श्रीहरिवंशपुराण विष्णुपर्व एकोनविंशोऽध्यायः
गोविन्दाभिषेकः
देवराज इन्द्रका आगमन, श्रीकृष्णका गोविन्दपदपर अभिषेक तथा इन्द्रका श्रीकृष्णको भावी कार्य बताकर अर्जुनकी देखभालके लिये कहना और श्रीकृष्णका उसे स्वीकार करना -
धृतं गोवर्धनं दृष्ट्वा परित्रातं च गोकुलम् । कृष्णस्य दर्शनम् शक्रो रोचयामास विस्मितः ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! जब इन्द्रने देखा कि श्रीकृष्णने गोवर्धन धारण करके गोकुलकी रक्षा कर ली, तब वे बड़े विस्मयमें पड़े । अब उन्हें श्रीकृष्णका दर्शन करनेकी इच्छा हुई ॥ १ ॥
स निर्जलाम्बुदाकारं मत्तं मदजलोक्षितम् । आरुह्यैरावतं नागमाजगाम महीतलम् ॥ २ ॥
वे जलहीन बादलके समान श्वेतवर्णवाले और मदके जलसे भीगे हुए ऐरावत नामक मदमत्त हाथीपर चढ़कर भूतलपर आये ॥ २ ॥
स ददर्शोपविष्टं वै गोवर्धनशिलातले । कृष्णमक्लिष्टकर्माणं पुरुहूतः पुरंदरः ॥ ३ ॥
अनेक नामोंसे पुकारे जानेवाले पुरंदर इन्द्रने वहाँ आकर देखा, अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीकृष्ण गोवर्धन पर्वतकी एक शिलापर बैठे हुए हैं ॥ ३ ॥
तं वीक्ष्य बालं महता तेजसा दीप्तमव्ययम् । गोपवेषधरं विष्णुं प्रीतिं लेभे पुरन्दरः ॥ ४ ॥
महान् तेजसे उद्भासित होनेवाले गोपवेषधारी विष्णुस्वरूप उन अविनाशी बालकृष्णको देखकर देवराज इन्द्रको बड़ी प्रसन्नता हुई ॥ ४ ॥
तं सोऽम्बुजदलश्यामं कृष्णं श्रीवत्सलक्षणम् । पर्याप्तनयनः शक्रः सर्वैर्नेर्त्रैरुदैक्षत ॥ ५ ॥
नीलकमलदलके समान श्यामसुन्दर एवं श्रीवत्सचिह्नविभूषित उन श्रीकृष्णको देखकर इन्द्रको अपने नेत्रोंका फल प्राप्त हो गया । उन्होंने अपने सम्पूर्ण नेत्रोंसे जी-भरकर उन्हें देखा ॥ ५ ॥
दृष्ट्वा चैनं श्रिया जुष्टं मर्त्यलोकेऽमरोपमम् । सूपविष्टं शिलापृष्ठे शक्रः स व्रीडितोऽभवत् ॥ ६ ॥
मर्त्यलोकमें रहकर भी देवोपम शोभासे सम्पन्न श्रीकृष्णको शिलापृष्ठपर सुखपूर्वक बैठा देख इन्द्रको बड़ी लज्जा हुई ॥ ६ ॥
तस्योपविष्टास्य मुखं पक्षाभ्यां पक्षिपुङ्गवः । अन्तर्द्धानं गतश्छायां चकारोरगभोजनः ॥ ७ ॥
वहाँ बैठे हुए श्रीहरिके मुखपर सर्पभोजी पक्षिराज गरुड़ अदृश्य रहकर अपने दोनों पंखोंसे छाया किये हुए थे ॥ ७ ॥
तं विविक्ते वनगतं लोकवृत्तान्ततत्परम् । उपतस्थे गजं हित्वा कृष्णं बलनिषूदनः ॥ ८ ॥
बलसूदन इन्द्र हाथी छोड़कर उतर पड़े और एकान्तमें बनके भीतर रहकर लोक-व्यवहारमें तत्पर हुए श्रीकृष्णकी सेवामें उपस्थित हुए ॥ ८ ॥
स समीपगतस्तस्य दिव्यस्रगनुलेपनः । रराज देवराजो वै वज्रपूर्णकरः प्रभुः ॥ ९ ॥
श्रीकृष्णके समीप जाकर दिव्य पुष्पोंके हार और अनुलेपन धारण करनेवाले प्रभावशाली देवराज इन्द्र बड़ी शोभा पा रहे थे । उनका हाथ वजसे परिपूर्ण था ॥ ९ ॥
किरीटेनार्कतुल्येन विद्युदुद्योतकारिणा । कुण्डलाभ्यां स दिव्याभ्यां सततं शोभिताननः ॥ १० ॥
विद्युत्के समान प्रकाश फैलानेवाले सूर्यतुल्य तेजस्वी किरीट तथा दो दिव्य कुण्डलोंसे उनके श्रीमुखकी सदा ही बड़ी शोभा होती थी ॥ १० ॥
पञ्चस्तबकलम्बेन हारिणोरसि भूषितः । सहस्रपत्रकान्तेन देहभूषणकारिणा । ईक्षमाणः सहस्रेण नेत्राणां कामरूपिणाम् ॥ ११ ॥
वे अपने वक्षःस्थलपर एक ऐसे हारसे विभूषित थे, जिसमें फूलोंके पाँच गुच्छे लटक रहे थे । खिले हुए सहस्र कमलदलके समान कान्तिमान्, सम्पूर्ण शरीरको विभूषित करनेवाले तथा इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले एक सहस्र नेत्रोंसे वे भगवान् श्रीकृष्णकी ओर देख रहे थे ॥ ११ ॥
त्रिदशाज्ञापनार्थेन मेघनिर्घोषकारिणा । अथ दिव्येन मधुरं व्याजहार स्वरेणा तम् ॥ १२ ॥
उन्होंने देवताओंको आज्ञा देनेके लिये अभ्यस्त और मेघ-गर्जनाके समान गम्भीर घोष करनेवाले दिव्य स्वरसे मधुर वाणीमें भगवानसे इस प्रकार कहा ॥ १२ ॥
इन्द्र उवाच कृष्ण कृष्ण महाबहो ज्ञातीनां नन्दिवर्द्धन । अतिदिव्यं कृतं कर्म त्वया प्रीतिमता गवाम् ॥ १३ ॥
