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श्रीहरिवंशपुराण
विष्णुपर्व
एकविंशोऽध्यायः


वृषभासुरवधः
अरिष्टासुरका वध -


वैशंपायन उवाच
प्रदोषार्द्धे कदाचित्तु कृष्णे रतिपरयणे ।
त्रासयन् समदो गोष्ठमरिष्टः प्रत्यदृश्यत ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! एक दिन आधा प्रदोष (अर्थात् डेढ़ घंटा रात) बीतनेपर जब भगवान् श्रीकृष्ण रासक्रीडामें संलग्न थे, उसी समय सारे व्रजको त्रास देता हुआ मतवाला अरिष्टासुर वहाँ दिखायी दिया ॥ १ ॥

निर्वाणाङ्‌‌‍गारमेघाभस्तीक्ष्णशृङ्‌‌‍गोऽर्कलोचनः ।
क्षुरतीक्ष्णाग्रचरणः कालः काल इवापरः ॥ २ ॥
वह बुझे हुए अङ्गार (कोयले) तथा मेघोंके समान काला था, उसके सींग तीखे थे और आँखें सूर्यके समान तेजस्विनी दिखायी देती थीं । उसके चरणोंके अग्रभाग अथवा खुर छुरेके समान तेज थे । वह काला दैत्य दूसरे कालके समान जान पड़ता था ॥ २ ॥

लेलिहानः सनिष्पेषं जिह्वयोष्ठौ पुनः पुनः ।
गर्विताविद्धलाङ्‌‌‍गूलः कठिनस्कन्धबन्धनः ॥ ३ ॥
वह दाँतसे ओठोंको चबाता और जिलासे उन्हें बारम्बार चाटता था । उसने बलके धमंडमें आकर पूँछ उठा रखी थी तथा उसके कंधेका कुब्बड़ बहुत ही कठोर था ॥ ३ ॥

ककुदोदग्रनिर्माणः प्रमाणाद् दुरतिक्रमः ।
शकृन्मूत्रोपलिप्ताङ्‌‌‍गो गवामुद्वेजनो भृशम् ॥ ४ ॥
वह अपने कंधेके कुब्बड़से चोट करके बने-बनाये महल आदिको धराशायी कर देता था । उसकी ऊँचाई इतनी थी कि उसे लाँघकर जाना किसीके लिये भी बहुत कठिन था । उसके पिछले अङ्ग गोबर और मूतसे लिप्स हो रहे थे तथा वह गौऑको अत्यन्त उद्वेगमें डाल देता था ॥ ४ ॥

महाकटिः स्थूलमुखो दृढजानुर्महोदरः ।
विषाणावल्गितगतिर्लम्बता कण्ठचर्मणा ॥ ५ ॥
उसका कटिभाग विशाल था और मुख स्थूल था, दोनों घुटने सुदृढ़ थे और पेट बहुत बड़ा था । उसके गलेका कंबल लटक रहा था और वह सींग नीचे किये उछलता-कूदता आगे बढ़ रहा था ॥ ५ ॥

गवारोहेषु चपलस्तरुघाताङ्‌‌‍किताननः ।
युद्धसज्जविषाणाग्रो द्विषद्वृषभसूदनः ॥ ६ ॥
वह गौओंके पिछले भागपर चढ़नेके लिये चञ्चल हो रहा था । वृक्षोंसे टक्कर लेनेके कारण उसके मस्तकमें कई जगह घटे पड़ गये थे । वह अपने सींगोंके अग्रभागको सदा जूझनेके लिये उद्यत रखता था तथा विपक्षी बैलोंको मार डालता था ॥ ६ ॥

अरिष्टो नाम हि गवामरिष्टो दारुणाकृतिः ।
दैत्यो वृषभरूपेण गोष्ठान्विपरिधावति ॥ ७ ॥
भयानक आकारवाला वह अरिष्टासुर गौओंके लिये अरिष्टकारक ग्रह बन गया था । वह दैत्य बैलके रूपमें आकर सभी गोठोंमें दौड़ लगाया करता था ॥ ७ ॥

पातयानो गवां गर्भान् दृप्तो गच्छत्यनार्तवम् ।
भ्रजमानश्च चपलो गृष्टीः संप्रचचार ह ॥ ८ ॥
वह गौओंके गर्भ गिरा देता था । मदमत्त होकर बिना ऋतुके ही उनसे समागम करता तथा वह चञ्चल दैत्य तुरंतकी ब्यायी हुई गौओंका भी उपभोग करनेके लिये उनके पीछे पड़ा रहता था ॥ ८ ॥

