श्रीहरिवंशपुराण विष्णुपर्व पञ्चविंशोऽध्यायः
अक्रूरागमनम्
अक्रूरका व्रजमें आकर भगवान् श्रीकृष्णको देखना और उनके विषयमें अनेक प्रकारकी बातें सोचना -
वैशंपायन उवाच अथास्तं गच्छति तदा मन्दरश्मौ दिवाकरे । संध्यारक्ततले व्योम्नि शशाङ्के पाण्डुमण्डले ॥ १ ॥ नीडस्थेषु विहङ्गेषु सत्सु प्रादुष्कृताग्निषु । ईषत्तमःसंवृत्तासु दिक्षु सर्वासु सर्वशः ॥ २ ॥ घोषवासिषु सुप्तेशु वाशन्तीषु शिवासु च । नक्तंचरेषु हृष्टेषु पिशिताशनकाङ्क्षिषु ॥ ३ ॥ शक्रगोपाह्वयामोदे प्रदोषेऽभ्यासतस्करे । संध्यामयीमिव गुहं सम्प्रतिष्ठे दिवाकरे ॥ ४ ॥ अधिश्रयणवेलायां प्राप्तायां गृहमेधिनाम् । वन्यैर्वैखानसैर्मन्त्रैर्हूयमाने हुताशने ॥ ५ ॥ उपावृत्तासु वै गोषु दुह्यमानासु च व्रजे । असकृद्व्याहरन्तीषु बद्धवत्सासु धेनुषु ॥ ६ ॥ प्रकीर्णदामनीकेषु गास्तथैवाह्वयत्सु च । सनिनादेषु गोपेषु काल्यमाने च गोधने ॥ ७ ॥ करीषेषु प्रकॢप्तेषु दीप्यमानेषु सर्वशः । काष्ठभारानतस्कन्धैर्गोपैरभ्यागतैस्तथा ॥ ८ ॥ किञ्चिदभ्युद्यते सोमे मन्दरश्मौ विराजति । ईषद्विगाहमानायां रजन्यां दिवसे गते ॥ ९ ॥ प्राप्ते दिनव्युपरमे प्रवृत्ते क्षणदामुखे । भास्करे तेजसि गते सौम्ये तेजस्युपस्थिते ॥ १० ॥ अग्निहोत्राकुले काले सौम्येन्दौ समुपस्थिते । अग्नीषोमात्मके संधौ वर्तमाने जगन्मये ॥ ११ ॥ पश्चिमेनाग्निदीप्तेन पूर्वेणोत्पलवर्चसा । दग्धाद्रिसदृशे व्योम्नि किञ्चित्तारागणाकुले ॥ १२ ॥ वयोभिर्वासमुशतां बन्धुभिश्च समागमम् । शंसद्भिः स्यन्दनेनाशु प्राप्तो दानपतिर्व्रजम् ॥ १३ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! उस दिन जब सूर्यदेव अस्ताचलको जाने लगे, उनकी किरणें मन्द हो गयीं, पश्चिमके आकाशमें संध्याकी लाली छा गयी, चन्द्रमाका श्वेत-पीत मण्डल उदित होने लगा. पक्षी अपने नीड़ों (घोसलों)-में विश्राम करने लगे, श्रेष्ठ याज्ञिकोंने जब अग्नि प्रज्वलित कर दी, सम्पूर्ण दिशाएँ सब ओरसे जब कुछ-कुछ अन्धकारसे आवृत्त हो गयीं, ब्रजवासी सोनेकी तैयारी करने लगे, गीदड़ियाँ बोलने लगीं, मांसाहारकी अभिलाषा रखनेवाले निशाचर हर्षमें भर गये, धूपसे तपे हुए इन्द्रगोप नामक कीड़ोंको आनन्द देनेवाला और वेदोंके स्वाध्यायको बंद करनेवाला प्रदोषकाल जब आ पहुँचा, जब सूर्यदेव संध्यारूपिणी गुफामें प्रविष्ट हो गये, जब गृहस्थोंके लिये हवनीय घृत या दुग्धको आगपर रखनेकी वेला आ पहुँची, वनवासी वैखानस (वानप्रस्थ) जब मन्त्रोंद्वारा अग्निमें