श्रीहरिवंशपुराण विष्णुपर्व अष्टादशोऽध्यायः
गोवर्धनधारणम्
इन्द्रका संवर्तक मेघोंद्वारा वर्षा कराकर गौओं और गोपोंको कष्टमें डालना, श्रीकृष्णद्वारा गोवर्धनधारण तथा उसके नीचे गौओं और गोपोंसहित व्रजवासियोंका जाना -
वैशंपायन उवाच महे प्रतिहते शक्रः सक्रोधस्त्रिदशेश्वरः । सांवर्तकं नाम गणं तोयदानामथाब्रवीत् ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! अपना उत्सव रोक दिये जानेके कारण देवराज इन्द्रको बड़ा क्रोध हुआ । उन्होंने मेघोंके संवर्तक नामक गणको बुलाकर इस प्रकार कहा- ॥ १ ॥
भो बलाहकमातङ्गाः श्रूयतां मम भाषितम् । यदि वो मत्प्रियं कार्यं राजभक्तिपुरस्कृतम् ॥ २ ॥
'मतवाले हाथियोंके समान श्रेष्ठ मेघगण ! यदि तुम्हें राजभक्तिको सामने रखते हुए मेरा प्रिय कार्य करना उचित जान पड़े, तो मेरी यह बात सुनो ॥ २ ॥
एते वृन्दावनगता दामोदरपरायणाः । नन्दगोपादयो गोपा विद्विषन्ति ममोत्सवम् ॥ ३ ॥
ये वृन्दावनमें गये हुए जो नन्द आदि गोप हैं, वे दामोदर श्रीकृष्णको ही सबसे बड़ा सहारा मानकर मेरे उत्सवसे द्वेष रखने लगे हैं ॥ ३ ॥
आजीवो यः परस्तेषां गोपत्वं च यतः स्मृतम् । ता गावः सप्तरात्रेण पीड्यन्तां वर्षमारुतैः ॥ ४ ॥
अतः मेरी आज्ञा है कि उन गोपोंकी जो सबसे बड़ी आजीविका है तथा जिसका पालन करनेके कारण उनका गोपत्व सार्थक माना गया है, नन्द आदिकी उन गौओंको तुम लगातार सात रातोंतक भारी वर्षा और वायुके द्वारा पीड़ित करो ॥ ४ ॥
ऐरावतगतश्चाहं स्वयमेवाम्बुदारुणं । स्रक्ष्यामि वृष्टिं वातं च वज्राशनिसमप्रभम् ॥ ५ ॥
मैं भी ऐरावतपर आरूढ़ होकर चलता हूँ और स्वयं ही वन एवं बिजलीके साथ-साथ प्रकाशित होनेवाले भयानक जलकी वर्षा एवं वायुकी सृष्टि करूँगा ॥ ५ ॥
भवद्भिश्चण्डवर्षेण चरता मारुतेन च । हतास्ताः सव्रजा गावस्त्यक्ष्यन्ति भुवि जीवितम् ॥ ६ ॥
तुमलोग प्रचण्ड वायुके साथ विचरते हुए जब घोर वर्षा करोगे, तब उससे आहत एवं पीड़ित हुई गौएँ भूतलपर ब्रजवासियोंसहित अपने प्राण त्याग देंगी' ॥ ६ ॥
एवमाज्ञापयामास सर्वाञ्जलधरान् प्रभुः । प्रत्याहते वै कृष्णेन शासने पाकशासनः ॥ ७ ॥
श्रीकृष्णद्वारा अपने उत्सव एवं शासनका विघात हो जानेपर प्रभावशाली पाकशासन इन्द्रने समस्त जलधरोंको इस प्रकार अपनी आज्ञा सुना दी ॥ ७ ॥
ततस्ते जलदाः कृष्णा घोरनादा भयावहाः । आकाशं छादयामासुः सर्वतः पर्वतोपमाः ॥ ८ ॥
तब वे घोर गर्जना करनेवाले पर्वताकार भयंकर काले मेघ आकाशमें सब ओर छा गये ॥ ८ ॥
