Menus in CSS Css3Menu.com


॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

विद्येश्वरसंहिता

॥ षोडशोऽध्यायः ॥

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


पार्थिवपूजनप्रकारास्तत्फलानि च -
मृत्तिका आदिसे निर्मित देवप्रतिमाओंके पूजनकी विधि, उनके लिये नैवेद्यका विचार, पूजनके विभिन्न उपचारोंका फल, विशेष मास, वार, तिथि एवं नक्षत्रोंके योगमें पूजनका विशेष फल तथा लिंगके वैज्ञानिक स्वरूपका विवेचन


ऋषय ऊचुः -
पार्थिवप्रतिमापूजाविधानं ब्रूहि सत्तम ।
येन पूजाविधानेन सर्वाभिष्टमवाप्यते ॥ १ ॥
ऋषिगण बोले-हे साधुशिरोमणे ! अब आप पार्थिव प्रतिमाकी पूजाका वह विधान बताइये, जिस पूजा-विधानसे समस्त अभीष्ट वस्तुओंकी प्राप्ति होती है ॥ १ ॥

सूत उवाच -
पृष्टं सुसाधु युष्माभिः सदा सर्वार्थदायकम् ।
सद्यो दुःखस्य शमनं शृणुत प्रब्रवाम वः ॥ २ ॥
सूतजी बोले-हे महर्षियो ! तुमलोगोंने बहुत उत्तम बात पूछी है । पार्थिव प्रतिमाका पूजन सदा सम्पूर्ण मनोरोंको देनेवाला है तथा दुःखका तत्काल निवारण करनेवाला है । मैं उसका वर्णन करता हूँ, [ध्यान देकर] सुनिये ॥ २ ॥

अपमृत्युहरं कालमृत्योश्चापि विनाशनम् ।
सद्यः कलत्रपुत्रादिधनधान्यप्रदं द्विजाः ॥ ३ ॥
अन्नादिभोज्यं वस्त्रादि सर्वमुत्पद्यते यतः ।
ततो मृदादिप्रतिमापूजाभीष्टप्रदा भुवि ॥ ४ ॥
पुरुषाणां च नारीणामधिकारोऽत्र निश्चितम् ।
हे द्विजो ! यह पूजा अकाल मृत्युको हरनेवाली तथा काल और मृत्युका भी नाश करनेवाली है । यह शीघ्र ही स्त्री, पुत्र और धन-धान्यको प्रदान करनेवाली है । इसलिये पृथ्वी आदिकी बनी हुई देवप्रतिमाओंकी पूजा इस भूतलपर अभीष्टदायक मानी गयी है; निश्चय ही इसमें पुरुषोंका और स्त्रियोंका भी अधिकार है ॥ ३-४ १/२ ॥

नद्यां तडागे कूपे वा जलान्तर्मृदमाहरेत् ॥ ५ ॥
संशोध्य गन्धचूर्णेन पेषयित्वा सुमण्डपे ।
हस्तेन प्रतिमां कुर्यात्क्षीरेण च सुसंस्कृताम् ॥ ६ ॥
अङ्‌गप्रत्यङ्‌गकोपेतामायुधैश्च समन्विताम् ।
पद्मासनस्थितां कृत्वा पूजयेदादरेण हि ॥ ७ ॥
विघ्नेशादित्यविष्णूनामम्बायाश्च शिवस्य च ।
शिवस्य शिवलिङ्‌गं च सर्वदा पूजयेद्‌द्विज ॥ ८ ॥
षोडशैरुपचारैश्च कुर्यात्तत्फलसिद्धये ।
नदी, पोखरे अथवा कुएँमें प्रवेश करके पानीके भीतरसे मिट्टी ले आये । तत्पश्चात् गन्ध-चूर्णके द्वारा उसका संशोधन करके शुद्ध मण्डपमें रखकर उसे महीन बनाये तथा हाथसे प्रतिमा बनाये और दूधसे उसका सम्यक् संस्कार करे । उस प्रतिमामें अंग-प्रत्यंग अच्छी तरह प्रकट हुए हों तथा वह सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न बनायी गयी हो । तदनन्तर उसे पद्मासनपर स्थापित करके आदर पूर्वक उसका पूजन करे । गणेश, सूर्य, विष्णु, दुर्गा और शिवजीकी प्रतिमाका एवं शिवजीके शिवलिंगका द्विजको सदा पूजन करना चाहिये । पूजनजनित फलकी सिद्धिके लिये सोलह उपचारोंद्वारा पूजन करना चाहिये ॥ ५-८ १/२ ॥

