श्रीहरिवंशपुराण विष्णुपर्व षोडशोऽध्यायः
शरद्वर्णनम्
श्रीकृष्णके द्वारा गिरियज्ञ एवं गोपूजनका प्रस्ताव करते हुए शरद्-ऋतुका वर्णन -
वैशंपायन उवाच गोपवृद्धस्य वचनं श्रुत्वा शक्रपरिग्रहे । प्रभावज्ञोऽपि शक्रस्य वाक्यं दामोदरोऽब्रवीत् ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! इन्द्रमहोत्सवको स्वीकार करनेके सम्बन्धमें उस बड़े-बूढ़े गोपका वचन सुनकर इन्द्रके प्रभावको जानते हुए भी श्रीकृष्णने यह बात कही- ॥ १ ॥
वनं वनचरा गोपाः सदा गोधनजीविनः । गावोऽस्मद् दैवतं विद्धि गिरयश्च वनानि च ॥ २ ॥
आर्य ! हमलोग वनमें रहनेवाले गोप हैं और सदा गोधनसे अपनी जीविका चलाते हैं; अतः आपको मालूम होना चाहिये कि गौएँ, पर्वत और वन-ये ही हमारे देवता हैं ॥ २ ॥
कर्षुकाणां कृषिर्वृत्तिः पण्यं विपणिजीविनाम् । गावोऽस्माकं परा वृत्तिरेतत्त्रैविद्यमुच्यते ॥ ३ ॥
किसानोंकी जीविका है खेती, व्यापारसे जीवननिर्वाह करनेवाले वैश्योंकी जीविका-वृत्ति है खरीद-विक्री और हमलोगोंकी सर्वोत्तम वृत्ति है गौओंका पालन । ये वार्तारूप विद्याके तीन भेद कहलाते हैं ॥ ३ ॥
विद्यया यो यथा युक्तस्तस्य सा दैवतं परम् । सैव पूज्यार्चनीया च सैव तस्योपकारिणी ॥ ४ ॥
जो जिस विद्यासे युक्त है, उसके लिये वही सर्वोत्तम देवता है, वही पूजा-अचकि योग्य है और वही उसके लिये उपकारिणी है ॥ ४ ॥
योऽन्यस्य फलमश्नानः करोत्यन्यस्य सत्क्रियाम् द्वावनर्थौ स लभते प्रेत्य चेह च मानवः ॥ ५ ॥
जो मनुष्य एक व्यक्तिसे फल पाकर उसे भोगता है और दूसरेकी पूजा (आदर-सत्कार) करता है, वह इस लोक और परलोकमें दो अनर्थोका भागी होता है ॥ ५ ॥
कृष्यन्ता प्रथिता सीमा सीमान्तं श्रूयते वनम् वनान्ता गिरयः सर्वे सा चास्माकं गतिर्ध्रुवा ॥ ६ ॥
जहाँतक खेती होती है, वहाँतक व्रजकी सीमा विख्यात है । सीमाके अन्तमें वन सुना जाता है और वनके अन्तमें समस्त पर्वत हैं । वे पर्वत ही हमारे अविचल आश्रय हैं ॥ ६ ॥
श्रूयन्ते गिरयश्चापि वनेऽस्मिन्कामरूपिणः । प्रविश्य तास्तास्तनवो रमन्ते स्वेषु सानुषु ॥ ७ ॥
सुना जाता है कि इस बनमें रहनेवाले पर्वत भी इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले हैं । वे भिन्न-भिन्न शरीरोंमें प्रवेश करके अपने शिखरोंपर मौजसे घूमते-फिरते हैं ॥ ७ ॥
भूत्वा केसरिणः सिंहा व्याघ्राश्च नखिनां वराः । वनानि स्वानि रक्षन्ति त्रासयन्तो वनच्छिदः ॥ ८ ॥
