श्रीहरिवंशपुराण विष्णुपर्व त्रयोविंशोऽध्यायः
अन्धकवचनम्
अन्धकका कंसको मुंहतोड़ उत्तर -
वैशंपायन उवाच क्षिप्तं यदुवृषं दृष्ट्वा सर्वे ते यदुपुङ्गवाः । निपीड्य श्रवणान् हस्तैर्मेनिरे तं गतायुषम् ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! यदुकुलके उन सभी श्रेष्ठ पुरुषोंने यदुकुलतिलक वसुदेवपर आक्षेप होता देख शीघ्र ही हाथोंसे अपने-अपने कान बंद कर लिये । उन सबको यह निश्चय हो गया कि कंसकी आयु समाप्त हो चली है ॥ १ ॥
अन्धकोऽनुद्विग्नमना धैर्यादविकृतं वचः । प्रोवाच वदतां श्रेष्ठः समाजे कंसमोजसा ॥ २ ॥
उसी समाजमें वक्ताओंमें श्रेष्ठ अन्धक भी थे, जिनके मनमें कंससे तनिक भी भय नहीं था । उन्होंने धैर्यसे अपनी वाणीको विकाररहित रखते हुए कंससे ओजस्वी स्वरमें कहा- ॥ २ ॥
अश्लाघ्यो मे मतः पुत्र तवायं वाक्परिश्रमः । अयुक्तो गर्हितः सद्भिर्बान्धवेशु विशेषतः ॥ ३ ॥
'बेटा ! तुमने जो इतनी देरतक भाषण देनेका कष्ट उठाया है, तुम्हारा यह परिश्रम मेरे मतमें आदर या प्रशंसाके योग्य नहीं है । यह सर्वथा अनुचित है । श्रेष्ठ पुरुषोंने इसकी सदा निन्दा की है । विशेषतः अपने बन्धु-बान्धवॉक प्रति ऐसा आक्षेप सर्वथा निन्दित है ॥ ३ ॥
अयादवो यदि भवाञ्छृणु तावद्यदुच्यते । न हि त्वां यादवं वीर बलात् कुर्वन्ति यादवाः ॥ ४ ॥
वीर ! अब इस समय मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो । यदि तुम यादव नहीं हो या अपनेको यादव नहीं मानते हो तो ये यदुवंशी तुम्हें जबरदस्ती यादव नहीं बना रहे हैं (और न बनाना चाहते हैं) ॥ ४ ॥
अश्लाघ्या वृष्णयः पुत्र येषां त्वमनुशासिता । इक्ष्वाकुवंशजो राजा विनिवृत्तः स्वयं सकृत् ॥ ५ ॥
वत्स ! जिनके शासक तुम हो, वे वृष्णिवंशी आदर और प्रशंसाके योग्य हो ही नहीं सकते हैं । इक्ष्वाकुवंशमें एक प्रजापीड़क राजा उत्पन्न हुआ था, जो स्वयं ही किसी समय राज्य छोड़कर भाग गया अथवा मिट गया (इस यदुकुलमें तुम भी वैसे ही जान पड़ते हो, अत: तुम्हारी भी वैसी ही दशा होनेवाली हैं) ॥ ५ ॥
भोजो वा यादवो वासि कंसो वासि यथा तथा । सहजं ते शिरस्तात जटी मुण्डोऽपि वा भव ॥ ६ ॥
तात ! तुम भोज हो, यादव हो अथवा कंस हो या जैसा-तैसा कोई भी हो, तुम्हारा मस्तक तुम्हारे साथ ही उत्पन्न हुआ है (और वह अभीतक मौजूद है) । तुम उसपर बड़ी-बड़ी जटाएँ रखा लो अथवा मूंड मुड़ा लो (यदि तुम यादव रहना नहीं चाहते तो जो चाहो, वही बन जाओ) ॥ ६ ॥
उग्रसेनस्त्वयं शोच्यो योऽस्माकं कुलपांसनः । दुर्जातीयेन येन त्वमीदृशो जनितः सुतः ॥ ७ ॥
