श्रीहरिवंशपुराण विष्णुपर्व चतुर्विंशोऽध्यायः
केशिवधः
केशीके अत्याचार और श्रीकृष्णद्वारा उसका वध -
वैशंपायन उवाच अन्धकस्य वचः श्रुत्वा कंसः संरक्तलोचनः । न किंचिदब्रवीत् क्रोधाद् विवेश स्वं निकेतनम् ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! अन्धककी बातें सुनकर कंसकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं । वह उनसे कुछ नहीं बोला और रोषपूर्वक उठकर अपने महलमें चला गया ॥ १ ॥
ते च सर्वे यथावेश्म यादवाः श्रुतविस्तराः । जग्मुर्विगतसङ्कल्पाः कंसवैकृतशंसिनः ॥ २ ॥
फिर वे सब यादव, जो वहाँकी सारी बातें विस्तारपूर्वक सुन चुके थे, निराश होकर अपने-अपने घरको लौट गये । वे मार्गमें यह चर्चा कर रहे थे कि कंसका मस्तिष्क खराब हो गया है ॥ २ ॥
अक्रूरोऽपि यथाऽऽज्ञप्तः कृष्णादर्शनलालसः । जगाम रथमुख्येन मनसा तुल्यगामिना ॥ ३ ॥
अङ्करके मनमें भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनकी लालसा जाग उठी थी, अतः वे भी कंसकी आज्ञाके अनुसार उठे और मनके समान शीघ्रगामी श्रेष्ठ रथपर आरूढ़ हो वहाँसे चल दिये ॥ ३ ॥
कृष्णस्यापि निमित्तानि शुभान्यङ्गगतानि वै । पितृतुल्येन शंसन्ति बान्धवेन समागमम् ॥ ४ ॥
उधर श्रीकृष्णको भी अपने अङ्गोंमें ही कुछ ऐसे शुभ लक्षण दिखायी देते थे, जो पिता-जैसे बान्धवसे भेंट होनेकी सूचना दे रहे थे ॥ ४ ॥
प्रागेव च नरेन्द्रेण माथुरेणोग्रसेनिना । केशिनः प्रेषितो दूतो वधायोपेन्द्रकारणात् ॥ ५ ॥
(अक्रूरको भेजनेसे) पहले ही मथुराके राजा उग्रसेनकुमार कंसने केशीके पास दूत भेजा और कहलाया कि तुम श्रीकृष्णका वध कर डालो ॥ ५ ॥
स च दूतवचः श्रुत्वा केशी केशकरो नृणाम् । वृन्दावनगतो गोपान् बाधते स्म दुरासदः ॥ ६ ॥
दूतकी बात सुनकर मनुष्योंको क्लेश प्रदान करनेवाला दुर्जय दैत्य केशी वृन्दावनमें जाकर गोपोंको सताने लगा ॥ ६ ॥
मानुषं मांसमश्नानः क्रुद्धो दुष्टपराक्रमः । दुर्दान्तो वाजिदैत्योऽसावकरोत्कदनं महत् ॥ ७ ॥
केशी घोड़े के रूपमें रहनेवाला दुर्दान्त दैत्य था और मनुष्यका मांस खाता था । उस दुष्ट पराक्रमी असुरने कुपित होकर वहाँ महान् संहार आरम्भ कर दिया ॥ ७ ॥
निघ्नन्गा वै सगोपालान् गवां पिशितभोजनः । दुर्मदः कामचारी च स केशी निरवग्रहः ॥ ८ ॥
वह ग्वालॉसहित गौओंको मार डालता और गौओंका मांस खाया करता था । मदमत्त केशी स्वच्छन्द विचरनेवाला और उच्चखल था ॥ ८ ॥
तदरण्यं श्मशानाभं नृणां मांसास्थिभिर्वृतम् । यत्रास्ते स हि दुष्टात्मा केशी तुरगदानवः ॥ ९ ॥
अश्वरूपधारी दुष्टात्मा दानव केशी जहाँ रहता था, वह वन मनुष्योंके मांस और हड्डियोंसे व्याप्त होकर श्मशानभूमिके समान प्रतीत होता था ॥ ९ ॥
खुरैर्दारयते भूमिं वेगेनारुजते द्रुमान् । हेषितैः स्पर्द्धते वायुं प्लुतैर्लंघयते नभः ॥ १० ॥
