श्रीहरिवंशपुराण विष्णुपर्व द्वाविंशोऽध्यायः
अक्रूरप्रस्थानम्
कंसकी आशङ्का, उसका रात्रिके समय यदुवंशियोंको बुलाकर भरी सभामें श्रीकृष्ण और विष्णुके प्रभावको बताना, वसुदेवपर कठोर आक्षेप करना तथा अकूरको श्रीकृष्ण आदिको बुला लानेके लिये व्रजमें जानेकी आज्ञा देना -
वैशंपायन उवाच कृष्णं व्रजगतं श्रुत्वा वर्धमानमिवानलम् । उद्वेगमगमत् कंसः शङ्कमानस्ततो भयम् ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय । भगवान् श्रीकृष्ण व्रजमें जाकर अग्निकी भाँति बढ़ते, उत्तरोत्तर प्रज्वलित होते जा रहे हैं, यह सुनकर कंसको बड़ा उद्वेग हुआ । उसके मनमें श्रीकृष्णसे भय प्राप्त होनेकी शङ्का दृढ़ होने लगी ॥ १ ॥
पूतनायां हतायां च कालिये च पराजिते । धेनुके प्रलयं नीते प्रलम्बे च निपातिते ॥ २ ॥ धृते गोवर्धने शैले विफले शक्रशासने । गोषु त्रातासु च तथा स्पृहणीयेन कर्मणा ॥ ३ ॥ ककुद्मिनि हतेऽरिष्टे गोपेषु मुदितेषु च । दृश्यमाने विनाशे च संनिकृष्टे महाभये ॥ ४ ॥ कर्षणे वृक्षयोश्चैव शकटस्य तथैव च । अचिन्त्यं कर्म तच्छ्रुत्वा वर्धमानेषु शत्रुषु ॥ ५ ॥ प्राप्तारिष्टामिवात्मानं मेने स मथुरेश्वरः । विसंज्ञेन्द्रियभूतात्मा गतासुप्रतिमो बभौ ॥ ६ ॥
पूतना मारी गयी, कालिय नाग परास्त हुआ, धेनुकासुर कालके गालमें भेज दिया गया, प्रलम्बासुरको मार गिराया गया, गोवर्धन पहाड़को श्रीकृष्णने हाथपर उठा लिया, इन्द्रका शासन निष्फल हो गया, वैसे स्पृहणीय कर्मके द्वारा सम्पूर्ण गौओंकी रक्षा कर ली गयी, ऊँचे ककुदवाले अरिष्टासुरको मार डाला गया, गोपगण आनन्दमें मग्न रहते हैं और अपना (कंसका) महाभयंकर विनाशकाल संनिकट दिखायी देने लगा है, यमलार्जुन-वृक्षोंका ओखली खींचते समय टूट जाना, शकटका भङ्ग हो जाना आदि असम्भव कार्य सम्भव हो गये, शत्रु निरन्तर बढ़ रहे हैं और उनके द्वारा अचिन्त्य कर्म सम्पादित होने लगा है, यह सब सुनकर मथुरापति कंसने यह मान लिया कि अब मेरे ऊपर अरिष्ट आया ही चाहता है । इससे उसकी इन्द्रियाँ, शरीर और मन-बुद्धि सब-के-सब अचेत हो गये तथा वह प्राणहीन-सा प्रतीत होने लगा ॥ २-६ ॥
ततो ज्ञातीन्समानाय्य पितरं चोग्रशासनः । निशि स्तिमितमूकायां मथुरायां जनाधिपः ॥ ७ ॥
तदनन्तर भयंकर शासनवाले राजा कंसने रात्रिके नीरव एवं निस्तब्धकालमें मथुरापुरीके भीतर रहनेवाले समस्त बन्धुबान्धवों तथा अपने पिता उग्रसेनको भी बुलाया ॥ ७ ॥
वसुदेवं च देवाभं कङ्कं चाहूय यादवम् । सत्यकं दारुकं चैव कङ्कावरजमेव च ॥ ८ ॥ भोजं वैतरणं चैव विकद्रुं च महाबलम् । भयशङ्खं च धर्मज्ञं विपृथुं च पृथुश्रियम् ॥ ९ ॥ बभ्रुं दानपतिं चैव कृतवर्माणमेव च । भूरितेजसमक्षोभ्यं भूरिश्रवसमेव च ॥ १० ॥ एतान् स यादवान् सर्वानाभाष्य शृणुतेति च । उग्रसेनसुतो राजा प्रोवाच मथुरेश्वरः ॥ ११ ॥
देवताके समान तेजस्वी वसुदेव, यदुकुलनन्दन कङ्क, सत्यक, दारुक, कङ्कके छोटे भाई, भोज, वैतरण, महाबली विकद्रु, धर्मज्ञ भयशड, पृथुल राजलक्ष्मीसे सम्पन्न विपृथु, दानपति बध्रु(अक्रूर), कृतवर्मा, अक्षोभ्य भूरितेजा और भूरिश्रवाइन सब यादवोंको बुलाकर सबको सम्बोधित करके मथुराके स्वामी उग्रसेनकुमार राजा कसने कहा-'बन्धुओ ! आपलोग सुनें ॥ ८-११ ॥
भवन्तः सर्वकार्यज्ञा वेदेषु परिनिष्ठिताः । न्यायवृत्तान्तकुशलास्त्रिवर्गस्य प्रवर्तकाः ॥ १२ ॥ कर्तव्यानां च कर्तारो लोकस्य विबुधोपमाः । तस्थिवांसो महावृत्ते निष्कम्पा इव पर्वताः ॥ १३ ॥
आप समस्त कर्तव्य-कौके ज्ञाता, वेदोंके परिनिष्ठित विद्वान, न्यायोचित बर्तावमें कुशल, धर्म, अर्थ और कामके प्रवर्तक, कर्तव्य-पालक, जगत्के लिये देवताओंके समान माननीय, महान् आचार-विचारमें दृढतापूर्वक स्थिर रहनेवाले और पर्वतके समान अविचल है ॥ १२-१३ ॥
अदम्भवृत्तयः सर्वे सर्वे गुरुकुलोषिताः । राजमन्त्रधराः सर्वे सर्वे धनुषि पारगाः ॥ १४ ॥