मेरी दृष्टिमें तो यह उग्रसेन शोचनीय है, जो हमलोगोंमें कुलाङ्गार पैदा हो गया और जिस दुर्जातिने तुम्हारे-जैसे बेटेको जन्म दिया ॥ ७ ॥
न चात्मनो गुणांस्तात प्रवदन्ति मनीषिणाः । परेणोक्ता गुना गौण्यं यान्ति वेदार्थसंमिताः ॥ ८ ॥
तात ! मनीषी पुरुष अपने मुखसे अपने गुणोंका बखान नहीं करते हैं । दूसरेके द्वारा वर्णित या प्रशंसित हुए गुण ही सफल होते और वेदार्थके तुल्य प्रामाणिक माने जाते हैं ॥ ८ ॥
पृथिव्यां यदुवंशोऽयं निन्दनीयो महीक्षिताम् । बालः कुलान्तकृन्मूढो येषां त्वमनुशासिता ॥ ९ ॥
'भूमण्डलमें यह यदुवंश समस्त भूपालोंके लिये निन्दनीय बन गया; क्योंकि तुम्हारे समान कुलनाशक, मूर्ख और अविवेकी बालक इन यादवोंका शासक है ॥ ९ ॥
असाधुमद्भिर्वाक्यैश्च त्वया साध्विति भाषितैः । न चाप्यासादितं कार्यमात्मा च विवृतः कृतः ॥ १० ॥
तुमने निन्दायुक्त वचनोंको उत्तम मानकर जो यहाँ कहा है, उनसे कोई कार्य तो सिद्ध हुआ नहीं; केवल तुम्हारे स्वरूपका स्पष्टीकरण हो गया है (इन बातोंसे सब लोग यह जान गये कि तुम कितने ओछे हो !) ॥ १० ॥
गुरोरनवलिप्तस्य मान्यस्य महतामपि । क्षेपणं कः शुभं मन्ये द्विजस्येव वधे कृते ॥ ११ ॥
जो अहंकाररहित तथा महापुरुषोंके लिये भी माननीय गुरुजन हैं, उनपर आक्षेप करना ब्रह्महत्याके समान है । उसे करके कौन अपने लिये कल्याणकी आशा कर सकता है ॥ ११ ॥
मान्याश्चैवाभिगम्याश्च वृद्धास्तात यथाग्नयः । क्रोधो हि तेषां प्रदहेल्लोकानन्तर्गतानपि ॥ १२ ॥
तात ! वृद्ध पुरुष अग्नियोंके समान आदरणीय तथा सेव्य होते हैं, उनका क्रोध आन्तरिक साधनाओंसे प्राप्त हुए लोकोंको भी जलाकर भस्म कर सकता है ॥ १२ ॥
बुधेन तात दान्तेन नित्यमभ्युच्छ्रितात्मना । धर्मस्य गतिरन्वेष्या मत्स्यस्य गतिरप्स्विव ॥ १३ ॥
तात ! जिसका आत्मा उन्नतिके पथपर अग्रसर है तथा जो जितेन्द्रिय एवं विवेकशील विद्वान् है, उस पुरुषको धर्मकी गतिका सदा ही अन्वेषण करना चाहिये, जैसे जलमें मछलीकी गति अत्यन्त सूक्ष्म या अव्यक्त होती है, उसी प्रकार धर्मकी गति भी सूक्ष्म है ॥ १३ ॥
केवलं त्वं तु दर्पेण वृद्धानग्निसमानिह । वाचा तुदसि मर्मघ्न्या अमन्त्रोक्ता यथाऽऽहुतिः ॥ १४ ॥
तुम तो केवल अहंकारवश यहाँ बैठे हुए अग्रिके समान तेजस्वी वृद्ध पुरुषोंको अपनी मर्मभेदिनी वाणीद्वारा पीड़ा दे रहे हो । जैसे मन्त्रका उच्चारण किये बिना दी हुई आहुति व्यर्थ होती है, उसी प्रकार तुम्हारी ये आक्षेपपूर्ण बातें निष्फल हैं ॥ १४ ॥
वसुदेवं च पुत्रार्थे यदिमं परिगर्हसि । तत्र मिथ्या प्रलापं ते निन्दामि कृपणं वचः ॥ १५ ॥