वह टापोंसे पृथ्वीको विदीर्ण कर देता और वेगसे वृक्षोंको भी तोड़ डालता था, हींसते या हिनहिनाते समय प्रचण्ड वायुके कोलाहलसे होड़ लगाता था और उछलकर आकाशको भी लॉप जाता था ॥ १० ॥
अतिप्रवृद्धो मत्तश्च दुष्टोऽश्वो वनगोचरः । आकम्पितसटो रौद्रः कंसस्य चरितानुगः ॥ ११ ॥
वह वनमें विचरनेवाला दुष्ट अश्व बहुत बड़ा और मतवाला था । उसके अयाल कुछ हिलते रहते थे । वह भयंकर दैत्य कंसके चरित्रका अनुसरण करनेवाला था ॥ ११ ॥
ईरिणं तद्वनं सर्वं तेनासीत् पापकर्मणा । कृतं तुरगदैत्येन सर्वान् गोपाञ्जिघांसता ॥ १२ ॥
समस्त गोपोंको मार डालनेकी इच्छावाले उस पापाचारी अश्वरूपधारी दैत्यने वह सारा वन मनुष्योंसे सूना कर दिया था ॥ १२ ॥
तेन दुष्टप्रचारेणा दूषितं तद् वनं महत् । न नृभिर्गोधनैर्वापि सेव्यते वनवृत्तिभिः ॥ १३ ॥
उस दुराचारीने वह विशाल वन दूषित कर डाला था । वनसे ही जीवन-निर्वाह करनेवाले मनुष्य और गोधन भी कभी उस वनका सेवन नहीं करते थे ॥ १३ ॥
निःसम्पातः कृतः पन्थास्तेन तद्विषयाश्रयः । मदाच्चलितवृत्तेन नृमांसान्यश्नता भृशम् ॥ १४ ॥
मदके कारण वह सदाचारसे भ्रष्ट हो चुका था और अधिकतर मनुष्योंके ही मांस खाता था । उसके निवासस्थानमें होकर जो रास्ता जाता था, उसे उसने अगम्य बना दिया था ॥ १४ ॥
नृशब्दानुसरः क्रुद्धः स कदाचिद् वनागमे । जगाम घोषसंवासं चोदितः कालधर्मणा ॥ १५ ॥
एक समय मनुष्योंके शब्दका अनुसरण करता हुआ केशी क्रोधमें भरकर वृन्दावनके भीतर गोपोंकी बस्तीमें गया, उस समय उसपर काल सवार था ॥ १५ ॥
तं दृष्ट्वा दुद्रुवुर्गोपाः स्त्रियश्च शिशुभिः सह । क्रन्दमाना जगन्नाथं कृष्णं नाथमुपाश्रिताः ॥ १६ ॥
उसे देखते ही गोप और गोपाङ्गनाएँ शिशुओंको साथ लेकर भागीं तथा करुण क्रन्दन करती हुई जगत्के रक्षक, अपने स्वामी श्रीकृष्णकी शरणमें आ पहुँचीं ॥ १६ ॥
तासां रुदितशब्देन गोपानां क्रन्दितेन च । दत्त्वाभयं तु कृष्णो वै केशिनं सोऽभिदुद्रुवे ॥ १७ ॥
गोपाङ्गनाओंके रोदन और गोपोंके क्रन्दनसे द्रवित होकर श्रीकृष्णने उन्हें अभय कर दिया । फिर वे केशीपर टूट पड़े ॥ १७ ॥
केशी चाप्युन्नतग्रीवः प्रकाशदशनेक्षणः । हेषमाणो जवोदग्रो गोविन्दाभिमुखो ययौ ॥ १८ ॥
केशी भी अपनी गर्दन ऊपर उठाये हींसता हुआ बड़े वेगसे श्रीकृष्णकी ओर चला । उस समय वह दाँत दिखाता हुआ आँखें फाड़-फाड़कर उनकी ओर देख रहा था ॥ १८ ॥
तमापतन्तं संप्रेक्ष्य केशिनं हयदानवम् । प्रत्युज्जगाम गोविन्दस्तोयदः शशिनं यथा ॥ १९ ॥
उस अश्वरूपधारी दानव केशीको अपनी ओर आते देख भगवान् श्रीकृष्ण उसका सामना करनेके लिये आगे बढ़े, मानो श्याम मेघ चन्द्रमाकी ओर जा रहा हो ॥ १९ ॥
केशिनस्तु तमभ्याशे दृष्ट्वा कृष्णमवस्थितम् । मनुष्यबुद्धयो गोपाः कृष्णमूचुर्हितैषिणः ॥ २० ॥
