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श्रीहरिवंशपुराण
विष्णुपर्व
सप्तदशोऽध्यायः


गोवर्धनमहोत्सवः
गोपोंद्वारा श्रीकृष्णकी बातको स्वीकार करके गिरियज्ञका अनुष्ठान तथा भगवान्का दिव्य रूप धारण करके उनकी पूजा ग्रहण करनेके पश्चात् उन्हें वर देना -


वैशंपायन उवाच
दामोदरवचः श्रुत्वा हृष्टास्ते गोषु जीविनः ।
तद्वागमृतमासाद्य प्रत्यूचुरविशङ्‌‌‍कया ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! दामोदर (श्रीकृष्ण) की बात सुनकर गौऑपर ही अपनी जीविका निर्भर करनेवाले वे गोपगण प्रसन्नतापूर्वक उनके वचनामृत का आस्वादन करके निःशङ्क होकर बोले- ॥ १ ॥

तवैषा बाल महती गोपाणां हितवर्धिनी ।
प्रीणयत्येव नः सर्वान् बुद्धिर्वृद्धिकरी गवाम् ॥ २ ॥
'हमारे बाल-गोपाल ! तुम्हारी यह बुद्धि-यह विचारधारा महत्त्वपूर्ण होनेके साथ ही गोपोंके लिये हितकर तथा गौओंकी वृद्धि करनेवाली है । यह हम सब लोगोंको तृप्ति ही प्रदान करती है ॥ २ ॥

त्वं गतिस्त्वं रतिश्चैव त्वं वेत्ता त्वं परायणम् ।
भयेष्वभयदस्त्वं नस्त्वमेव सुहृदां सुहृत् ॥ ३ ॥
तुम्हीं हमारी गति हो, तुम्हीं रति (आनन्द) हो, तुम्ही सर्वज्ञ और तुम्ही हमारे सबसे बड़े आश्रय हो ! भयके अवसरोंपर तुम्ही हमें अभय देनेवाले हो तथा तुम्ही हमारे लिये सुहृदोंके भी सुहृद् हो ॥ ३ ॥

त्वत्कृते कृष्ण घोषोऽयं क्षेमी मुदितगोकुलः ।
कृत्स्नो वसति शान्तारिर्यथा स्वर्गं गतस्तथा ॥ ४ ॥
श्रीकृष्ण ! तुम्हारे कारण ही यह गोष्ठ सकुशल है । यहाँकी गौओंका समुदाय प्रसन्न है । सारे शत्रु शान्त हो गये हैं तथा समस्त व्रज, जैसे स्वर्गमें रह रहा हो, इस तरह यहाँ सुखपूर्वक निवास करता है' ॥ ४ ॥

जन्मप्रभृति कर्मैतद् देवैरसुकरं भुवि ।
बोद्धव्याच्चाभिमानाच्च विस्मितानि मनांसि नः ॥ ५ ॥
'जन्मकालसे ही तुमने जो यह शकट-भंग और पूतनावध आदि कार्य किया है, यह इस भूतलपर देवताओंके लिये भी सुकर नहीं है । यह सब देखकर तथा समझमें आनेयोग्य तुम्हारा जो अभिमानपूर्ण वचन है (कि मैं बलपूर्वक गो-यज्ञ आदि कराऊँगा), उसपर ध्यान देकर हमारे चित्त चकित हो उठे हैं ॥ ५ ॥

बलेन च परार्ध्येन यशसा विक्रमेणा च ।
उत्तमस्त्वं मनुष्येषु देवेष्विव पुरन्दरः ॥ ६ ॥
तुम अपने परम उत्कृष्ट बल, सुयश और पराक्रमद्वारा मनुष्योंमें सबसे उत्तम हो । ठीक उसी तरह जैसे देवताओंमें इन्द्र सबसे श्रेष्ठ हैं ॥ ६ ॥