विद्युत्संपातजननाः शक्रचापविभूषिताः । तिमिरावृतमाकाशं चक्रुस्ते जलदास्तदा ॥ ९ ॥
उस समय इन्द्रधनुषसे विभूषित हो बिजली गिराते हुए उन मेघोंने आकाशको अन्धकारपूर्ण कर दिया ॥ ९ ॥
गजा इवान्यसंयुक्ताः केचिन्मकरवर्चसः । नागा इवान्ये गगने चेरुर्जलदपुङ्गवाः ॥ १० ॥
कुछ मेघ दूसरे हाथियोंसे सटकर चलते हुए हाथियोंके समान प्रतीत होते थे । दूसरे मगरोंके समान प्रकाशित होते थे तथा अन्य बड़े-बड़े बादल आकाशमें नागोंके समान विचरने लगे ॥ १० ॥
तेऽन्योन्यं वपुषा बद्धा नागयूथायुतोपमाः । दुर्दिनं विपुलं चक्रुश्छादयन्तो नभस्तलम् ॥ ११ ॥
जैसे हजारों हाथियोंके झुंड एक-दूसरेसे अपने शरीरको आबद्ध करके चल रहे हों, वैसे ही प्रतीत होनेवाले उन जलधरोंने आकाशको आच्छादित करके वहाँ बड़ा भारी दुर्दिन उपस्थित कर दिया ॥ ११ ॥
नृहस्तनागहस्ताभ्यां वेणूनां चैव सर्वतः । धाराभिस्तुल्यरूपाभिर्ववृषुस्ते बलाहकाः ॥ १२ ॥
मनुष्योंके हाथ, हाथियोंके शुण्डदण्ड तथा बाँसके तुल्य मोटी धाराएँ प्रकट करके वे मेघ वहाँ सब ओर वर्षा करने लगे ॥ १२ ॥
समुद्रं मेनिरे तं हि खमारूढं नृचक्षुषः । दुर्विगाह्यमपर्यन्तमगाधं दुर्दिनं महत् ॥ १३ ॥
मनुष्योंकी आँखोंने आकाशमें छाये हुए उस दुरवगाह अनन्त अगाध एवं महान् दुर्दिनको समुद्रके समान ही माना ॥ १३ ॥
नैवापतन्वै खगमा दुद्रुवुर्मृगजातयः । पर्वताभेषु मेघेषु खे नदत्सु समन्ततः ॥ १४ ॥
आकाशमें चारों ओर पर्वताकार मेघ गर्जना कर रहे थे । उस समय पक्षियोंने उड़ना बंद कर दिया तथा विभिन्न जातिके पशु इधरउधर भागने लगे ॥ १४ ॥
नष्टसूर्येन्दुसदृशैर्मेघैर्नभसि दारुणैः। अतिवृष्टेन लोकस्य विरूपमभवद् वपुः ॥ १५ ॥
चन्द्रमा और सूर्यको भी नष्ट कर देनेवाले प्रलयकालके समान आकाशमें छाये हुए उन भयंकर मेघोंने अपनी अतिवृष्टिके कारण समस्त पार्थिव जगत्के रूपको विकृत कर दिया ॥ १५ ॥
मेघौघैर्निष्प्रभाकारमदृश्यग्रहतारकम् । चन्द्रसूर्यांशुरहितं खं बभूवातिनिष्प्रभम् ॥ १६ ॥
मेघोंकी घटाएँ घिर आनेसे व्योममण्डल प्रभाशून्य हो गया । ग्रह और तारे दृष्टिपथसे ओझल हो गये । चन्द्रमा और सूर्यकी किरणोंका पता नहीं चलता था । अतः सारा आकाश अन्धकारसे आच्छन्न हो गया ॥ १६ ॥
वारिणा मेघमुक्तेन मुच्यमानेन चासकृत् । आबभौ सर्वतस्तत्र भूमिस्तोयमयी यथा ॥ १७ ॥
मेघोंके बरसाये हुए तथा बारम्बार बरसाये जाते हुए जलसे आवृत हो वहाँ सब ओरकी भूमि जलमयी-सी प्रतीत होने लगी ॥ १७ ॥