श्रीकृष्णको केशीके निकट खड़ा हुआ देख उनके प्रति मनुष्य-बुद्धि रखनेवाले हितैषी गोप उनसे इस प्रकार बोले- ॥ २० ॥
कृष्ण तात न खल्वेष सहसा ते हयाधमः । उपसर्प्यो भवान् बालः पापश्चैष दुरासदः ॥ २१ ॥
'तात श्रीकृष्ण ! तुम सहसा इस नीच अश्वके पास न चले जाना; क्योंकि तुम अभी बालक हो और यह पापात्मा एक दुर्धर्ष दैत्य है ॥ २१ ॥
एष कंसस्य सहजः प्राणस्तात बहिश्चरः । उत्तमश्च हयेन्द्राणां दानवोऽप्रतिमो युधि ॥ २२ ॥
तात ! यह कंसका बाहर विचरनेवाला सहज प्राण है, बड़े-बड़े अश्वराजोंमें उत्तम है । युद्धमें इस दानवकी समानता करनेवाला कोई नहीं है ॥ २२ ॥
त्रासनः सर्वभूतानां तुरगाणां महाबलः । अवध्यः सर्वभूतानां प्रथमः पापकर्मणाम् ॥ २३ ॥
समस्त प्राणियोंको त्रास देनेवाला यह दैत्य घोड़ोंमें सबसे अधिक बलवान् है । सम्पूर्ण भूतों से किसीके लिये भी यह वध्य नहीं है । पापाचारियोंमें यह सबसे अग्रगण्य है' ॥ २३ ॥
गोपानां तद् वचः श्रुत्वा वदतां मधुसूदनः । केशिना सह युद्धाय मतिं चक्रेऽरिसूदनः ॥ २४ ॥
उपर्युक्त बातें कहनेवाले गोपॉका वह कथन सुनकर शत्रुसूदन भगवान् मधुसूदनने केशीके साथ युद्धके लिये विचार किया ॥ २४ ॥
ततः सव्यं दक्षिणं च मण्डलं स परिभ्रमन् । पद्भ्यामुभाभ्यां स हयः क्रोधेनारुजते द्रुमान् ॥ २५ ॥
तदनन्तर वह अश्व दायें-बायें चक्कर काटता हुआ अपने दोनों पैरोंसे क्रोधपूर्वक वृक्षोंको तोड़ने लगा ॥ २५ ॥
मुखे लम्बसटे चास्य स्कन्धे केशघनावृते । बलयोऽभ्रतरङ्गाभाः सुस्त्रुवुः क्रोधजं जलम् ॥ २६ ॥
उसके लम्बे अयालवाले मुख और घने केशोंसे ढके हुए कंधेपर जो मेधोंकी लहरोंके समान वलियाँ (चमड़ोंके सिकुड़नेसे बनी हुई रेखाएँ) थीं, वे क्रोधजनित जल (पसीना) टपकाने लगीं ॥ २६ ॥
स फेनं वक्त्रजं चैव ववर्ष रजसावृतम् । हिमकाले यथा व्योम्नि नीहारमिव चन्द्रमाः ॥ २७ ॥
वह अपने मुखसे पैदा हुए धूलमिश्रित फेनकी वर्षा करने लगा । मानो हेमन्त-ऋतुमें चन्द्रमा आकाशमें कुहासा गिरा रहा हो ॥ २७ ॥
गोविन्दमरविन्दाक्षं हेषितोद्गारशीकरैः । स फेनैर्वक्त्रनिर्गीर्णैः प्रोक्षयामास भारत ॥ २८ ॥
भरतनन्दन ! उसने अपने हीसनेके साथ निकले हुए जलकणों तथा मुखसे गिरते हुए फेनोंद्वारा कमलनयन श्रीकृष्णको नहला दिया ॥ २८ ॥
खुरोद्धूतावसिक्तेन मधुकक्षोदपाण्डुना । रजसा स हयः कृष्णं चकारारुणमूर्धजम् ॥ २९ ॥
अपनी टापोंसे उठकर फैली हुई धूलसे, जो मुलेठीके चूर्णकी भाँति कुछ-कुछ पीले रंगकी थी, उस घोड़ेने श्रीकृष्णके मस्तकके बालोंको कुछ लाल-सा कर दिया ॥ २९ ॥
प्लुतवल्गितपादस्तु तक्षमाणो धरां खुरैः । दन्तान् निर्दशमानस्तु केशी कृष्णामुपाद्रवत् ॥ ३० ॥