वसुदेवने अपने पुत्रकी रक्षाके लिये जो कुछ किया है, उसके लिये जो तुम इनपर आक्षेप करते हो, वह सब तुम्हारा मिथ्या प्रलाप है । उस विषयमें कही गयी तुम्हारी इन कायरतापूर्ण बातोंकी मैं निन्दा करता हूँ ॥ १५ ॥
दारुणे च पिता पुत्रे नैव दारुणतां व्रजेत् । पुत्रार्थे ह्यापदः कष्टाः पितरः प्राप्नुवन्ति हि ॥ १६ ॥
पुत्र क्रूर स्वभावका हो जाय तो भी पिता उसके प्रति निष्ठुर नहीं हो सकता; क्योंकि पुत्रोंके लिये पिताओंको कितनी ही कष्टदायिनी विपत्तियाँ झेलनी पड़ती हैं ॥ १६ ॥
छादितो वसुदेवेन यदि पुत्रः शिशुस्तदा । मन्यसे यद्यकर्तव्यं तत् पृच्छ पितरम् स्वकम् ॥ १७ ॥
यदि वसुदेवने उस समय अपने पुत्रको उसकी रक्षाके लिये छिपा दिया था तो यह कोई अनुचित कर्म नहीं किया । यदि तुम इसे न करनेयोग्य बुरा कर्म मानते हो तो इस विषयमें अपने पितासे ही पूछो ॥ १७ ॥
गर्हता वसुदेवं च यदुवंशं च निन्दता । त्वया यादवपुत्राणां वैरजं विषमर्जितम् ॥ १८॥
वसुदेवपर आक्षेप और यादवकुलकी निन्दा करके तुमने यहाँ यादवकुमारोंके वैरजनित विषका ही उपार्जन किया है ॥ १८ ॥
अकर्तव्यं यदि कृतं वसुदेवेन पुत्रजम् । किमर्थमुग्रसेनेन शिशुस्त्वं न विनाशितः ॥ १९ ॥
यदि वसुदेवने अपने पुत्रके प्राण बचाकर अनुचित कर्म किया है तो उग्रसेनने शैशवावस्थामें तुम्हें क्यों नहीं मार डाला था ॥ १९ ॥
पुन्नाम्नो नरकात्पुत्रो यस्मात् त्राता पितॄंस्तदा । तस्माद् ब्रुवन्ति पुत्रेति पुत्रं धर्मविदो जनाः ॥ २० ॥
'पुत्र पुत् नामक नरकसे पितरोंकी रक्षा करता है, इसलिये धर्मज्ञ पुरुष पुत्रको पुत्र कहते हैं ॥ २० ॥
जात्यां हि यादवः कृष्णः स च सङ्कर्षणो युवा । त्वं चापि विधृतस्ताभ्यां जातवैरेण चेतसा ॥ २१ ॥
श्रीकृष्ण और नवयुवक संकर्षण भी यादव ही हैं, किंतु तुमने उनके उत्पन्न होते ही उनसे वैर बाँध लिया; फिर उन दोनोंने मनमें वैरभावको स्थान देकर तुमसे शत्रुता बाँध ली है (अतः इस वैरभावमें प्रथम अपराध तुम्हारा ही है) ॥ २१ ॥
उद्भूतानीह सर्वेषां यदूनां हृदयानि वै । वसुदेवे त्वयाऽऽक्षिप्ते वासुदेवे च कोपिते ॥ २२ ॥
तुमने वसुदेवपर आक्षेप किया और वसुदेवपुत्र श्रीकृष्णके मनमें अपने प्रति क्रोध उत्पन्न कर दिया, इससे समस्त यादवोंके हृदय यहाँ कम्पित हो उठे हैं ॥ २२ ॥
कृष्णे च भवतो द्वेष्ये वसुदेवविगर्हणात् । शंसन्ति चेमानि भयं निमित्तान्यशुभानि ते ॥ २३ ॥
एक तो श्रीकृष्णके प्रति तुम्हारा द्वेष था ही, दूसरे तुमने वसुदेवकी भरपूर निन्दा भी कर डाली, इससे ये अशुभसूचक अपशकुन प्रकट होकर तुम्हारे लिये भयकी प्राप्ति बता रहे हैं ॥ २३ ॥
सर्पाणां दर्शनं तीव्रं दुःस्वप्नानां निशाक्षये । पुर्या वैधव्यशंसीनि कारणैरनुमीमहे ॥ २४ ॥