प्रतापेन च तीक्ष्णेन दीप्त्या पूर्णतयापि च ।
उत्तमस्त्वं च मर्त्येषु देवेष्विव दिवाकरः ॥ ७ ॥
तुम अपने तीक्ष्ण प्रताप, अनुपम दीप्ति तथा पूर्णताकी दृष्टिसे भी मनुष्योंमें उसी प्रकार सर्वश्रेष्ठ हो, जैसे देवताओंमें दिवाकर (सूर्य) ॥ ७ ॥

कान्त्या लक्ष्म्या प्रसादेन वदनेन स्मितेन च ।
उत्तमस्त्वं च मर्त्येषु देवेष्विव निशाकरः ॥ ८ ॥
मनोरम कान्ति, शोभा-सम्पत्ति, प्रसाद, सुन्दर मुख और मुसकराहटके कारण भी तुम देवताओंमें चन्द्रमाकी भांति मनुष्योंमें सबसे उत्तम हो ॥ ८ ॥

बलेन वपुषा चैव बाल्येन चरितेन च ।
स्यात् ते शक्तिधरस्तुल्यो न तु कश्चन मानुषः ॥ ९ ॥
यत् त्वयाभिहितं वाक्यं गिरियज्ञं प्रति प्रभो ।
कस्तल्लङ्‌‌‍घयितुं शक्तो वेलामिव महोदधिः ॥ १० ॥
बल, शरीर, बचपन और मनोहर चरित्रकी दृष्टि से भी तुम्हारे समान शक्तिशाली मनुष्य दूसरा कोई नहीं है । प्रभो ! तुमने गिरियज्ञके विषयमें जो बात कही है, उसका उल्लहुन कौन कर सकता है ? क्या महासागर कभी तटभूमिको लाँध सका है ॥ ९-१० ॥

स्थितः शक्रमहस्तात श्रीमान्गिरिमहस्त्वयम् ।
त्वत्प्रणीतोऽद्य गोपानां गवां हेतोः प्रवर्त्यताम् ॥ ११ ॥
तात ! आजसे इन्द्र-यागका उत्सव स्थगित हो गया । अब यह शोभासम्पन्न गिरियज्ञ, जिसे तुमने चालू किया है, गौओं और गोपोंके हितके लिये सम्पादित हो ॥ ११ ॥

भाजनान्युपकल्प्यन्तां पयसः पेशलानि च ।
कुम्भाश्च विनिवेश्यन्तामुदपानेषु शोभनाः ॥ १२ ॥
पूर्यन्तां पयसा नद्यो द्रोण्यश्च विपुलायताः ।
भक्ष्यं भोज्यं च पेयं च तत्सर्वमुपनीयताम् ॥ १३ ॥
भाजनानि च मांसस्य न्यस्यन्तामोदनस्य च ।
त्रिरात्रं चैव संदोहः सर्वघोषस्य गृह्यताम् ॥ १४ ॥
विशस्यन्तां च पशवो भोज्या ये महिषादयः ।
प्रवर्त्यतां च यज्ञोऽयं सर्वगोपसुसंकुलः ॥ १५ ॥
'दूधसे भरे हुए सुन्दर-सुन्दर पात्र एकत्र किये जायें । कुओंपर सुन्दर-सुन्दर घड़े स्थापित किये जायें । नयी बनायी हुई नहरों तथा बड़े-बड़े कुण्डोंको दूधसे भर दिया जाय । भक्ष्य-भोज्य और पेय सब कुछ तैयार कर लिया जाय । फलके गूदों तथा भातसे भरे हुए पात्र रखे जायें । सारे ब्रजका तीन दिनोंका सारा दूध संगृहीत कर लिया जाय । भोजन करानेयोग्य जो भैंसगाय आदि व्रजके पशु हैं, उन्हें बड़े आदरके साथ उत्तमोत्तम पदार्थ खिलाये जायें और इस प्रकार समस्त गोपोंके सहयोगसे सम्पन्न होनेवाले इस यज्ञका आरम्भ हो' ॥ १२-१५ ॥

