श्रीहरिवंशपुराण विष्णुपर्व विंशोऽध्यायः
हल्लीसकक्रीडनम्
श्रीकृष्णका अलौकिक चरित्र देखकर आशङ्कित हुए गोपोंका उनसे प्रश्र और श्रीकृष्णद्वारा उत्तर तथा उनकी रासलीलाका संक्षेपसे वर्णन -
वैशंपायन उवाच गते शक्रे ततः कृष्णः पूज्यमानो व्रजालयैः । गोवर्धनधरः श्रीमान् विवेश व्रजमेव ह ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! देवराज इन्द्रके चले जानेपर व्रजवासियोंद्वारा पूजित एवं प्रशंसित होते हुए गोवर्धनधारी श्रीमान् कृष्णने व्रजमें ही प्रवेश किया ॥ १ ॥
तस्य वृद्धाभिनन्दन्ति ज्ञातयश्च सहोषिताः । धन्याः स्मोऽनुगृहीताः स्मस्त्वद्वृत्तेन नयेन च ॥ २ ॥
वहाँ बड़े-बूढ़े गोप और साथ रहनेवाले जाति-भाई उनका अभिनन्दन करते हुए बोले-'देवतुल्य पराक्रमी गोविन्द ! हम धन्य हैं । तुमने अपने व्यवहार और नीतिसे हमलोगोंपर महान् अनुग्रह किया है । तुम्हारे प्रसादसे गौओंका वर्षाके भयसे उद्धार हुआ और हमलोग भी महान् भवसे पार हो गये ॥ २-३ ॥
गावो वर्षभयात् तीर्णा वयं तीर्णा महाभयात् । तव प्रसादाद् गोविन्द देवतुल्यपराक्रम ॥ ३ ॥
गोपते ! हम तुम्हारे सभी कर्म अलौकिक देख रहे हैं । श्रीकृष्ण ! इस गोवर्धन पर्वतको हाथपर धारण करनेसे हम यह अच्छी तरह समझ गये हैं कि तुम मनुष्य नहीं देवता हो ॥ ४ ॥
अमानुषाणि कर्माणि तव पश्याम गोपते । धारणेनास्य शैलस्य विद्मस्त्वां कृष्ण दैवतम् ॥ ४ ॥
तुम्हारा बल महान् है । बताओ, तुम रुद्रों, मरुदणों अथवा वसुओंमेंसे कौन हो ? ये नन्दजी तुम्हारे पिता कैसे हो गये ? ॥ ५ ॥
कस्त्वं भवसि रुद्राणां मरुतां च महाबलः । वसूनां वा किमर्थं च वसुदेवः पिता तव ॥ ५ ॥
श्रीकृष्ण ! बचपनमें ही तुममें ऐसा अलौकिक बल है, तुम्हारे खेल भी अलौकिक हैं तथा तुम्हारी सारी चेष्टा दिव्य है । परंतु हमलोगोंमें जो तुम्हारा जन्म हुआ, यही निन्दित है । (तुम्हें ऐसा निन्दित जन्म कैसे प्राप्त हुआ ?) इन बातोंको सोचकर हमारे हदय शंकित हो उठे हैं ॥ ६ ॥
बलं च बाल्ये क्रीडा च जन्म चास्मासु गर्हितम् । कृष्ण दिव्या च ते चेष्टा शङ्कितानि मनांसि नः ॥ ६ ॥ किमर्थं गोपवेषेण रमसेऽस्मासु गर्हितम् । लोकपालोपमश्चैव गास्त्वं किं परिरक्षसि ॥ ७ ॥
तुम किसलिये गोपवेष धारण करके हमलोगोंमें रम रहे हो । यह कार्य तो तुम्हारे लिये गर्हित है । तुम लोकपालोंके समान शक्तिशाली होकर भी यहाँ क्यों गौओंकी चरवाही और रखवाली करते हो' ॥ ७ ॥
देवो वा दानवो वा त्वं यक्षो गन्धर्व एव वा । अस्माकं बान्धवो जातो योऽसि सोऽसि नमोऽस्तु ते ॥ ८ ॥
'तुम देवता हो या दानव ? यक्ष हो अथवा गन्धर्व ? जो हमारे बन्धु-बान्धवके रूपमें उत्पन्न हो ? कृष्ण ! तुम जो हो सो हो, तुम्हें हमारा नमस्कार है ॥ ८ ॥
केनचिद् यदि कार्येण वससीह यदृच्छया । वयं तवानुगाः सर्वे भवन्तं शरणं गताः ॥ ९ ॥
