ ॥
नाना प्रकारके युद्धके पैंतरे दिखाते हुए वे दोनों सिंहके समान पराक्रमी वीर ग्वालबालोंके साथ रहकर अपनी इच्छाके अनुसार सानन्द विचरने लगे ॥ ११ ॥

तयो रमयतोरेवं तल्लिप्सुरसुरोत्तमः ।
प्रलम्बोऽभ्यागमत् तत्र च्छिद्रान्वेषी तयोस्तदा ॥ १२ ॥
गोपालवेषमास्थाय वन्यपुष्पविभूषितः ।
लोभयानः स तौ वीरौ हास्यैः क्रीडनकैस्तथा ॥ १३ ॥
वे दोनों जब इस प्रकार खेलका आनन्द ले रहे थे, उसी समय उन्हें उठा ले जानेकी इच्छासे असुरों में श्रेष्ठ प्रलम्ब एक गोपबालकका वेष धारण करके वहाँ आया । उसने बन्य-पुष्पोंसे अपने-आपको विभूषित कर रखा था । वह उस समय उनका छिद्र (उन्हें उठा ले जानेका अवसर) ढूँढ़ रहा था और उन दोनों वीरोंको अपने हँसी-खेलसे लुभा रहा था ॥ १२-१३ ॥

सोऽवगाहत निश्शङ्‌‌‍कस्तेषां मध्यममानुषः ।
मानुषं वपुरास्थाय प्रलम्बो दानवोत्तमः ॥ १४ ॥
दानवप्रवर प्रलम्ब मनुष्य न होनेपर भी मनुष्यका शरीर धारण करके निःशङ्कभावसे उन बालकोंक बीच घुस गया ॥ १४ ॥

प्रक्रीडिताश्च ते सर्वे सह तेनामरारिणा ।
गोपालवपुषं गोपामन्यमानाः स्वबान्धवम् ॥ १५ ॥
वे सब बालक उस देवद्रोहीके साथ खेलने लगे । वह ग्वालबालका वेष धारण करके आया था, इसलिये समस्त गोप उसे अपना भाई-बन्धु ही मानते थे ॥ १५ ॥

स तु च्छिद्रान्तरप्रेप्सुः प्रलम्बो गोपतां गतः ।
दृष्टिं प्रणिदधे कृष्णे रौहिणेये च दारुणाम् ॥ १६ ॥
परंतु गोपवैषमें आया हुआ प्रलम्ब उन दोनों वीरोंकी दुर्बलताका अवसर ढूँढ़ रहा था, इसलिये उसने श्रीकृष्ण और बलरामपर क्रूरतापूर्ण दृष्टि डाली ॥ १६ ॥

अविषह्यं ततो मत्वा कृष्णमद्भुतविक्रमम् ।
रौहिणेयवधे यत्‍नमकरोद् दानवोत्तमः ॥ १७ ॥
श्रीकृष्णका पराक्रम अद्भुत था, इसलिये उन्हें अजेय मानकर उस दानवराजने रोहिणीकुमार बलरामजीको मारनेका प्रयत्न किया ॥ १७ ॥

हरिणाक्रीडनं नाम बालक्रीडनकं तातः ।
प्रक्रीडितास्तु ते सर्वे द्वौ द्वौ युगपदुत्पतन् ॥ १८ ॥
तदनन्तर वे सब ग्वाल-बाल हरिणाक्रीडन* नामक बालोचित खेल खेलने लगे । उसमें दो-दो बालक एक साथ उछलते हुए कुछ दूर जाते थे ॥ १८ ॥

कृष्णः श्रीदामसहितः पुप्लुवे गोपसूनुना ॥
संकर्षणस्तु प्लुतवान् प्रलम्बेन सहानघ ॥ १९ ॥
गोपालास्त्वपरे द्वन्द्वं गोपालैरपरैः सह ।
प्रद्रुता लङ्‌‌‍घयन्तो वै तेऽन्योन्यं लघुविक्रमाः ॥ २० ॥
निष्पाप जनमेजय ! श्रीदामाके साथ श्रीकृष्ण और ग्वालबालके वेषमें आये हुए प्रलम्बके साथ संकर्षण कूद-कूदकर चलने लगे । इसी तरह दूसरे ग्वालबाल अन्य ग्वालबालोंके साथ दो-दोकी जोड़ी बनाकर एक-दूसरेको लाँघ जानेका प्रयत्न करते हुए शीघ्र गतिसे उछलते हुए चलने लगे ॥ १९-२० ॥