इन्द्र बोले-कृष्ण ! कृष्ण ! ! महाबाहो ! ! ! आप सजातीय बन्धुके आनन्दकी वृद्धि करनेवाले हैं । गौओंके प्रति प्रीति रखकर आपने जो कर्म किया है, वह अति दिव्य है ॥ १३ ॥
मयोत्सृष्टेषु मेघेषु युगान्तावर्तकारिषु । यत्त्वया रक्षिता गावस्तेनास्मि परितोषितः ॥ १४ ॥
मेरे द्वारा छोड़े गये प्रलयकी पुनरावृत्ति करनेवाले मेघोंके वर्षा करनेपर भी आपने जो गौओंकी रक्षा की है, उससे मैं बहुत संतुष्ट हूँ ॥ १४ ॥
स्वायंभुवेन योगेन यश्चायं पर्वतोत्तमः । धृतो वेश्मवदाकाशे को ह्येतेन न विस्मयेत् ॥ १५ ॥
यह जो उत्तम पर्वत है, इसे आपने स्वायम्भुव योगसे आकाशमें घरकी भाँति धारण कर लिया था । आपके इस अलौकिक कर्मसे किसको आश्चर्य नहीं होगा ॥ १५ ॥
प्रतिषिद्धे मम महे मयेयं रुषितेन वै । अतिवृष्टिः कृता कृष्ण गवां वै साप्तरात्रिकी ॥ १६ ॥
श्रीकृष्ण ! जब मेरा प्रचलित उत्सव रोक दिया गया, तब मैंने रोषमें भरकर गौओंपर अपना क्रोध उतारनेके लिये सात राततक अतिवृष्टि की ॥ १६ ॥
सा त्वया प्रतिषिद्धेयं मेघवृष्टिर्दुरासदा । देवैः सदा नवगणैर्दुर्निवार्या मयि स्थिते ॥ १७ ॥
उस दुर्जय मेघवृष्टिका आपने निवारण कर दिया । मेरे रहते दानवोंसहित सम्पूर्ण देवताओंके लिये भी उस वर्षाको रोकना बहुत ही कठिन था ॥ १७ ॥
अहो मे सुप्रियं कृष्ण यत्त्वं मानुषदेहवान् । समग्रं वैष्णवं तेजो विनिगूहसि रोषितः ॥ १८ ॥
श्रीकृष्ण ! यह एक आश्चर्यमयी घटना हुई है । मेरे लिये यह बहुत ही प्रिय है कि आप मनुष्य-शरीर धारण करके भी अपने भीतर सम्पूर्ण वैष्णव तेजको छिपाये रखते हैं और रोष दिलाये जानेपर उसे प्रकट कर सकते हैं ॥ १८ ॥
साधितं देवतानां हि मन्येऽहं कार्यमव्ययम् । त्वयि मानुष्यमापन्ने युक्ते चैव स्वतेजसा ॥ १९ ॥
आप मानव-शरीरको प्राप्त होकर भी अपने वैष्णव तेजसे सम्पन्न हैं, इसलिये मैं देवताओंके कार्यको सिद्ध हुआ ही मानता हूँ । अब हमारा कोई कार्य बिगड़ नहीं सकता ॥ १९ ॥
सेत्स्यते सर्वकार्यार्थो न किंचित् परिहास्यते । देवानां यद्भवान् नेता सर्वकार्यपुरोगमः ॥ २० ॥
जब आप देवताओंके नेता हैं और सभी कार्यों में अग्रगामी रहते हैं, तब हमारा सब कार्य, समस्त प्रयोजन सिद्ध हो जायगा, कुछ भी बिगड़ने नहीं पायेगा ॥ २० ॥
एकस्त्वमसि देवानां लोकानां च सनातनः । द्वितीयं नात्र पश्यामि यस्तेषां च धुरं वहेत् ॥ २१ ॥
प्रभो ! एकमात्र आप ही सम्पूर्ण देवता तथा लोकोंके सनातन रक्षक हैं । मैं आपके सिवा दसरे किसीको यहाँ ऐसा नहीं देखता, जो उन लोकों और देवताओंकी रक्षाका भार वहन कर सके ॥ २१ ॥
यथा हि पुङ्गवः श्रेष्ठो ह्यग्रे धुरि नियोज्यते । एवं त्वमसि देवानां मग्नानां द्विजवाहनः ॥ २२ ॥
जैसे श्रेष्ठ बैल भार ढोनेके लिये सबसे आगे जोता जाता है. उसी प्रकार आप संकटमें डूबे हुए देवताओंका उद्धार करनेके लिये सबसे आगे रहते हैं । पक्षिराज गरुड़ आपके वाहन हैं । ॥ २२ ॥
त्वच्छरीरगतं कृष्ण जगत्प्रकरणं त्विदम् । ब्रह्मणा साधु निर्दिष्टं धातुभ्य इव काञ्चनम् ॥ २३ ॥
श्रीकृष्ण ! यह जो संसारकी सृष्टि है, वह सब आपके शरीरके भीतर ही है । ब्रह्माजीने तो उसका भलीभाँति निर्देशमात्र किया है । जैसे सब धातुओंमें सुवर्ण श्रेष्ठ है, उसी प्रकार समस्त देवताओंमें आप हैं ॥ २३ ॥
स्वयं स्वयंभूर्भगवान् बुद्ध्याथ वयसापि वा । न त्वानुगन्तुं शक्नोति पङ्गुर्द्रुतगतिं यथा ॥ २४ ॥
साक्षात् स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा भी अपनी बुद्धि अथवा अवस्थाके द्वारा आपका अनुसरण नहीं कर सकते-आपके साथ-साथ नहीं चल सकते । ठीक उसी तरह, जैसे पङ्ग मनुष्य शीघ्रगामी पुरुषका पीछा नहीं कर सकता-उसके साथ नहीं जा सकता ॥ २४ ॥
स्थाणुभ्यो हिमवाञ्छ्रेष्ठो ह्रदानां वरुणालयः । गरुत्मान् पक्षिणां श्रेष्ठो देवानां च भवान् वरः ॥ २५ ॥
समस्त पर्वतोंमें हिमवान् श्रेष्ठ है । सरोवरोंमें समुद्र उत्तम है । पक्षियोंमें गरुड़ तथा देवताओंमें आप श्रेष्ठ हैं ॥ २५ ॥