यदि किसी कार्य-विशेषसे तुम स्वेच्छापूर्वक यहाँ रह रहे हो तो रहो । हम सब लोग तुम्हारे अनुगामी सेवक हैं और तुम्हारी शरणमें आये हैं' ॥ ९ ॥
वैशंपायन उवाच गोपानां वचनं श्रुत्वा कृष्णः पद्मदलेक्षणः । प्रत्युवाच स्मितं कृत्वा ज्ञातीन् सर्वान् समागतान् ॥ १० ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! गोपोंकी यह बात सुनकर विकसित कमलदलके समान नेत्रवाले श्रीकृष्णने मुसकराकर उन समस्त समागत बन्धुओंको इस प्रकार उत्तर दिया- ॥ १० ॥
मन्यन्ते मां यथा सर्वे भवन्तो भीमविक्रमम् । तथाहं नावमन्तव्यः स्वजातीयोऽस्मि बान्धवः ॥ ११ ॥
'आप सब लोग मुझे जैसा भयानक पराक्रमी समझ रहे हैं, वैसा मानकर मेरा अनादर न करें । मैं तो आपलोगोंका सजातीय भाई-बन्धु ही हूँ ॥ ११ ॥
यदि त्ववश्यं श्रोतव्यं कालः सम्प्रतिपाल्यताम् । ततो भवन्तः श्रोष्यन्ति मां च द्रक्ष्यन्ति तत्त्वतः ॥ १२ ॥
यदि मेरे विषयमें आपलोगोंको यथार्थ बात अवश्य ही सुननी है तो इसके लिये उपयुक्त समयकी प्रतीक्षा करें, फिर आप मेरे विषयमें सुनेंगे और मैं वास्तवमें कैसा हूँ, यह देख और समझ सकेंगे ॥ १२ ॥
यद्ययं भवतां श्लाघ्यो बान्धवो देवसप्रभः । परिज्ञानेन किं कार्यं यद्येषोऽनुग्रहो मम ॥ १३ ॥
यदि देवोपम कान्तिसे युक्त यह बालक आपलोगोंका स्पृहणीय भाई-बन्धु है तो इसके विषयमें विशेष छानबीन करनेकी क्या आवश्यकता है । यदि आप मौन ही रहें तो यह मेरे ऊपर आपका महान् अनुग्रह होगा' ॥ १३ ॥
एवमुक्तास्तु ते गोपा वसुदेवसुतेन वै । बद्धमौना दिशः सर्वे भेजिरे पिहिताननाः ॥ १४ ॥
वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर उन गोपोंने अपना मुँह बंद कर लिया और मौन होकर वे सब-के-सब विभिन्न दिशाओंमें चले गये ॥ १४ ॥
कृष्णस्तु यौवनं दृष्ट्वा निशि चन्द्रमसो वनम् । शारदीं च निशां रम्यां मनश्चक्रे रतिं प्रति ॥ १५ ॥
इधर श्रीकृष्णने पूर्णिमाकी रातमें चन्द्रमाका यौवन (अधिक कान्तिमान् रूप), रमणीय वन तथा शरत्-कालकी सुरम्य रजनीको देखकर मनमें रमण करनेकी इच्छा की ॥ १५ ॥
स करीषाङ्गरागासु व्रजरथ्यासु वीर्यवान् । वृषाणां जातदर्पाणां युद्धानि समयोजयत् ॥ १६ ॥
पराक्रमी श्रीकृष्णने सूखे गोबरके चूर्णका अङ्गराग-सा धारण करनेवाली व्रजकी गलियोंमें बलोन्मत्त साँड़ोंके युद्धका आयोजन किया ॥ १६ ॥
गोपालांश्च बलोदग्रान् योधयामास वीर्यवान् । वने स वीरो गाश्चैव जग्राह ग्राहवद् विभुः ॥ १७ ॥
उन बलशाली वीर भगवान् गोविन्दने बलमें बड़े-चढ़े गोपोंमें परस्पर मल्लयुद्ध भी करवाया और वनमें घूमती हुई गौओंको ग्राहकी भांति पकड़नेकी भी लीला की ॥ १७ ॥
युवतीर्गोपकन्याश्च रात्रौ संकाल्य कालवित् । ककैशोरकं मानयन् वै सह ताभिर्मुमोद ह ॥ १८ ॥
समयको पहचाननेवाले वे श्रीहरि अपनी किशोरावस्थाका आदर करते हुए युवती गोपकन्याओंको रातके समय वनमें ले गये और उन सबके साथ आमोद-प्रमोद करने लगे ॥ १८ ॥
