श्रीहरिवंशपुराण विष्णुपर्व पञ्चदशोऽध्यायः
कृष्णं प्रति गोपवाक्यम्
इन्द्रोत्सवके विषयमें श्रीकृष्णकी जिज्ञासा तथा एक वृद्ध गोपके द्वारा उसकी आवश्यकताका प्रतिपादन -
वैशंपायन उवाच तयोः प्रवृत्तयोरेवं कृष्णस्य च बलस्य च । वने विचरतोर्मासौ व्यतियातौ स्म वार्षिकौ ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंके इस प्रकार बाललीलामें प्रवृत्त होकर वनमें विचरते हुए वर्षाके दो मास व्यतीत हो गये ॥ १ ॥
व्रजमाजग्मतुस्तौ तु व्रजे शुश्रुवतुस्तदा । प्राप्तं शक्रमहं वीरौ गोपांश्चोत्सवलालसान् ॥ २ ॥
एक दिन जब वे दोनों वीर व्रजमें आये, तब उन्होंने सुना कि इन्द्रयागके उत्सवका समय आ गया है और समस्त गोप उस उत्सवको देखनेके लिये लालायित हैं ॥ २ ॥
कौतुहलादिदं वाक्यं कृष्णः प्रोवाच तत्र तान् । कोऽयं शक्रमहो नाम येन वो हर्ष आगतः ॥ ३ ॥
तब श्रीकृष्णने कौतूहलवश उनसे यह बात पूछी-'यह इन्द्रयागका उत्सव क्या है ? जिससे तुमलोगोंको इतना हर्ष हो रहा है' ॥ ३ ॥
तत्र वृद्धतमस्त्वेको गोपो वाक्यमुवाच ह । श्रूयतां तात शक्रस्य यदर्थं ध्वज इज्यते ॥ ४ ॥
उनके इस प्रकार पूछनेपर उन गोपोंमें सबसे बड़े-बूढ़े एक गोपने इस प्रकार कहा-'तात ! सुनो, हमारे यहाँ इन्द्रके ध्वजकी पूजा किसलिये की जाती है, यह बताता हूँ ॥ ४ ॥
देवानामीश्वरः शक्रो मेघानां चारिसूदन । तस्य चायं महः कृष्ण लोकनाथस्य शाश्वतः ॥ ५ ॥
शत्रुसूदन कृष्ण ! देवताओं और मेघोंके स्वामी देवराज इन्द्र हैं । वे ही सम्पूर्ण जगत्के सनातन रक्षक हैं । उन्हींका यह उत्सव मनाया जाता है ॥ ५ ॥
तेन संचोदिता मेघास्तस्य चायुधभूषिताः । तस्यैवाज्ञाकराः सस्यं जनयन्ति नवाम्बुभिः ॥ ६ ॥
उन्हींसे प्रेरित हो उन्हींके आयुध (इन्द्रधनुष)-से विभूषित हुए मेघ उनकी ही आज्ञाका पालन करते हुए नूतन जलकी वर्षा करके खेतीको उपजाते हैं ॥ ६ ॥
मेघस्य पयसो दाता पुरुहूतः पुरन्दरः । संप्रहृष्टस्य भगवान्प्रीणायत्यखिलं जगत् ॥ ७ ॥
अनेक नामोंसे विभूषित भगवान् पुरन्दर (इन्द्र) मेघ और जलके दाता हैं । वे प्रसन्न होनेपर सम्पूर्ण जगत्को तृस करते हैं ॥ ७ ॥
तेन संपादितं सस्यं वयमन्ये च मानवाः । वर्तयामोपयुञ्जानास्तर्पयामश्च देवताः ॥ ८ ॥
उनके द्वारा सम्पन्न की हुई खेतीसे जो अन्न पैदा होता है, उसीको हम तथा दूसरे मनुष्य खाते हैं, उसीका धर्मके कार्यमें भी उपयोग करते हुए देवताओंको यज्ञ आदिके द्वारा तृप्त करते हैं ॥ ८ ॥
देवे वर्षति लोकेऽस्मिंस्ततः सस्यंप्रवर्धते । पृथिव्यां तर्पितायां तु सामृतं लक्ष्यते जगत् ॥ ९ ॥
इस संसारमें जब इन्द्रदेव वर्षा करते हैं, तब उसीसे खेतीकी उपज बढ़ती है । वर्षासे ही पृथ्वीके तृप्त होनेपर सम्पूर्ण जगत् सजल दिखायी देता है ॥ ९ ॥
क्षीरवत्यस्त्विमा गावो वत्सवत्यश्च निर्वृताः । तेन संवर्धितैस्तात तृणैः पुष्टाः सपुङ्गवाः ॥ १० ॥
तात ! उस वर्षासे बढ़ी हुई घासोंद्वारा ही साँड़ॉसहित ये गौएँ हष्ट-पुष्ट होकर बछड़े देती और दूध देनेवाली होती हैं ॥ १० ॥
नासस्या नातृणा भूमिर्न बुभुक्षार्दितो जनः । दृश्यते यत्र दृश्यन्ते वृष्टिमन्तो बलाहकाः ॥ ११ ॥