विनेदुर्बर्हिणस्तत्र तोककल्परुताः खगाः । विवृद्धिं निम्नगा याताः प्लवगाः संप्लवं गताः ॥ १८ ॥
उस समय वहाँ मोर जोर-जोरसे बोलने लगे । पक्षियोंकी आवाज बहुत कम हो गयी । नदियों में बाढ़ आ गयी और किनारेके वृक्ष प्रवाहमें बह गये ॥ १८ ॥
गर्जितेन च मेघानां पर्जन्यनिनदेन च । तर्जितानीव कम्पन्ते तृणानि तरुभिः सह ॥ १९ ॥
मेघोंकी गर्जना तथा पर्जन्यदेवके गम्भीर नादसे डाँटे गयेकी भाँति वृक्षासहित तृण काँपने लगे ॥ १९ ॥
प्राप्तोऽन्तकालो लोकानां व्यक्तमेकार्णवा मही । इति गोपगणा वाक्यं व्याहरन्ति भयार्दिताः ॥ २० ॥
उस समय भयसे पीड़ित हुए गोप आपसमें कहने लगे कि 'निश्चय ही समस्त लोकोंका अन्तकाल आ पहुँचा है और पृथ्वी एकार्णवमें मग्न हो रही है' ॥ २० ॥
तेनोत्पाताम्बुवर्षेण गावो विप्रहता भृशम् । हम्भारवैः क्रन्दमाना न चेलुः स्तम्भितोपमाः ॥ २१ ॥
उस उत्पातस्वरूप जलकी भारी वर्षासे अत्यन्त ताड़ित एवं पीड़ित हुई गौएँ भानेकी ध्वनिमें करुण-क्रन्दन करती हुई हिल-डुल भी न सकीं । ऐसा जान पड़ता था, उनके सारे अङ्ग अकड़ गये हैं ॥ २१ ॥
निष्कम्पसक्थिचरणा निष्प्रयत्नखुराननाः । हृष्टरोमार्द्रतनवः क्षामकुक्षिपयोधराः ॥ २२ ॥
उनकी जाँचे और पैर हिल नहीं पाते थे, खुर और मुख निष्ट थे, भीगे हुए शरीरमें रोंगटे खड़े हो गये थे और पेट तथा थन अत्यन्त दुबले होकर सिकुड़ गये थे ॥ २२ ॥
काश्चित् प्राणाञ्जहुः श्रान्ता निपेतुः काश्चिदातुराः । काश्चित्सवत्साः पतिता गावः शीकरवेजिताः ॥ २३ ॥
कुछ गौओंने पीड़ासे श्रान्त होकर अपने प्राण त्याग दिये । कुछ आतुर होकर गिर पड़ों और कितनी ही गौएँ जलके छींटोंसे उद्विग्र होकर बछड़ोंसहित धराशायिनी हो गयीं ॥ २३ ॥
काश्चिदाक्रम्य क्रोडेन वत्सांस्तिष्ठन्ति मातरः । विमुखाः श्रान्तसक्थ्यश्च निराहाराः कृशोदराः ॥ २४ ॥
कुछ गौमाताएँ बछड़ोंको अपने अङ्कमें छिपाकर खड़ी थीं, कितनी ही बछड़ोंकी ओरसे विमुख हो गयी थी, उनकी जाँचें शिथिल हो रही थीं, कुछ दाना-घास न मिलनेके कारण उनके पेट भीतरको फँस गये थे । वर्षासे परास्त होकर पीड़ित हुई गौएँ थर-थर काँपती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ती थीं ॥ २४ ॥
पेतुरार्ता वेपमाना गावो वर्षपराजिताः । वत्साश्चोन्मुखका बाला दामोदरमुखाः स्थिताः । त्राहीति वदनैर्दीनैः कृष्णमूचुरिवार्दिताः ॥ २५ ॥