तास्तस्य वदनं कान्तं कान्ता गोपस्त्रियो निशि । पिबन्ति नयनाक्षेपैर्गां गतं शशिनं यथा ॥ १९ ॥
निशाकालमें वे कान्तिमती गोपाङ्गनाएँ प्रियतम श्रीकृष्णके कमनीय मुखका, जो भूतलपर उतरे हुए द्वितीय चन्द्रमाके समान प्रतीत होता था, अपने नेत्रोंद्वारा कटाक्षपातपूर्वक पान करने लगौ ॥ १९ ॥
हरितालार्द्रपीतेन सकौशेयेन वाससा । वसानो भद्रवसनं कृष्णः कान्ततरोऽभवत् ॥ २० ॥
उस समय हरितालके पङ्ककी भाँत पीले रेशमी पीताम्बरसे अपने अङ्गोंको आच्छादित करनेवाले माङ्गलिक वस्त्रधारी श्रीकृष्ण और भी अधिक मनोहर प्रतीत हो रहे थे ॥ २० ॥
स बद्धाङ्गदनिर्व्यूहश्चित्रया वनमालया । शोभमनो हि गोविन्दः शोभयामास तद् व्रजम् ॥ २१ ॥
बाँहोंमें भुजबंद बाँधे और मस्तकपर मुकुट धारण किये, विचित्र वनमालासे सुशोभित गोविन्द उस व्रजकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ २१ ॥
नाम दामोदरेत्येवं गोपकन्यास्तदाब्रुवन् । विचित्रं चरितं घोषे दृष्ट्वा तत् तस्य भास्वतः ॥ २२ ॥
गोष्ठ में उन तेजस्वी श्रीकृष्णके विचित्र चरित्रोंको देखकर गोपकिशोरियाँ उस समय उन्हें 'दामोदर' कहकर पुकारती थीं ॥ २२ ॥
तास्तं पयोधरोत्तुङ्गैरुरोभिः समपीडयन् । भ्रामिताक्षैश्च वदनैर्निरीक्षन्ते वराङ्गनाः ॥ २३ ॥
वे सुन्दरी गोपियाँ उन्हें पीन पयोधरोंसे युक्त ऊँचे वक्षःस्थलसे लगाकर गाढ़ आलिङ्गन करतीं और बारम्बार आँखें घुमाकर उन्हींकी ओर मुँह करके उनका रूप निहारती रहती थीं ॥ २३ ॥
ता वार्यमाणाः पतिभिर्मातृभिर्भ्रातृभिस्तथा । कृष्णं गोपाङ्गना रात्रौ मृगयन्ते रतिप्रियाः ॥ २४ ॥
पति, पिता-माता तथा भाइयोंके मना करनेपर भी वे गोपाडनाएँ रात्रिके समय श्रीकृष्णको दैढ़ती फिरती थीं; क्योंकि श्रीकृष्णविषयक रति उन्हें बहुत प्रिय थी ॥ २४ ॥
तास्तु पङ्क्तीकृताः सर्वा रमयन्ति मनोरमम् । गायन्त्यः कृष्णचरितं द्वन्द्वशो गोपकन्यकाः ॥ २५ ॥
वे सारी गोप-किशोरियों मण्डलाकार पंक्ति बनाकर खड़ी हो जाती और उनमेंसे प्रत्येक गोपीके दोनों ओर श्रीकृष्ण विराजमान होते थे । इस प्रकार गोपी कृष्णकी युगल-जोड़ी बनाकर वे सुन्दरियाँ श्रीकृष्णके चरित्रका गान करती हुई उन्हें आनन्द प्रदान करती थी ॥ २५ ॥
कृष्णलीलानुकारिण्यः कृष्णप्रणिहितेक्षणाः । कृष्णस्य गतिगामिन्यस्तरुण्यस्ता वराङ्गनाः ॥ २६ ॥
उनकी आँखें श्रीकृष्णकी ओर लगी रहती थीं । वे तरुण-अवस्थावाली सुन्दरियाँ श्रीकृष्णकी लीलाका अनुकरण करतीं तथा उन्हींके समान चलती थी ॥ २६ ॥
वनेषु तालहस्ताग्रैः कूजयन्त्यस्तथापराः । चेरुर्वै चरितं तस्य कृष्णस्य व्रजयोषितः ॥ २७ ॥
ब्रजकी दूसरी गोपियाँ हाथोंके अग्रभागसे ताल दे-देकर श्रीकृष्णकी लीलाओंका गान करती हुई बनों में विचरती थीं ॥ २७ ॥
तास्तस्य नृत्यं गीतं च विलासस्मितवीक्षितम् । मुदिताश्चानुकुर्वन्त्यः क्रीडन्ति व्रजयोषितः॥ २८ ॥