वे ही अवालोंसे विभूषित सिंह और नखधारी जन्तुओंमें श्रेष्ठ व्याघ्र बनकर वनको काटने या हानि पहुँचानेवाले लोगोंको त्रास देते हुए अपने-अपने वनोंकी रक्षा करते हैं ॥ ८ ॥
यदा चैषां विकुर्वन्ति ते वनालयजीविनः । घ्नन्ति तानेव दुर्वृत्तान् पौरुषादेन कर्मणा ॥ ९ ॥
जब वनके आश्रयमें रहकर जीवननिर्वाह करनेवाले लोग इन वनों या वनदेवताओंको हानि पहुँचाते हैं, तब वे कामरूपी देवता राक्षसोचित हिंसा-कर्मके द्वारा उन दुराचारी मनुष्योंको निश्चय ही मार डालते हैं ॥ ९ ॥
मन्त्रयज्ञपरा विप्राः सीतायज्ञाश्च कर्षुकाः । गिरियज्ञास्तथा गोपा इज्योऽस्माभिर्गिरिर्वने ॥ १० ॥
ब्राह्मणलोग मन्त्रयज्ञमें तत्पर रहते हैं, किसान सीतायज्ञ करते हैं अर्थात् खेतोंको अच्छी तरह जोतते और हल जोतनेसे जो रेखा बन जाती है, उसकी तथा हलकी पूजा करते हैं तथा गोपगण गिरियज्ञ करते हैं; अतः हमलोगोंको | इस वनमें गिरियज्ञ करना चाहिये' ॥ १० ॥
तन्मह्यं रोचते गोपा गिरियज्ञः प्रवर्तताम् । कर्म कृत्वा सुखस्थाने पादपेष्वथवा गिरौ ॥ ११ ॥ तत्र हत्वा पशून् मेध्यान् वितत्यायतने शुभे । सर्वघोषस्य संदोहः क्रियतां किं विचार्यते ॥ १२ ॥
'गोपगण ! मुझे तो यही अच्छा लगता है कि गिरियज्ञका आरम्भ हो । स्वस्तिवाचन आदि कर्म करके वृक्षोंके नीचे अथवा पर्वतके समीप किसी सुखद स्थानपर पवित्र पशुओंको एकत्र करके उनके पास जाकर उनका विस्तारपूर्वक पूजन किया जाय और एक शुभ मन्दिरमें सारे व्रजके दूधका संग्रह कर लिया जाय । इस विषयमें आपलोग क्या विचार कर रहे हैं ॥ ११-१२ ॥
तं शरत्कुसुमापीडाः परिवार्य प्रदक्षिणम् । गावो गिरिवरं सर्वास्ततो यान्तु पुनर्व्रजम् ॥ १३ ॥
फिर शरद्-ऋतुके फूलोंसे जिनके मस्तकका शृङ्गार किया गया हो, ऐसी समस्त गौएँ गिरिवर गोवर्धनकी दक्षिणावर्त परिक्रमा करके पुनः व्रजमें जायें ॥ १३ ॥
प्राप्ता किलेयं हि गवां स्वादुतोयतृणा गुणैः । शरत् प्रमुदिता रम्या गतमेघजलाशया ॥ १४ ॥
इस समय प्रमोदपूर्ण रमणीय शरद्-ऋतु आ गयी है, जबकि जल और घास गौओंके लिये स्वादुताके गुणोंसे सम्पन्न हो जाते हैं । अब जलाशयों में पानी बरसानेवाले बादल छैट गये ॥ १४ ॥
प्रियकैः पुष्पितैर्गौरं श्यामं बाणसनैः क्वचित् । कठोरतृणमाभाति निर्मयूररुतं वनम् ॥ १५ ॥
खिले हुए कदम्ब-पुष्पोंके कारण वन गौरवर्णका प्रतीत होता है । कहीं-कहीं बाणासनों-झाड़झंखाड़ोंके कारण वह श्याम रंगका दिखायी देता है । अब घासें कोमल नहीं रहीं-कुछ कठोर हो गयी हैं । वनमें मोरोंकी मधुर वाणी नहीं सुनायी देती है ॥ १५ ॥