शृङ्‌‌‍गप्रहरणो रौद्रः प्रहरन्गोषु दुर्मदः ।
गोष्ठेषु न रतिं लेभे विना युद्धेन गोवृषः ॥ ९ ॥
सींग ही उसके आयुध थे । वह बड़ा भयंकर एवं दुर्मद प्रतीत होता था । गौऑपर प्रहार करना उसका नित्यका काम था । वह वृषभरूपधारी दैत्य गोठोंमें पहुँचकर युद्ध किये बिना संतुष्ट नहीं होता था ॥ ९ ॥

कस्यचित् त्वथ कालस्य स वृषः केशवाग्रतः ।
आजगाम बलोदग्रो वैवस्वतवशे स्थितः ॥ १० ॥
किसी समय यमराजके वशमें पड़ा हुआ वह उत्कट बलशाली वृषभरूपधारी असुर भगवान् श्रीकृष्णके सामने आया ॥ १० ॥

स तत्र गास्तु प्रसभं बाधमानो मदोत्कटः ।
चकार निर्वृषं गोष्ठं निर्वत्सशिशुपुङ्‌‌‍गवम् ॥ ११ ॥
मदमत्त अरिष्टासुर वहाँ आते ही बलपूर्वक गौओंको सताने लगा । उसने उस गोष्ठको बैल, बछड़ों तथा बालकोंसे सूना कर दिया ॥ ११ ॥

एतस्मिन्नेव काले तु गावः कृष्णसमीपगाः ।
त्रासयामास दुष्टात्मा वैवस्वतवशे स्थितः ॥ १२ ॥
इसी समय कालके वशमें पड़ा हुआ वह दुष्टात्मा दैत्य श्रीकृष्णके पास खड़ी हुई गौओंको त्रास देने लगा ॥ १२ ॥

सेन्द्राशनिरिवाम्भोदो नर्दमानो महासुरः ।
तालशब्देन तं कृष्णं सिंहनादैश्च मोहयन् ॥ १३ ॥
उस समय गर्जना करता हुआ वह महान् असुर इन्द्रके वजकी गड़गड़ाहटके साथ आकाशमें छाये हुए मेघके समान जान पड़ता था । उसे मोहमें डालनेके लिये श्रीकृष्णने ताल ठोंका और सिंहनाद किया ॥ १३ ॥

अभ्यधावत गोविन्दो दैत्यं वृषभरूपिणम् ।
स कृष्णं गोवृषो दृष्ट्‍वा हृष्टलाङ्‌‌‍गूललोचनः ॥ १४ ॥
फिर वे भगवान् गोविन्द उस वृषभरूपधारी दैत्यकी ओर दौड़े । श्रीकृष्णको देखते ही उस बैलने हर्षमें भरकर अपनी पूँछ उठायी और उसके नेत्र भी खिल उठे ॥ १४ ॥

रोषितस्तालशब्देन युद्धाकाङ्‌‌‍क्षी ननर्द ह ।
तमापतन्तं दुर्वृत्तं दृष्ट्‍वा वृषभरूपिणम् ।
तस्मात् स्थानान्न व्यचलत् कृष्णो गिरिरिवाचलः ॥ १५ ॥
उनके ताल ठोंकनेके शब्दसे वह रोषमें भरा हुआ था, अतः युद्धकी इच्छासे गर्जना करने लगा । बैलका रूप धारण करके अपनी ओर आते हुए उस दुराचारी दैत्यको देखकर भी श्रीकृष्ण उस स्थानसे तनिक भी इधर-उधर नहीं हुए, पर्वतके समान अविचलभावसे खड़े रह गये ॥ १५ ॥

स कुक्षौ वृषभो दृष्टिं प्रणिधाय धृताननः ।
कृष्णस्य निधनाकाङ्‌‌‍क्षी तूर्णमभ्युत्पपात ह ॥ १६ ॥
उस वृषभने श्रीकृष्णके पेटमें दृष्टि जमाकर उधर ही मस्तक भिड़ाया और उनके वधकी इच्छा रखकर तुरंत ही उछला ॥ १६ ॥

तमापतन्तं प्रमुखे प्रतिजग्राह दुर्द्धरम् ।
कृष्णः कृष्णाञ्जननिभो वृषं प्रति वृषोपमः ॥ १७ ॥
काले अञ्जनके समान श्याम शरीरवाले श्रीकृष्ण उस बैलका सामना करनेके लिये विपक्षी साँड़के समान प्रतीत होते थे । उन्होंने वेगसे अपनी ओर आते हुए उस दुर्धर दैत्यको पकड़ लिया ॥ १७ ॥

