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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

विद्येश्वरसंहिता

॥ चतुर्दशोऽध्यायः ॥

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अग्नियज्ञादिवर्णनम् -
अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ आदिका वर्णन, भगवान् शिवके द्वारा सातों वारोंका निर्माण तथा उनमें देवाराधनसे विभिन्न प्रकारके फलोंकी प्राप्तिका कथन


ऋषय ऊचुः -
अग्नियज्ञं देवयज्ञं ब्रह्मयज्ञं तथैव च ।
गुरुपूजां ब्रह्मतृप्तिं क्रमेण ब्रूहि नः प्रभो ॥ १ ॥
ऋषिगण बोले-हे प्रभो ! अग्नियज्ञ, देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, गुरुपूजा तथा ब्रह्मतृप्तिका क्रमशः हमारे समक्ष वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

सूत उवाच -
अग्नौ जुहोति यद्द्रव्यमग्नियज्ञः स उच्यते ।
ब्रह्मचर्याश्रमस्थानां समिदाधानमेव हि ॥ २ ॥
समिदग्रौ व्रताद्यं च विशेषयजनादिकम् ।
प्रथमाश्रमिणामेवं यावदौपासनं द्विजाः ॥ ३ ॥
आत्मन्यारोपिताग्नीनां वनिनां यतिनां द्विजाः ।
हितं च मितमेध्यान्नं स्वकाले भोजनं हुतिः ॥ ४ ॥
सूतजी बोले-हे महर्षियो ! गृहस्थ पुरुष अग्निमें सायंकाल और प्रात:काल जो चावल आदि द्रव्यकी आहुति देता है, उसीको अग्नियज्ञ कहते हैं । जो ब्रह्मचर्य आश्रममें स्थित हैं, उन ब्रह्मचारियोंके लिये समिधाका आधान ही अग्नियज्ञ है । वे समिधाका ही अग्निमें हवन करें । हे ब्राह्मणो ! ब्रह्मचर्य आश्रममें निवास करनेवाले द्विजोंका जबतकविवाह न हो जाय और वे औपासनाग्निकी प्रतिष्ठा न कर लें, तबतक उनके लिये अग्निमें समिधाकी आहुति, व्रत आदिका पालन तथा विशेष यजन आदि ही कर्तव्य है (यही उनके लिये अग्नियज्ञ है) । हे द्विजो ! जिन्होंने बाह्य अग्निको विसर्जित करके अपनी आत्मामें ही अग्निका आरोप कर लिया है, ऐसे वानप्रस्थियों और संन्यासियोंके लिये यही हवन या अग्नियज्ञ है कि वे विहित समयपर हितकर, परिमित और पवित्र अन्नका भोजन कर लें ॥ २-४ ॥

औपासनाग्निसन्धानं समारभ्य सुरक्षितम् ।
कुण्डे वाप्यथ भाण्डे वा तदजस्रं समीरितम् ॥ ५ ॥
अग्निमात्मन्यरण्यां वा राजदैववशाद्ध्रुवम् ।
अग्नित्यागभयादुक्तं समारोपितमुच्यते ॥ ६ ॥
औपासनाग्निको ग्रहण करके जब कुण्ड अथवा भाण्डमें सुरक्षित कर लिया जाय, तब उसे अजस्त्र कहा जाता है । राजविप्लब या दुर्दैवसे अग्नित्यागका भय उपस्थित हो जानेपर जब अग्निको स्वयं आत्मामें अथवा अरणीमें स्थापित कर लिया जाता है, तब उसे समारोपित कहते हैं ॥ ५-६ ॥

सम्पत्करी तथा ज्ञेया सायमग्न्याहुतिर्द्विजाः ।
आयुष्करीति विज्ञेया प्रातः सूर्याहुतिस्तथा ॥ ७ ॥
हे ब्राह्मणो । सायंकाल अग्निके लिये दी हुई आहुति सम्पत्ति प्रदान करनेवाली होती है, ऐसा जानना चाहिये और प्रात:काल सूर्यदेवको दी हुई आहुति आयुकी वृद्धि करनेवाली होती है, यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये । दिनमें अग्निदेव सूर्यमें ही प्रविष्ट हो जाते हैं । अतः प्रात: काल सूर्यको दी हुई आहुति भी अग्नियज्ञ ही है ॥ ७ ॥