अपामधस्ताल्लोको वै तस्योपरि महीधराः । नागानामुपरिष्टाद् भूः पृथिव्युपरि मानुषाः ॥ २६ ॥
सबसे नीचे जललोक है, उसके ऊपर पर्वत हैं । यह पृथ्वी नागोंके ऊपर स्थित है और पृथ्वीपर मनुष्य निवास करते हैं ॥ २६ ॥
मनुष्यलोकादूर्ध्वं तु खगाणां गतिरुच्यते । आकाशस्योपरि रविर्द्वारं स्वर्गस्य भानुमान् ॥ २७ ॥
मनुष्यलोकसे ऊपर आकाशमें पक्षियोंकी गति बतायी जाती है । आकाशसे ऊपर अंशुमाली सूर्य हैं, जो स्वर्गलोकके द्वार कहे गये हैं ॥ २७ ॥
देवलोकः परस्तस्माद् विमानगमनो महान् । यत्राहं कृष्ण देवानामैन्द्रे विनिहितः पदे ॥ २८ ॥
सूर्यलोकसे ऊपर देवताओंका महान् लोक है, जहाँ विमानसे यात्रा की जाती है । श्रीकृष्ण | वहीं मुझे देवेन्द्रपदपर स्थापित किया गया है ॥ २८ ॥
स्वर्गादूर्ध्वं ब्रह्मलोको ब्रह्मर्षिगणसेवितः । तत्र सोमगतिश्चैव ज्योतिषां च महात्मनाम् ॥ २९ ॥
स्वर्गसे ऊपर ब्रह्मलोक है, जो ब्रह्मर्षिगणोंसे सेवित है । वहाँतक चन्द्रमाकी तथा महात्मा ग्रह-नक्षत्रोंकी गति है ॥ २९ ॥
तस्योपरि गवां लोकः साध्यास्तं पालयन्ति हि । स हि सर्वगतः कृष्ण महाकाशगतो महान् ॥ ३० ॥
ब्रह्मलोकसे ऊपर गोलोक है, जिसका साध्यगण पालन करते हैं । श्रीकृष्ण ! वह महान् लोक सर्वव्यापी है । महाकाशमें व्यापकरूपसे स्थित है ॥ ३० ॥
उपर्युपरि तत्रापि गतिस्तव तपोमयी । यां न विद्मो वयं सर्वे पृच्छन्तोऽपि पितामहम् ॥ ३१ ॥
उसमें भी आपकी तपोमयी गति सर्वोपरि है । हम पितामहसे पूछते रहनेपर भी अबतक आपकी उस गतिको नहीं जान सके हैं ॥ ३१ ॥
लोकस्त्वधो दुष्कृतिनां नागलोकस्तु दारुणः । पृथिवी कर्मशीलानां क्षेत्रं सर्वस्य कर्मणः ॥ ३२ ॥
भयंकर नागलोक सबसे नीचे है । वह पापाचारियोंको प्राप्त होनेवाला लोक या स्थान है । जो स्वभावसे ही कर्मठ हैं, उनके लिये यह भूलोक है । यह समस्त कर्मका क्षेत्र है ॥ ३२ ॥
खमस्थिराणां विषयो वायुना तुल्यवृत्तिनाम् । गतिः शमदमाढ्यानां स्वर्गः सुकृतकर्मणाम् ॥ ३३ ॥
जो अस्थिर हैं, जिनकी वृत्ति वायुके समान है, उनका आश्रय आकाश या अन्तरिक्षलोक है । जो शम-दमसे सम्पन्न हो पुण्य-कर्ममें लगे रहते हैं, उन मनुष्योंकी गति स्वर्गलोक है ॥ ३३ ॥
ब्राह्मे तपसि युक्तानां ब्रह्मलोकः परा गतिः । गवामेव तु गोलोको दुरारोहा हि सा गतिः ॥ ३४ ॥
जो ब्राह्म-तपमें संलग्न रहनेवाले लोग हैं, उनकी परम गति ब्रह्मलोक है । गोलोक तो गौओंको ही सुलभ होनेवाला लोक है । वह गति दूसरोंके लिये दुरारोह (दुर्लभ) है ॥ ३४ ॥
स तु लोकस्त्वया कृष्ण सीदमानः कृतात्मना । धृतो धृतिमता वीर निघ्नतोपद्रवान् गवाम् ॥ ३५ ॥
वीर श्रीकृष्ण ! इस समय (मेरे द्वारा वर्षाके कारण) वही गौओंका लोक संकटमें पड़ गया था, जिसे आप-जैसे धैर्यशाली पुण्यात्मा पुरुषने उन गौऑपर आये हुए उपद्रवोंका नाश करके बचाया है ॥ ३५ ॥
तदहं समनुप्राप्तो गवां वाक्येन चोदितः । ब्रह्मणश्च महाभाग गौरवात्तव चागतः ॥ ३६ ॥
अतः महाभाग ! मैं (दिव्य कामधेनु आदि) गौओंके तथा ब्रह्माजीके वचनोंसे प्रेरित होकर यहाँ आया हूँ । आपके प्रति मेरे मनमें जो गौरव है; उससे भी मुझे यहाँ आनेमें प्रेरणा मिली है ॥ ३६ ॥
अहं भूतपतिः कृष्ण देवराजः पुरंदरः । अदितेर्गर्भपर्याये पूर्वजस्ते पुराकृतः ॥ ३७ ॥
श्रीकृष्ण ! मैं वही समस्त भूतोंका अधिपति देवराज इन्द्र हूँ, जिसे आपने पूर्वकालमें माता अदितिके गर्भ में आकर अपना बड़ा भाई बनाया था ॥ ३७ ॥
स्वतेजस्तेजसा चैव यत्ते दर्शितवानहम् । देवरूपेण तत् सर्वं क्षन्तुमर्हसि मे विभो ॥ ३८ ॥
प्रभो ! मैंने जो देवरूपसे उपस्थित होकर तेजसे अपना तेज प्रकट करके आपको दिखाया है, मेरे उस सारे अपराधको आप क्षमा कर दें ॥ ३८ ॥
एवं क्षान्तमनाः कृष्ण स्वेन सौम्येन तेजसा । ब्रह्मणः शृणु मे वाक्यं गवां च गजविक्रम ॥ ३९ ॥
हाथीके समान पराक्रमी श्रीकृष्ण ! इस प्रकार आप अपने सौम्य तेजसे मनमें अमाभाव लाकर ब्रह्माजी तथा गौओंके कहे हुए इस वचनको मेरे मुखसे सुनिये- ॥ ३९ ॥