आनन्दजननो घोषो महान्मुदितगोकुलः ।
तूर्यप्रणादघोषैश्च वृषभाणां च गर्जितैः ॥ १६ ॥
हम्भारवैश्च वत्सानां गोपानां हर्षवर्धनः ।
दध्नो ह्रदो घृतावर्तः पयः कुल्यासमाकुलः ॥ १७ ॥
मांसराशिः प्रभूताढ्यः प्रकाशौदनपर्वतः ।
संप्रावर्तत यज्ञोऽस्य गिरेर्गोभिः समाकुलः ॥ १८ ॥
फिर तो व्रजमें आनन्दजनक महान् कोलाहल होने लगा । सारा गोकुल हर्षोल्लासमें मग्न हो गया । वाद्योंकि गम्भीर घोष, साँडोंकी गर्जना और बछड़ोंके रंभानेसे जो सम्मिलित शब्द प्रकट हुआ, वह गोपोंका हर्ष बढ़ाने लगा । दहीके कुण्डमें ऊपर-ऊपर घी छा रहा था । दूधकी अनेक नहरें बहने लगौं । फलोंके गूदोंकी बड़ी भारी राशि जमा हो गयी । बहुत-से संस्कारक द्रव्य संचित हो गये और उज्ज्वल भातोंका पर्वताकार पुज प्रकाशित होने लगा । इस प्रकार गौओंसे भरा हुआ श्रीकृष्णका गिरियज्ञ चालू हो गया । संतुष्ट हुए समस्त गोपगण उसमें सम्मिलित होकर आवश्यक कार्य करते थे । गोपाङ्गनाओंने अपनी उपस्थितिसे उस महोत्सवको मनोहर बना दिया था ॥ १६-१८ ॥

तुष्टगोपजनाकीर्णो गोपनारीमनोहरः ।
भक्ष्याणां राशयस्तत्र शतशश्चोपकल्पिताः ।
गन्धमाल्यैश्च विविधैर्धूपैरुच्चावचैस्तथा ॥ १९ ॥
वहाँ भक्ष्य पदार्थोंके सैकड़ों ढेर लगाये गये थे । नाना प्रकारके गन्ध, माल्य तथा भाँति-भाँतिके धूपोंसे वह यज्ञ सुशोभित होता था ॥ १९ ॥

अथाधिशृतपर्यन्ते संप्राप्ते यज्ञसंविधौ ।
यज्ञं गिरेस्तिथौ सौम्ये चक्रुर्गोपा द्विजैः सह ॥ २० ॥
अग्निके समीप जो आज्यस्थाली और चरस्थाली आदि रखी गयी थीं, वे उस यज्ञका विधान आरम्भ होते ही आगपर चढ़ा दी गयीं । ब्राह्मणोंसहित गोपोंने किसी शुभ तिथिको उस यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया था ॥ २० ॥

यजनान्ते तदन्नं तु तत् पयो दधि चोत्तमम् ।
मांसं च मायया कृष्णो गिरिर्भूत्वा समश्नुते ॥ २१ ॥
यज्ञके अन्तमें श्रीकृष्ण स्वयं ही मायासे पर्वतके अधिष्ठाता देवता बनकर उस अन्न, दूध, दही और फलोंके गूदोंको भोग लगाने लगे ॥ २१ ॥

तर्पिताश्चापि विप्राग्र्यास्तुष्टाः संपूर्णमानसाः ।
उत्तस्थूः प्रीतमनसः स्वस्ति वाच्यं यथासुखम् ॥ २२ ॥
उस यज्ञमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको अन्नपानसे तृप्त और दक्षिणासे संतुष्ट किया गया था । उन सबके मनोरथ पूर्ण हो गये थे । वे सुखपूर्वक स्वस्तिवाचन करके प्रसन्नचित्त होकर उठे थे ॥ २२ ॥

भुक्त्वा चावभृते कृष्णः पयः पीत्वा च कामतः ।
संतृप्तोऽस्मीति दिव्येन रूपेण प्रजहास वै ॥ २३ ॥
यज्ञान्तस्नानके समय गिरिदेवके रूपमें प्रकट हुए श्रीकृष्ण अपनेको अर्पित किये गये भोज्य पदार्थोको खाकर और इच्छानुसार दूध पीकर बोले-'मैं पूर्णत: तृप्त हो गया । ' ऐसा कहकर वे उस दिव्य रूपके द्वारा जोर-जोरसे हँसने लगे ॥ २३ ॥