आहुति देने लगे, जब गौएँ वनसे लौटकर ब्रजमें आ गयीं और उनका दूध दुह लिया गया, जिनके बछड़े बँधे थे और जो स्वयं भी लम्बी रस्सियोंमें आबद्ध थी, वे धेनुएँ जब बार-बार भाने लगीं, गौओंको बुलाते हुए गोपगण जब सब ओर कोलाहल करने लगे, जब बाँधनेके लिये गौओंको हाँककर ले जाया जाने लगा; काष्ठके भारसे झुके हुए कंधोंवाले गोप जब घर आकर सब ओर फैले हुए सूखे गोबरके चूरोंको सुलगाने या प्रज्वलित करने लगे, किंचित् उदित हुए चन्द्रदेव जब अपनी मन्द किरणोंसे ही प्रकाशित हो रहे थे, दिन चले जानेपर थोड़ी-सी ही रातका आगमन हुआ था, दिनकी पूर्ण समाप्ति होकर रात्रिके प्रथम प्रहरका अभी आरम्भ ही हुआ था, सूर्यका उष्ण प्रकाश अस्त होकर चन्द्रमाका शीतल प्रकाश उपस्थित हुआ था, जिस समय अग्निहोत्रकी सुगन्धि सब ओर व्याप्त हो रही थी, स्वभावतः सौम्य चन्द्रदेव उदित हुए, जब सम्पूर्ण जगत्में अग्नीषोमात्मक संधिका समय वर्तमान था, जब पश्चिममें अग्निके समान संध्याकालका अरुण प्रकाश फैला था तथा पूर्वमें भी लाल कमलके समान कान्तिवाले चन्द्रमाकी कुङ्कम-जैसी प्रभा फैली हुई थी और उन दोनों दिशाओंके अरुण प्रकाशसे जब आकाश उभयपाश्चसे दग्ध हुए पर्वतके समान प्रतीत हो रहा था और उसमें कुछ-कुछ तारे प्रकट हो गये थे, ऐसे समयमें घर लौटनेकी इच्छावाले पथिकोंको बन्धुओंसे समागम होनेकी सूचना-सी देनेवाले पक्षियोंके साथसाथ दानपति अक्रूर अपने रथके द्वारा शीघ्र ही व्रजमें आ पहुँचे ॥ १-१३ ॥
प्रविशन्नेव पप्रच्छ सान्निध्यं केशवस्य सः । रौहिणेयस्य चाक्रूरो नन्दगोपस्य चासकृत् ॥ १४ ॥
व्रजमें प्रवेश करते ही अक्रूर वहाँके लोगोंसे बारम्बार श्रीकृष्ण, रोहिणीनन्दन बलराम तथा नन्दगोपका निवास स्थान पूछने लगे ॥ १४ ॥
स नन्दगोपस्य गृहं वासाय विबुधोपमः । अवतीर्य ततो यानात्प्रविवेश महाबलः ॥ १५ ॥
तत्पश्चात् देवोपम कान्तिसे युक्त महाबली अक्रूर उस रथसे उतरकर निवासके लिये नन्दगोपके घरमें प्रविष्ट हुए ॥ १५ ॥
हर्षपूर्णेन वक्त्रेण साश्रुनेत्रेण चैव हि । प्रविशन्नेव च द्वारि ददर्शादोहने गवाम् ॥ १६ ॥ वत्समध्ये स्थितं कृष्णं सवत्समिव गोवृषम् । स तं हर्षपरीतेन वचसागद्गदेन वै ॥ १७ ॥ एहि केशव तातेति प्रव्याहरत धर्मवित् । उत्तानशायिनं दृष्ट्वा पुनर्दृष्ट्वा श्रिया वृतम् ॥ १८ ॥ अव्यक्तयौवनं कृष्णमक्रूरः प्रशशंस ह । अयं स पुण्डरीकाक्षः सिम्हशार्दूलविक्रमः ॥ १९ ॥ संपूर्णजलमेघाभः पर्वतप्रवराकृतिः । मृधेष्वधर्षणीयेन सश्रीवत्सेन वक्षसा । द्विषन्निधनदक्षाभ्यां भुजाभ्यां साधु भूषितः ॥ २० ॥