आह त्वां भगवान् ब्रह्मा गावश्चाकाशगा दिवि । कर्मभिस्तोषिता दिव्यैस्तव संरक्षणादिभिः ॥ ४० ॥
भगवान् ब्रह्मा तथा धुलोकमें स्थित हुई आकाशगामिनी गौओंने आपको यह संदेश दिया है कि 'हम आपके गोसंरक्षण आदि दिव्य कर्मोंसे बहुत संतुष्ट हैं ॥ ४० ॥
भवता रक्षिता गावो गोलोकश्च महानयम् । यद् वयं पुङ्गवैः सार्धं वर्द्धामः प्रसवैस्तथा ॥ ४१ ॥
आपने जो गौओंकी रक्षा की है, उससे इस महान् गोलोकका संरक्षण हुआ है; क्योंकि अब हम अपने साँड़ों और संतानोंके साथ दिनोंदिन बढ़ रही हैं ॥ ४१ ॥
कर्षुकान्पुङ्गवैर्बाह्यैर्मेध्येन हविषा सुरान् । श्रियं शकृत्प्रवृत्तेन तर्पयिष्याम कामगाः ॥ ४२ ॥
'हम गौएँ सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली हैं । अब हल या गाड़ीमें जोतने योग्य बलिष्ठ बैल देकर हम किसानोंको संतुष्ट करेंगी । दूध-धीके द्वारा पवित्र हविष्य प्रस्तुत करके देवताओंकी तृप्ति करेंगी और गोबर देकर साक्षात् श्रीदेवीको संतुष्ट करती रहेंगी ॥ ४२ ॥
तदस्माकं गुरुस्त्वं हि प्राणदश्च महाबलः । अद्य प्रभृति नो राजा त्वमिन्द्रो वै भव प्रभो ॥ ४३ ॥
प्रभो ! आप महान् बलशाली प्रभु हमारा परित्राण करनेके कारण हमारे गुरुरूप हैं, अतः आजसे आप हम गौओंके राजा इन्द्र हो जायें ॥ ४३ ॥
तस्मात् त्वं काञ्चनैः पूर्णैर्दिव्यस्य पयसो घटैः । एभिरद्याभिषिञ्चस्व मया हस्तावनामितैः ॥ ४४ ॥
अतः (गौओंके इस अनुरोधके अनुसार) मेरे द्वारा हाथपर रखकर प्रस्तुत किये गये इन दिव्य जलसे भरे हुए सोनेके कलशोंद्वारा आप अपना अभिषेक करें ॥ ४४ ॥
अहं किलेन्द्रो देवानां त्वं गवामिन्द्रतां गतः । गोविन्द इति लोकास्त्वां स्तोष्यन्ति भुवि शाश्वतम् ॥ ४५ ॥
मैं देवताओंका इन्द्र हूँ और आप गौओंके इन्द्र हो गये ! आजसे इस भूतलपर सब लोग आप सनातन प्रभुको 'गोविन्द' कहकर आपका स्तवन करेंगे ॥ ४५ ॥
ममोपरि यथेन्द्रस्त्वं स्थापितो गोभिरीश्वरः । उपेन्द्र इति कृष्ण त्वां गास्यन्ति दिवि देवताः ॥ ४६ ॥
श्रीकृष्ण ! गौओंने आप परमेश्वरको जो मेरे ऊपर इन्द्र बनाकर प्रतिष्ठित किया है, उसके अनुसार देवतालोग आपको 'उपेन्द्र' नाम देकर धुलोकमें आपकी कीर्तिका गान करेंगे ॥ ४६ ॥
ये चेमे वार्षिका मासाश्चत्वारो विहिता मम । एषामर्धं प्रयच्छामि शरत्कालं तु पश्चिमम् ॥ ४७ ॥
मेरी आराधनाके लिये जो ये वकि चार महीने विहित हुए हैं, इनका पिछला आधा भाग, जिसे शरत्काल कहते हैं, मैं आपको दे रहा हूँ ॥ ४७ ॥
अद्य प्रभृति मासौ द्वौ ज्ञास्यन्ति मम मानवाः । वर्षार्द्धे च ध्वजो मह्यं ततः पूजामवाप्स्यसि । ममाम्बुप्रभवं दर्पं तदा त्यक्ष्यन्ति बर्हिणः ॥ ४८ ॥
सब मनुष्य आजसे 'श्रावण और भाद्रपद' इन दो ही महीनोंको मेरे लिये नियत मानेंगे । इनके साथ वर्षाका आधा भाग व्यतीत हो जानेपर इन्द्रवतकी समासिके चिह्नभूत मेरे ध्वजको स्थापना होगी । उसके बाद आपकी पूजा होने लगेगी । उस समय मोर मेरे द्वारा बरसाये गये जलसे उत्पन्न हुए मदको त्याग देंगे ॥ ४८ ॥
अल्पवाचो गतमदा ये चान्ये मेघनादिनः । शान्तिं सर्वे गमिष्यन्ति मम कालविचारिणः ॥ ४९ ॥
उनकी बोली कम हो जायगी और उनका सारा मद उतर जायगा । मेघोंको देखकर गर्जना करनेवाले जो दूसरे प्राणी हैं, वे सब भी मेरे समयका विचार करके शान्ति (मौन) धारण कर लेंगे ॥ ४९ ॥
त्रिशङ्क्वगस्त्यचरितामाशां च प्रचरिष्यति । सहस्ररश्मिरादित्यस्तापयन् स्वेन तेजसा ॥ ५० ॥
वर्षामें ही सहस किरणोंवाले सूर्यदेव अपने तेजसे जगत्को ताप देते हुए 'त्रिशङ्क' और 'अगस्त्यमुनि' के द्वारा उपभोगमें लायी हुई दक्षिण दिशामें संचार करेंगे ॥ ५० ॥
ततः शरदि युक्तायां मौनकामेशु बर्हिषु । याचमाने खगे तोयं विप्लुतेषु प्लवेषु च ॥ ५१ ॥ हंससारसपूर्णेषु नदीनां पुलिनेषु च । मत्तक्रौञ्चप्रणादेषु प्रमत्तवृषभेषु च ॥ ५२ ॥ गोषु चैव प्रहृष्टासु क्षरन्तीषु पयो बहु । निवृत्तेषु च मेघेषु निर्यात्य जगतो जलम् ॥ ५३ ॥