तं गोपाः पर्वताकारं दिव्यस्रगनुलेपनम् ।
गिरिमूर्ध्नि स्थितं दृष्ट्‍वा कृष्णं जग्मुः प्रधानतः ॥ २४ ॥
दिव्य माला और अनुलेप धारण किये उन पर्वताकार देवताको पर्वतके शिखरपर खड़ा देख सब लोगोंने उन्हें प्रधानतः श्रीकृष्ण ही समझकर उनकी शरण ली ॥ २४ ॥

भगवानपि तेनैव रूपेणाच्छादितः प्रभुः ।
सहितैः प्रणतो गोपैर्ववन्दात्मानमात्मना ॥ २५ ॥
प्रभावशाली भगवान् श्रीकृष्णने भी उसी रूपसे अपनेको छिपाये रखकर वहाँ एकत्र हुए गोपोंके साथ नतमस्तक हो स्वयं ही अपने-आपको प्रणाम किया ॥ २५ ॥

तमूचुर्विस्मिता गोपा देवं गिरिवरे स्थितम् ।
भगवंस्त्वद्वशे युक्ता दासाः किं कुर्म किङ्‌‌‍कराः ॥ २६ ॥
गिरिराजके शिखरपर खड़े हुए उन पर्वतदेवतासे समस्त गोपोंने विस्मित होकर कहा-'भगवन् । हम आपके वशमें हैं । आपके दास एवं सेवक हैं, बताइये ! हम आपकी क्या सेवा करें' ॥ २६ ॥

स उवाच ततो गोपान् गिरिप्रभवया गिरा ।
अद्यप्र्भृति चेज्योऽहं गोषु यद्यस्तु वो दया ॥ २७ ॥
तब उन्होंने पर्वतसे प्रकट हुईं वाणीद्वारा उन गोपोंसे कहा-'यदि तुमलोगोंमें दयाभाव विद्यमान हो तो आजसे तुम्हें गौओंके भीतर मेरी पूजा करनी चाहिये ॥ २७ ॥

अहं वः प्रथमो देवः सर्वकामकरः शुभः ।
मम प्रभावाच्च गवामयुतान्येव भोक्ष्यथ ॥ २८ ॥
'मैं तुमलोगोंका प्रथम देवता हूँ, तुम्हारी सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला और शुभचिन्तक हूँ । तुम मेरे प्रभावसे दस हजार गौओंके स्वामी एवं (उनके दूध-दही आदिके) उपभोक्ता बने रहोगे ॥ २८ ॥

शिवश्च वो भविष्यामि मद्‌भक्तानां वने वने ।
रंस्ये च सह युष्माभिर्यथा दिविगतस्तथा ॥ २९ ॥
मुझमें भक्ति रखनेवाले तुम गोपोंके लिये मैं प्रत्येक वनमें कल्याणकारी होऊँगा और तुमलोगोंके साथ मैं उसी प्रकार आनन्दपूर्वक रहूँगा, जैसे दिव्य धाममें रहा करता हूँ ॥ २९ ॥

ये चेमे प्रथिता गोपा नन्दगोपपुरोगमाः ।
एषां प्रीतः प्रयच्छामि गोपानां विपुलं धनम् ॥ ३० ॥
ये जो नन्द आदि विख्यात गोप हैं, मैं प्रसन्न होकर इन सबको प्रचुर धन-सम्पत्ति प्रदान करूँगा ॥ ३० ॥

पर्याप्नुवन्तु क्षिप्रं मां गावो वत्ससमाकुलाः ।
एवं मम परा प्रीतिर्भविष्यति न संशयः ॥ ३१ ॥
अव बछड़ोंसहित गौएँ शीघ्र मेरी परिक्रमा करें । इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी, इसमें संशय नहीं है' ॥ ३१ ॥