उस समय उनके मुखपर पूर्ण हर्ष छा रहा था, नेत्रोंसे प्रेमके आँसू बह रहे थे, नन्दके द्वारपर पदार्पण करते ही उन्होंने देखा, गौओंके दुहनेके स्थानमें श्रीकृष्ण बहुत-से बछड़ोंके बीच में खड़े हैं । वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो बछड़ोंसहित साँड़ खड़ा हो । उन्हें देखते ही धर्मज्ञ अक्रूर हर्षभरी गद्गद वाणीद्वारा बोले-'तात केशव ! यहाँ आओ । ' (कुछ ही वर्ष पहले) जिन्हें शैशवावस्थामें उत्तान सोते देखा-सुना था, उन्हीं श्रीकृष्णको पुनः अनुपम शोभासे सम्पन्न अव्यक्त यौवन अवस्थामें देखकर अक्रूर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे । ये ही वे सिंह और व्याघ्रके समान पराक्रमी कमलनयन श्रीकृष्ण दिखायी देते हैं, जिनकी अङ्गकान्ति जलसे भरे हुए जलधरकी भाँति श्याम है और शरीरकी ऊँचाई श्रेष्ठ पर्वतके समान प्रतीत होती है । उनका श्रीवत्सविभूषित वक्षःस्थल युद्धमें अजेय है और भुजाएँ शत्रुओंका संहार करनेमें कुशल हैं । इन भुजाओं तथा वक्षःस्थलसे इनके श्रीविग्रहकी बड़ी शोभा हो रही है ॥ १६-२० ॥
मूर्तिमान्स रहस्यात्मा जगतोऽग्र्यस्य भाजनम् । गोपवेषधरो विष्णुरुदग्राग्र्यतनूरुहः ॥ २१ ॥
ये ही वे मूर्तिमान् रहस्यात्मा (उपनिषदोंमें प्रतिपादित पुरुषोत्तम) हैं, जो इस संसारको अग्रपूजा पानेके प्रथम अधिकारी हैं । वे भगवान् विष्णु ही यहाँ गोपवेश धारण करके प्रकट हुए हैं । इनकी रोमावलि ऊपरकी ओर उठी हुई और परम पवित्र है (अर्थात् यह प्रेमी भक्तोंको देखते ही रोमाश्चित हो उठते हैं) ॥ २१ ॥
किरीटलाञ्छनेनापि शिरसा छत्रवर्चसा । कुण्डलोत्तमयोग्याभ्यां श्रवणाभ्यां विभूषितः ॥ २२ ॥
जिसपर किरीट धारण करनेका चिह्न है तथा जहाँ छत्राकार कान्ति प्रकाशित हो रही है, उस मस्तकसे और उत्तम कुण्डल पहननेयोग्य दोनों कानोंसे ये विभूषित हो रहे हैं ॥ २२ ॥
हारार्हेण च पीनेन सुविस्तीर्णेन वक्षसा । द्वाभ्यां भुजाभ्यां वृत्ताभ्यां दीर्घाभ्यामुपशोभितः ॥ २३ ॥
हार पहननेयोग्य ऊँची और चौड़ी छातीसे तथा गोलाकार दो विशाल भुजाओंसे इनकी बड़ी शोभा हो रही है ॥ २३ ॥
स्त्रीसहस्रोपचर्येण वपुषा मन्मथाधिना । पीते वसानो वसने सोऽयं विष्णुः सनातनः ॥ २४ ॥
इनका श्रीविग्रह उस यौवन और पौगण्ड अवस्थाकी संधिमें पहुँचा हुआ है, जहाँ कामदेवको आश्रय मिलता है । यह विग्रह सहस्रों स्त्रियोंद्वारा परिचर्या प्राप्त करनेयोग्य है, ऐसे दिव्य शरीरपर दो पीत वस्त्र धारण किये ये वे ही सनातन विष्णु यहाँ विराजमान हैं ॥ २४ ॥