जहाँ वर्षा करनेवाले मेघ दिखायी देते हैं, उस भूमिपर कभी अनाज और तृणका अभाव नहीं होता तथा वहाँकै लोग कभी भूखसे पीड़ित | नहीं देखे जाते हैं' ॥ ११ ॥
दुदोह सवितुर्गा वै शक्रो दिव्याः पयस्विनीः। ताः क्षरन्ति नवं क्षीरं मेध्यं मेघौघधारितम् ॥ १२ ॥
'सूर्यदेवकी दिव्य किरणें पृथ्वीका जल सोखकर पयस्विनी (गौ अथवा जलवती) हो जाती हैं, तब इन्द्रदेव उनका दोहन करते हैं । उनके दोहन करनेपर वे किरणमयी गौएँ नूतन एवं पवित्र जलरूपी दूध प्रकट करती हैं, जिसे मेघोंके घटारूप दुग्धपात्रमें संचित किया जाता है ॥ १२ ॥
वाय्वीरितं तु मेघेषु करोति निनदं महत् । जवेनावर्तितं चैव गर्जतीति जना विदुः ॥ १३ ॥
वही वायुसे प्रेरित होकर वेगसे आवर्तित होनेपर मेघोंके भीतर अत्यन्त गम्भीर शब्द उत्पन्न करता है, जिसे लोग समझते हैं कि मेघ गर्जना कर रहा है ॥ १३ ॥
तस्य चैवोह्यमानस्य वायुयुक्तैर्बलाहकैः । वज्राशनिसमाः शब्दाः श्रूयन्ते नगभेदिनः ॥ १४ ॥
वायुयुक्त मेघोंद्वारा ढोयी जाती हुई उस जलराशिका पर्वतभेदी शब्द ही वन एवं बिजलीकी गड़गड़ाहटके समान सुनायी देता है ॥ १४ ॥
तज्जलं वज्रनिष्पेषैर्विमुञ्चति नभोगतैः । बहुभिः कामगैर्मेघैः शक्रो भृत्यैरिवेश्वरः ॥ १५ ॥
जैसे राजा अपने सेवकोंसे काम लेता है, उसी प्रकार देवराज इन्द्र आकाशमें फैले हुए तथा इच्छानुसार सर्वत्र जा सकनेवाले बहुसंख्यक मेघोंद्वारा वज्रकी गड़गड़ाहटकी आवाजके साथ उस जलको इस भूतलपर बरसाते हैं ॥ १५ ॥
क्वचिद्दुर्दिनसङ्काशैः क्वचिच्छिन्नाभ्रसंनिभैः । क्वचिद्भिन्नाञ्जनाकारैः क्वचिच्छीकरवार्षिभिः ॥ १६ ॥ मण्डयतीव देवेन्द्रो विश्वमेवं नभो घनैः क्वचिच्छीकरमुक्ताभं कुरुते गगनं घनः ॥ १७ ॥
कहीं वे मेघ दुर्दिन-से होकर सारे आकाशमें छा जाते हैं । कहीं फटे हुए बादलोंके रूपमें दिखायी देते हैं । कहीं खानसे काटकर निकाले गये कोयलेके समान काले होते हैं और कहीं जलकी छोटी-छोटी बूंदें बरसाते रहते हैं । इस तरह विभिन्न प्रकारके बादलोद्वारा देवराज इन्द्र आकाश एवं विश्वको अलंकृत-सा करते रहते हैं । कहीं-कहीं तो बादल पानी बरसाकर आकाशको जलबिन्दुरूपी मोतियोंसे प्रकाशित कर देता है ॥ १६-१७ ॥
एवमेतत्पयो दुग्धं गोभिः सूर्यस्य वारिदः। पर्जन्यः सर्वभूतानां भवाय भुवि वर्षति ॥ १८ ॥
इस प्रकार पर्जन्यदेव (इन्द्र) इस पृथ्वीके जलको सूर्यको किरणोंद्वारा खींचकर सम्पूर्ण प्राणियोंकी वृद्धिके लिये उसे मेघोंद्वारा भूतलपर बरसा देते हैं ॥ १८ ॥
यस्मात् प्रावृडियं कृष्ण शक्रस्य भुवि भाविनी । तस्मात् प्रावृषि राजानः सर्वे शक्रं मुदा युताः । महैः सुरेशमर्चन्ति वयमन्ये च माणवाः ॥ १९ ॥
श्रीकृष्ण ! इसीलिये यह वर्षा-ऋतु भूतलपर इन्द्रदेवकी पूजाका समय है; अतएव समस्त राजा वर्षा-ऋतुमें बड़ी प्रसन्नताके साथ नाना प्रकारके उत्सवाद्वारा देवराजकी पूजा करते हैं । हम तथा दूसरे मनुष्य भी ऐसा ही करते हैं' ॥ १९ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि शिशुचर्यायां गोपवाक्ये पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें श्रीकृष्णको बाललीलाके प्रसंगमें गोपका वाक्यविषयक पंद्रहवां अध्याय पूरा हुआ ॥ १५ ॥
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