विजला विमला व्योम्नि विबलाका विविद्युतः । विवर्धन्ते जलधरा विदन्ता इव कुञ्जराः ॥ १६ ॥
आकाशमें जल, मल, बलाका और विद्युत्से रहित बादल दन्तहीन हाथियोंके समान बढ़ रहे हैं ॥ १६ ॥
पटुना मेघनादेन नवतोयानुकर्षिणा । पर्णोत्करघनाः सर्वे प्रसादं यान्ति पादपाः ॥ १७ ॥
(वर्षा-ऋतुमें) नूतन जलको खींच लानेवाले शक्तिशाली मेषयुक्त वायुसे अभिषिक्त होनेके कारण जो पत्तोंके बाहुल्यसे घने दिखायी देते थे, वे सभी वृक्ष अब पत्तोंके बिरल हो जानेसे प्रसादको प्राप्त हो रहे हैं (पहले वहाँ अन्धकार छाया रहता था अब प्रकाश हो गया है) ॥ १७ ॥
सितवर्णाम्बुदोष्णीषं हंसचामरवीजितम् । पूर्णचन्द्रामलच्छत्रं साभिषेकमिवाम्बरम् ॥ १८ ॥
इस समय आकाश मूर्धाभिषिक्त राजाके समान जान पड़ता है । सफेद बादल ही उसकी श्वेत पगड़ी या उज्ज्वल मुकुट हैं, हंसरूपी श्वेत चैवरके द्वारा मानो उसके लिये हवा की जाती है तथा पूर्ण चन्द्रमा ही उसका निर्मल छत्र बनकर शोभा पाता है ॥ १८ ॥
हंसैः प्रहसितानीव समुत्कृष्टानि सारसैः । सर्वाणि तनुतां यान्ति जलानि जलदक्षये ॥ १९ ॥
वर्षाकाल बीत जानेपर सारे जलाशयोंके जल क्रमशः क्षीण होते जा रहे हैं, मानौ हंसोंने उनकी हंसी उड़ायी हो और सारसोंने उनकी निन्दा की हो (इसी खेदसे उनमें कृशता आ गयी है) ॥ १९ ॥
चक्रवाकस्तनतटाः पुलिनश्रोणिमण्डलाः । हंसलक्षणहासिन्यः पतिं यान्ति समुद्रगाः ॥ २० ॥
समुद्रगामिनी नदियाँ हंसरूपी हाससे सुशोभित हो अपने पति (समुद्र)-के पास जा रही हैं । चक्रवाकके जोड़े उनके युगल उरोज-से जान पड़ते हैं और दोनों तट नितम्ब-मण्डलकी शोभा धारण करते हैं' ॥ २० ॥
कुमुदोत्फुल्लमुदकं ताराभिश्चित्रमम्बरम् । सममभ्युत्स्मयन्तीव शर्वरीष्वितरेतरम् ॥ २१ ॥
'रातके समय (जलाशयोंके) जलमें अगणित कुमुद खिल उठते हैं और आकाश असंख्य तारिकाओंसे चित्रित हो जाता है । वे दोनों मानो एक-दूसरेके प्रति गर्व-सा प्रकट करते हुए कहते हैं कि 'मेरी शोभा तुमसे कम नहीं है' ॥ २१ ॥
मत्तक्रौञ्चावघुष्टेषु कलमापक्वपाण्डुषु । निर्विष्टरमणीयेषु वनेषु रमते मनः ॥ २२ ॥
जिनमें मदमत्त पुरुषोंकी भांति क्रौञ्च पक्षियोंकी मधुर बोली गूंज रही है, जहाँ पके हुए धानकी बालें पीली साड़ीमें सजी हुई सुन्दरी बालाओंकी भाँति अपनी श्वेत-पीत प्रभा बिखेर रही हैं और इस प्रकार जो विवाहित स्त्री-पुरुषोंके कौतुकागारोंके सदृश रमणीयता धारण करते हैं, उन वनोंमें मनको अधिक आनन्दका अनुभव होता है ॥ २२ ॥