जब रात समाप्त हो रही हो, उस समय सों और बुरे स्वप्नोंका दर्शन अत्यन्त कष्टदायक होता है । ये जो शकुन दिखायी देते हैं, वे इस नगरीके भावी वैधव्यकी सूचना देनेवाले हैं । अबतक जो कारण प्राप्त हुए हैं, उनसे हमें ऐसा ही अनुमान होता है ॥ २४ ॥
एष घोरो ग्रहः स्वातीमुल्लिखन् खे गभस्तिभिः । वक्रमङ्गारकश्चक्रे चित्रायां घोरदर्शनः ॥ २५ ॥
यह भयंकर ग्रह राहु आकाशमें अपनी किरणोंद्वारा स्वातिका वेध कर रहा है तथा भयानक दिखायी देनेवाला मंगल सर्वतोभद्रचक्रमें वक्रीभूत होकर चित्रा नक्षत्रपर स्थित है * ॥ २५ ॥
बुधेन पश्चिमा सन्ध्या व्याप्ता घोरेण तेजसा । वैश्वानरपथे शुक्रो ह्यतिचारं चचार ह ॥ २६ ॥
बुधने भयानक तेजसे पश्चिम संध्याको व्याप्त कर रखा है (अर्थात् वे पश्चिम दिशामें उदित हो रहे हैं, ऐसा होना राज्यभंगका सूचक है) तथा शुक्रने वैश्वानरपथ (सूर्यमार्ग)-पर अतिचार गतिसे चलना आरम्भ किया है (सूर्यको लाँधकर जाना ही अतिचार है) ॥ २६ ॥
केतुना धूमकेतोस्तु नक्षत्राणि त्रयोदश । भरण्यादीनि भिन्नानि नानुयान्ति निशाकरम् ॥ २७ ॥
धूमकेतु नामक उत्पात-ग्रहके पुच्छभागसे भरणी आदि तेरह नक्षत्र विद्ध हो गये हैं, इसलिये वे चन्द्रमाका अनुसरण नहीं करते हैं ॥ २७ ॥
प्राक्संध्या परिघग्रस्ता भाभिर्बाधति भास्करम् । प्रतिलोमं च यान्त्येव व्याहरन्तो मृगद्विजाः ॥ २८ ॥
पूर्वकालकी संध्या परिघसे ग्रस्त है । वह अपनी प्रभाओंद्वारा सूर्यदेवको बाधा पहुँचाती है तथा पशु और पक्षी अपनी बोली बोलते हुए प्रतिकूल दिशासे होकर जाते हैं ॥ २८ ॥
शिवा श्मशानान्निष्क्रम्य निःश्वासाङ्गारवर्षिणी । उभे सन्ध्ये पुरीं घोरा पर्येति बहु वाशती ॥ २९ ॥
दोनों संध्याओंके समय एक भयानक गीदड़ी श्मशानभूमिसे निकलकर अपने निःश्वाससे अङ्गारकी वर्षा करती और बहुत बोलती हुई मथुरापुरीके चारों ओर चक्कर लगाती है' ॥ २९ ॥
उल्का निर्घातनादेन पपात धरणीतले । चलत्यपर्वणि मही गिरीणां शिखराणि च ॥ ३० ॥
'कुछ ही समय पहले वज्रपातकी-सी ध्वनिके साथ पृथ्वीपर उल्कापात हुआ है । यह पृथ्वी तथा पर्वतोंके शिखर अकस्मात् काँपने लगते हैं ॥ ३० ॥
ग्रस्तः स्वर्भानुना सूर्यो दिवा नक्तमजायत । धूमोत्पातैर्दिशो व्याप्ताः शुष्काशनिसमाहताः ॥ ३१ ॥
अभी पिछले दिनों राहुने सूर्यपर ग्रहण लगा दिया था, जिससे दिनमें ही रात हो गयी थी । धूम और उत्पातोंसे सम्पूर्ण दिशाएँ व्याप्त हैं । सूखेमें ही बिजलियाँ गिरती हैं ॥ ३१ ॥
प्रस्रवन्ति घना रक्तं साशनिस्तनयित्नवः । चलिता देवताः स्थानात् त्यजन्ति विहगा नगान् ॥ ३२ ॥