वे व्रजाङ्गनाएँ बड़ी प्रसन्नताके साथ श्रीकृष्णके नृत्य, गीत, विलास, मुसकराहट तथा चशल चितवनकी नकल करती हुई भाँति-भौतिकी क्रीडाएँ करती रहती थीं ॥ २८ ॥
भावनिस्पन्दमधुरं गायन्त्यस्ता वराङ्गनाः । व्रजं गताः सुखं चेरुर्दामोदरपरायणाः ॥ २९ ॥
वे गोपसुन्दरियाँ व्रजमण्डल (वन आदि)-में जाकर ऐसे गीत गाती थीं, जिनसे उनका श्रीकृष्णविषयक प्रगाढ़ अनुराग स्पष्टतः प्रकट होने लगता था और इसीसे उन गीतोंका माधुर्य बढ़ जाता था । इस प्रकार दामोदरके ही चिन्तनमें तत्पर रहकर वे वहाँ सुखपूर्वक विचरती थीं ॥ २९ ॥
करीषपांसुदिग्धाङ्ग्यस्ताः कृष्णामनुवव्रिरे । रमयन्त्यो यथा नागं संप्रमत्तं करेणवः ॥ ३० ॥
उनके अङ्गोंमें अङ्गागकी जगह गोबरके चूर्ण लगे होते थे । वे श्रीकृष्णको आनन्द प्रदान करती हुई उन्हें उसी तरह घेरे रहती थीं, जैसे हथिनियाँ मदमत्त गजराजको ॥ ३० ॥
तमन्या भावविकचैर्नेत्रैः प्रहसिताननाः । पिबन्त्यतृप्तवनिताः कृष्णं कृष्णमृगेक्षणाः ॥ ३१ ॥
कृष्णसार मृगके सदृश नेत्रोंवाली कितनी ही अन्य गोप-वनिताएँ अनुरागसे उत्फुल्ल नेत्रोंद्वारा प्यारे श्यामसुन्दरकी रूपसुधाका पान किया करती थीं, किंतु उससे तृप्त नहीं होती थीं । उनके मुखपर सदा ही हँसी खेलती रहती थी ॥ ३१ ॥
मुखमस्याब्जसंकाशं तृषिता गोपकन्यकाः । रत्यन्तरगता रात्रौ पिबन्ति रसलालसाः ॥ ३२ ॥
वे गोपकन्याएँ श्रीकृष्ण रसके लिये प्यासी रहती थीं । उनके मनमें उस रसके आस्वादनके लिये निरन्तर लालसा बनी रहती थी; अत: वे रात्रिके समय रासलीलामें सम्मिलित हो उनके मुखारविन्दकी मकरन्द-सुधाका पान करती थीं ॥ ३२ ॥
हा हेति कुर्वतस्तस्य प्रहृष्टास्ता वराङ्गनाः । जगृहुर्निस्सृतां वाणीं नाम्ना दामोदरेरिताम् ॥ ३३ ॥
जब वे 'हा राधे ! हा व्रजगोपियो !' इत्यादि कहकर उन्हें पुकारते, उस समय उनका आह्वान सुनकर वे गोप-सुन्दरियाँ हर्षसे खिल उठती थीं । दामोदरके मुखसे निकली हुई उस मधुर वाणीको वे सादर ग्रहण करती थीं ॥ ३३ ॥
तासां ग्रथितसीमंता रतिं नीत्वाऽऽकुलीकृताः । चारु विस्रंसिरे केशाः कुचाग्रे गोपयोषिताम् ॥ ३४ ॥
उनके गुंथे हुए सीमन्तवाले केश रासलीलामें पहुंचकर आकुलताको अवस्थामें खुल जाते और गोपियोंके कुचाग्रभागपर बिखर जाते थे । उस समय भी वे मनोहर ही लगते थे ॥ ३४ ॥
एवं स कृष्णो गोपीनां चक्रवालैरलंकृतः । शारदीषु सचन्द्रासु निशासु मुमुदे सुखी ॥ ३५ ॥
इस प्रकार शरत्कालकी चाँदनी रातोंमें गोपीमण्डलसे अलंकृत हुए श्रीकृष्ण सुखपूर्वक रासक्रीडा करके आनन्दमग्न हो जाते थे ॥ ३५ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि हल्लीसकक्रीडने विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें रासक्रीडाविषयक बीसा अध्याय पूरा हुआ ॥ २० ॥
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