केशीके पैर वहाँ उछल-कूद मचा रहे थे । वह अपनी टापोंसे पृथ्वीको खोदता और दाँतोंको पीसता हुआ श्रीकृष्णकी ओर दौड़ा ॥ ३० ॥
स संसक्तस्तु कृष्णेन केशी तुरगसत्तमः । पूर्वाभ्यां चरणाभ्यां वै कृष्णं वक्षस्यताडयत् ॥ ३१ ॥
अश्वोंमें श्रेष्ठ केशी श्रीकृष्णके साथ उलझ गया । उसने अपने दोनों आगेवाले पैरोंसे उनकी छातीमें प्रहार किया ॥ ३१ ॥
पुनः पुनः स च बली प्राहिणोत् पार्श्वतः खुरान् । कृष्णस्य दानवो घोरं प्रहारममितौजसः ॥ ३२ ॥
उस बलवान् दानवने अगल-बगलसे भी बारम्बार अपनी टाप चलायी और अमित तेजस्वी श्रीकृष्णपर घोर प्रहार किया ॥ ३२ ॥
वक्त्रेण चास्य घोरेण तीक्ष्णदंष्ट्रायुधेन वै । अदशद् बाहुशिखरं कृष्णस्य रुषितो हयः ॥ ३३ ॥
तीखी दाढ़ ही जिसका आयुध थी, उस भयानक मुखके द्वारा रोधमें भरे हुए उस घोड़ेने श्रीकृष्णकी भुजाके अग्रभागको दाँत गड़ाकर घायल कर दिया ॥ ३३ ॥
स लम्बकेसरसटः कृष्णेन सह सङ्गतः । रराज केशी मेघेन संसक्तः ख इवांशुमान् ॥ ३४ ॥
लम्बे-लम्बे अयालसे सुशोभित केशी श्रीकृष्णके साथ जूझता हुआ उसी तरह शोभा पाने लगा, जैसे आकाशमें अंशुमाली सूर्य मेघके साथ उलझ गये हों ॥ ३४ ॥
उरस्तस्योरसा हन्तुमियेष बलवान् हयः । वेगेन वासुदेवस्य क्रोधाद् द्विगुणविक्रमः ॥ ३५ ॥
उस बलवान् घोड़ेका पराक्रम उसके क्रोधके कारण दूना बढ़ गया था । उसने श्रीकृष्णकी छातीपर अपनी छातीसे वेगपूर्वक चोट पहुँचानेका विचार किया ॥ ३५ ॥
तस्योत्सिक्तस्य बलवान् कृष्णोऽप्यमितविक्रमः । बाहुमाभोगिनं कृत्वा मुखे क्रुद्धः समादधत् ॥ ३६ ॥
तब अमित पराक्रमी बलवान् श्रीकृष्णने भी कुपित होकर उस घमंडी दैत्यके मुख में अपनी एक बाँहको बहुत बड़ी करके डाल दिया ॥ ३६ ॥
स तं बाहुमशक्तो वै खादितुं भोक्तुमेव च । दशनैर्मूलनिर्मुक्तैः सफेनं रुधिरं वमन् ॥ ३७ ॥
वह उनकी उस बाँहको अपने दाँतोंसे चबाने या विदीर्ण करनेमें समर्थ न हो सका, उलटे उसके दाँत ही जड़से उखड़ गये । साथ ही वह मुखसे फेनसहित रक्त वमन करने लगा ॥ ३७ ॥
विपाटिताभ्यामोष्ठाभ्यां कटाभ्यां विदलीकृतः । अक्षिणी विवृते चक्रे विसृते मुक्तबन्धने ॥ ३८ ॥
उसके ओठ और गलफर फटकर दो दलोंमें विभक्त हो गये । स्नायु-बन्धनके ढीले हो जानेसे केशीकी आँखें फटकर बाहर निकल आयीं ॥ ३८ ॥
निरस्तहनुराविष्टः शोणिताक्तविलोचनः । उत्कर्णो नष्टचेतास्तु स केशी बह्वचेष्टत ॥ ३९ ॥
उसके होठोंका निचला भाग फटकर निकल गया । उस बाँहसे आविष्ट होनेके कारण उसके फटे हुए दोनों नेत्रोंसे रक्त बहने लगा । उसके कान भी उखड़कर गिर पड़े तथा चेतना नष्ट हो गयी । उस अवस्थामें केशी बारम्बार छटपटाने लगा ॥ ३९ ॥
उत्पतन्नसकृत्पादैः शकृन्मूत्रं समुत्सृजन् । खिन्नाङ्गरोमा श्रान्तस्तु निर्यत्नचरणोऽभवत् ॥ ४० ॥