मेघ बिजली और गड़गड़ाहटके साथ रक्तकी वर्षा करते हैं । देवताओंकी प्रतिमाएँ अपने स्थानसे हट जाती हैं और पक्षी वृक्षोंको त्याग देते हैं ॥ ३२ ॥
यानि राजविनाशाय दैवज्ञाः कथयन्ति ह । तानि सर्वाणि पश्यामो निमित्तान्यशुभानि वै ॥ ३३ ॥
ज्योतिषी लोग राजाके विनाशकी सूचना देनेवाले जो-जो अशुभ निमित्त (अपशकुन) बताते हैं, उन सबको हमलोग देख रहे हैं ॥ ३३ ॥
त्वं चापि स्वजनद्वेषी राजधर्मपराङ्मुखः । अनिमित्तागतक्रोधः सन्निकृष्टभयो ह्यसि ॥ ३४ ॥
तुम भी स्वजनोंसे द्वेष रखते हो, राजधर्मसे विमुख हो चुके हो और अकारण ही तुम्हें क्रोध आ जाता है, इससे जान पड़ता है, निकट भविष्यमें ही तुम्हारे ऊपर भय आनेवाला है ॥ ३४ ॥
यस्त्वं देवोपमं वृद्धं वसुदेवं वसूपमम् । मोहात् क्षिपसि दुर्बुद्धे कुतस्ते शान्तिरात्मनः ॥ ३५ ॥
दुर्बुद्ध ! तुम जो देवताओं तथा वसुओंके समान तेजस्वी बूढ़े वसुदेवपर मोहवश आक्षेप कर रहे हो, इससे तुम्हारी आत्माको शान्ति कैसे मिल सकती है ॥ ३५ ॥
त्वद्गतो यो हि नः स्नेहस्तं त्यजामोऽद्य वै वयम् । अहितं स्वस्य वंशस्य न त्वां क्षणमुपास्महे ॥ ३६ ॥
तुम्हारे प्रति जो हमारा स्नेह रहा है, उसे हमलोग आज त्याग देते हैं । तुम अपने वंशका अहित करनेवाले हो, अतः अब हम एक क्षण भी तुम्हारे पास नहीं बैठेंगे ॥ ३६ ॥
स हि दानपतिर्धन्यो यो द्रक्ष्यति वने गतम् । पुण्डरीकविशालाक्षं कृष्णमक्लिष्टकारिणम् ॥ ३७ ॥
वे दानपति अक्रूर धन्य हैं, जो आज बनमें गये हुए अनायास ही महान् कर्म करनेवाले कमलनयन श्रीकृष्णको अपनी आँखोंसे देखेंगे ॥ ३७ ॥
छिन्नमूलो ह्ययं वंशो यदूनां त्वत्कृते कृतः । कृष्णो ज्ञातीन् समानाय्य स सन्धानं करिष्यति ॥ ३८ ॥
तुम्हारे कारण इस यदुवंशकी जड़ कट गयी है । अब श्रीकृष्ण ही आकर समस्त भाईबन्धुओंको जुटायेंगे और उनमें मेल करायेंगे ॥ ३८ ॥
क्षान्तमेव तवानेन वसुदेवेन धीमता । कालसम्यक्परिज्ञानो ब्रूहि त्वं यद्यदिच्छसि ॥ ३९ ॥
इन बुद्धिमान् वसुदेवने तो तुम्हारे अपराधको क्षमा ही कर दिया है । कालने तुम्हारी विवेकशक्ति नष्ट कर दी, अत: तुम जो-जो चाहो, बकते रहो ॥ ३९ ॥
मह्यं तु रोचते कंस वसुदेवसहायवान् । गच्छ कृष्णस्य निलयं सन्धिस्तेन च रोचताम् ॥ ४० ॥
कंस ! मुझे तो यही अच्छा लगता है कि तुम वसुदेवको साथ लेकर श्रीकृष्णके स्थानपर जाओ और उनके साथ संधि करना स्वीकार करो ॥ ४० ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि अन्धकवचने त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंशकै अन्तर्गत विष्णुपर्वमें अन्धकका वचनविषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३ ॥
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