श्रीदाममजयत् कृष्णः प्रलम्बं रोहिणीसुतः
गोपालैः कृष्णपक्षीयैर्गोपालास्त्वपरे जिताः ॥ २१ ॥
उस खेलमें श्रीकृष्णने श्रीदामाको, रोहिणीनन्दन बलरामने प्रलम्बको तथा अन्यान्य कृष्णपक्षीय गोपोंने दूसरे पक्षके गोपोंको पराजित कर दिया ॥ २१ ॥

ते वाहयन्तस्त्वन्योन्यं संहर्षात् सहसा द्रुताः ।
भाण्डीरस्कन्धमुद्दिश्य मर्यादां पुनरागमन् ॥ २२ ॥
जो-जो बालक हारे थे, वे अपने साथके विजयी बालकोंको पीठपर ढोते हुए हर्षके साथ सहसा दौड़े और भाण्डीरवृक्षके तनेतक पहुँचनेकी नियत सीमापर पहुँचकर फिर लौट आये ॥ २२ ॥

सङ्‌‌‍कर्षणं तु स्कन्धेन शीघ्रमुत्क्षिप्य दानवः ।
द्रुतं जगाम विमुखः सचन्द्र इव तोयदः ॥ २३ ॥
परंतु दानव प्रलम्ब बलरामजीको शीघ्र ही अपने कंधेपर चढ़ाकर वहाँसे विमुख हो तीव्र गतिसे आकाशकी ओर चल दिया । उस समय वह ऊपरी भागमें चन्द्रमाको धारण किये काले मेघके समान जान पड़ता था ॥ २३ ॥

स भारमसहंस्तस्य रौहिणेयस्य धीमतः ।
ववृधे सुमहाकायः शक्राकान्त इवाम्बुदः ॥ २४ ॥
बुद्धिमान् रोहिणीनन्दन बलरामके भारको सहन न कर सकनेके कारण वह दानव बड़ने लगा । बढ़ते-बढ़ते वह विशालकाय हो इन्द्रका वाहन बने हुए मेषके समान प्रतीत होने लगा ॥ २४ ॥

स भाण्डीरवटप्रख्यं दग्धाञ्जनगिरिप्रभम् ।
स्वं वपुर्दर्शयामास प्रलम्बो दानवोत्तमः ॥ २५ ॥
दानवराज प्रलम्बने वहाँ अपने शरीरको भाण्डीरवट तथा जले हुए कजलगिरिके समान दिखाया ॥ २५ ॥

पञ्चस्तबकलम्बेन मुकुटेनार्कवर्चसा ।
दीप्यमानाननो दैत्यः सूर्याक्रान्त इवाम्बुदः॥ २६ ॥
उस दैत्यका मुख पाँच पुष्पगुच्छोंसे युक्त सूर्यतुल्य तेजस्वी मुकुटसे देदीप्यमान था । उस मुकुटको धारण करके वह सूर्यसे आक्रान्त हुए काले मेघके समान जान पड़ता था ॥ २६ ॥

महाननो महाग्रीवः सुमहानन्तकोपमः ।
रौद्रः शकटचक्राक्षो नमयंश्चरणैर्महीम् ॥ २७ ॥
उसका मुख बहुत बड़ा था, गरदन भी वैसी ही थी । वह महाकाय दैत्य यमराजके समान भयंकर दिखायी देता था । उसकी आँखें गाड़ीके पहिये-सी घूम रही थीं । वह अपने पैरोंसे पृथ्वीको झुका देता था ॥ २७ ॥