तदनन्तर जब शरद्-ऋतुका योग प्राप्त होगा, मोर मौन रहनेकी इच्छा करेंगे, पपीहे जलकी याचना करने लगेंगे, नदियोंमें नाव चलना बंद हो जायगा (अर्थात् नदियोंमें जलकी बाढ़ नहीं रह जायगी), सरिताओंके तट हंसों और सारसोंसे भरे रहेंगे, मदमत्त क्रौञ्च पक्षी वहाँ कलरव करते होंगे, साँड़ मतवाले होकर घूमेंगे, गौएँ हमें भरकर बहुत दूध देंगी, संसारके लिये जलकी वर्षा करके बादल विलीन हो जायेंगे ॥ ५१-५३ ॥
आकाशे शस्त्रसंकाशे हंसेषु च चरत्सु च । जातपद्मेषु तोयेशु वापीषु च सरत्सु च ॥ ५४ ॥ तडागेषु च कान्तेषु तोयेषु विमलेषु च । कलमावनताग्रासु कृष्णकेदारपङ्क्तिषु ॥ ५५ ॥ मध्यस्थं सलिलारम्भं कुर्वन्तीषु नदीषु च । सुसस्यायां च सीमायां मनोहर्यां मुनेरपि ॥ ५६ ॥ पृथिव्यां पृथुराष्ट्रायां रम्यायां वर्षसंक्षये । श्रीमत्सु पङ्क्तिमार्गेषु फलवत्सु तृणेषु च । इक्षुमत्सु च देशेषु प्रवृत्तेषु मखेषु च ॥ ५७ ॥ ततः प्रवर्त्स्यते पुण्या शरत् सुप्तोत्थिते त्वयि । लोकेऽस्मिन् कृष्ण निखिले यथैव त्रिदिवे तथा ॥ ५८ ॥ नरास्त्वां चैव मां चैव ध्वजाकारासु यष्टिषु । महेन्द्रं चाप्युपेन्द्रं च महयन्ति महीतले ॥ ५९ ॥
आकाश शस्त्रोंकी भाँति चमक उठेगा-निर्मल हो जायगा, हंस सब ओर विचरने लगेंगे, बावड़ी और सरोवरोंके जलोंमें कमल उत्पन्न हो जायेंगे, (उनके खिलनेसे) तड़ागोंकी शोभा बढ़ जायगी-वे कमनीय हो उठेंगे, सभी जलाशयोंके जल निर्मल हो जायेंगे, खेतोंकी श्रेणीबद्ध काली-काली क्यारियोंमें धानोंकी पकी बालें अग्रभागकी ओरसे लटकती होंगी, नदियाँ अपने जलका बहाव बीचमें कर लेंगी, ब्रजों अथवा गाँवोंकी सीमाएँ (खेतोंकी भूमि) सुन्दर सस्यों (अनाजों)-से सम्पन्न हो मुनियोंके भी मनको मोह लेनेवाली हो जायगी, वर्षा बोत्त जानेपर जब बहुसंख्यक राष्ट्रॉसे युक्त पृथ्वी रमणीय दिखायी देने लगेगी, पंक्तिबद्ध मार्ग शोभायमान हो जायेंगे, तृण-बेलों तथा ओषधियोंमें फल लग जायगे. स्थान-स्थानपर ईखकी खेती लहराती दिखायी देगी. (आग्रायण और वाजपेय आदि) बज्ञ आरम्भ होने लगेंगे तथा आप (भगवान् विष्णु) जब सोकर जाग उठेंगे, उस समय पुण्यमयी शरद्-ऋतुकी प्रवृत्ति होगी । श्रीकृष्ण ! वह शरत्काल प्राप्त होनेपर स्वर्गलोककी ही भाँति इस समस्त जगत्में रहनेवाले मनुष्य भी भूतलपर ध्वजाकार डंडोंमें मुझ महेन्द्रकी तथा आप उपेन्द्रको पूजा करेंगे ॥ ५४-५९ ॥
ये चावयोः स्थिरे वृत्ते महेन्द्रोपेन्द्रसंज्ञिते । मानवाः प्रणमिष्यन्ति तेषां नास्त्यनयागमः ॥ ६० ॥
जो मानव हम दोनोंसे सम्बन्ध रखनेवाले इस सनातन आचार (महेन्द्रोपेन्द्रमख नामक उत्सव)-में हमें प्रणाम करेंगे, उन्हें कभी अनातिका सामना नहीं करना पड़ेगा ॥ ६० ॥
ततः शक्रस्तु तान् गृह्य घटान् दिव्यपयोधरान् । अभिषेकेण गोविन्दं योजयामास योगवित् ॥ ६१ ॥
तदनन्तर योगवना इन्द्रने दिव्य (मन्दाकिनीका) जल धारण करनेवाले उन कलशोंको हाथमें लेकर भगवान् श्रीकृष्णका 'गोविन्द (गौओंके इन्द्र)-पदपर अभिषेक किया ॥ ६१ ॥
दृष्ट्वा तमभिषिक्तं तु गावस्ताः सह यूथपैः । स्तनैः प्रस्रवयुक्तैश्च सिषिचुः कृष्णमव्ययम् ॥ ६२ ॥
(इन्द्रद्वारा) उनका अभिषेक हुआ देख यूथपतियों (साँड़ों)-सहित उन दिव्य गौओंने भी दूधकी धारा बहाते हुए अपने थनोंद्वारा अविनाशी श्रीकृष्णका अभिषेचन किया ॥ ६२ ॥
मेघाश्च दिवि युक्ताभिः सामृताभिः समन्ततः । सिषिचुस्तोयधाराभिरभिषिच्य तमव्ययम् ॥ ६३ ॥
इसके बाद मेघोंने भी आकाशमें छोड़ी हुई अमृतयुक्त जलधाराओंद्वारा श्रीकृष्णको सब ओरसे नहलाकर उन अविनाशी ईश्वरका अभिषेक-कर्म सम्पन्न किया ॥ ६३ ॥
वनस्पतीनां सर्वेषां सुस्रावेन्दुनिभं पयः । ववर्षुः पुष्पवर्षं च नेदुस्तूर्याणि चाम्बरे ॥ ६४ ॥
तदनन्तर सभी वनस्पतियोंकी डालियोंसे चन्द्रमाके समान श्वेत दुग्ध टपकने लगा (इस तरह उन वनस्पतियोंने भी भगवान्का अभिषेक किया) । देवताओंने फूलोंकी वर्षा की तथा आकाशमें दिव्य बाजे अपनेआप बज उठे ॥ ६४ ॥