धरण्याश्रयभूताभ्यां चरणाभ्यामरिन्दमः । त्रैलोक्याक्रान्तिभूताभ्यां भुवि पद्भ्यां व्यवस्थितः ॥ २५ ॥
जो पृथ्वीके आश्रयभूत हैं तथा तीनों लोकोंको आक्रान्त करनेमें समर्थ हैं, ऐसे संचरणशील युगल चरणोंसे ये शत्रुदमन श्रीकृष्ण इस भूमिपर खड़े हैं ॥ २५ ॥
रुचिराग्रकरश्चास्य चक्राङ्कित इवेक्षते । द्वितीय उद्यतश्चापि गदासंयोगमिच्छति ॥ २६ ॥
इनका एक हाथ, जिसका अग्रभाग बहुत ही सुन्दर है, चक्रसे चिह्नित-सा दिखायी देता है । दूसरा उठा हुआ हाथ गदासे संयुक्त होना चाहता है ॥ २६ ॥
अवतीर्णो भवायेह प्रथमं पदमात्मनः । शोभतेऽद्य भुवि श्रेष्ठस्त्रिदशानो धुरन्धरः ॥ २७ ॥
ये ही परब्रह्म परमात्माके प्रथम पद (तुरीय ब्रह्म) हैं, जो यहाँ जगत्के कल्याणके लिये अवतीर्ण हुए हैं । देवताओंकी रक्षाका भार वहन करनेवाले वे सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर आज भूतलपर अवतीर्ण होकर शोभा पाते हैं ॥ २७ ॥
अयं भविष्ये कथितो भविष्यकुशलैर्नरैः । गोपालो यादवं वंशं क्षीणं विस्तारयिष्यति ॥ २८ ॥
इन्हींके विषयमें भविष्यकी बात बतानेमें कुशल मनुष्योंने कहा है कि गोपाल श्रीकृष्ण भविष्यमें क्षीण हुए यादववंशका विस्तार करेंगे ॥ २८ ॥
तेजसा यादवाश्चास्य शतशोऽथ सहस्रशः । वंशमापूरयिष्यन्ति ह्योघा इव महार्णवम् ॥ २९ ॥
जैसे नदियोंके बहुत-से जलप्रवाह महासागरको पूर्ण करते रहते हैं, उसी प्रकार सैकड़ों और हजारों यदुवंशी इनके प्रभावसे अपने वंशकी वृद्धि करेंगे ॥ २९ ॥
अस्येदं शासने सर्वं जगत्स्थास्यति शाश्वतम् । निहतामित्रसामन्तं स्फीतं कृतयुगे तथा ॥ ३० ॥
यह सारा जगत्, जो सनातनकालसे चला आ रहा है, इनके शासनमें स्थित होगा । उस समय इसको कष्ट देनेवाले शत्रु और सामन्त नष्ट हो जायेंगे और यह विश्व सत्ययुगकी भाँति सुखशान्ति एवं समृद्धिसे सम्पन्न हो जायगा ॥ ३० ॥
अयमास्थाय वसुधां स्थापयित्वा जगद्वशे । राज्ञां भविष्यत्युपरि न च राजा भविष्यति ॥ ३१ ॥
ये इस वसुधापर रहकर जगत्को अपने वशमें स्थापित करके समस्त राजाओंके ऊपर प्रतिष्ठित हो जायँगे, परंतु स्वयं राजा नहीं बनेंगे ॥ ३१ ॥
नूनं त्रिभिः क्रमैर्जित्वा यथानेन प्रभुः कृतः । पुरा पुरन्दरो राजा देवतानां त्रिविष्टपे ॥ ३२ ॥ तथैव वसुधां जित्वा जितपूर्वां त्रिभिः क्रमैः । स्थापयिष्यति राजानमुग्रसेनं न संशयः ॥ ३३ ॥