स्रग्दामलम्बाभरणः प्रलम्बाम्बरभूषणः ।
वीरः प्रलम्बः प्रययौ लम्बतोय इवाम्बुदः ॥ २८ ॥
उसके गलेमें फूलोंकी लम्बी माला शोभा दे रही थी । उसके वस्त्र और आभूषण भी बहुत बड़े-बड़े थे । वह वीर प्रलम्ब नीचेको गिरते हुए जलवाले मेघके समान | तीव्र गतिसे चला जा रहा था ॥ २८ ॥

स जहाराथ वेगेन रौहिणेयं महासुरः ।
सागरोपप्लवगतं कृत्स्नं लोकमिवान्तकः ॥ २९ ॥
उस महान् असुरने रोहिणीनन्दन बलरामको बड़े वेगसे हर लिया, ठीक उसी तरह जैसे प्रलयंकर काल एकार्णवमें डूबे हुए समस्त लोकका अपहरण कर लेता है ॥ २९ ॥

ह्रियमाणः प्रलम्बेन स तु सङ्‌‌‍कर्षणो बभौ ।
उह्यमान इवाकाशे कालमेघेन चन्द्रमाः ॥ ३० ॥
प्रलम्बासुरके द्वारा हरकर ले जाये जाते हुए संकर्षण आकाशमें ऐसे जान पड़ते थे, मानो कोई काला मेघ चन्द्रमाको अपने ऊपर बिठाकर लिये जा रहा हो ॥ ३० ॥

स संदिग्धमिवात्मानं मेने सङ्‌‌‍कर्षणस्तदा ।
दैत्यस्कन्धगतः श्रीमान् कृष्णं चेदमुवाच ह ॥ ३१ ॥
उस समय बलरामने अपने-आपको प्राणसंशयकी स्थितिमें पड़ा हुआ समझा । तब दैत्यके कंधेपर बैठे हुए उन श्रीमान् संकर्षणने श्रीकृष्णसे इस प्रकार कहा- ॥ ३१ ॥

ह्रियेऽहं कृष्ण दैत्येन पर्वतोदग्रवर्ष्मणा ।
प्रदर्शयित्वा महतीं मायां मानुषरूपिणीम् ॥ ३२ ॥
श्रीकृष्ण ! यह देखो ! मुझे कोई पर्वतके समान विशालकाय दैत्य हरकर लिये जाता है । इसने मनुष्यरूपधारिणी महती मायाका प्रदर्शन करके मुझे भ्रममें डाल दिया था ॥ ३२ ॥

कथमस्य मया कार्यं शासनं दुष्टचेतसः ।
प्रलम्बस्य प्रवृद्धस्य दर्पाद् द्विगुणवर्चसः ॥ ३३ ॥
यह दुष्टात्मा दैत्य बढ़कर बहुत लम्बा हो गया है । बलके मदसे इसकी कान्ति दुगुनी हो गयी है । मुझे किस तरह इसका दमन करना चाहिये' ॥ ३३ ॥

तमाह सस्मितं कृष्णः साम्ना हर्षाकुलेन वै ।
अभिज्ञो रौहिणेयस्य वृत्तस्य च बलस्य च ॥ ३४ ॥
तब रोहिणीनन्दन बलरामके चरित्र और बलको भलीभाँति जाननेवाले श्रीकृष्णने मुसकराकर हर्षभरी सान्त्वनायुक्त वाणीमें उनसे कहा- ॥ ३४ ॥

अहोऽयं मानुषो भावो व्यक्तमेवानुपाल्यते ।
यस्त्वं जगन्मयं देवं गुह्याद्‌गुह्यतरं गतः ॥ ३५ ॥
स्मर नारायणात्मानं लोकानां त्वं विपर्यये ।
अवगच्छात्मनात्मानं समुद्राणां समागमे ॥ ३६ ॥
'अहो ! आप तो स्पष्ट ही मानव-भावका अवलम्बन एवं पालन करते जा रहे हैं । आपका स्वरूप तो अखिल विश्वमय है । आप दिव्यस्वरूप तथा गुह्यसे भी गुहतर हैं । आप ही समस्त लोकोंका संहार होनेपर नारायणरूपसे स्थित होते हैं । आप अपने उस स्वरूपका स्मरण तो कीजिये । प्रलयकालमें जब सारे समुद्र मिलकर एक हो जाते हैं, उस समय आप जिस शेषशायी नारायणरूपसे विराजमान होते हैं, उसका स्वयं ही अनुभव कीजिये ॥ ३५-३६ ॥