अस्तुवन् मुनयः सर्वे वाग्भिर्मन्त्रपरायणाः । एकार्णवे विविक्तं च दधार वसुधा वपुः ॥ ६५ ॥
तत्पश्चात् सभी मन्त्रपरायण मुनियोंने भगवान् श्रीकृष्णका स्तवन किया । पृथ्वीने अपने उस स्वरूपको धारण किया, जो एकार्णवसे पृथक् होनेपर उसे प्राप्त हुआ था ॥ ६५ ॥
प्रसादं सागरा जग्मुर्ववुर्वाता जगद्धिताः । मार्गस्थोऽपि बभौ भानुश्चन्द्रो नक्षत्रसंयुतः ॥ ६६ ॥
समस्त समुद्रोंके जल प्रसन्न (स्वच्छनिर्मल) हो गये । वायु जगत्के लिये हितकारक होकर बहने लगी । सूर्यदेव अपने समुचित मार्गपर स्थित रहकर प्रकाशित होने लगे । चन्द्रमा नक्षत्रोंसे संयुक्त होकर सुशोभित होने लगे ॥ ६६ ॥
ईतयः प्रशमं जग्मुर्निर्वैररचना नृपाः । प्रवालपत्रशबलाः पुष्पवन्तश्र पादपाः ॥ ६७ ॥
अतिवृष्टि आदि ईतियाँ शान्त हो गयीं । राजाओंके सभी कार्य वैरभावसे रहित होने लगे । वृक्ष फूलोंसे भर गये और नूतन पल्लवों तथा हरे-हरे पत्तोंसे विचित्र शोभा धारण करने लगे ॥ ६७ ॥
मदं प्रसुस्रुवुर्नागा यातास्तोषं वने मृगाः । अलंकृता गात्ररुहैर्धातुभिर्भान्ति पर्वताः ॥ ६८ ॥
हाथी मद बहाने लगे । वनमें मृग आदि पशु संतोष प्रास करने लगे । पर्वत अपने ऊपर उगे हुए वृक्षों तथा विभिन्न धातुओंसे शोभा पाने लगे ॥ ६८ ॥
देवलोकोपमो लोकस्तृप्तोऽमृतरसैरिव । आसीत्कृष्णाभिषेको हि दिव्यस्वर्गरसोक्षितः ॥ ६९ ॥
सम्पूर्ण जगत् देवलोकके समान सुखी हो गया, मानो उसे अमृत-रससे तृप्त कर दिया गया हो । इस प्रकार दिव्य स्वर्गीय रस (जल)से सिक्त होकर श्रीकृष्णका वह अभिषेक कर्म सम्पन्न हुआ ॥ ६९ ॥
अभिषिक्तं तु तं गोभिः शक्रो गोविन्दमव्ययम् । दिव्यमाल्याम्बरधरं देवदेवोऽब्रवीदिदम् ॥ ७० ॥
गौओंद्वारा अभिषिक्त होकर दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण करनेवाले अविनाशी गोविन्दसे देवदेव इन्द्रने इस प्रकार कहा- ॥ ७० ॥
एष ते प्रथमः कृष्ण नियोगो गोषु यः कृतः । श्रूयतामपरं कृष्ण ममागमनकारणम् ॥ ७१ ॥
श्रीकृष्ण ! यह मैंने आपको अपने आगमनका प्रथम हेतु बताया है, जिसके अनुसार गौओंकी आज्ञाका पालन किया गया है । अब मेरे आनेका जो दूसरा कारण है, उसे भी सुन लीजिये ॥ ७१ ॥
क्षिप्रं प्रसाध्यतां कंसः केशी च तुरगाधमः । अरिष्टश्च मदाविष्टो राजराज्यं ततः कुरु ॥ ७२ ॥
मुझे यह कहना है कि आप शीघ्र ही कंस तथा अश्वोंमें अधम केशीका भी वध कर डालिये । मदमत्त अरिष्टासुरको यमलोक भेज दीजिये । तदनन्तर राजाओंपर शासन कीजिये ॥ ७२ ॥
पितृष्वसरि जातस्ते ममांशोऽहमिव स्थितः । स ते रक्ष्यश्च मान्यश्च सख्ये च विनियुज्यताम् ॥ ७३ ॥
आपकी बुआ कुन्तीके गर्भसे मेरा अंश उत्पन्न हुआ है, जो मेरे ही समान है । आप उसकी रक्षा करें और उसे आदर दें तथा अपना सखा बना लें ॥ ७३ ॥
त्वया ह्यनुगृहीतस्य तव वृत्तानुवर्तकः । त्वद्वशे वर्तमानश्च प्राप्स्यते विपुलं यशः ॥ ७४ ॥
आपसे अनुगृहीत होकर वह आपके बताये हुए आचारका पालन करेगा और सदा आपकी आज्ञाके अधीन रहकर भूमण्डलमें महान् यश प्राप्त कर लेगा ॥ ७४ ॥
भारतस्य च वंशस्य स वरिष्ठो धनुर्धरः । भविष्यत्यनुरूपश्च त्वदृते न च रंस्यते ॥ ७५ ॥
वह भरतवंशका सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होगा । आपकी इच्छाके अनुरूप बनकर रहेगा और आपके बिना कभी कहीं भी उसका मन नहीं लगेगा ॥ ७५ ॥
भारतं त्वयि चायत्तं तस्मिंश्च पुरुषोत्तमे । उभाभ्यामपि संयोगे यास्यन्ति निधनं नृपाः ॥ ७६ ॥
आप और उस पुरुषप्रवर कुन्तीकुमारपर ही महाभारत-युद्ध अवलम्बित होगा । आप दोनोंका संयोग प्राप्त होनेपर राजालोग युद्धमें मारे जायेंगे' ॥ ७६ ॥
प्रतिज्ञातं मया कृष्ण ऋषिमध्ये सुरेषु च । मया पुत्रोऽर्जुनो नाम सृष्टः कुन्त्यां कुलोद्वहः ॥ ७७ ॥
'श्रीकृष्ण ! मैंने ऋषियों तथा देवताओंके बीचमें इस बातका विज्ञापन कर दिया है कि कुन्तीके गर्भसे मेरे द्वारा जिस कुलदीपक पुत्रकी उत्पत्ति हुई है, उसका नाम अर्जुन है ॥ ७७ ॥
सोऽस्त्राणां पारतत्त्वज्ञः श्रेष्ठश्चापाविकर्षणे । तं प्रवेक्ष्यन्ति वै सर्वे राजानः शस्त्रयोधिनः ॥ ७८ ॥