आप सब लोग पाखण्डपूर्ण वृत्तिसे दूर रहते हैं । सबने गुरुकुलमें रहकर शिक्षा पायी है । आप सब लोग राजाकी गुप्त मन्त्रणाको सुरक्षित रखनेवाले तथा धनुर्वेदमें पारङ्गत हैं ॥ १४ ॥
यशःप्रदीपा लोकानां वेदार्थानां विवक्षवः । आश्रमाणां निसर्गज्ञा वर्णानां क्रमपारगाः ॥ १५ ॥
आपके यशरूपी प्रदीप सम्पूर्ण जगत्में अपना प्रकाश फैला रहे हैं । आपलोग वेदोंके तात्पर्यका प्रतिपादन करनेमें समर्थ हैं । आश्रमोंके जो स्वाभाविक कर्म हैं, उन्हें आप जानते हैं । चारों वर्णोके जो क्रमिक धर्म हैं, उनके आपलोग पारङ्गत विद्वान् हैं ॥ १५ ॥
प्रवक्तारः सुनियतां नेतारो नयदर्शिनाम् । भेत्तारः परराष्ट्राणां त्रातारः शरणार्थिनाम् ॥ १६ ॥
आपलोग उत्तम विधियोंके वक्ता, नीतिदर्शी पुरुषोंके भी नेता, शत्रुराष्ट्रोंके गुप्त रहस्योंका भेदन करनेवाले तथा शरणार्थियोंके संरक्षक हैं ॥ १६ ॥
एवमक्षतचारित्रैः श्रीमद्भिरुदितोदितैः । द्यौरप्यनुगृहीता स्याद् भवद्भिः किं पुनर्मही ॥ १७ ॥
आपके सदाचारमें कभी आँच नहीं आने पायी है । आपलोग श्रीसम्पन्न हैं तथा श्रेष्ठ पुरुषोंकी चर्चा होते समय आपलोगोंके नाम बारम्बार लिये जाते हैं । आपलोग चाहें तो स्वर्गलोकपर भी अनुग्रह कर सकते हैं, फिर इस भूतलकी तो बात ही क्या है ? ॥ १७ ॥
ऋषीणामिव वो वृत्तं प्रभावो मरुतामिव । रुद्राणामिव वः क्रोधो दीप्तिरङ्गिरसामिव ॥ १८ ॥
आपका आचार ऋषियोंके, प्रभाव मरुद्रणोंके, क्रोध रुद्रोंके और तेज या दीसि अग्नियोंके समान है ॥ १८ ॥
व्यावर्तमानं सुमहद् भवद्भिः ख्यातकीर्तिभिः । धृतं यदुकुलं वीरैर्भूतलं पर्वतैरिव ॥ १९ ॥
यह महान् यदुकुल जब अपनी मर्यादासे भ्रष्ट हो रहा था, उस समय विख्यात कीर्तिवाले आपजैसे वीरोंने ही इसे मर्यादामें स्थापित किया, ठीक उसी तरह जैसे पर्वतोंने इस भूतलको दृढ़तापूर्वक धारण कर रखा है ॥ १९ ॥
एवं भवत्सु युक्तेषु मम चित्तानुवर्तिषु । वर्धमानो ममानर्थो भवद्भिः किमुपेक्षितः ॥ २० ॥
आपलोग ऐसे सुयोग्य हैं और सदा मेरे अनुकूल चलते हैं, परंतु इस समय आपलोगोंके होते हुए भी मेरे अनर्थ (संकट) की वृद्धि हो रही है, पता नहीं आपने उसकी उपेक्षा कैसे कर दी है ॥ २० ॥
एष कृष्ण इति ख्यातो नन्दगोपसुतो व्रजे । वर्धमान इवाम्भोधिर्मूलं नः परिकृन्तति ॥ २१ ॥
व्रजमें कृष्ण नामसे विख्यात जो यह नन्द-गोपका बेटा है, वह (मर्यादाको लाँधकर) बढ़नेवाले समुद्रकी भौत बढ़कर हमारी जड़ काट रहा है ॥ २१ ॥
अनमात्यस्य शून्यस्य चारान्धस्य ममैव तु । कारणान्नन्दगोपस्य स सुतो गोपितो गृहे ॥ २२ ॥
मेरे पास कोई सुयोग्य मन्त्री नहीं है, मैं हृदय एवं विचारसे शून्य हूँ तथा गुप्तचररूपी नेत्रसे हीन होनेके कारण अंधा हो गया हूँ । मेरे इसी दोषके कारण नन्द-गोपका वह पुत्र अपने घरमें सुरक्षित रह सका है ॥ २२ ॥
उपेक्षित इव व्याधिः पूर्यमाण इवाम्बुदः । नदन्मेघ इवोष्णान्ते स दुरात्मा विवर्धते ॥ २३ ॥
वह दुरात्मा उपेक्षित रोग तथा वर्षा-ऋतुमें निरन्तर जलसे भरनेवाले गरजते हुए मेघकी भांति बढ़ता जा रहा है' ॥ २३ ॥
तस्य नाहं गतिं जाने न योगं न पराक्रमम् । नन्दगोपस्य भवने जातस्याद्भुतकर्मणः ॥ २४ ॥
'नन्दके घरमें उत्पन्न हुए उस अद्भुतकर्मा बालकका आश्रय क्या है ? यह मैं नहीं जानता । उसे वशमें करनेका उपाय क्या है, इसका भी मुझे पता नहीं तथा उसमें कितना पराक्रम है, यह भी अच्छी तरह ज्ञात नहीं हो सका ॥ २४ ॥
किं तद्भूतं समुद्भूतं देवापत्यं न विद्महे । अतिदेवैरमानुष्यैः कर्मभिः सोऽनुमीयते ॥ २५ ॥
पता नहीं कौन-सा भूत उसके रूपमें उत्पन्न हुआ है । वह किसी देवताकी संतान है, यह बात भी मेरी समझमें नहीं आती । उसके जो कर्म हैं, वे देवताओं और मनुष्योंके लिये असाध्य हैं । उन कर्मोंसे ही यह अनुमान होता है कि वह देवताओंसे भी अधिक शक्तिशाली है ॥ २५ ॥
पूतना शकुनी बाल्ये शिशुनोत्तानशायिना । स्तनपानेप्सुना पीता प्राणैः सह दुरासदा ॥ २६ ॥