अग्नियज्ञो ह्ययं प्रोक्तो दिवा सूर्यनिवेशनात् ।
इन्द्रादीन्सकलान्देवानुद्दिश्याग्नौ जुहोति यत् ॥ ८ ॥
देवयज्ञं हि तं विद्यात्स्थालीपाकादिकान्क्रतून् ।
चौलादिकं तथा ज्ञेयं लौकिकाग्नौ प्रतिष्ठितम् ॥ ९ ॥
ब्रह्मयज्ञं द्विजः कुर्याद्देवानां तृप्तये सकृत् ।
ब्रह्मयज्ञ इति प्रोक्तो वेदस्याऽध्ययनं भवेत् ॥ १० ॥
नित्यानन्तरमासोऽयं ततस्तु न विधीयते ।
इन्द्र आदि समस्त देवताओंके उद्देश्यसे अग्निमें जो आहुति दी जाती है, उसे देवयज्ञ समझना चाहिये । स्थालीपाक आदि यज्ञोंको देवयज्ञ ही मानना चाहिये । लौकिक अग्निमें प्रतिष्ठित जो चूडाकरण आदि संस्कार निमित्तक हवन कर्म हैं, उन्हें भी देवयज्ञके ही अन्तर्गत जानना चाहिये । [अब ब्रह्मयज्ञका वर्णन सुनिये । ] द्विजको चाहिये कि वह देवताओंकी तृप्तिके लिये निरन्तर ब्रह्मयज्ञ करे । वेदोंका जो नित्य अध्ययन होता है, उसीको ब्रह्मयज्ञ कहा गया है । प्रातः नित्यकर्मके अनन्तर सायंकालतक ब्रह्मयज्ञ किया जा सकता है । उसके बाद रातमें इसका विधान नहीं है ॥ ८-१० १/२ ॥