वह अस्वोंकी विद्यामें पारंगत है । धनुषको खींचने में सबसे श्रेष्ठ है । शस्त्रोंद्वारा युद्ध करनेवाले सब नरेश उसीमें विलीन हो जायेंगे ॥ ७८ ॥
अक्षौहिणीस्तु शूराणां राज्ञां संग्रामशालिनाम् । स एकः क्षत्रधर्मेण योजयिष्यति मृत्युना ॥ ७९ ॥
संग्राममें शोभा पानेवाले शूरवीर राजाओंकी कई अक्षौहिणी सेनाओंको वह अकेला ही क्षत्रियधर्मके अनुसार युद्ध करके मौतके घाट उतार देगा ॥ ७९ ॥
तस्यास्त्रचरितं मार्गं धनुषो लाघवेन च । नानुयास्यन्ति राजानो देवा वा त्वां विना प्रभो ॥ ८० ॥
प्रभो ! आपको छोड़कर दूसरे कोई देवता अथवा भूतलके नरेश अर्जुनके अस्त्रमार्गका अनुसरण नहीं कर सकेंगे । उसमें जो धनुष चलानेकी फुर्ती है, उसके द्वारा भी कोई उसकी समानता नहीं कर सकता ॥ ८० ॥
स ते बन्धुः सहायश्च संग्रामेषु भविष्यति । तस्य योगो विधातव्यस्त्वया गोविन्द मत्कृते ॥ ८१ ॥
गोविन्द ! युद्धके अवसरोंपर अर्जुन आपका सच्चा बन्धु एवं सहायक होगा । मेरे लिये अथवा मेरे कहनेसे आपको उसे अध्यात्मविद्याका उपदेश अवश्य करना चाहिये ॥ ८१ ॥
द्रष्टव्यश्च यथाहं वै त्वया मान्यश्च नित्यशः । ज्ञाता त्वमेव लोकानामर्जुनस्य च नित्यशः ॥ ८२ ॥
आप अर्जुनको उसी तरह अपनापनकी दृष्टि से देखें, जैसा मुझे देखा करते हैं । प्रतिदिन उसका आदर करते रहें । आप ही सम्पूर्ण लोकोंके ज्ञाता हैं, अत: अर्जुनका भी सदा ध्यान रखें ॥ ८२ ॥
त्वया च नित्यं संरक्ष्य आहवेषु महत्सु सः । रक्षितस्य त्वया तस्य न मृत्युः प्रभविष्यति ॥ ८३ ॥
बड़े-बड़े युद्धके अवसरोंपर भी आपको नित्यप्रति उसकी रक्षा करनी चाहिये । आपसे सुरक्षित हुए अर्जुनपर मृत्युका वश नहीं चल सकेगा ॥ ८३ ॥
अर्जुनं विद्धि मां कृष्ण मां चैवात्मानमात्मना । आत्मा तेऽहं यथा शश्वत् तथैव तव सोऽर्जुनः ॥ ८४ ॥
श्रीकृष्ण ! आप अर्जुनको मेरा ही स्वरूप समझें और मुझे भी हृदयसे अपना आत्मा स्वीकार करें । जैसे मैं सदा ही आपका आत्मा हूँ, उसी प्रकार वह अर्जुन भी आपका आत्मा ही है ॥। ८४ ॥
त्वया लोकानिमाञ्जित्वा बलेर्हस्तात् त्रिभिः क्रमैः । देवतानां कृतो राजा पुरा ज्येष्ठक्रमादहम् ॥ ८५ ॥
पूर्वकालमें आपने तीन पोंद्वारा इन तीनों लोकोंको नापकर बलिके हाथसे अपने अधिकारमें ले लिया और मुझे ही अपना बड़ा भाई मानकर देवताओंका राजा बना दिया ॥ ८५ ॥
त्वां च सत्यमयं ज्ञात्वा सत्येष्टं सत्यविक्रमम् । सत्येनोपेत्य देवा वै योजयन्ति रिपुक्षये ॥ ८६ ॥
आप सत्यमय हैं, सत्यरूपी यज्ञद्वारा आपका यजन हुआ है तथा आप सत्यपराक्रमी हैं, ऐसा जानकर देवतालोग सत्यभावसे ही आपकी शरणमें आते और आपको शत्रु-संहारके कार्यमें लगाते हैं ॥ ८६ ॥
सोऽर्जुनो नाम मे पुत्रः पितुस्ते भगिनीसुतः । इह सौहार्दमायातु भूत्वा सहचरस्तव ॥ ८७ ॥
अर्जुन नामसे प्रसिद्ध मेरा पुत्र आपके पिताकी बहिन (दुआ)-का बेटा है । वह इस जगत्में आपका सहचर होकर आपके साथ पूर्ण सौहार्द स्थापित करे ॥ ८७ ॥
तस्य ते युद्ध्यतः कृष्ण स्वस्थानेऽपि गृहेऽपि वा । वोढव्या पुङ्गवेनेव धूः सदा रणमूर्धनि ॥ ८८ ॥
श्रीकृष्ण ! वह युद्ध कर रहा हो, अपने स्थानपर हो अथवा घरमें बैठा हो, आपको बलिष्ठ वृषभकी भाँति सदा उसका भार संभालना चाहिये । युद्धके मुहानेपर तो सदा ही आपको उसकी रक्षाका बोझ उठाना है' ॥ ८८ ॥
कंसे विनिहते कृष्ण त्वया भाव्यर्थदर्शिना । अभितस्तन्महद् युद्धं भविष्यति महीक्षिताम् ॥ ८९ ॥
'श्रीकृष्ण ! आप तो भविष्यमें होनेवाली घटनाओंको भी प्रत्यक्षकी भाँति देखनेवाले हैं (अतः आपसे कुछ भी अज्ञात नहीं है) । जब कंस आपके द्वारा मार डाला जायगा, तब सब ओरसे आये हुए राजाओंका वह महान् युद्ध (महाभारत) होगा ॥ ८९ ॥
तत्र तेषां नृवीराणामतिमानुषकर्मणाम् । विजयस्यार्जुनो भोक्ता यशसा त्वं च योक्ष्यसे ॥ ९० ॥
उस युद्ध में अतिमानव (अलौकिक) कर्म करनेवाले उन नरवीर राजाओंको जीतकर अर्जुन विजय-सुखका उपभोग करेगा और आप महान् सुयशके भागी होंगे ॥ ९० ॥