छोटे-छोटे बछड़े मुँह ऊपर उठाकर दामोदरकी ओर देखते हुए खड़े थे, मानो वे पीड़ित बछड़े अपने दीन मुखोंसे श्रीकृष्णको सम्बोधित करके कह रहे थे कि 'प्रभो ! हमारी रक्षा कीजिये' ॥ २५ ॥
गवां तत् कदनं दृष्ट्वा दुर्दिनागमजं महत् । गोपांश्चासन्ननिधनान्कृष्णः कोपं समादधे ॥ २६ ॥
इस दुर्दिनके आनेसे गौओंका वह महासंहार होता देख और गोपोंको भी मौतके निकट पहुँचा हुआ जान श्रीकृष्णने इन्द्रके प्रति महान् कोप धारण किया ॥ २६ ॥
स चिन्तयित्वा संरब्धो दृष्टो योगो मयेति च । आत्मानमात्मना वाक्यमिदमूचे प्रियंवदः ॥ २७ ॥
प्रिय वचन बोलनेवाले श्रीकृष्णने कुछ देर सोच-विचारकर रोषावेशसे युक्त हो स्वयं ही अपने-आपसे इस प्रकार कहा-'इस वर्षासे बचनेका उपाय मैंने देख लिया ॥ २७ ॥
अद्याहमिममुत्पाट्य सकाननवनं गिरिम् । कल्पयेयं गवां स्थानं वर्षत्राणाय दुर्धरम् ॥ २८ ॥
आज मैं वन और कानोसहित इस दुर्धर गोवर्धन पर्वतको उखाड़कर गौओंको वर्षासे बचानेके लिये सुरक्षित स्थानका निर्माण करूँगा ॥ २८ ॥
अयं धृतो मया शैलः पृथ्वीगृहनिभोपमः । त्रास्यते सव्रजा गा वै मद्वश्यश्च भविष्यति ॥ २९ ॥
मेरे द्वारा धारण किया हुआ यह पर्वत पृथ्वीपर बने हुए घरके समान होकर व्रजसहित समूची गौओंका परित्राण करेगा और मेरे अधीन हो जायगा ॥ २९ ॥
एवं स चिन्तयित्वा तु कृष्णः सत्यपराक्रमः । बाह्वोर्बलं दर्शयिष्यन्समीपं तं महीधरम् । दोर्भ्यामुत्पाटयामास कृष्णो गिरिमिवापरः ॥ ३० ॥
इस प्रकार सोच-विचारकर सत्यपराक्रमी श्रीकृष्णने अपनी दोनों भुजाओंका बल दिखाते हुए उस निकटवर्ती पर्वतको दोनों हाथोंसे पकड़कर उखाड़ लिया । उस समय श्रीकृष्ण दूसरे पर्वतके समान ही जान पड़ते थे ॥ ३० ॥
स धृतः सङ्गतो मेघैर्गिरिः सव्येन पाणिना । गृहभावं गतस्तत्र गृहाकारेण वर्चसा ॥ ३१ ॥
भगवान्के बायें हाथसे धारण किया गया और मेघोंसे सटा हुआ वह पर्वत उनके गृहाकारक तेज या संकल्पसे वहाँ गृहभावको प्राप्त हो गया ॥ ३१ ॥
भूमेरुत्पाट्यमानस्य तस्य शैलस्य सानुषु । शिलाः प्रशिथिलाश्चेलुर्विनिष्पेतुश्च पादपाः ॥ ३२ ॥
जिस समय वह पर्वत पृथ्वीसे उखाड़ा जाने लगा, उस समय उसके शिखरोंपर जो टूटीफूटी शिलाएँ थीं, वे खिसककर गिरने लगी और बहुतसे वृक्ष भी धराशायी हो गये ॥ ३२ ॥
शिखरैर्घूर्णमानैश्च सीदमानैश्च पादपैः । विधूतैश्चोच्छ्रितैः शृङ्गैरगमः खगमोऽभवत् ॥ ३३ ॥
उस समय चकर काटते हुए शिखरों, खण्डित होते हुए वृक्षों तथा काँपती हुई ऊँची चोटियोंके कारण वह अविचल पर्वत आकाशचारी पक्षीके समान प्रतीत होने लगा ॥ ३३ ॥