अनग्नौ देवयजनं शृणुत श्रद्धयाऽऽदरात् ॥ ११ ॥
आदिसृष्टौ महादेवः सर्वज्ञः करुणाकरः ।
सर्वलोकोपकारार्थं वारान्कल्पितवान्प्रभुः ॥ १२ ॥
संसारवैद्यः सर्वज्ञः सर्वभेषजभेषजम् ।
आदावारोग्यदं वारं स्ववारं कृतवान्प्रभुः ॥ १३ ॥
सम्पत्कारं स्वमायाया वरं च कृतवांस्ततः ।
जनने दुर्गतिक्रान्ते कुमारस्य ततः परम् ॥ १४ ॥
आलस्यदुरितक्रान्त्यै वारं कल्पितवान्प्रभुः ।
रक्षकस्य तथा विष्णोर्लोकानां हितकाम्यया ॥ १५ ॥
पुष्ट्यर्थं चैव रक्षार्थं वारं कल्पितवान्प्रभुः ।
आयुष्करं ततो वारमायुषां कर्तुरेव हि ॥ १६ ॥
त्रैलोक्यसृष्टिकर्तुर्हि ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ।
जगदायुष्यसिद्ध्यर्थं वारं कल्पितवान्प्रभुः ॥ १७ ॥
आदौ त्रैलोक्यवृद्ध्यर्थं पुण्यपापे प्रकल्पिते ।
तयोः कर्त्रोस्ततो वारमिन्द्रस्य च यमस्य च ॥ १८ ॥
भोगप्रदं मृत्युहरं लोकानां च प्रकल्पितम् ।
अग्निके बिना देवयज्ञ कैसे सम्पन्न होता है, इसे आपलोग श्रद्धासे और आदरपूर्वक सुनिये । सृष्टिके आरम्भमें सर्वज्ञ, दयालु और सर्वसमर्थ महादेवजीने समस्त लोकोंके उपकारके लिये वारोंकी कल्पना की । वे भगवान् शिव संसाररूपी रोगको दूर करनेके लिये वैद्य हैं । सबके ज्ञाता तथा समस्त औषधोंके भी औषध हैं । उन भगवान्ने पहले अपने वारकी कल्पना की, जो आरोग्य प्रदान करनेवाला है । तत्पश्चात् उन्होंने अपनी मायाशक्तिका वार बनाया, जो सम्पत्ति प्रदान करनेवाला है । जन्मकालमें दुर्गतिग्रस्त बालककी रक्षाके लिये उन्होंने कुमारके वारकी कल्पना की । तत्पश्चात् सर्वसमर्थ महादेवजीने आलस्य और पापकी निवृत्ति तथा समस्त लोकोंका हित करनेकी इच्छासे लोकरक्षक भगवान् विष्णुका वार बनाया । इसके बाद सबके स्वामी भगवान् शिवने पुष्टि और रक्षाके लिये आयुःकर्ता तथा त्रिलोकस्रष्टा परमेष्ठी ब्रह्माका आयुष्कारक वार बनाया, जिससे सम्पूर्ण जगत्के आयुष्यकी सिद्धि हो सके । इसके बाद तीनों लोकोंकी वृद्धिके लिये पहले पुण्य-पापकी रचना की; तत्पश्चात् उनके करनेवाले लोगोंको शुभाशुभ फल देनेके लिये भगवान् शिवने इन्द्र और यमके वारोंका निर्माण किया । ये दोनों वार क्रमशः भोग देनेवाले तथा लोगोंके मृत्युभवको दूर करनेवाले हैं ॥ ११-१८ १/२ ॥

आदित्यादीन्स्वस्वरूपान्सुखदुःखस्य सूचकान् ॥ १९ ॥
वारेशान्कल्पयित्वादौ ज्योतिश्चक्रेप्रतिष्ठितान् ।
स्वस्ववारे तु तेषां तु पूजा स्वस्वफलप्रदा ॥ २० ॥
इसके बाद सूर्य आदि सात ग्रहोंको, जो अपने ही स्वरूपभूत तथा प्राणियोंके लिये सुख-दुःखके सूचक हैं; भगवान् शिवने उपर्युक्त सात वारोंका स्वामी निश्चित किया । वे सब-के-सब ग्रह नक्षत्रोंके ज्योतिर्मय मण्डलमें प्रतिष्ठित हैं । [शिवके वार या दिनके स्वामी सूर्य हैं । शक्तिसम्बन्धी वारके स्वामी सोम हैं । कुमारसम्बन्धी दिनके अधिपति मंगल हैं । विष्णुवारके स्वामी बुध हैं । ब्रह्माजीके वारके अधिपति बृहस्पति हैं । इन्द्रवारके स्वामी शुक्र और यमवारके स्वामी शनैश्चर हैं । ] आपने-अपने वारमें की हुई उन देवताओंकी पूजा उनके आपने-अपने फलको देनेवाली होती है ॥ १९-२० ॥