पूतना नामवाली पक्षिणी एक दुर्जय राक्षसी थी । वह जब इसे बाल्यावस्थामें दूध पिलाने गयी, उस समय यह खाटपर उत्तान सोनेवाला शिशुमात्र था, परंतु उसका स्तनपान करनेकी इच्छासे जब इसने मुँह लगाया, तब उसके प्राणोंके साथ यह उसे ही पी गया ॥ २६ ॥
यमुनाया ह्रदे नागः कालियो दमितस्तथा । रसातलचरो नीतः क्षणेनादर्शनं ह्रदात् ॥ २७ ॥
यमुनाके कुण्डमें जो कालिय नाग रहता था, उसका भी इसने दमन कर दिया और क्षणभरमें उस कुण्डसे उसको अदृश्य करके रसातलचारी बना दिया ॥ २७ ॥
नन्दगोपसुतो योगं कृत्वा स पुनरुत्थितः । धेनुकस्तालशिखरात् पातितो जीवितं विना ॥ २८ ॥
उस नागके हट जानेका उचित उपाय करके नन्दगोपका यह पुत्र पुनः जलसे बाहर निकल आया । धेनुकासुरको ताड़के शिखरसे गिराकर प्राणशून्य कर दिया ॥ २८ ॥
प्रलम्बं यं मृधे देवा न शेकुरतिवर्तितुम् । बालेन मुष्टिनैकेन स हतः प्राकृतो यथा ॥ २९ ॥
युद्धमें देवता भी जिस प्रलम्बासुरका सामना करने या उसे हरा देनेकी शक्ति नहीं रखते थे, उसे इस बालकने केवल एक मुक्केसे मारकर साधारण मनुष्यकी भाँति कालके गालमें भेज दिया ॥ २९ ॥
वासवस्योत्सवं भङ्क्त्वा वर्षं वासवरोषजम् । निर्जित्य गोगृहार्थाय धृतो गोवर्धनो गिरिः ॥ ३० ॥
इन्द्रके उत्सवको भन करके उनके रोषसे होनेवाली वर्षांपर भी काबू पा लिया और गौओंके लिये सुरक्षित घर प्रस्तुत करनेके लिये गोवर्धन पर्वतको हाथपर उठा लिया ॥ ३० ॥
हतस्त्वरिष्टो बलवान् निःशृङ्गश्च कृतो व्रजे । अबालो बाल्यमास्थाय रमते शिशुलीलया ॥ ३१ ॥
व्रजमें बलवान् अरिष्टासुरको मार डाला और उसका सींग उखाड़ लिया । यह वास्तवमें बालक नहीं है, केवल बाल्यावस्थाका आश्रय लेकर बालकों-जैसा खेल कर रहा है ॥ ३१ ॥
प्रबन्धः कर्मणामेवं तस्य गोव्रजवासिनः । सन्निकृष्टं भयं चैव केशिनो मम च ध्रुवम् ॥ ३२ ॥
गौओंके व्रजमें निवास करनेवाले इस बालकके कर्मोकी जो इस प्रकार परम्परा चल रही है, उसे देखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ता है कि मुझपर और केशीपर भी निश्चय ही भय आनेवाला है और वह भय दूर नहीं अत्यन्त निकट है ॥ ३२ ॥
भूतपूर्वश्च मे मृत्युः सततं पूर्वदैहिकः । युद्धाकाङ्क्षी च स यथा तिष्ठतीह ममाग्रतः ॥ ३३ ॥
पूर्वजन्ममें इस शरीरके लिये जो भूतपूर्व मृत्यु था, वही इस समय भी युद्धकी अभिलाषा रखकर सदा मेरे सामने खड़ा रहता है ॥ ३३ ॥
क्व च गोपत्वमशुभं मानुष्यं मृत्युदुर्बलम् । क्व च देवप्रभावेण क्रीडितव्यं व्रजे मया ॥ ३४ ॥
कहाँ तो अशुभ गोपत्व और मौतकी दुर्बलता धारण करनेवाला मानव-शरीर तथा कहाँ उसका मेरे व्रजमें रहकर देवतुल्य प्रभावसे अद्भुत क्रीड़ा करना' ॥ ३४ ॥
अहो नीचेन वपुषाच्छादयित्वाऽऽत्मनो वपुः । कोऽप्येष रमते देवः श्मशानस्य इवानलः ॥ ३५ ॥
'अहो ! कितने आश्चर्यकी बात है कि यह कोई देवता अपने स्वरूपको नीच गोपवेषमें छिपाकर श्मशानमें स्थित हुई अग्रिके समान यहाँ रम रहा है ॥ ३५ ॥
श्रूयते हि पुरा विष्णुः सुराणां कारणान्तरे । वामनेन तु रूपेण जहार पृथिवीमिमाम् ॥ ३६ ॥
सुना जाता है कि पूर्वकालमें विष्णुने देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये वामनरूप धारण करके राजा बलिके हाथसे इस पृथ्वीको छीन लिया था ॥ ३६ ॥
कृत्वा केसरिणो रूपं विष्णुना प्रभविष्णुना । हतो हिरण्यकशिपुर्दानवानां पितामहः ॥ ३७ ॥
उन्हीं प्रभावशाली विष्णुने सिंहका-सा रूप बनाकर दानवोंके पितामह हिरण्यकशिपुका वध कर डाला था ॥ ३७ ॥
अचिन्त्यरूपमास्थाय श्वेतशैलस्य मूर्धनि । भवेन च्याविता दैत्याः पुरा तत्त्रिपुरं घ्नता ॥ ३८ ॥
इसी तरह पूर्वकालमें रुद्र (-रूपधारी विष्णु)-ने अचिन्त्य रूपका आश्रय लेकर श्वेताचलके शिखरपर स्थित हो त्रिपुरका नाश करके दैत्योंको वहाँसे नीचे गिरा दिया था ॥ ३८ ॥
चालितो गुरुपुत्रेण भार्गवोऽङ्गिरसेन वै । प्रविश्य दार्दुरीं मायामनावृष्टिं चकार ह ॥ ३९ ॥