पुष्करिण्यस्तडागानि वाप्यश्च विकचोत्पलाः । केदाराः सरितश्चैव सरांसि च श्रियाज्वलन् ॥ २३ ॥
पोखरियाँ, पोखरे, खिले हुए कमलोंसे सुशोभित बावड़ियाँ, खेतोंकी क्यारियाँ, नदियाँ और सरोवर-ये सब-के-सब अनुपम शोभासम्पत्तिसे प्रकाशित हो उठे हैं ॥ २३ ॥
पङ्कजानि च ताम्राणि तथान्यानि सितान्यपि । उत्पलानि च नीलानि भेजिरे वारिजां श्रियम् ॥ २४ ॥
लाल कमल, अन्यान्य श्वेत-पीत आदि कमल तथा नील उत्पल भी जलजनित शोभाके भागी हुए हैं ॥ २४ ॥
मदं जहुः सितापाङ्गा मन्दं ववृधिरेऽनिलाः । अभवद् व्यभ्रमाकाशमभूच्च निभृतोऽर्णवः ॥ २५ ॥
मोरोंका मद उतर गया है । वायु मन्दगतिसे आगे बढ़ रही है । आकाश बादलोंसे शून्य हो गया है और समुद्र भरा-पूरा दिखायी देता है ॥ २५ ॥
ऋतुपर्यायशिथिलैर्वृत्तनृत्यसमुज्झितैः । मयूराङ्गरुहैर्भूमिर्बहुनेत्रेव लक्ष्यते ॥ २६ ॥
वर्षा-ऋतु बीत जानेसे जो यत्र-तत्र शिथिल होकर बिखरे पड़े हैं, नृत्यका कार्य और उत्साह समाप्त हो जानेके कारण जो त्याग दिये गये हैं, उन मोरपंखोंके कारण यह भूमि मानो बहुत-से नेत्रोंवाली दिखायी देती है ॥ २६ ॥
स्वपङ्कमलिनैस्तीरैः काशपुष्पलताकुलैः । हंससारसविन्यासैर्यमुना भाति शोभना ॥ २७ ॥
जो अपने ही पडूसे मलिन हो रहे हैं, जहाँ काश खिले हुए हैं और लता-बेलें फैली हुई हैं तथा जिनपर यत्र-तत्र हंसों और सारसोंके बैठनेके स्थान हैं, ऐसे तटोंसे यमुनाकी बड़ी शोभा हो रही है ॥ २७ ॥
कलमापाकरम्येषु केदारेषु जनेषु च । सस्यादा जलजादाश्च मत्ता विरुरुवुः खगाः ॥ २८ ॥
धानकी बालोंके पक जानेसे रमणीय दिखायी देनेवाली खेतोंकी क्यारियोंमें अनाजके दाने बीनकर खानेवाले सारस आदि पक्षी तथा जलाशयोंके जलोंमें मत्स्य आदि जलजन्तुओंका भक्षण करनेवाले बक आदि पक्षी कलरव कर रहे हैं ॥ २८ ॥
सिषिचुर्यानि जलदा जलेन जलदागमे । तानि सस्यानि बालानि कठिनत्वं गतानि वै ॥ २९ ॥
वर्षाकालमें बादलोंने अपने जलसे जिन्हें सींचा था, वे अनाजके कोमल पौधे बाल्यावस्थासे प्रौढावस्थामें आकर कठोर हो गये हैं ॥ २९ ॥
त्यक्त्वा मेघमयं वासः शरद्गुणविदीपितः । एष वै विमले व्योम्नि हृष्टो वसति चन्द्रमाः ॥ ३० ॥
ये चन्द्रदेव बादलरूपी वस्त्र उतारकर शरद् ऋतुके गुणोंसे और भी प्रकाशित हो इस निर्मल आकाशमें हर्षोल्लासके साथ निवास करते हैं ॥ ३० ॥
क्षीरिण्यो द्विगुणं गावः प्रमत्ता द्विगुणं वृषाः । वनानां द्विगुणा लक्ष्मीः सस्यैर्गुणवती मही ॥ ३१ ॥