स संसक्तस्तु कृष्णो वै वृषेणेव महावृषः ।
मुमोच वक्त्रजं फेनं नस्तश्चाथ सशब्दवत् ॥ १८ ॥
फिर तो श्रीकृष्ण उसके साथ इस तरह उलझ गये, जैसे एक साँड़के साथ दूसरा महासाँड़ भिड़ गया हो । अरिष्टासुर हाँफता हुआ अपनी नाक और मुखसे फेन छोड़ने लगा ॥ १८ ॥

तावन्योन्यावरुद्धाङ्‌‌‍गौ युद्धे कृष्णवृषावुभौ ।
रेजतुर्मेघसमये संसक्ताविव तोयदौ ॥ १९ ॥
श्रीकृष्ण और अरिष्टासुर दोनोंने उस युद्धमें एक-दूसरेके शरीरको अवरुद्ध कर लिया था । उस समय वे दोनों वर्षाकालमें परस्पर सटे हुए दो मेघोंके समान शोभा पा रहे थे ॥ १९ ॥

तस्य दर्पबलं हत्वा कृत्वा शृङ्‌‌‍गान्तरे पदम् ।
आपीडयदरिष्टस्य कण्ठं क्लिन्नमिवांबरम् ॥ २० ॥
इस प्रकार उसके बलको क्षीण करके घमंड चूर कर देनेके बाद श्रीकृष्णने उसके दोनों सींगोंके बीचमें एक पैर रखा और जैसे भीगे हुए कपड़ेको निचोड़ा जाता है, उसी प्रकार अरिष्टासुरके गलेको दबाकर मरोड़ दिया ॥ २० ॥

शृङ्‌‌‍गं चास्य पुनः सव्यमुत्पाट्य यमदण्डवत् ।
तेनैव प्राहरद् वक्त्रे स ममार भृशं हतः ॥ २१ ॥
तत्पश्चात् उसके बायें सौंगको जो यमदण्डके समान जान पड़ता था, उखाड़ लिया और उसीके द्वारा उसके मुखपर प्रहार किया । उसकी गहरी चोट खाकर अरिष्टासुर मर गया ॥ २१ ॥

स भिन्नशृङ्‌‌‍गो भग्नास्यो भग्नस्कन्धश्च दानवः ।
पपात रुधिरोद्‌गारी साम्बुधार इवाम्बुदः ॥ २२ ॥
उसका सींग उखड़ गया, मुख कुचल दिया गया और गर्दन टूट गयी, उस दशामें वह दानव जलकी धारा बरसानेवाले मेघके समान अपने मुखसे रक्त वमन करता हुआ गिर पड़ा ॥ २२ ॥

गोविन्देन हतं दृष्ट्‍वा दृप्तं वृषभदानवम् ।
साधु साध्विति भूतानि तत्कर्मास्याभितुष्टुवुः ॥ २३ ॥
मदसे उन्मत्त रहनेवाले उस वृषभरूपी दानवको भगवान् गोविन्दके हाथसे मारा गया देख सब प्राणी साधु-साधु कहकर उनके उस कर्मकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे ॥ २३ ॥

स चोपेन्द्रो वृषं हत्वा कान्तचन्द्रे निशामुखे ।
अरविन्दाभनयनः पुनरेव ररास ह ॥ २४ ॥
उस प्रदोषकालमें जब कि चन्द्रमाकी कमनीय कान्ति बढ़ी हुई थी, कमलनयन भगवान् उपेन्द्र वृषभासुरको मारकर पुन: रासक्रीड़ामें संलग्न हो गये ॥ २४ ॥

तेऽपि गोवृत्तयः सर्वे कृष्णं कमललोचनम् ।
उपासाञ्चक्रिरे हृष्टाः सर्वे शक्रमिवामराः ॥ २५ ॥
गौएँ ही जिनकी आजीविका हैं, वे समस्त गोप भी हर्षमें भरकर कमलनयन श्रीकृष्णकी उसी तरह उपासना करने लगे, जैसे सम्पूर्ण देवता इन्द्रकी आराधना करते हैं ॥ २५ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे
विष्णुपर्वणि वृषभासुरवधे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें वृषभासुरका वधविषयक इकांसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१ ॥




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