बृहस्पतिके पुत्र कचने दार्दुरी मायामें प्रविष्ट होकर शुक्राचार्यको अपनी प्रतिज्ञासे विचलित कर दिया था । उन्होंने ही दैत्योंके जगत्में 'अनावृष्टि' उत्पन्न कर दी थी । (जिससे दैत्योंकी बड़ी भारी हानि हुई । ये कच भी विष्णुकी ही विभूति थे) ॥ ३९ ॥
अनन्तः शाश्वतो देवः सहस्रशिरसोऽव्ययः । वाराहं रूपमास्थाय प्रोज्जहारार्णवान्महीम् ॥ ४० ॥
'वे विष्णु अनन्त, सनातन देव, सहस्रों मस्तकोंसे विभूषित और अविनाशी हैं । उन्होंने वाराहरूप धारण करके समुद्रसे इस पृथ्वीका उद्धार किया ॥ ४० ॥
अमृते निर्मिते पूर्वं विष्णुः स्त्रीरूपमास्थितः । सुराणामसुराणां च युद्धं चक्रे सुदारुणम् ॥ ४१ ॥
पूर्वकालमें जब अमृत प्रकट हुआ था, तब विष्णुने ही मोहिनी स्त्रीका रूप धारण करके देवताओं और असुरोंमें अत्यन्त भयंकर युद्ध करवाया था ॥ ४१ ॥
अमृतार्थे पुरा चापि देवदैत्यसमागमे । दधार मन्दरं विष्णुरकूपार इति श्रुतिः ॥ ४२ ॥
अमृत निकालनेके लिये सम्मिलितरूपसे प्रयत्न करनेके उद्देश्यसे जब देवता और दैत्य परस्पर मिले थे, उस समय श्रीविष्णुने ही कच्छपरूप धारण करके समुद्रके भीतर मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण किया था-ऐसा सुना जाता है ॥ ४२ ॥
वपुर्वामनमास्थाय नन्दनीयं पुरा बलेः । त्रिभिः क्रमैस्तु त्रीँल्लोकाञ्जहार त्रिदिवालयम् ॥ ४३ ॥
उन्होंने ही पहले अभिनन्दनीय वामनरूप धारण करके तीन पगोंद्वारा त्रिलोकीको नापकर बलिके हाथसे स्वर्गलोकका राज्य ले लिया था ॥ ४३ ॥
चतुर्धा तेजसो भागं कृत्वा दाशरथे गृहे । स एव रामसंज्ञो वै रावणं व्यनशत् तदा ॥ ४४ ॥
वे ही राजा दशरथके घरमें अपने तेजको चार भागोंमें विभक्त करके अवतीर्ण हुए और 'राम' नामसे प्रसिद्ध हुए. जिन्होंने उस समय रावणका वध किया था ॥ ४४ ॥
एवमेष निकृत्या वै तत्तद्रूपमुपागतः । साधयत्यात्मनः कार्यं सुराणामर्थसिद्धये ॥ ४५ ॥
इस प्रकार ये विष्णु छलसे भिन्न-भिन्न रूप धारण करके देवताओंका मनोरथ सिद्ध करनेके लिये अपना काम बना लेते हैं ॥ ४५ ॥
तदेष नूनं विष्णुर्वा शक्रो वा मरुतां पतिः । मत्साधनेच्छया प्राप्तो नारदो मां यदुक्तवान् ॥ ४६ ॥
'अत: यह श्रीकृष्ण निश्चय ही विष्णु है अथवा देवराज इन्द्र । यह मेरा वध करनेकी इच्छासे ही व्रजभूमिमें आया है; जैसा कि देवर्षि नारदने मुझे बताया था ॥ ४६ ॥
अत्र मे शङ्कते बुद्धिर्वसुदेवं प्रति ध्रुवा । अस्य बुद्धिविशेषेण वयं कातरतां गताः ॥ ४७ ॥
इस विषयमें मेरी बुद्धि निश्चय ही वसुदेवके प्रति संदेह करने लगी है । इस वसुदेवकी विशिष्ट बुद्धिसे हम अवश्य कातर हो उठे हैं ॥ ४७ ॥
अहं हि खट्वाङ्गवने नारदेन समागतः । द्वितीयं स हि मां विप्रः पुनरेवाब्रवीद्वचः ॥ ४८ ॥
मैं खट्वाङ्गवनमें जब दूसरी बार नारदसे मिला था, तब उस ब्राहाणने मुझसे पुनः इस प्रकार कहा- ॥ ४८ ॥
यस्त्वया हि कृतो यत्नः कंस गर्भकृते महान् । वसुदेवेन ते रात्रौ तत्कर्म विफलीकृतम् ॥ ४९ ॥
कंस ! तुमने जो देवकीका गर्भ नष्ट कर देनेके लिये महान् प्रयत्न आरम्भ किया था, तुम्हारे उस कर्मको रातके समय बसुदेवने निष्फल कर दिया ॥ ४९ ॥
दारिका या त्वया रात्रौ शिलायां कंस पातिता । तां यशोदासुतां विद्धि कृष्णं च वसुदेवजम् ॥ ५० ॥
कंस ! तुमने रातके समय जिस कन्याको शिलापर दे मारा था, उसे यशोदाकी पुत्री समझो और वहाँ जो श्रीकृष्ण है, वही वसुदेव (तथा देवकी)-का पुत्र है ॥ ५० ॥
रात्रौ व्यावर्तितावेतौ गर्भौ तव वधाय वै । वसुदेवेन संधाय मित्ररूपेण शत्रुणा ॥ ५१ ॥
तुम्हारे मित्ररूपधारी शत्रु वसुदेवने रातके समय छलपूर्वक तुम्हारे वधके लिये इन दोनों बच्चोंकी अदला-बदली कर ली थी ॥ ५१ ॥
सा तु कन्या यशोदाया विन्ध्ये पर्वतसत्तमे । हत्वा शुम्भनिशुम्भौ द्वौ दानवौ नगचारिणौ ॥ ५२ ॥
यशोदाकी वह कन्या पर्वतोंमें श्रेष्ठ विन्ध्यगिरिपर जाकर रहती है । वहाँ उस पर्वतपर विचरनेवाले जो शुम्भ और निशुम्भ नामक दो दानव थे, उनका वध करके प्रतिष्ठित हुई है ॥ ५२ ॥
कृताभिषेका वरदा भूतसङ्घनिषेविता । अर्च्यते दस्युभिर्घोरैर्महाबलिपशुप्रिया ॥ ५३ ॥