वह बार-बार पैरोंको उछालने और मल-मूत्र छोड़ने लगा । उसका एक-एक अङ्ग और रोम-रोम खिन्न हो उठा था । अन्तमें वह थक गया और उसके पैर निशेष्ट हो गये ॥ ४० ॥
केशिवक्त्रविलग्नस्तु कृष्णबाहुरशोभत । व्याभुग्न इव घर्मान्ते चन्द्रार्धकिरणैर्घनः ॥ ४१ ॥
केशीके मुखमें लगी हुई श्रीकृष्णकी वह बाँह उसके मुखमण्डलसे आधी आवेष्टित-सी होकर वर्षाकालमें आधे चन्द्रमाकी किरणोंसे घिरे हुए बादलके समान शोभा पाती थी ॥ ४१ ॥
केशी च कृष्णासंसक्तः शान्तगात्रो व्यरोचत । प्रभातावनतश्चन्द्रः श्रान्तो मेरुमिवाश्रितः ॥ ४२ ॥
श्रीकृष्णसे सटे हुए केशीका शरीर शान्त हो गया था । उस समय वह उसी तरह शोभा पा रहा था, जैसे प्रभातकालमें अस्ताचलके शिखरपर पहुंचा हुआ चन्द्रमा थककर मेरुका आश्रय लेनेपर सुशोभित होता है ॥ ४२ ॥
तस्य कृष्णभुजोद्धूताः केशिनो दशना मुखात् । पेतुः शरदि निस्तोयाः सिताभ्रावयवा इव ॥ ४३ ॥
श्रीकृष्णकी भुजासे टकराकर केशीके सारे दाँत मुखसे बाहर गिर पड़े । वे ऐसे प्रतीत होते थे, मानो शरद्-ऋतुके जलशून्य श्वेत बादलोंके टुकड़े बिखरे हुए हों ॥ ४३ ॥
स तु केशी भृशं शान्तः कृष्णेनाक्लिष्टकर्मणा । स्वभुजं स्वायतं कृत्वा पाटितो बलवत् तदा ॥ ४४ ॥
जब केशी भलीभाँति शान्त हो गया, तब अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीकृष्णने अपनी बाँहको बहुत बड़ी करके उस दैत्यके शरीरको बलपूर्वक बीचसे चीर डाला ॥ ४४ ॥
स पाटितो भुजेनाजौ कृष्णेन विकृताननः । केशी नदन्महानादं दानवो व्यथितस्तदा ॥ ४५ ॥
उस युद्धस्थलमें श्रीकृष्णकी भुजाद्वारा फाड़े गये केशीका मुख विकराल हो उठा । वह दानव व्यथित होकर बड़े जोर-जोरसे आर्तनाद करने लगा ॥ ४५ ॥
विघूर्णमानस्त्रस्ताङ्गो मुखाद् रुधिरमुद्वमन् । भृशं व्यङ्गीकृतवपुर्निकृत्तार्द्ध इवाचलः ॥ ४६ ॥
उसके सारे अङ्ग शिथिल हो गये थे । वह चक्कर काटता हुआ मुंहसे खून उगल रहा था । उसका शरीर कई अङ्गोंसे हीन हो चुका था । वह ऐसा दिखायी देता था, मानो किसी पर्वतको बीचसे चीर डाला गया हो ॥ ४६ ॥
व्यादितास्यो महारौद्रः सोऽसुरः कृष्णबाहुना । निपपात यथा कृत्तो नागो हि द्विदलीकृतः ॥ ४७ ॥
श्रीकृष्णकी भुजासे जिसका मुँह फट गया था, वह दो भागोंमें बँटा हुआ महाभयङ्कर असुर दो टुकड़ोंमें कटे हुए हाथीके समान पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ ४७ ॥
बाहुना कृत्तदेहस्य केशिनो रूपमाबभौ । पशोरिव महाघोरं निहतस्य पिनाकिना ॥ ४८ ॥
श्रीकृष्णकी भुजासे कटे हुए शरीरवाले केशीका रूप पिनाकपाणि भगवान् रुद्रद्वारा मारे गये पशु (महिषासुर)-के समान अत्यन्त भयंकर प्रतीत होता था ॥ ४८ ॥
द्विपादपृष्ठपुच्छार्द्धे श्रवणैकाक्षिनासिके । केशिनस्तद्विधाभूते द्वे चार्धे रेजतुः क्षितौ ॥ ४९ ॥