शरद्-ऋतुमें गौएँ पहलेसे दूना दूध देने लगी हैं । साँड़ दुगुने मतवाले हो उठे हैं । वनोंकी शोभा-सम्पत्ति दुगुनी बढ़ गयी है और पकी हुई खेतीके कारण यह पृथ्वी अनन्त गुणोंसे सम्पन्न हो गयी है' ॥ ३१ ॥
ज्योतींषि घनमुक्तानि पद्मवन्ति जलानि च । मनांसि च मनुष्याणां प्रसादमुपयान्ति वै ॥ ३२ ॥
'बादलोंके आवरणसे मुक्त हुए ग्रह-नक्षत्र, कमलमण्डित जल तथा मनुष्योंके मन प्रसाद (स्वच्छता एवं प्रसन्नता)-को प्राप्त हो रहे हैं ॥ ३२ ॥
असृजत् सविता व्योम्नि निर्मुक्तो जलदैर्भृशम् । शरत्प्रज्वलितं तेजस्तीक्ष्णरश्मिर्विशोषयन् ॥ ३३ ॥
आकाशमें मेघयुक्त हुआ सूर्य शरद् ऋतुके प्रभावसे अधिक प्रज्वलित तेज (धूप)-की सृष्टि करता है तथा अपनी किरणोंको और भी तीखी करके वसुधाके रसका शोषण कर रहा है ॥ ३३ ॥
नीराजयित्वा सैन्यानि प्रयान्ति विजिगीषवः । अन्योन्यराष्ट्राभिमुखाः पार्थिवाः पृथिवीक्षितः ॥ ३४ ॥
भूतलके नरेश अपने सैनिकोंसे उनके अस्वोंका मार्जन करवाकर (उन्हें साथ ले) विजयकी इच्छासे एक-दूसरेके राष्ट्रकी ओर जा रहे हैं ॥ ३४ ॥
बन्धुजीवाभिताम्रासु बद्धपङ्कवतीषु च । मनस्तिष्ठति कान्तासु चित्रासु वनराजिषु ॥ ३५ ॥
बन्धुजीव (बन्धूक)-के लाल फूलोंसे सुशोभित हो जो सब ओरसे लाल-लाल दिखायी देती हैं तथा जिनकी कीचड़ सूख गयी है, ऐसी विचित्र एवं कमनीय वनश्रेणियोंमें (उनकी शोभा निहारनेके लिये) मन आसक्त हो रहा है' ॥ ३५ ॥
वनेषु च विराजन्ते पादपा वनशोभिनः । असनाः सप्तपर्णाश्च कोविदाराश्च पुष्पिताः ॥ ३६ ॥
वनकी शोभा बढ़ानेवाले असन, छितवन, कोविदार, वाणासन, निकुम्भ, प्रियक और स्वर्णक नामवाले वृक्ष वनोंमें फूलोंसे लदकर अधिक शोभा पा रहे हैं । केतकी (केवड़े)-के वृक्ष भी सब ओर खिले हुए हैं । समर (एक प्रकारके मृग) और उल्लू भी सर्वत्र सानन्द विचरते हैं ॥ ३६-३७ ॥
इषुसाह्वा निकुम्भाश्च प्रियकाः स्वर्णकास्तथा । सृमराः पेचुकाश्चैव केतक्यश्च समन्ततः ॥ ३७ ॥ व्रजेषु च विशेषेण गर्गरोद्गारहासिषु । शरत्प्रकाशयोषेव गोष्ठेष्वटति रूपिणी ॥ ३८ ॥
दूध-दहीके माटों या घड़ोंसे जो माखन आदि काले जाते हैं, वे ही जिनकी हँसी हैं, उन व्रजों एवं गोष्ठोंमें तो यह शरद्-ऋतु मूर्तिमती सुन्दरी युवतीकी भाँति घूम रही है ॥ ३८ ॥
नूनं त्रिदशभूयिष्ठं मेघकालसुखोषितम् । पतत्रिकेतनं देवं बोधयन्ति दिवौकसः ॥ ३९ ॥
निश्चय ही देवतालोग इस समय देवश्रेष्ठ भगवान् गरुडध्वजको, जो वर्षाकालमें सुखपूर्वक शयन कर चुके हैं, जगा रहे हैं ॥ ३९ ॥