आरोग्यं सम्पदश्चैव व्याधीनां शान्तिरेव च ।
पुष्टिरायुस्तथा भोगो मृतेर्हानिर्यथाक्रमम् ॥ २१ ॥
वारक्रमफलं प्राहुर्देवप्रीतिपुरःसरम् ।
अन्येषामपि देवानां पूजायाः फलदः शिवः ॥ २२ ॥
देवानां प्रीतये पूजा पञ्चधैव प्रकल्पिता ।
तत्तन्मन्त्रजपो होमो दानं चैव तपस्तथा ॥ २३ ॥
स्थण्डिले प्रतिमायां च ह्यग्नौ ब्राह्मणविग्रहे ।
समाराधनमित्येवं षोडशैरुपचारकैः ॥ २४ ॥
सूर्य आरोग्यके और चन्द्रमा सम्पत्तिके दाता हैं । मंगल व्याधियोंका निवारण करते हैं, बुध पुष्टि देते हैं, बृहस्पति आयुकी वृद्धि करते हैं, शुक्र भोग देते हैं और शनैश्चर मृत्युका निवारण करते हैं । ये सात वारोंके क्रमशः फल बताये गये हैं, जो उन-उन देवताओंकी प्रीतिसे प्राप्त होते हैं । अन्य देवताओंकी भी पूजाका फल देनेवाले भगवान् शिव ही हैं । देवताओंकी प्रसन्नताके लिये पूजाकी पाँच प्रकारकी ही पद्धति बनायी गयी । उन-उन देवताओंके मन्त्रोंका जप यह पहला प्रकार है । उनके लिये होम करना दूसरा, दान करना तीसरा तथा तप करना चौथा प्रकार है । किसी वेदीपर, प्रतिमामें, अग्निमें अथवा ब्राह्मणके शरीरमें आराध्य देवताकी भावना करके सोलह उपचारोंसे उनकी पूजा या आराधना करना पाँचवाँ प्रकार है ॥ २१-२४ ॥

उत्तरोत्तरवैशिष्ट्यात् पूर्वाभावे तथोत्तरम् ।
नेत्रयोः शिरसो रोगे तथा कुष्ठस्य शान्तये ॥ २५ ॥
आदित्यं पूजयित्वा तु ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः ।
दिनं मासं तथा वर्षं वर्षत्रयमथवापि वा ॥ २६ ॥
प्रारब्धं प्रबलं चेत्स्यान्नश्येद्‌रोगजरादिकम् ।
जपाद्यमिष्टदेवस्य वारादीनां फलं विदुः ॥ २७ ॥
। इनमें पूजाके उत्तरोत्तर आधार श्रेष्ठ हैं । पूर्वपूर्वके अभावमें उत्तरोत्तर आधारका अवलम्बन करना चाहिये । दोनों नेत्रों तथा मस्तकके रोग और कुष्ठ रोगकी शान्तिके लिये भगवान् सूर्यकी पूजा करके ब्राह्मणोंको भोजन कराये । तदनन्तर एक दिन, एक मास, एक वर्ष अथवा तीन वर्षतक लगातार ऐसा साधन करना चाहिये । इससे यदि प्रबल प्रारब्धका निर्माण हो जाय तो रोग एवं जरा आदिका नाश हो जाता है । इष्टदेवके नाममन्त्रोंका जप आदि साधन वार आदिके अनुसार फल देते हैं । २५-२७ ॥

पापशान्तिर्विशेषेण ह्यादिवारे निवेदयेत् ।
आदित्यस्यैव देवानां ब्राह्मणानां विशिष्टदम् ॥ २८ ॥
रविवारको सूर्यदेवके लिये, अन्य देवताओंके लिये तथा ब्राहाणोंके लिये विशिष्ट वस्तु अर्पित करे । यह साधन विशिष्ट फल देनेवाला होता है तथा इसके द्वारा विशेषरूपसे पापोंकी शान्ति होती है ॥ २८ ॥

सोमवारे च लक्ष्म्यादीन्सम्पदर्थं यजेद्‌बुधः ।
आज्यान्नेन तथा विप्रान्सपत्‍नीकांश्च भोजयेत् ॥ २९ ॥
काल्यादीन्भौमवारे तु यजेद्‌रोगप्रशान्तये ।
माषमुद्‌गाढकान्नेन ब्राह्मणांश्चैव भोजयेत् ॥ ३० ॥
विद्वान् पुरुष सोमवारको सम्पत्तिकी प्राप्तिके लिये लक्ष्मी आदिकी पूजा करे तथा सपत्नीक ब्राह्मणोंको घृतपक्व अन्नका भोजन कराये । मंगलवारको रोगोंकी शान्तिके लिये काली आदिकी पूजा करे तथा उड़द, मूंग एवं अरहरकी दाल आदिसे युक्त अन्न ब्राह्मणोंको भोजन कराये ॥ २९-३० ॥