केशीके शरीरके वे दोनों खण्ड दो पाँव, आधी पीठ, आधी पूँछ तथा एकएक कान, आँख और नासिकारन्ध्रसे युक्त हो पृथ्वीपर पड़े-पड़े (अनुपम) शोभा पा रहे थे ॥ ४९ ॥
केशिदन्तक्षतस्यापि कृष्णस्य शुशुभे भुजः । वृद्धः साल इवारण्ये गजेन्द्रदशनाङ्कितः ॥ ५० ॥
केशीके दाँतोंसे घायल हुई श्रीकृष्णकी वह बाँह ऐसी सुशोभित हो रही थी, मानो वनमें गजराजके दाँतोंके आघातचिहसे अङ्कित कोई बहुत बड़ा शालका वृक्ष हो ॥ ५० ॥
तं हत्वा केशिनं युद्धे कल्पयित्वा च भागशः । कृष्णः पद्मपलाशाक्षो हसंस्तत्रैव तस्थिवान् ॥ ५१ ॥
इस प्रकार युद्धमें केशीको मारकर उसके शरीरके टुकड़ेटुकड़े करके कमलनयन श्रीकृष्ण वहीं हँसते हुए खड़े रहे ॥ ५१ ॥
तं हतं केशिनं दृष्ट्वा गोपा गोपस्त्रियस्तथा । बभूवुर्मुदिताः सर्वे हतविघ्ना गतक्लमाः ॥ ५२ ॥
उस केशीको मारा गया देख गोप और गोपाङ्गनाएँ बहुत प्रसन्न हुई । सबके विघ्न नष्ट हो गये, कष्ट दूर हो गये ॥ ५२ ॥
दामोदरं तु श्रीमन्तं यथास्थानं यथावयः । अभ्यनन्दन् प्रियैर्वाक्यैः पूजयन्तः पुनः पुनः ॥ ५३ ॥
स्थान और अवस्थाके अनुसार सभी गोप बारम्बार श्रीमान् दामोदरका पूजन करते हुए प्रिय वचनोंद्वारा उनका अभिनन्दन करने लगे ॥ ५३ ॥
गोपा ऊचुः अहो तात कृतं कर्म हतोऽयं लोककण्टकः । दैत्यः क्षितिचरः कृष्ण हयरूपं समास्थितः ॥ ५४ ॥
गोप बोले-तात ! तुमने अद्धत कर्म किया है । यह समस्त जगत्के लिये कंटकरूप दैत्य आज तुम्हारे हाथसे मारा गया । श्रीकृष्ण ! यह इस भूतलपर घोड़ेका रूप धारण करके विचरता था ॥ ५४ ॥
कृतं वृन्दावनं क्षेमं सेव्यं नृमृगपक्षिणाम् । घ्नता पापमिमं तात केशिनं हयदानवम् ॥ ५५ ॥
तात ! इस अश्वरूपधारी पापी दानव केशीका वध करके तुमने वृन्दावनको मनुष्यों तथा पशु-पक्षियोंके लिये सेव्य और क्षेमकारक बना दिया ॥ ५५ ॥
हता नो बहवो गोपा गावो वत्सेषु वत्सलाः । नैके चान्ये जनपदा हतानेन दुरात्मना ॥ ५६ ॥
इस दुरात्माने हमारे बहुतसे गोप मार डाले थे । बछड़ोंपर वात्सल्य रखनेवाली बहुत-सी गौओंका भी वध कर डाला था । इसके सिवा और भी कितने ही जनपद इसके हाथों नष्ट हो चुके थे ॥ ५६ ॥
एष संवर्तकं कर्तुमुद्यतः खलु पापकृत् । नृलोकं निर्नरं कृत्वा चर्तुकामो यथासुखम् ॥ ५७ ॥
यह पापाचारी दानव निश्चय ही संसारका प्रलय करनेके लिये उद्यत हुआ था । मनुष्य-लोकको मनुष्योंसे सूना करके यहाँ सुखपूर्वक विचरनेकी इच्छा रखता था ॥ ५७ ॥
नैतस्य प्रमुखे स्थातुं कश्चिच्छक्तो जिजीविषुः । अपि देवसमूहेषु किं पुनः पृथिवीतले ॥ ५८ ॥
जीवित रहनेकी इच्छावाला कोई भी पुरुष इसके सामने खड़ा नहीं हो सकता था । देवताओंके समूहमेंसे भी कोई इसका सामना नहीं कर सकता था, फिर भूतल-निवासियोंकी तो बात ही क्या है ? ॥ ५८ ॥