पुरातनानां देवानां ब्रह्मणः सलिलस्य च ।
आत्मवृत्तप्रभावाणां संस्मराद्यं च वै वपुः ॥ ३७ ॥
'पुरातन देवता, ब्रह्मा, जल तथा अपने चरित्र और प्रभाव-इन सबका आदि कारण तथा जो आपका शाश्वत स्वरूप है, उसका स्मरण कीजिये ॥ ३७ ॥

शिरः खं ते जलं मूर्त्तिः क्षमा भूर्दहनो मुखम् ।
वायुर्लोकायुरुछ्‌वासो मनःस्रष्टा ह्यभूत्तव ॥ ३८ ॥
आकाश आपका सिर है, जल मूर्ति है, पृथ्वी पैर है, अग्नि मुख है, लोकोंको जीवन देनेवाली वायु आपका उच्छ्वास है और चन्द्रमा आपका मन है ॥ ३८ ॥

सहस्रास्यः सहस्राङ्‌‌‍गः सहस्रचरणेक्षणः ।
सहस्रपद्मनाभस्त्वं सहस्रांशुधरोऽरिहा ॥ ३९ ॥
आपके सहस्रों मुख, सहस्रों शरीर, सहस्रों हाथ-पैर और सहस्रों नेत्र हैं । आपकी नाभिसे सहस्रों कमल प्रकट हो चुके हैं । आप सहन किरणोंवाले सूर्यको चक्ररूपसे धारण करके शत्रुओंका संहार करते हैं ॥ ३९ ॥

यत्त्वया दर्शितं लोके तत् पश्यन्ति दिवौकसः ।
यत्त्वया नोक्तपूर्वं हि कस्तदन्वेष्टुमर्हति ॥ ४० ॥
आपने पूर्वकालमें जो कुछ दिखाया है, संसारमें उसीको देवता लोग देखते हैं । आपने पहले जिसकी चर्चा नहीं की है, उसका अनुसंधान कौन कर सकता है ? ॥ ४० ॥

यद्वेदितव्यं लोकेऽस्मिंस्तत्त्वया समुदाहृतम् ।
विदितं यत्तवैकस्य देवा अपि न तद्विदुः ॥ ४१ ॥
'जगत्में जो कुछ जाननेयोग्य है, उसका आपने प्रतिपादन कर दिया है । एकमात्र आपको जो तत्त्व ज्ञात है, उसे देवता भी नहीं जानते ॥ ४१ ॥

आत्मजं ते वपुर्व्योम्नि न पश्यन्त्यात्मसंभवम् ।
यत्तु ते कृत्रिमं रूपं तदर्चन्ति दिवौकसः ॥ ४२ ॥
आपका जो सहज, आकाशमें भी व्यापक एवं स्वयम्भू रूप है, उस (विशुद्ध सनातन एवं निर्गुण-निराकाररूप)-को देवता भी देख या समझ नहीं पाते हैं । भक्तपर अनुग्रह करनेके लिये आप जो सगुण-साकाररूपसे अवतार ग्रहण करते हैं, उसीकी देवता लोग पूजा एवं आराधना करते हैं ॥ ४२ ॥

देवैर्न दृष्टश्चान्तस्ते तेनानन्त इति स्मृतः।
त्वं हि सूक्ष्मो महानेकः सूक्ष्मैरपि दुरासदः ॥ ४३ ॥
'देवताओंने भी आपका अन्त नहीं देखा है, इसलिये आप अनन्त माने गये हैं । आप ही सूक्ष्म, महान् और एक हैं । सूक्ष्म बुद्धि-इन्द्रियादिके द्वारा भी आपको जानना या पाना अत्यन्त कठिन है ॥ ४३ ॥