सौम्यवारे तथा विष्णुं दध्यन्नेन यजेद्‌बुधः ।
पुत्रमित्रकलत्रादिपुष्टिर्भवति सर्वदा ॥ ३१ ॥
आयुष्कामो गुरोर्वारे देवानां पुष्टिसिद्धये ।
उपवीतेन वस्त्रेण क्षीराज्येन यजेद्‌बुधः ॥ ३२ ॥
विद्वान् पुरुष बुधवारको दधियुक्त अन्नसे भगवान् विष्णुका पूजन करे-ऐसा करनेसे सदा पुत्र, मित्र और स्त्री आदिकी पुष्टि होती है । जो दीर्घायु होनेकी इच्छा रखता हो, वह गुरुवारको देवताओंकी पुष्टिके लिये वस्त्र, यज्ञोपवीत तथा घृतमिश्रित खीरसे यजनपूजन करे ॥ ३१-३२ ॥

भोगार्थं भृगवारे तु यजेद्देवान्समाहितः ।
षड्रसोपेतमन्नं च दद्याद्‌ब्राह्मणतृप्तये ॥ ३३ ॥
स्त्रीणां च तृप्तये तद्वद्‌देयं वस्त्रादिकं शुभम् ।
अपमृत्युहरे मन्दे रुद्राददींश्च यजेद्‌बुधः ॥ ३४ ॥
तिलहोमेन दानेन तिलान्नेन च भोजयेत् ।
इत्थं यजेच्च विबुधानारोग्यादिफलं लभेत् ॥ ३५ ॥
भोगोंकी प्राप्तिके लिये शुक्रवारको एकाग्रचित्त होकर देवताओंका पूजन करे और ब्राह्मणोंकी तृप्तिके लिये षड्रसयुक्त अन्नका दान करे । इसी प्रकार स्त्रियोंकी प्रसन्नताके लिये सुन्दर वस्त्र आदिका दान करे । शनैश्चर अपमृत्युका निवारण करनेवाला है, उस दिन बुद्धिमान् पुरुष रुद्र आदिकी पूजा करे । तिलके होमसे, दानसे देवताओंको सन्तुष्ट करके ब्राह्मणोंको तिलमिश्रित अन्न भोजन कराये । जो इस तरह देवताओंकी पूजा करेगा, वह आरोग्य आदि फलका भागी होगा ॥ ३३-३५ ॥

देवानां नित्ययजने विशेषयजनेऽपि च ।
स्नाने दाने जपे होमे ब्राह्मणानां च तर्पणे ॥ ३६ ॥
तिथिनक्षत्रयोगे च तत्तद्देवप्रपूजने ।
आदिवारादिवारेषु सर्वज्ञो जगदीश्वरः ॥ ३७ ॥
ततद्ऽरूपेण सर्वेषामारोग्यादिफलप्रदः ।
देशकालानुसारेण तथा पात्रानुसारतः ॥ ३८ ॥
द्रव्यं श्रद्धानुसारेण तथा लोकानुसारतः ।
तारतम्यक्रमाद्देवस्त्वारोग्यादीन्प्रयच्छति ॥ ३९ ॥
देवताओंके नित्य-पूजन, विशेष पूजन, स्नान, दान, जप, होम तथा ब्राह्मण-तर्पण आदिमें एवं रवि आदि वारोंमें विशेष तिथि और नक्षत्रोंका योग प्राप्त होनेपर विभिन्न देवताओंके पूजनमें सर्वज्ञ जगदीश्वर भगवान् शिव ही उन-उन देवताओंके रूपमें पूजित होकर सब लोगोंको आरोग्य आदि फल प्रदान करते हैं । देश, काल, पात्र, द्रव्य, श्रद्धा एवं लोकके अनुसार उनके तारतम्य क्रमका ध्यान रखते हुए महादेवजी आराधना करनेवाले लोगोंको आरोग्य आदि फल देते हैं ॥ ३६-३९ ॥