प्राणियोंके समुदायद्वारा सेवित वह देवी उपासकोंको अभीष्ट वर देनेवाली है । उसे महती पूजन सामग्री और वहाँ विचरनेवाले पशु प्रिय हैं । वहाँ भयानक दस्यु उस देवीका अभिषेक करके पूजन करते हैं ॥ ५३ ॥
सुरापिशितपूर्णाभ्यां कुम्भाभ्यामुपशोभिता । मयुराङ्गदचित्रैश्च बर्हभारैर्विभूषिता ॥ ५४ ॥
वह मधु तथा फलके गूदोंसे भरे हुए दो कलशोंसे सुशोभित होती है । मोरपंखके बने हुए विचित्र भुजदण्ड तथा मोरोंकी पाँखसे ही बनाये गये दूसरे-दूसरे आभूषण उस देवीके अलंकार हैं ॥ ५४ ॥
हृष्टकुक्कुटसंनादं वनं वायसनादितम् । मृगसङ्घैश्च संपूर्णमविरुद्धैश्च पक्षिभिः ॥ ५५ ॥ सिम्हव्याघ्रवराहाणां नादेन प्रतिनादितम् । वृक्षगम्भीरनिबिडं कान्तारैः सर्वतो वृतम् ॥ ५६ ॥ दिव्यभृङ्गारुचमरैरादर्शैरुपशोभितम् ॥ देवतूर्यनिनादैश्च शतशः प्रतिनादितम् ॥ ५७ ॥ स्थानं तस्या नगे विन्ध्ये निर्मितं स्वेन तेजसा । रिपूणां त्रासजननी नित्यं तत्र मनोरमे ॥ ५८ ॥ वसते परमप्रीता देवतैरपि पूजिता । यस्त्वयं नन्दगोपस्य कृष्ण इत्युच्यते सुतः ॥ ५९ ॥ अत्र मे नारदः प्राह सुमहत्कर्मकारणम् । द्वितीयो वसुदेवाद् वै वासुदेवो भविष्यति ॥ ६० ॥ स हि ते सहजो मृत्युर्बान्धवश्च भविष्यति । सएव वासुदेवो वै वसुदेवसुतो बली । बान्धवो धर्मतो मह्यं हृदयेनान्तको रिपुः ॥ ६१ ॥
उस विन्ध्यपर्वतपर उसके अपने ही तेजसे निर्मित हुआ स्थान एक सुन्दर वन है, जहाँ हर्षमें भरे हुए मुर्गोका कलनाद सुनायी देता है । कौओंके काँव-काँवकी आवाज भी गूंजती रहती है । मृग आदि पशुओंके समुदाय भी वहाँ भरे रहते हैं तथा मनके अनुकूल पक्षियोंसे भी वह स्थान सुशोभित रहता है । वहाँ सिंहों, व्याघ्रों और वराहोंकी गर्जनाका गम्भीर शब्द प्रतिध्वनित होता रहता है । वृक्षोंके बाहुल्यसे वह गम्भीर एवं गहन प्रतीत होता है । सब ओरसे दुर्गम स्थानोंद्वारा वह घिरा हुआ है । दिव्य गड़आ, चैवर और दर्पण देवीके उस स्थानकी शोभा बढ़ाते हैं । सैकड़ों देववाद्योंकी ध्वनियोंसे वह वन गूंजता रहता है । शत्रुओंको त्रास देनेवाली वह देवी सदा उसी मनोरम वनमें प्रसन्नतापूर्वक निवास करती है । वहाँ देवता भी उसकी पूजा करते हैं । यह कृष्ण नामसे प्रसिद्ध जो नन्दगोपका पुत्र बताया जाता है, उसके विषयमें नारदजीने मुझसे कहा है कि 'व्रजमें जो पूतना-वध आदि बड़े-बड़े कर्म हो रहे हैं, उनका प्रधान कारण वही है । वह वसुदेवसे उत्पन्न होनेवाला दूसरा पुत्र है, इसलिये वासुदेव नामसे विख्यात होगा । वह तुम्हारी सहज मृत्यु तथा बान्धव भी होगा । वसुदेवका वह बलवान् पुत्र वासुदेव ही धर्मतः मेरा बान्धव है; किंतु हृदयसे विनाशकारी शत्रु बना है ॥ ५५-६१ ॥
यथा हि वायसो मूर्ध्नि पद्भ्यां यस्यावतिष्ठति । नेत्रे तुदति तस्यैव वक्त्रेणामिषगृद्धिना ॥ ६२ ॥ वसुदेवस्तथैवायं सपुत्रज्ञातिबान्धवः । छिनत्ति मम मूलाणि भुङ्क्ते च मम पार्श्वतः ॥ ६३ ॥
जैसे कौवा जिसके सिरपर दोनों पंजे रखकर बैठता है, अपनी मांसलोलुप चोंचसे उसीके दोनों नेत्रोंपर प्रहार करता है; उसी प्रकार ये वसुदेव भी अपने पुत्र और भाईबन्धुओंसहित मेरे ही पास खाते हैं और मेरी ही जड़ काटते हैं ॥ ६२-६३ ॥
भ्रूणहत्यापि संतार्या गोवधः स्त्रीवधोऽपि वा । न कृतघ्नस्य लोकोऽस्ति बान्धवस्य विशेषतः ॥ ६४ ॥
भ्रूणहत्याके पापसे मनुष्य तर सकता है, गोवध अथवा स्त्रीवधके पापको भी प्रायश्चित्त आदिके द्वारा लाँधा जा सकता है; परंतु जो कृतघ्न है, विशेषतः अपने भाई-बन्धुपर कृतघ्नता करता है, उसके लिये कोई लोक नहीं है-उसका कहीं भी ठिकाना नहीं लगता ॥ ६४ ॥
पतितानुगतं मार्गं निषेवत्यचिरेण सः । यः कृतघ्नोऽनुबन्धेन प्रीतिं वहति दारुणाम् ॥ ६५ ॥
जो भीतरसे कृतघ्न रहकर अपना काम बनानेके लिये ऊपरसे भयानक प्रीतिका बोझ ढोता है, वह शीघ्र ही पतितोंके पथका आश्रय लेता है ॥ ६५ ॥
नरकाध्युषितः पन्था गन्तव्यस्तेन दारुणः । अपापे पापहृदयो यः पापमनुतिष्ठति ॥ ६६ ॥