चलत्प्रस्रवणैः पार्श्वैर्मेघौघैरेकतां गतैः । भिद्यमानाश्मनिचयश्चचाल धरणीधरः ॥ ३४ ॥
पार्थवर्ती चञ्चल झरने मेघोंके समूहोंसे मिलकर एकताको प्राप्त हो गये । वह पर्वत हिलने लगा और उसकी प्रस्तरराशि विदीर्ण होकर बिखरने लगी ॥ ३४ ॥
न मेघानां प्रवृष्टानां न शैलस्याश्मवर्षिणः । विविदुस्ते जना रूपं वायोस्तस्य च गर्जतः ॥ ३५ ॥
उस पर्वतके नीचे गर्भगृहमें बैठे हुए वे सब लोग न तो बरसते हुए मेघोंका, न पत्थर बरसानेवाले पर्वतका और न गरजती हुई वायुका ही स्वरूप जान सके ॥ ३५ ॥
मेघैः सशैलसंस्थानैर्नीलैः प्रस्रवणार्पितैः । मिश्रीकृत इवाभाति गिरिरुद्दामबर्हवान् ॥ ३६ ॥
झरनोंसे मिले हुए पर्वताकार नील मेघोंसे मिश्रित हुआ वह पर्वत पंख उठाये हुए मोरके समान प्रतीत होता था ॥ ३६ ॥
आप्लुतोऽयं गिरिः पक्षैरिति विद्याधरोरगाः । गन्धर्वाप्सरसश्चैव वाचो मुञ्चन्ति सर्वशः ॥ ३७ ॥
विद्याधर, नाग, गन्धर्व और अप्सराएँ सब ओर ऐसी चर्चा करते थे कि यह पर्वत अपने मेघरूपी पंखोंसे ऊपरको उड़नेके लिये उद्यत-सा प्रतीत होता है ॥ ३७ ॥
सहस्ततलविन्यस्तोमुक्तमूलः क्षितेस्तलात् । रीतीर्निर्वर्तयामास काञ्चनाञ्जनराजतीः ॥ ३८ ॥
वह पर्वत श्रीकृष्णकी हथेलीपर टिका हुआ था । भूतलसे उसके मूलभागका सम्बन्ध टूट चुका था । उस दशामें वह सोने, कोयले, चाँदी तथा गेरू आदि धातुओंको प्रकट करने लगा ॥ ३८ ॥
कानिचिच्छिथिलानीव संच्छिन्नार्धानि कनिचित् । गिरेर्मेघप्रवृष्टानि तस्य शृङ्गणि चाभवन् ॥ ३९ ॥
उस पर्वतके कुछ शिखर शिथिल-से हो गये थे, कुछ आधे भागसे टूट गये थे और कितने ही शिखर बादलोंके भीतर घुस गये थे ॥ ३९ ॥
गिरिणा कम्पमानेन कम्पिताणनां तु शाखिनाम् । पुष्पमुच्चावचं भूमौ व्यशीर्यत समन्ततः ॥ ४० ॥
पर्वतके हिलनेके साथ ही उसके ऊपरके वृक्ष कम्पित हो उठे और उनके नाना प्रकारके फूल पृथ्वीपर सब ओर बिखर गये ॥ ४० ॥
निःसृताः पृथुमूर्धानः स्वस्तिकार्धविभूषिताः । द्विजिह्वपतयः क्रुद्धाः खेचराः खे समन्ततः ॥ ४१ ॥
उस समय मोटे-मोटे मस्तकवाले सर्पराज, जो आकाशमें उड़नेकी शक्ति रखते थे, कुपित होकर आकाशमें सब ओर निकल पड़े । उनके शरीर आधे स्वस्तिकसे विभूषित थे ॥ ४१ ॥
आर्तिं जग्मुः खगगणा वर्षेण च भयेन च । उत्पत्त्योत्पत्त्य गगनात् पुनः पेतुरवाङ्मुखाः ॥ ४२ ॥
पक्षियोंके समुदाय वर्षा और भयसे बड़े कष्टमें पड़ गये । वे उड़-उड़कर आकाशमें जाते और वहाँसे पुनः नीचे मुख किये गिर पड़ते थे ॥ ४२ ॥