एतन्मे कृष्ण कार्त्स्न्येन कर्तुमर्हसि भाषितम् । यद्यहं ते सुराश्चैव सत्यं च प्रियमच्युत ॥ ९१ ॥
अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले श्रीकृष्ण ! यदि मैं, सम्पूर्ण देवता तथा सत्य आपको प्रिय हैं तो मैंने जो कुछ यहाँ कहा है, वह सब कार्य आपको पूर्ण करना चाहिये' ॥ ९१ ॥
शक्रस्य वचनं श्रुत्वा कृष्णो गोविन्दतां गतः । प्रीतेन मनसा युक्तः प्रतिवाक्यं जगाद ह ॥ ९२ ॥
इन्द्रका यह वचन सुनकर 'गोविन्द'-भावको प्राप्त हुए श्रीकृष्णने प्रसन्नमनसे युक्त होकर इस प्रकार उत्तर दिया- ॥ ९२ ॥
प्रीतोऽस्मि दर्शनाद् देव तव शक्र शचीपते । यत्त्वयाभिहितं चेदं न किंचित् परिहास्यते ॥ ९३ ॥
'देव ! शचीवल्लभ शक्र ! मैं तो आपके दर्शनसे ही प्रसन्न हो गया हूँ । आपने यह जो कुछ कहा है, वह सब पूरा किया जायगा; कुछ भी छोड़ा नहीं जायगा ॥ ९३ ॥
जानामि भवतो भावां जानाम्यर्जुनसंभवम् । जाने पितृष्वसारं च पाण्डोर्दत्तां महात्मनः ॥ ९४ ॥
आपका मेरे प्रति जो भाव है, उसे मैं जानता हूँ । मुझे अर्जुनके जन्मका भी पता है । महात्मा पाण्डुके साथ जिनका विवाह हुआ, उन अपनी बुआ कुन्तीको भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ ॥ ९४ ॥
युधिष्ठिरं च जानामि कुमारं धर्मनिर्मितम् । भीमसेनं च जानामि वायोः संतानजं सुतम् ॥ ९५ ॥
धर्मक द्वारा उत्पन्न हुए कुन्तीकुमार युधिष्ठिरसे भी मैं परिचित हूँ । वायुको संतान होकर उत्पन्न हुए अपनी बुआके बेटे भीमसेनको भी मैं जानता हूँ ॥ ९५ ॥
अश्विभ्यां साधु जानामि सृष्टं पुत्रद्वयं शुभम् । नकुलं सहदेवं च माद्रीकुक्षिगतावुभौ ॥ ९६ ॥
दोनों अश्विनीकुमारोंने जिन दो शुभलक्षण पुत्रोंकी सृष्टि की है तथा जो माद्रीके गर्भमें रह चुके हैं, उन दोनों भाई नकुल और सहदेवके विषयमें भी मैं भलीभांति जानकारी रखता हूँ ॥ ९६ ॥
कानीनं चापि जानामि सवितुः प्रथमं सुतं । पितृष्वसरि कर्णं वै प्रसूतं सूततां गतम् ॥ ९७ ॥
बुआ कुन्तीके गर्भसे सूर्यदेवका संयोग पाकर कन्यावस्थामें जो प्रथम पुत्र उत्पन्न हुआ था तथा जन्म लेनेके बाद जो सूत-भावको प्राप्त हो गया है, उस कर्णसे भी मैं अपरिचित नहीं हूँ ॥ ९७ ॥
धार्तराष्ट्राश्च मे सर्वे विदिता युद्धकाङ्क्षिणः । पाण्डोरुपरमं चैव शापाशनिनिपातजम् ॥ ९८ ॥
युद्धकी इच्छा रखनेवाले समस्त धृतराष्ट्रपुत्रोंको भी मैं जानता हूँ । शापरूपी वज्रपातके कारण राजा पाण्डुका जो निधन हुआ है, वह भी मुझसे छिपा नहीं है ॥ ९८ ॥
तद् गच्छ त्रिदिवं शक्र सुखाय त्रिदिवौकसाम् । नार्जुनस्य रिपुः कश्चिन्ममाग्रे प्रभविष्यति ॥ ९९ ॥
अतः देवराज इन्द्र ! आप देवताओंको सुख देनेके लिये स्वर्गलोकको पधारिये । मेरे सामने अर्जुनका कोई भी शत्रु उसे परास्त नहीं कर सकेगा ॥ ९९ ॥
अर्जुनार्थे च तान् सर्वान् पाण्डवानक्षतान् युधि । कुन्त्या निर्यातयिष्यामि निवृत्ते भारते मृधे ॥ १०० ॥
अर्जुनके लिये ही मैं महाभारतयुद्ध समाप्त होनेपर उन समस्त पाण्डवोंको कुन्तीकी सेवामें सकुशल लौटा दूंगा' ॥ १०० ॥
यच्च वक्ष्यति मां शक्र तनूजस्तव सोऽर्जुनः । भृत्यवत् तत् करिष्यामि तव स्नेहेन यन्त्रितः ॥ १०१ ॥
"देवेन्द्र ! आपका पुत्र अर्जुन मुझसे जो कुछ कहेगा, उसे मैं आपके स्नेह-पाशसे बँधकर आज्ञाकारी सेवककी भाँति पूर्ण करूँगा' ॥ १०१ ॥
सत्यसन्धस्य तच्छ्रुत्वा प्रियं प्रीतस्य भाषितम् । कृष्णस्य साक्षात् त्रिदिवं जगाम त्रिदशेश्वरः ॥ १०२ ॥
सत्यप्रतिज्ञ श्रीकृष्णके प्रसन्नतापूर्वक कहे गये इस प्रिय वचनको सुनकर देवेश्वर इन्द्र साक्षात् स्वर्गलोकको चले गये ॥ १०२ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि गोविन्दाभिषेके एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें गोविन्दका अभिषेकविषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९ ॥
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