त्वय्येव जगतः स्तम्भे शाश्वती जगती स्थिता ।
अचला प्राणिनां योनिर्धारयत्यखिलं जगत् ॥ ४४ ॥
आप ही इस जगत्के आधारस्तम्भ हैं । आपपर प्रतिष्ठित होकर ही यह सनातन पृथ्वी अविचल भावसे सम्पूर्ण जगत्को धारण करती है और समस्त प्राणियोंकी उत्पत्तिका स्थान बनती है ॥ ४४ ॥

चतुःसागरभोगस्त्वं चातुर्वर्ण्यविभागवित् ।
चतुर्युगेषु लोकानां चातुर्होत्रफलाशनः ॥ ४५ ॥
चारों समुद्र आपके स्वरूप हैं । आप चारों वर्गों के विभागको जाननेवाले हैं । चारों युगोंमें लोकोंके चातुर्होत्र यज्ञका जो फल है, उसका उपभोग करनेवाले भी आप ही हैं ॥ ४५ ॥

यथाहमपि लोकानां तथा त्वं तच्च मे मतम् ।
उभावेकशरीरौ स्वो जगदर्थे द्विधाकृतौ ॥ ४६ ॥
जैसे मैं समस्त लोकोंका अन्तर्यामी आत्मा हूँ, वैसे ही आप भी हैं, यही मेरा मत है । हम दोनों ही एक शरीरवाले हैं, केवल जगत्के हितके लिये दो रूपोंमें प्रकट हुए हैं ॥ ४६ ॥

अहं वा शाश्वतः कृष्णस्त्वं वा शेषः पुरातनः ।
लोकानां शाश्वतो देवस्त्वंहि शेषः सनातनः ।
आवयोर्देहमात्रेण द्विधेदं धार्यते जगत् ॥ ४७ ॥
मैं सनातन विष्णु हूँ और आप पुरातन शेष हैं; तीनों लोकोंके सनातन देवता तथा सनातन शेष आप ही हैं; हमारा चिन्मय शरीरमात्र ही (विष्णु या अनन्तरूपसे) इस जड़-चेतनमय द्विविध जगत्को धारण करता है ॥ ४७ ॥

अहं यः स भवानेव यस्त्वं सोऽहं सनातनः ।
द्वावेव विहितौ ह्यावामेकदेहौ महाबलौ ॥ ४८ ॥
जो मैं हूँ, वह आप ही हैं । जो आप हैं, वह सनातन पुरुष मैं ही हूँ । हम दोनों ही एक आत्मा हैं, किंतु इस समय दो महाबली स्वरूपोंमें प्रकट हुए हैं ॥ ४८ ॥

तदास्से मूढवत्त्वं किं प्राणेन जहि दानवम् ।
मूर्ध्नि देवरिपुं देव वज्रकल्पेन मुष्टिना ॥ ४९ ॥
देव ! आप किंकर्तव्यविमूढ़की भाँति क्यों चुपचाप बैठे हैं ? बलपूर्वक इस दानवको मार डालिये । अपने वज्रतुल्य मुकेसे इस देवद्रोहीके मस्तकपर प्रहार कीजिये' ॥ ४९ ॥

वैशम्पायन उवाच
संस्मारितस्तु कृष्णेन रौहिणेयः पुरातनम् ।
बलेनापूर्यत तदा त्रैलोक्यान्तरचारिणा ॥ ५० ॥
वैशम्पावनजी कहते हैं-जनमेजय ! भगवान् श्रीकृष्णने जब इस प्रकार पुरातन रहस्यका स्मरण दिलाया, तब रोहिणीनन्दन बलराम त्रिलोकीके भीतर व्याप्त हुए अनन्त बलसे परिपूर्ण हो गये ॥ ५० ॥

ततः प्रलम्बं दुर्वृत्तं स बद्धेन महाभुजः ।
मुष्टिना वज्रकल्पेन मूर्ध्नि चैनं समाहनत् ॥ ५१ ॥
तब उन महाबाहु वीरने दुराचारी प्रलम्बासुरके मस्तकपर अपनी बँधी हुई बजतुल्य मुष्टिकासे प्रहार किया ॥ ५१ ॥