ततो नीराजनार्थं हि वृन्दशो गोकुलानि तम् ।
परिवव्रुर्गिरिवरं सवृषाणि समन्ततः ॥ ३२ ॥
फिर तो झुंड-की-झुंड गौएँ साँड़ोंके साथ आकर परिक्रमाके लिये गिरिराजको सब ओरसे घेरकर खड़ी हो गयीं ॥ ३२ ॥

ता गावः प्रद्रुता हृष्टाः सापीडस्तबकाङ्‌‌‍गदाः ।
सस्रजापीडशृङ्‌‌‍गाग्राः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ३३ ॥
उनके मस्तकपर फूलोंके आभूषण बँधे हुए थे, चारों पैरोंमें पुष्पगुच्छोंके ही बने हुए बाजूबंद पहनाये गये थे, सींगोंके अग्रभागमें फूलोंके गजरे और शिरोभूषण शोभा पा रहे थे, ऐसी सैकड़ों और हजारों गौएँ हर्षमें भरकर एक साथ परिक्रमाके पथपर दौड़ी ॥ ३३ ॥

अनुजग्मुश्च गोपालाः कालयन्तो धनानि च ।
भक्तिच्छेदानुलिप्ताङ्‌‌‍गा रक्तपीतसिताम्बराः ॥ ३४ ॥
गोपगण अपने उन गोधनोंको हाँकते हुए उनके पीछे-पीछे चले । उन गोपोंके विभिन्न अङ्गोंमें विभागपूर्वक नाना रंगोंके अनुलेप लगे थे । वे लाल, पीले और सफेद कपड़ोंसे सुशोभित थे ॥ ३४ ॥

मयूरचित्राङ्‌‌‍गदिनो भुजैः प्रहरणावृतैः ।
मयूरपत्रवृन्तानां केशबन्धैः सुयोजितैः ॥ ३५ ॥
बभ्राजुरधिकं गोपाः समवाये तदाद्भुते ।
अन्ये वृषानारुरुहुर्नृत्यन्ति स्म परे मुदा ॥ ३६ ॥
गोपालास्त्वपरे गाश्च जगृहुर्वेगगामिनः ।
तस्मिन् पर्यायनिर्वृत्ते गवां नीराजनोत्सवे ॥ ३७ ॥
अन्तर्धानं जगामाशु तेन देहेन सोऽचलः ।
कृष्णोऽपि गोपसहितो विवेश व्रजमेव ह ॥ ३८ ॥
गिरियज्ञप्रवृत्तेन तेनाश्चर्येण विस्मिताः ।
गोपाः सबालवृद्धा वै तुष्टुवुर्मधुसूदनम् ॥ ३९ ॥
उनकी भुजाओंमें मोरपत्रके विचित्र बाजूबंद बँधे हुए थे और उन्हीं हाथोंमें डंडे भी शोभा पा रहे थे । उनके सुन्दर ढंगसे बंधे हुए केशोंमें मोरपंखके वृन्त खोंसे गये थे । इन सबके कारण उस अद्भुत समुदाय या मेलेमें उन गोपोंकी अधिक शोभा हो रही थी । कुछ अन्य गोप बैलोंपर चढ़े थे । दूसरे ग्वाले हर्षमें भरकर नाच रहे थे तथा अन्य बहुत-से गोपाल वेगपूर्वक भागी जाती हुई गौओंको पकड़ते थे । गौओंद्वारा नीराजना (परिक्रमा) का वह उत्सव बारी-बारीसे सम्पन्न हो जानेपर वे पर्वतदेवता अपने उस दिव्य शरीरसे शीघ्र ही अन्तर्धान हो गये । इधर श्रीकृष्ण भी गोपोंके साथ व्रजमें ही चले गये । गिरियज्ञके अनुष्ठानसे प्राप्त हुए उस महान् आश्चर्यसे चकित हो बालकों और वृद्धोंसहित सम्पूर्ण गोप मधुसूदन श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगे ॥ ३५-३९ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि
गिरियज्ञप्रवर्तने सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें गिरियज्ञका अनुष्ठानविषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७ ॥




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