शुभादावशुभान्ते च जन्मर्क्षेषु गृहे गृही ।
आरोग्यादिसमृद्ध्यर्थमादित्यादीन्‌ग्रहान्यजेत् ॥ ४० ॥
तस्माद्वै देवयजनं सर्वाभीष्टफलप्रदम् ।
समन्त्रकं ब्राह्मणानामन्येषां चैव तान्त्रिकम् ॥ ४१ ॥
यथाशक्त्यनुरूपेण कर्तव्यं सर्वदा नरैः ।
सप्तस्वपि च वारेषु नरैः शुभफलेप्सुभिः ॥ ४२ ॥
शुभ (मांगलिक कर्म) के आरम्भमें और अशुभ (अन्त्येष्टि आदि कर्म)-के अन्तमें तथा जन्म-नक्षत्रोंके आनेपर गृहस्थ पुरुष अपने घरमें आरोग्य आदिको समृद्धिके लिये सूर्य आदि ग्रहोंका पूजन करे । इससे सिद्ध है कि देवताओंका यजन सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाला है । ब्राह्मणोंका देवयजन कर्म वैदिक मन्त्रके साथ होना चाहिये [यहाँ ब्राह्मण शब्द क्षत्रिय और वैश्यका भी उपलक्षण है] । शूद्र आदि दूसरोंका देवयज्ञ तान्त्रिक विधिसे होना चाहिये । शुभ फलकी इच्छा रखनेवाले मनुष्योंको सातों ही दिन अपनी शक्तिके अनुसार सदा देवपूजन करना चाहिये । ४०-४२ ॥

दरिद्रस्तपसा देवान्यजेदाढ्यो धनेन हि ।
पुनश्चैवंविधं धर्मं कुरुते श्रद्धया सह ॥ ४३ ॥
पुनश्च भोगान्विविधान्भुक्त्वा भूमौ प्रजायते ।
छायां जलाशयं ब्रह्मप्रतिष्ठां धर्मसञ्चयम् ॥ ४४ ॥
सर्वं च वित्तवान्कुर्यात्सदा भोगप्रसिद्धये ।
कालाच्च पुण्यपाकेन ज्ञानसिद्धिः प्रजायते ॥ ४५ ॥
य इमं शृणुतेऽध्यायं पठते वा नरो द्विजाः ।
श्रवणस्योपकर्ता च देवयज्ञफलं लभेत् ॥ ४६ ॥
निर्धन मनुष्य तपस्या (व्रत आदिके कष्ट-सहन)द्वारा और धनी धनके द्वारा देवताओंकी आराधना करे । वह बार-बार श्रद्धापूर्वक इस तरहके धर्मका अनुष्ठान करता है और बारम्बार पुण्यलोकोंमें नाना प्रकारके फल भोगकर पुन: इस पृथ्वीपर जन्म ग्रहण करता है । धनवान् पुरुष सदा भोगसिद्धिके लिये मार्गमें वृक्ष आदि लगाकर लोगोंके लिये छायाकी व्यवस्था करे, जलाशय (कुआँ, बावली और पोखरे) बनवाये, वेद-शास्त्रोंकी प्रतिष्ठाके लिये पाठशालाका निर्माण करे तथा अन्यान्य प्रकारसे भी धर्मका संग्रह करता रहे । समयानुसार पुण्यकर्मोंके परिपाकसे [अन्तःकरण शुद्ध होनेपर] ज्ञानकी सिद्धि हो जाती है । द्विजो ! जो इस अध्यायको सुनता, पढ़ता, अथवा दूसरोंको सुनाता है, उसे देवयज्ञका फल प्राप्त होता है ॥ ४३-४६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां
अग्नियज्ञादिवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत प्रथम विशेश्वरसंहितामें अग्नियन आदिका वर्णन नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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