शरद्येवं सुसस्यायां प्राप्तायां प्रावृषः क्षये । नीलचन्द्रार्कवर्णैश्च रचितं बहुभिर्द्विजैः ॥ ४० ॥ फलैः प्रवालैश्च घनमिन्द्रचापघनोपमम् । भवनाकारविटपं लतापरममण्डितम् ॥ ४१ ॥ विशालमूलावनतं पवनाभोगमण्डितम् । अर्चयामो गिरिं देवं गाश्चैव च विशेषतः ॥ ४२ ॥
वर्षा बीत जानेपर ऐसी सुन्दर खेतीसे सुशोभित शरद् ऋतुका शुभागमन हुआ है । इस समय (मेषके समान) नीले, चन्द्रमाके समान वेत तथा सूर्यके सदृश सुनहरे रंगवाले बहुतसे पक्षियोंने जिसे बहुरंगा बना दिया है, जो विविध प्रकारके फलों और नूतन पल्लवोंसे घना हो रहा है और इसलिये जो इन्द्रधनुषसे युक्त श्याम मेघकी-सी शोभा धारण करता है, जिसके वृक्षोंकी एक-एक शाखा घरके समान जान पड़ती है, जो लता और वारियोंसे भलीभाँति अलंकृत है, जिसका विशाल मूलभाग बहुत दूरतक फैला हुआ है तथा जो वायुके विस्तारसे सुशोभित होता है, वह गोवर्धन पर्वत ही हमारा देवता है । हम उसकी तथा इन गौओंकी विशेषरूपसे पूजा करें' ॥ ४०-४२ ॥
सावतंसैर्विषाणैश्च बर्हापीडैश्च दंशितैः । घण्टाभिश्च प्रलम्बाभिः पुष्पैः शारदिकैस्तथा ॥ ४३ ॥ शिवाय गावः पूज्यन्तां गिरियज्ञः प्रवर्त्यताम् । पूज्यतां त्रिदशैः शक्रो गिरिरस्माभिरिज्यताम् ॥ ४४ ॥
'गायोंके सींगोंमें मुकुट और मोरपंखके समान बने हुए आभूषण बाँधे जायें । उनके गलेमें बड़ी घंटियाँ लटका दी जाये और ब्रजके कल्याणके लिये शरमें सुलभ होनेवाले पुष्पोंद्वारा गौओंकी पूजा की जाय । साथ ही 'गिरियज्ञ' आरम्भ कर दिया जाय । देवतालोग इन्द्रकी पूजा करें और हमलोग गिरिराज गोवर्धनकी ॥ ४३-४४ ॥
कारयिष्यामि गोयज्ञं बलादपि न संशयः । यद्यस्ति मयि वः प्रीतिर्यदि वा सुहृदो वयम् । गावो हि पूज्याः सततं सर्वेषां नात्र संशयः ॥ ४५ ॥
यदि आपलोगोंका मुझपर प्रेम है और यदि हमलोग एकदूसरेके हितैषी सुहद् हैं तो मैं आपके द्वारा हठ एवं बलपूर्वक गोयज्ञ कराऊँगा । गौएँ सदा ही सबके लिये पूजनीय हैं-इसमें संशय नहीं है ॥ ४५ ॥
यदि साम्ना भवेत् प्रीतिर्भवतां वैभवाय च । एतन्मम वचस्तथ्यं क्रियतामविचारितम् ॥ ४६ ॥
यदि मेरे समझानेसे आपको प्रसन्नता होती हो तो आपलोग अपने ही वैभव (अभ्युदय)-के लिये मेरी इस सच्ची बातको बिना विचारे मान लें और इसके अनुसार कार्य करें' ॥ ४६ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि शरद्वर्णने षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें शरदवर्णनविषयक सोलहवां अध्याय पूरा हुआ ॥ १६ ॥
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