जो पापहीनके प्रति अपने हृदयमें पापपूर्ण भाव लेकर पापका ही बर्ताव करता है, उसे नरकके भयंकर मार्गपर जाना पड़ता है ॥ ६६ ॥
अहं वा स्वजनः श्लाघ्यः स वा श्लाघ्यतरः सुतः । नियमैर्गुणवृत्तेन त्वया बान्धवकाम्यया ॥ ६७ ॥
नियम, गुण और आचार-इनको सामने रखकर तुम्हें किसीको मित्र बनानेकी इच्छा करनी चाहिये । बतलाओ, तुम मुझ स्वजनको स्पृहणीय मानते हो अथवा अपने उस पुत्रको मुझसे भी अधिक श्लाघ्य समझते हो ? ॥ ६७ ॥
हस्तिनां कलहे घोरे वधमृच्छन्ति वीरुधः । युद्धव्युपरमे ते तु सहाश्नन्ति महावने ॥ ६८ ॥ बान्धवानामपि तथा भेदकाले समुत्थिते । बध्यते योऽन्तरप्रेप्सुः स्वजनो यदि वेतरः ॥ ६९ ॥
हाथियोंमें भयंकर युद्ध छिड़ जानेपर धास-पात और लताबेलें नष्ट होती हैं; फिर युद्धका विराम होनेपर वे हाथी उस महान् वनमें साथ-साथ खाते-पीते हैं; उसी प्रकार भाई-बन्धुओंमें भेद उपस्थित होनेपर जो छिद्र ढूँढ़नेवाला होता है, वही मारा जाता है; भले ही वह स्वजन हो या और कोई ॥ ६८-६९ ॥
कालस्त्वं हि विनाशाय मया पुष्टो विजानता । वसुदेवकुलस्यास्य यद् विरोधयसे भृशम् ॥ ७० ॥
वसुदेव ! तुम इस कुलके काल हो । मैंने अपने विनाशके लिये ही तुम्हें जान-बूझकर पालापोसा है । तभी तो तुम मुझसे अत्यन्त विरोध बढ़ा रहे हो ॥ ७० ॥
अमर्षी वैरशीलश्च सदा पापमतिः शठः । स्थाने यदुकुलं मूढ शोचनीयं त्वया कृतम् ॥ ७१ ॥
ओ मूढ़ ! तुम अमर्षशील (असहिष्णु) और स्वभावतः वैर रखनेवाले हो । तुम्हारी बुद्धि सदा पापमें ही लगी रहती है । तुम शठ हो । तुमने जो इस यदुकुलकी शोचनीय अवस्था कर दी है, वह उचित ही है' ॥ ७१ ॥
वसुदेव वृथा वृद्ध यन्मया त्वं पुरस्कृतः । श्वेतेन शिरसा वृद्धो नैव वर्षशतैर्भवेत् ॥ ७२ ॥ यस्यबुद्धिः परिणता स वै वृद्धतरो नृणाम् ॥ ७३ ॥
'बूढ़े वसुदेव ! मैंने जो तुम्हें पुरस्कृत किया-सदा अगुआ बनाकर रखा, वह सब व्यर्थ हो गया । सिरके बाल सफेद हो जायें और सौ वर्षोंकी आयु हो जायइतनेसे ही कोई वृद्ध (श्रेष्ठ) नहीं हो सकता, जिसकी बुद्धि परिपक्व हो, वही मनुष्योंमें वृद्धतर (श्रेष्ठतम या बड़ा-बूढ़ा) माना गया है ॥ ७२-७३ ॥
त्वं च कर्कशशीलश्च बुद्ध्या च न बहुश्रुतः । केवलं वयसा वृद्धो यथा शरदि तोयदः ॥ ७४ ॥
तुम्हारा स्वभाव तो कर्कश (क्रूर) है । तुम बुद्धिसे भी बहुश्रुत (अधिक बातोंके जानकार) नहीं हो । शरद् ऋतुके बादलकी भौति केवल अवस्थामें ही बूढ़े हो (अनुभवमें नहीं) ॥ ७४ ॥
किं च त्वं साधु जानीषे वसुदेव वृथामते । मृते कंसे मम सुतो मथुरां पालयिष्यति ॥ ७५ ॥
इतना ही नहीं, व्यर्थ बुद्धि रखनेवाले वसुदेव ! तुम यह अच्छी तरह समझने लगे हो कि कंसके मर जानेपर मेरा बेय मधुराका पालन करेगा-वही यहाँका राजा होगा ॥ ७५ ॥
छिन्नाशस्त्वं वृथा वृद्धो मिथ्या त्वेवं विचारितम् । जिजीविषुर्न सोऽप्यस्ति योऽवतिष्ठेन्ममाग्रतः॥ ७६ ॥
परंतु तुम्हारी यह आशा छिन्न-भिन्न हो जायगी । तुम व्यर्थ ही बूढ़े हुए । तुमने झूठे ही ऐसा विचार किया है । अरे ! जो मेरे सामने प्रतिद्वन्द्वी बनकर खड़ा हो, उसके विषयमें यह समझना चाहिये कि वह जीवित रहना नहीं चाहता ॥ ७६ ॥
प्रहर्तुकामो विश्वस्ते यस्त्वं दुष्टेन चेतसा । तत्ते प्रतिकरिष्येऽहं पुत्रयोस्तव पश्यतः ॥ ७७ ॥
मैंने सदा तुम्हारा विश्वास किया और तुमने दुष्टतापूर्ण चित्तसे मुझपर प्रहार करनेकी अभिलाषा की । इसका बदला मैं तुम्हारे दोनों पुत्रोंसे लूंगा और तुम उसे अपनी आँखों देखोगे ॥ ७७ ॥
न मे वृद्धवधः कश्चिद् द्विजस्त्रीवध एव च । कृतपूर्वः करिष्ये वा विशेषेण तु बान्धवे ॥ ७८ ॥
मैंने पहले कभी भी किसी बूढेका, ब्राह्मणका अथवा स्त्रीका वध नहीं किया है तथा न आगे ही ऐसा करूंगा; विशेषतः अपने बन्धुबान्धवपर तो मैं हाथ उठाऊँगा ही नहीं ॥ ७८ ॥
इह त्वं जातसंवृद्धो मम पित्रा विवर्धितः । पितृष्वसुश्च मे भर्ता यदूनां प्रथमो गुरुः ॥ ७९ ॥