रेसुरारोषिताः सिंहाः सजला इव तोयदाः । गर्गरा इव मथ्यन्तो नेदुः शार्दूलपुङ्गवाः ॥ ४३ ॥
बहुत-से सिंह रोषमें भरकर सजल जलधरोंके समान दहाड़ रहे थे । बड़े-बड़े बाघ मथे जानेवाले माँटोंके समान गम्भीर घोष करते थे ॥ ४३ ॥
विषमैश्च समीभूतैः समैश्चात्यन्तदुर्गमैः । व्यावृत्तदेहः स गिरिरन्य एवोपलक्ष्यते ॥ ४४ ॥
उस पर्वतको विषम भूमि सम हो गयी और समभूमि विषम होकर अत्यन्त दुर्गम हो गयी, इससे उसके स्वरूपमें इतना उलट-फेर हो गया कि वह किसी और ही पर्वत-सा दिखायी देता था ॥ ४४ ॥
अतिवृष्टस्य तैर्मेघैस्तस्य रूपं बभूव ह । स्तम्भितस्येव रुद्रेण त्रिपुरस्य विहायसि ॥ ४५ ॥
उन मेघोंके द्वारा अतिवृष्टि होनेसे उस पर्वतका रूप वैसा ही हो गया, जैसा कि आकाशमें भगवान् रुद्रके द्वारा स्तम्भित किये गये त्रिपुरका रूप दिखायी देता था ॥ ४५ ॥
बाहुदण्डेन कृष्णास्य विधृतं सुमहत्तदा । नीलाभ्रपटलच्छन्नं तद्गिरिच्छत्रमाबभौ ॥ ४६ ॥
भगवान् श्रीकृष्णके बाहुदण्डसे धारण किया गया तथा काले मेघ समूहोंसे आच्छादित हुआ वह पर्वतरूपी छत्र बड़ी शोभा पा रहा था ॥ ४६ ॥
स्वप्नायमानो जलदैर्निमीलितगुहामुखः । बाहूपधाने कृष्णास्य प्रसुप्त इव खे गिरिः ॥ ४७ ॥
सोनेकी इच्छा सी रखनेवाला वह पर्वत आकाशमें श्रीकृष्णकी बाँहका तकिया लगाकर सोया हुआ-सा जान पड़ता था । उस समय उसका गुफारूपी मुख बादलोंकी चादरसे ढका हुआ था ॥ ४७ ॥
निर्विहङ्गरुतैर्वृक्षैर्निर्मयूररुतैर्वनैः । निरालम्ब इवाभाति गिरिः स्वशिखरैर्वृतः ॥ ४८ ॥
उस पर्वतपर जो वृक्ष थे, उनपर पक्षियोंकी बोली नहीं सुनायी देती थी । वहाँकै वन मयूरोंकी केका-ध्वनिसे शून्य हो गये थे । ऐसे वृक्षों और वनोंसे घिरा हुआ वह पर्वत अपने शिखरोंके साथ निरालम्ब-सा प्रतीत होता था ॥ ४८ ॥
पर्यस्तैर्घूर्णमानैश्चप्रचलद्भिश्च सानुभिः । सज्वराणीव शैलस्य वनानि शिखराणि च ॥ ४९ ॥
उसके शृंग अस्त-व्यस्त होकर चाकर काटते और जोर-जोरसे हिलते थे । उनके कारण उस | पर्वतके वन और शिखर ज्वरसे पीड़ित हुए-से प्रतीत होते थे ॥ ४९ ॥
उत्तमाङ्गगतास्तस्य मेघाः पवनवाहनाः । त्वर्यमाणा महेन्द्रेण तोयं मुमुचुरक्षयम् ॥ ५० ॥
उस पर्वतके मस्तक (शिखर)-पर पहुँचे हुए वायुरूपी वाहनवाले मेघ देवराज इन्द्रके द्वारा शीघ्रता करनेके लिये प्रेरित होनेपर अक्षय जलकी वर्षा करने लगे ॥ ५० ॥
स लम्बमानः कृष्णस्य भुजाग्रे सघनो गिरिः । चक्रारूढ इवाभाति देशो नृपतिपीडितः ॥ ५१ ॥