तस्योत्तमाङ्‌‌‍गं स्वे काये विकपालं विवेश ह ।
जानुभ्यां चाहतः शेते गतासुर्दानवोत्तमः ॥ ५२ ॥
इससे उसकी खोपड़ी उड़ गयी और शेष मस्तक उसके धड़में ही फैंस गया । फिर वह घायल हुआ दानवराज पृथ्वीपर घुटने टेककर गिर पड़ा और प्राणहीन होकर सदाके लिये सो गया ॥ ५२ ॥

जगत्यां विप्रकीर्णस्य तस्य रूपमभूत्तदा ।
प्रलम्बस्याम्बरस्थस्य मेघस्येव विदीर्यतः ॥ ५३ ॥
जैसे आकाशमें स्थित हुए मेधकी घटा जब छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाती है, उस समय उसका जैसा रूप दिखायी देता है, पृथ्वीपर टूक-टूक होकर बिखरे हुए प्रलम्बासुरका रूप भी वैसा ही दृष्टिगोचर हुआ ॥ ५३ ॥

तस्य भग्नोत्तमाङ्‌‌‍गस्य देहात्सुस्राव शोणितम् ।
बहुगैरिकसंयुक्तं शैलशृङ्‌‌‍गादिवोदकम् ॥ ५४ ॥
कटे-फटे मस्तकवाले उस असुरके शरीरसे खूनकी धारा बह चली, मानो पर्वतके शिखरसे अधिक गेरू मिला हुआ जल प्रवाहित हो रहा हो ॥ ५४ ॥

तं निहत्य प्रलम्बं तु संहृत्य बलमात्मनः ।
पर्यष्वजत वै कृष्णं रौहिणेयः प्रतापवान् ॥ ५५ ॥
इस प्रकार प्रलम्बासुरको मारकर अपने बलको पुनः समेट लेनेके बाद प्रतापी रोहिणीकुमार बलरामने श्रीकृष्णको हृदयसे लगा लिया ॥ ५५ ॥

तं तु कृष्णश्च गोपाश्च दिविस्थाश्च दिवौकसः ।
तुष्टुवुर्निहते दैत्ये जयाशीर्भिर्महाबलम् ॥ ५६ ॥
उस समय उस दैत्यके मारे जानेपर श्रीकृष्ण, गोपगण तथा आकाशमें खड़े हुए देवता विजयसूचक आशीर्वाद देते हुए महाबली बलरामजीकी स्तुति करने लगे ॥ ५६ ॥

बलेनायं हतो दैत्यो बालेनाक्लिष्टकर्मणा ।
विवदन्त्यशरीरिण्यो वाचः सुरसमीरिताः ॥ ५७ ॥
'अनायास ही महान् कर्म करनेवाले इस बालकने ऐसे महान् दैत्यको बलपूर्वक मार गिराया' इस प्रकार देवताओंकी कही हुई आकाशवाणी बारम्बार प्रकट होने लगी ॥ ५७ ॥

बलदेवेति नामास्य देवैरुक्तं दिवि स्थितैः ।
बलन्तु बलदेवस्य तदा भुवि जना विदुः ॥ ५८ ॥
उस समय आकाशमें खड़े हुए देवताओंने उनका नाम बलदेव रख दिया । तभीसे भूतलके मनुष्य बलदेवजीके बलको जानने लगे ॥ ५८ ॥

कर्मजं निहते दैत्ये देवैरपि दुरासदे ॥ ५९ ॥
जो देवताओंके लिये भी दुर्जय था, उस प्रलम्ब नामक दैत्यके मारे जानेपर बलरामजीको उनके पराक्रमके अनुसार वह (बलदेव) नाम प्राप्त हुआ था ॥ ५९ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि
शिशुचर्यायां प्रलम्बवधे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अनागत विष्णुपर्वमें बाललीलाके प्रसंगणे प्रलम्बापुरका वश्वविषयक चौदहवां अध्याय पूरा हुआ ॥ १४ ॥




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