वैशंपायन उवाच अथाहान्तर्हितो विप्रो नारदः खगमो मुनिः । प्रीतोऽस्मि विष्णो देवेश कृष्ण कृष्णेति चाब्रवीत् ॥ ५९ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! तदनन्तर आकाशचारी मुनि विप्रवर नारदजी आकाशमें अदृश्य भावसे खड़े हो बोले-'देवेश्वर विष्णो ! कृष्ण ! कृष्ण ! ! मैं आपपर बहुत प्रसन्न हूँ" ॥ ५९ ॥
नारद उवाच यदिदं दुष्करं कर्म कृतं केशिजिघांसया । त्वय्येव केवलं युक्तं त्रिदिवे त्र्यम्बकस्य वा ॥ ६० ॥
नारदजी फिर बोले-प्रभो ! आपने केशीको मार डालनेकी इच्छासे जो यह दुष्कर कर्म किया है, यह केवल आपके ही योग्य था अथवा देवलोकमें केवल त्रिनेत्रधारी रुद्र ही ऐसा पराक्रम कर सकते थे ॥ ६० ॥
अहं युद्धोत्सुकस्तात त्वद्गतेनान्तरात्मना । इदं नरहयं युद्धं द्रष्टुं स्वर्गादिहागतः ॥ ६१ ॥
तात ! मैं युद्ध देखनेको सदा ही उत्सुक रहता हूँ । अतः अपनी अन्तरात्मासे आपका ही चिन्तन करता हुआ यह मनुष्य और अश्वका संग्राम देखनेके लिये स्वर्गलोकसे यहाँ आया था ॥ ६१ ॥
पूतनानिधनादीनि कर्माणि तव दृष्टवान् । अहं त्वनेन गोविन्द कर्मणा परितोषितः ॥ ६२ ॥
गोविन्द ! आपके 'पूतनावध' आदि कौको भी मैं देख चुका हूँ । किंतु इस केशीके वधरूप कर्मसे मुझे विशेष संतोष हुआ है ॥ ६२ ॥
हयादस्मान्महेन्द्रोऽपि बिभेति बलसूदन । कुर्वाणाच्च वपुर्घोरं केशिनो दुष्टचेतसः ॥ ६३ ॥
भयानक रूप धारण करनेवाले इस दुरात्मा अश्व केशीसे बलसूदन देवराज इन्द्र भी डरते थे ॥ ६३ ॥
यत्त्वया पाटितो देहो भुजेनायतपर्वणा । एषोऽस्य मृत्युरन्ताय विहितो विश्वयोनिना ॥ ६४ ॥
आपने अपनी बाँहके एक भागको बड़ा करके उसके द्वारा जो इसके शरीरको फाड़ डाला है, विश्वयोनि ब्रह्माजीने इसकी मृत्युके लिये ऐसा ही विधान बनाया था ॥ ६४ ॥
यस्मात्त्वया हतः केशी तस्मान्मच्छासनं शृणु । केशवो नाम नाम्ना त्वं ख्यातो लोके भविष्यसि ॥ ६५ ॥
अब आप मेरा यह अनुशासन सुनें-आपने केशीका वध किया है, इसलिये संसारमें केशव' नामसे विख्यात होंगे ॥ ६५ ॥
स्वस्त्यस्तु भवतो लोके साधु याम्यहमाशुगः । कृत्यशेषम् च ते कार्यं शक्तस्त्वमसि मा चिरम् ॥ ६६ ॥
जगत्में आपका (या आपसे जगत्का) कल्याण हो । आपको साधुवाद देकर मैं शीघ्र चला जाता हूँ । अब तो (कंसवध आदि) कृत्य शेष रह गये हैं, उन्हें आपको पूर्ण करना है । आप इसमें समर्थ हैं, अत: शीघ्र कर डालें विलम्ब न होने दें ॥ ६६ ॥
त्वयि कार्यान्तरगते नरा इव दिवौकसः । विडम्बयन्तः क्रीडन्ति लीलां त्वद्बलमाश्रिताः ॥ ६७ ॥
जब आप भूभार-हरण आदि अन्य कार्योंके लिये यहाँ (अवतार लेनेके लिये) चले आते हैं, तब आपके ही बलका आश्रय लेनेवाले देवता भी मनुष्योंकी भाँति आपकी लीलाका अनुकरण (अभिनय) करते हुए (नाटक आदि) खेलते हैं ॥ ६७ ॥
अभ्याशे वर्तते कालो भारतस्याहवोदधेः । हस्तप्राप्तानि युद्धानि राज्ञां त्रिदिवगामिनाम् ॥ ६८ ॥