भगवान् श्रीकृष्णकी भुजाके अग्रभागमें लटकता हुआ मेघोंसहित वह पर्वत किसी शत्रु राजाके द्वारा पीड़ित हुए देशकी भाँति चक्रपर चढ़ा हुआ-सा प्रतीत होता था* ॥ ५१ ॥
स मेघनिचयस्तस्थौ गिरिं तं परिवार्य ह । पुरं पुरस्कृत्य यथा स्फीतो जनपदो महान् ॥ ५२ ॥
वह मेघोंका समुदाय उस पर्वतको चारों ओरसे घेरकर उसी तरह खड़ा था, जैसे समृद्धिशाली महान् जनपद नगर या राजधानीको अपने सामने रखकर चारों ओर निवास करता है ॥ ५२ ॥
निवेश्य तं करे शैलं तोलयित्वा च सस्मितम् । प्रोवाच गोप्ता गोपानां प्रजापतिरिव स्थितः ॥ ५३ ॥
उस पर्वतको अपने हाथपर रखकर उसे संतुलित रखते हुए प्रजापतिके समान खड़े हुए गोपरक्षक भगवान् श्रीकृष्णने मुसकराते हुए कहा- ॥ ५३ ॥
एतद् देवैरसंभाव्यं दिव्येन विधिना मया । कृतं गिरिगृहं गोपा निर्वातं शरणं गवाम् ॥ ५४ ॥
'गोपगण ! मैंने दिव्य विधिसे यह पर्वतका घर बना दिया है, जिसे बनाना देवताओंके लिये भी असम्भव था । इसमें वर्षा और वायुका प्रवेश नहीं है । यह गौओंके लिये उत्तम आश्रय है ॥ ५४ ॥
क्षिप्रं विशन्तु यूथानि गवामिह हि शान्तये । निर्वातेषु च देशेषु निवसन्तु यथासुखम् ॥ ५५ ॥
यहाँ शान्ति पानेके लिये गौओंके यूथ शीघ्र प्रवेश करें और इन वायुरहित स्थानों में सुखपूर्वक निवास करें ॥ ५५ ॥
यथाश्रेष्ठं यथायूथं यथासारं यथासुखम् । विभज्यतामयं देशः कृतं वर्षनिवारणम् ॥ ५६ ॥
जो जैसे बड़े-छोटे हों, जिनके जैसे यूथ हों, जिनके पास जैसी साधन-सामग्री हो, उसके अनुसार तुम सब लोग सुखपूर्वक इस स्थानका बँटवारा कर लो । मैंने वर्षाका भलीभाँति निवारण कर दिया है ॥ ५६ ॥
शैलोत्पाटनभूरेषा महती निर्मिता मया । पञ्चक्रोशप्रमाणेन क्रोशैकविस्तरो महान् । त्रैलोक्यमप्युत्सहते रक्षितुं किं पुनर्व्रजम् ॥ ५७ ॥
मैंने पर्वतको उखाड़कर यहाँ रहनेयोग्य विशाल भूमिका निर्माण कर दिया है । इसकी लम्बाई पाँच कोस और चौड़ाई एक कोसकी है । यह महान् भूभाग तीनों लोकोंकी आँधी-पानीसे रक्षा कर सकता है, फिर ब्रजकी तो बात ही क्या है ?' ॥ ५७ ॥
ततः किलकिलाशब्दो गवां हम्भारवैः सह । गोपानां तुमुलो जज्ञे मेघनादश्च बाह्यतः ॥ ५८ ॥
यह सुनकर भीतरकी ओर गौओंके भानेके साथ ही गोपोंकी किलकारियोंका तुमुल नाद गूंज उठा और बाहरकी ओर मेघोंकी गम्भीर गर्जना होने लगी ॥ ५८ ॥
प्राविशन्त ततो गावो गोपैयूथप्रकल्पिताः । तस्य शैलस्य विपुलं प्रदरं गह्वरोदरम् ॥ ५९ ॥