वसुदेव ! तुम यहाँ पैदा हुए. यहीं बढ़े और मेरे पिताने ही तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया । तुम मेरी चचेरी बहिनके पति हो और यदुवंशियोंमें सर्वश्रेष्ठ गुरुरूप माने जाते हो ॥ ७९ ॥
कुले महति विख्यातः प्रथिते चक्रवर्तिनाम् । गुर्वर्थं पूजितः सद्भिर्महद्भिर्धर्मबुद्धिभिः ॥ ८० ॥
चक्रवर्तियोंके सुविख्यात एवं महान् कुलमें तुम्हारा जन्म हुआ, तुम स्वयं भी प्रसिद्ध हो तथा धर्मविषयक बुद्धि रखनेवाले श्रेष्ठ महापुरुषोंने उसी गौरवके कारण तुम्हारा पूजन, आदर-सत्कार किया है ॥ ८० ॥
किं करिष्यामहे सर्वे सत्सु वक्तव्यतां गताः । यदूनां यूथमुख्यस्य यस्य ते वृत्तमीदृशम् ॥ ८१ ॥
तुम यदुवंशियोंके समुदायमें मुख्य हो । जब तुम्हारा आचारव्यवहार ऐसा है (तो औरोंका क्या कहा जाय ?) । क्या करें, हम सब लोग केवल तुम्हारे कारण सत्पुरुषोंके समाजमें निन्दाके पात्र बन गये' ॥ ८१ ॥
मद्वधो वा जयो वाथ वसुदेवस्य दुर्नयैः । सत्सु यास्यन्ति पुरुषा यदूनामवगुण्ठिताः ॥ ८२ ॥
'वसुदेवकी दुर्नीतिसे मेरा वध हो अथवा विजय, आजसे यदुकुलके पुरुष सज्जनोंके समाजमें अपना मुंह ढंककर जायेंगे ॥ ८२ ॥
त्वया हि मद्वधोपायं तर्कमाणेन वै मृधे । अविश्वास्यं कृतं कर्म वाच्याश्च यदवः कृताः ॥ ८३ ॥
वसुदेव ! तुमने युद्ध में मेरे वधका उपाय सोचते-सोचते ऐसा कर्म कर डाला, जिसके कारण यादवोंके ऊपरसे सबका विश्वास उठ गया । तुमने यदुवंशियोंको कलङ्कित करके निन्दाके योग्य बना दिया ॥ ८३ ॥
अशाम्यं वैरमुत्पन्नं मम कृष्णस्य चोभयोः । शान्तिमेकतरे शान्तिं गते यास्यन्ति यादवाः ॥ ८४ ॥
अब तो हम दोनोंमें-मुझ कंस और कृष्णमें कभी शान्त न होनेवाला वैर उत्पन्न हो गया है । हममेंसे किसी एक व्यक्तिके शान्त होने-मर जानेपर ही यादवोंको शान्ति मिलेगी ॥ ८४ ॥
गच्छ दानपते क्षिप्रं ताविहानयितुं व्रजात् । नन्दगोपं च गोपांश्च करदान् मम शासनात् ॥ ८५ ॥
दानपते अक्रूर ! तुम मेरे आदेशसे वसुदेवके उन दोनों पुत्रोंको, नन्दगोपको तथा मुझे कर देनेवाले अन्य गोपोंको भी व्रजसे यहाँ थुला लानेके लिये शीघ्र जाओ ॥ ८५ ॥
वाच्यश्च नन्दगोपो वै करमादाय वार्षिकम् । शीघ्रमागच्छ नगरं गोपैः सह समन्वितः ॥ ८६ ॥
नन्दगोपसे कह देना कि तुम हमारा वार्षिक कर लेकर गोपोंके साथ शीघ्र ही मथुरापुरीको चलो ॥ ८६ ॥
कृष्णसङ्कर्षणौ चैव वसुदेवसुतावुभौ । द्रष्टुमिच्छति वै कंसः सभृत्यः सपुरोहितः ॥ ८७ ॥
वसुदेवके दोनों पुत्र जो श्रीकृष्ण और संकर्षण हैं, इन्हें सेवकों और पुरोहितोंसहित महाराज कंस देखना चाहते हैं ॥ ८७ ॥
एतौ युद्धविदौ रङ्गे कालनिर्माणयोधिनौ । दृढौ च कृतिनौ चैव शृणोमि व्यायतोद्यमौ ॥ ८८ ॥
सुनता हूँ कि ये दोनों अखाड़े में लड़ना जानते हैं और सामयिक युद्धकी कलामें कुशल हैं । इन्होंने दीर्घकालसे इसके लिये विशेष यत्न और परिश्रम किया है तथा ये दोनों भाई सुदृढ़ और चतुर हैं ॥ ८८ ॥
अस्माकमपि मल्लौ द्वौ सज्जौ युद्धकृतोत्सवौ । ताभ्यां सह नियोत्स्येते तौ युद्धकुशलावुभौ ॥ ८९ ॥
हमारे यहाँ भी दो पहलवान लड़ाईके लिये तैयार हैं । इन्हें लड़ने-भिड़नेमें बड़ा आनन्द आता है । वे दोनों ही युद्धमें कुशल हैं, जो उन दोनों श्रीकृष्ण और संकर्षणके साथ युद्ध करेंगे ॥ ८९ ॥
द्रष्टव्यौ च मयावश्यं बालौ तावमरोपमौ । पितृष्वसुः सुतौ मुख्यौ व्रजवासौ वनेचरौ ॥ ९० ॥
वे दोनों देवोपम बालक मेरी चचेरी बहिनके प्रधान पुत्र हैं, जो इस समय व्रजमें रहते और वनमें विचरते हैं । मुझे अवश्य उन दोनोंको देखना चाहिये ॥ ९० ॥
वक्तव्यं च व्रजे तस्मिन् समीपे व्रजवासिनाम् । राजा धनुर्मखं नाम कारयिष्यति वै सुखी ॥ ९१ ॥
उस व्रजमें जाकर व्रजवासियोंके समीप तुम्हें यह कहना चाहिये कि सुखी राजा कंस धनुर्यज्ञका उत्सव करायेंगे ॥ ९१ ॥
सन्निकृष्टं वने ते तु निवसन्तु यथासुखम् । जनस्यामन्त्रितस्यार्थे यथ स्यात्सर्वमव्ययम् ॥ ९२ ॥