समुद्रतुल्य महाभारतयुद्धका समय अब बहुत निकट है । मरकर स्वर्गमें जानेवाले राजाओंके लिये युद्धके अवसर हाथमें आ गये हैं ॥ ६८ ॥
पन्थानः शोधिता व्योम्नि विमानारोहणोर्ध्वगाः । अवकाशा विभज्यन्ते शक्रलोके महीक्षिताम् ॥ ६९ ॥
विमानोंके आरोहणके लिये आकाशमें जो ऊर्ध्वगामी मार्ग हैं, उनका शोधन कर दिया गया है (रुकावटें दूर कर दी गयी हैं) । इन्द्रलोकमें आनेवाले राजाओंके लिये पृथक्-पृथक् अवकाश (निवास स्थान) बनाये जाते हैं ॥ ६९ ॥
उग्रसेनसुते शान्ते पदस्थे त्वयि केशव । अभितस्तन्महद् युद्धं भविष्यति महीक्षिताम् ॥ ७० ॥
केशव ! उग्रसेनकुमार कंसके मारे जानेपर जब आप यादवोंके संरक्षणके रूपमें मुख्य पदपर प्रतिष्ठित होंगे; तब सब ओर राजाओंका वह महान् युद्ध आरम्भ हो जायगा ॥ ७० ॥
त्वां चाप्रतिमकर्माणं संश्रयिष्यन्ति पाण्डवाः । भेदकाले नरेन्द्राणां पक्षग्राहो भविष्यसि ॥ ७१ ॥
आपके कर्म (या पराक्रम)-की कहीं तुलना नहीं है, अतः पाण्डवलोग आपकी ही शरण लेंगे । राजाओंमें भेदके अवसरपर जब युद्ध उपस्थित होगा, उस समय आप पाण्डवोंका ही पक्ष लेंगे ॥ ७१ ॥
त्वयि राजासनस्थे हि राजश्रियमनुत्तमाम् । शुभां त्यक्ष्यन्ति राजानस्त्वत्प्रभावान्न संशयः ॥ ७२ ॥
जब आप राजासनपर बैठेंगे, तब आपके प्रभावसे राजालोग अपनी उत्तम एवं शुभ राज्यलक्ष्मीको त्याग देंगे, इसमें संशय नहीं है ॥ ७२ ॥
एष मे कृष्ण संदेशः श्रुतिभिः ख्यातिमेष्यति । देवतानां दिविस्थानां जगतश्च जगत्पते ॥ ७३ ॥
जगदीश्वर श्रीकृष्ण ! यह मेरा तथा स्वर्गवासी देवताओंका संदेश है, जो श्रुतियोंद्वारा गूढ़ रूपसे प्रतिपादित है । अब यह जगत्में भी विख्यात हो जायगा ॥ ७३ ॥
दृष्टं मे भवतः कर्म दृष्टश्चासि मया प्रभो । कंसे भूयः समेष्यामि साधिते साधु याम्यहम् ॥ ७४ ॥
प्रभो ! मैंने आपका पराक्रम देखा, आपका भी दर्शन किया । साधुवाद ! अब मैं जाता हूँ, कंसके मारे जानेपर मैं फिर आपसे मिलूंगा ॥ ७४ ॥
एवमुक्त्वा स तु तदा नारदः खं जगाम ह । नारदस्य वचः श्रुत्वा देवसङ्गीतयोनिनः ॥ ७५ ॥ तथेति स समाभाष्य पुनर्गोपान् समासदत् । गोपाः कृष्णं समासाद्य विविव्शुर्व्रजमेव ह ॥ ७६ ॥
ऐसा कहकर नारदजी तत्काल आकाशमें चले गये । देवसङ्गीतके उत्पत्तिस्थान नारदजीका पूर्वोक्त वचन सुनकर श्रीकृष्णने 'तथास्तु' कहकर उनकी बात मान ली, फिर वे गोपोंसे मिले । गोपगण श्रीकृष्णसे मिलकर उनके साथ ही पुनः व्रजमें प्रविष्ट हुए ॥ ७५-७६ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि केशिवधे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
इस प्रकार महाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें केशीका बधविषयक चौबीसवां अध्याय पूरा हुआ ॥ २४ ॥
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