तदनन्तर गोपोंद्वारा एक-एक यूथके रूपमें विभक्त की हुई गौएँ उस पर्वतकी विशाल गुफामें, जिसका भीतरी भाग बहुत बड़ा था, प्रवेश करने लगीं ॥ ५९ ॥
कृष्णोऽपि मूले शैलस्यशैलस्तम्भ इवोच्छ्रितः । दधारैकेन हस्तेन शैलं प्रियमिवातिथिम् ॥ ६० ॥
भगवान् श्रीकृष्ण भी उस पर्वतके मूलभागमें प्रस्तरनिर्मित ऊँचे खम्भके समान खड़े हो गये । उन्होंने उस पहाड़को अपने प्रिय अतिथिकी भाँति एक हाथसे पकड़ रखा था ॥ ६० ॥
ततो व्रजस्य भाण्डानि युक्तानि शकटानि च । विविशुर्वर्षभीतानि तद् गृहं गिरिनिर्मितम् ॥ ६१ ॥
तत्पश्चात् वर्षासे डरे हुए व्रजके गोप अपने बर्तनभाँड़े और जुते हुए छकड़े लेकर उस पर्वतनिर्मित गृहमें प्रविष्ट हो गये ॥ ६१ ॥
अतिदैवं तु कृष्णस्य दृष्ट्वा तत्कर्म वज्रभृत् । मिथ्याप्रतिज्ञो जलदान् वारयामास वै विभुः ॥ ६२ ॥
श्रीकृष्णके उस कर्मको, जो देवताओंक लिये भी असम्भव है, देखकर वज्रधारी इन्द्रने उन मेघोंको रोक दिया । व्रजको नष्ट कर देनेकी उनकी प्रतिज्ञा झूठी हो गयी ॥ ६२ ॥
सप्तरात्रे तु निर्वृत्ते धरण्यां विगतोत्सवः । जगाम संवृतो मेघैर्वृत्रहा स्वर्गमुत्तमम् ॥ ६३ ॥
सात राततक पृथ्वीपर वर्षा करनेके पश्चात् मेघोंसे घिरे हुए वृत्रनाशक इन्द्र उत्सवहीन (आनन्दशून्य) हो (अथवा व्रजमें मनाये जानेवाले अपने उत्सवसे वञ्चित हो) उत्तम स्वर्गलोकको लौट गये ॥ ६३ ॥
निवृत्ते सप्तरात्रे तु निष्प्रयत्ने शतक्रतौ । गताभ्रे विमले व्योम्नि दिवसे दीप्तभास्करे ॥ ६४ ॥ गावस्तेनैव मार्गेणा परिजग्मुर्यथागतम् । स्वं च स्थानं ततो घोषः प्रत्ययात् पुनरेव सः ॥ ६५ ॥
सात रात बीत जानेपर जब इन्द्रका सारा प्रयत्न निष्फल हो गया, बादल नष्ट हो गये, आकाश निर्मल हो गया और दिनमें सूर्यदेव देदीप्यमान हो उठे, उस समय सारी गौएँ फिर उसी मार्गसे जैसे आयी थीं, उसी तरह लौट गयीं । सारा ब्रज पुनः अपने निवासस्थानको चला गया ॥ ६४-६५ ॥
कृष्णोऽपि तं गिरिश्रेष्ठं स्वस्थाने स्थावरात्मवान् । प्रीतो निवेशयामास शिवाय वरदो विभुः ॥ ६६ ॥
स्थिरभावसे खड़े हुए वरदायक भगवान् श्रीकृष्णने भी प्रसन्न होकर फिर जगत्के कल्याणके लिये उस श्रेष्ठ पर्वतको अपने स्थानपर स्थापित कर दिया ॥ ६६ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि गोवर्धनोद्धरणे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें श्रीकृष्णका गोवर्धनधारणविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८ ॥
GO TOP
|