इस उत्सवमें आमन्त्रित हुए लोगोंको जिस प्रकार हर तरहसे आराम मिले, उसके लिये तुम सब व्रजवासी मथुराके समीपवर्ती वनमें आकर सुखपूर्वक रहो ॥ ९२ ॥
पयसः सर्पिषश्चैव दध्नो दध्युत्तरस्य च । यथाकामप्रदानाय भोज्याधिश्रयणाय च ॥ ९३ ॥
दूध, घी, दही और तक्र आदिको अतिथियोंकी इच्छाके अनुसार जुटाकर देना और खीर आदि बनानेके लिये जब जितने दूधको आगपर रखना आवश्यक हो, तब-तब उस आवश्यकताकी पूर्तिके लिये पर्याप्त दूध प्रस्तुत करना-इसी उद्देश्यसे तुम्हें नगरके निकट निवास करना है' ॥ ९३ ॥
अक्रूर गच्छ शीघ्रं त्वं तावानय ममाज्ञया । संकर्षणं च कृष्णं च द्रष्टुं कौतूहलं हि मे ॥ ९४ ॥
'अक्रूर ! शीघ्र जाओ । मेरी आज्ञासे उन दोनों संकर्षण और कृष्णको यहाँ ले आओ । मुझे उन्हें देखनेके लिये बड़ी उत्कण्ठा है ॥ ९४ ॥
तयोरागमने प्रीतिः परमा मत्कृता भवेत् । दृष्ट्वा तु तौ महावीर्यौ तद्विधास्यामि यद्धितम् ॥ ९५ ॥
उनके आ जानेसे मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी (जिसका श्रेय तुम्हें मिलेगा) । उन दोनों महापराक्रमी बालकोंको देखकर मैं वही करूँगा, जिसमें मेरा हित होगा ॥ ९५ ॥
शासनं यदि वा श्रुत्वा मम तौ परिभाषितम् । नागच्छेतां यथाकालं निग्राह्यावपि तौ मम ॥ ९६ ॥
मेरी यह आज्ञा तथा बातें सुनकर यदि वे दोनों यहाँ ठीक समयपर आनेको तैयार न हों तो मेरी रायमें वे बंदी बना लेनेके भी योग्य हैं (अर्थात् तुम उन्हें कैद करके भी ला सकते हो) ॥ ९६ ॥
सान्त्वमेव तु बालेषु प्रधानं प्रथमो नयः । मधुरेणैव तौ मन्दौ स्वयमेवानयाशु वै ॥ ९७ ॥
समझा-बुझाकर काम लेना ही बालकोंके प्रति प्रधान एवं प्रमुख नीति है; इसलिये तुम उन दोनों मूल्को मीठी बातोंसे स्वयं ही राजी करके यहाँ शीघ्र ले आओ ॥ ९७ ॥
अक्रूर कुरु मे प्रीतिमेतां परमदुर्लभाम् । यदि वा नोपजप्तोऽसि वसुदेवेन सुव्रत । तथा कर्तव्यमेतद्धि यथा तावागमिष्यतः ॥ ९८ ॥
उत्तम व्रतका पालन करनेवाले अक्रूर ! यदि वसुदेवने तुम्हारे भी कान न भर दिये हों तो तुम मेरी इस परम दुर्लभ प्रीतिका सम्पादन करो । तुम्हें वैसा ही प्रयत्न करना चाहिये, जिससे वे दोनों स्वतः यहाँ आ जाय ॥ ९८ ॥
एवमाक्षिप्यमाणोऽपि वसुदेवो वसूपमः । सागराकारमात्मानं निष्प्रकम्पमधारयत् ॥ ९९ ॥
कंसके इस प्रकार आक्षेप करनेपर भी वसुओंके समान शक्तिशाली वसुदेवने अपने समुद्र-जैसे ह्रदयको क्षुब्ध या कम्पित नहीं होने दिया । उसे धैर्यपूर्वक काबूमें रखा ॥ ९९ ॥
वाक्छल्यैस्ताड्यमानस्तु कंसेनादीर्घदर्शिना । क्षमां मनसि संधाय नोत्तरं प्रत्यभाषत ॥ १०० ॥
अदूरदर्शी कंसने उन्हें वाग्वाणोंसे बार-बार घायल किया । फिर भी उन्होंने मनमें क्षमाभाव रखकर उसे उसकी बातोंका कोई उत्तर नहीं दिया ॥ १०० ॥
ये तु तं ददृशुस्तत्र क्षिप्यमाणमनेकधा । धिग्धिगित्यसकृत् ते वै शनैरूचुरवाङ्मुखाः ॥ १०१ ॥
जिन लोगोंने वहाँ वसुदेवजीपर बारम्बार आक्षेप होता देखा, वे अपना मुँह नीचे किये धीरे-धीरे अनेक बार बोल उठे कि धिकार है, धिकार है ॥ १०१ ॥
अक्रूरस्तु महातेजा जानन् दिव्येन चक्षुषा । जलं दृष्ट्वेव तृषितः प्रेषितः प्रीतिमानभूत् ॥ १०२ ॥
महातेजस्वी अकूर अपनी दिव्य दृष्टि से सब कुछ जानते थे (कि भगवान् श्रीकृष्ण कौन हैं और किसलिये अवतीर्ण हुए हैं); अतः जैसे प्यासा मनुष्य पानीको देखते ही प्रसन्न हो उठता है, उसी प्रकार उन्हें कंसके भेजनेपर बड़ी प्रसन्नताका अनुभव हुआ ॥ १०२ ॥
तस्मिन्नेव मुहूर्ते तु मथुरायाः स निर्ययौ । प्रीतिमान्पुण्डरीकाक्षं द्रष्टुं दानपतिः स्वयम् ॥ १०३ ॥
दानपति अक्रूर मन-ही-मन प्रसन्न हो स्वयं जाकर कमलनयन श्रीकृष्णका दर्शन करनेके लिये उसी मुहूर्तमें मथुरासे निकल पड़े ॥ १०३ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि अक्रूरप्रस्थाने द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें अङ्करका प्रस्थानविषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२ ॥
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