निश्चय ही पूर्वकालमें जिस प्रकार इन्होंने अपने तीन पोंद्वारा त्रिलोकीको जीतकर स्वर्गमें पुरन्दर इन्द्रको देवताओंका राजा बनाया था, उसी प्रकार पहलेकी तीन पगोंद्वारा जीती हुई इस वसुधाको फिर जीतकर यह उग्रसेनको राजाके आसनपर बैठायेंगे, इसमें संशय नहीं है ॥ ३२-३३ ॥
प्रसृष्टवैरगाधोऽयं प्रश्नैश्च बहुभिः श्रुतः । ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादैश्च पुराणोऽयं हि गीयते ॥ ३४ ॥
यह फैले हुए वैरका अन्त करनेवाले हैं, प्रश्नोपनिषद्में बहुत-से (छः) प्रश्नोंद्वारा इन्हींके तत्त्वका प्रतिपादन सुना गया है । ब्रह्मवादी ब्राह्मणोंद्वारा ये पुराणपुरुष कहे जाते हैं ॥ ३४ ॥
स्पृहणीयो हि लोकस्य भविष्यति च केशवः । तथा ह्यस्योत्थिता बुद्धिर्मानुष्यमुपजीवितुम् ॥ ३५ ॥
यह भगवान् केशव समस्त जगत्के लिये स्पृहणीय होंगे, क्योंकि इनकी बुद्धिमें मानवताको नया जीवन देनेका विचार उठ खड़ा हुआ है ॥ ३५ ॥
अहं त्वस्याद्य वसतिं पूजयिष्ये यथाविधि । विष्णुत्वं मनसा चैव पूजयिष्यामि मन्त्रवत् ॥ ३६ ॥
आज मैं इनके निवासस्थानका विधिपूर्वक पूजन करूँगा, फिर मन-ही-मन इनके विष्णुरूपकी भावना करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक उसकी अर्चना करूँगा ॥ ३६ ॥
यच्च ज्ञातिपरिज्ञानं प्रादुर्भावश्च वै नृषु । अमानुषं वेद्मि चैनं ये चान्ये दिव्यचक्षुषः ॥ ३७ ॥
इनमें जो अपने बन्धु-बान्धवोंको पहचाननेकी शक्ति है और जो इनका मनुष्योंमें अवतार हुआ है, वह सब मेरे लिये आदरणीय है । मैं तो इन्हें अमानव (अलौकिक परमात्मा) समझता ही है, दूसरे दिव्य नेत्रधारी महापुरुष भी इन्हें ऐसा ही मानते हैं ॥ ३७ ॥
सोऽहं कृष्णेन वै रात्रौ संमन्त्र्य विदितात्मना । सहानेन गमिष्यामि सव्रजो यदि मंस्यते ॥ ३८ ॥
अत: मैं इन आत्मवेत्ता श्रीकृष्णके साथ रातमें भलीभांति सलाह करके यदि ब्रजवासियोंसहित ये मेरी बात मान लेंगे तो इनके साथ ही कल मथुराकी यात्रा करूंगा ॥ ३८ ॥
एवं बहुविधं कृष्णं दृष्ट्वा हेत्वर्थकारणैः । विवेश नन्दगोपस्य कृष्णेन सह संसदम् ॥ ३९ ॥
इस प्रकार युक्तियुक्त कार्य-कारणका विचार करते हुए अक्रूरने श्रीकृष्णको बारम्बार देखा और उनके साथ नन्दगोपकी बैठकमें प्रवेश किया ॥ ३९ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे विष्णुपर्वणि अक्रूरागमने पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत विष्णुपर्वमें अक्रूरका आगमनविषयक पच्चीसवां अध्याय पूरा हुआ ॥ २५ ॥
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