पुष्पेण प्रोक्षणं कुर्यादभिषेकं समन्त्रकम् ॥ ९ ॥
शाल्यन्नेनैव नैवेद्यं सर्वं कुडवमानतः ।
गृहे तु कुडवं ज्ञेयं मानुषे प्रस्थमिष्यते ॥ १० ॥
दैवे प्रस्थत्रयं योग्यं स्वयम्भोः प्रस्थपञ्चकम् ।
एवं पूर्णफलं विद्यादधिकं वै द्वयं त्रयम् ॥ ११ ॥
सहस्रपूजया सत्यं सत्यलोकं लभेद्‌द्विजः ।
पुष्पसे प्रोक्षण और मन्त्रपाठपूर्वक अभिषेक करे । अगहनीके चावलसे नैवेद्य तैयार करे । सारा नैवेद्य एक कुडव (लगभग पावभर) होना चाहिये । घरमें पार्थिव पूजनके लिये एक कुडव और बाहर किसी मनुष्यद्वारा स्थापित शिवलिंगके पूजनके लिये एक प्रस्थ (सेरभर) नैवेद्य तैयार करना आवश्यक है-ऐसा जानना चाहिये । देवताओंद्वारा स्थापित शिवलिंगके लिये तीन सेर नैवेद्य अर्पित करना उचित है और स्वयं प्रकट हुए लिंगके लिये पाँच सेर । ऐसा करनेसे पूर्ण फलकी प्राप्ति समझनी चाहिये । इससे दुगुना या तिगुना करनेपर और अधिक फल प्राप्त होता है । इस प्रकार सहस बार पूजन करनेसे द्विज सत्यलोकको प्राप्त कर लेता है । ९-११ १/२ ॥

द्वादशाङ्‌गुलमायामं द्विगुणं च ततोऽधिकम् ॥ १२ ॥
प्रमाणमङ्‌गुलस्यैकं तदूर्ध्वं पञ्चकत्रयम् ।
अयोदारुकृतं पात्रं शिवमित्युच्यते बुधैः ॥ १३ ॥
तदष्टभागः प्रस्थः स्यात्तच्चतुष्कुडवं मतम् ।
दशप्रस्थं शतप्रस्थं सहस्रप्रस्थमेव च ॥ १४ ॥
जलतैलादिगन्धानां यथायोग्यं च मानतः ।
मानुषार्षस्वयम्भूनां महापूजेति कथ्यते ॥ १५ ॥
बारह अंगुल चौड़ा, इससे दूना और एक अंगुल अधिक अर्थात् पचीस अंगुल लम्बा तथा पन्द्रह अंगुल ऊँचा जो लोहे या लकड़ीका बना हुआ पात्र होता है, उसे विद्वान् पुरुष शिव कहते हैं । उसका आठवाँ भाग प्रस्थ कहलाता है, जो चार कुडवके बराबर माना गया है । मनुष्यद्वारा स्थापित शिवलिंगके लिये दस प्रस्थ, ऋषियोंद्वारा स्थापित शिवलिंगके लिये सौ प्रस्थ और स्वयम्भू शिवलिंगके लिये एक सहल प्रस्थ नैवेद्य निवेदन किया जाय तथा जल, तैल आदि एवं गन्ध द्रव्योंकी भी यथायोग्य मात्रा रखी जाय तो यह उन शिवलिंगोंकी महापूजा बतायी जाती है ॥ १२-१५ ॥

अभिषेकादात्मशुद्धिर्गन्धात्पुण्यमवाप्यते ।
आयुस्तृप्तिश्च नैवेद्याद्धूपादर्थमवाप्यते ॥ १६ ॥
दीपाज्ज्ञानमवाप्नोति ताम्बूलाद्‌भोगमाप्नुयात् ।
तस्मात्स्नानादिकं षट्कं प्रयत्‍नेन प्रसाधयेत् ॥ १७ ॥
देवताका अभिषेक करनेसे आत्मशुद्धि होती है, गन्धसे पुण्यकी प्राप्ति होती है, नैवेद्य अर्पण करनेसे आयु बढ़ती है और तृप्ति होती है, धूप निवेदन करनेसे धनकी प्राप्ति होती है, दीप दिखानेसे ज्ञानका उदय होता है और ताम्बूल समर्पण करनेसे भोगकी उपलब्धि होती है । इसलिये स्नान आदि छ: उपचारोंको यत्नपूर्वक अर्पित करे ॥ १६-१७ ॥

नमस्कारो जपश्चैव सर्वाभीष्टप्रदावुभौ ।
पूजान्ते च सदा कार्यौ भोगमोक्षार्थिभिर्नरैः ॥ १८ ॥
सम्पूज्य मनसा पूर्वं कुर्यात्तत्तत्सदा नरः ।
देवानां पूजया चैव तत्तल्लोकमवाप्नुयात् ॥ १९ ॥
तदवान्तरलोके च यथेष्टं भोग्यमाप्यते ।
नमस्कार और जप-ये दोनों सम्पूर्ण अभीष्ट फलको देनेवाले हैं । इसलिये भोग और मोक्षकी इच्छा रखनेवाले लोगोंको पूजाके अन्तमें सदा ही जप और नमस्कार करना चाहिये । मनुष्यको चाहिये कि वह सदा पहले मनसे पूजा करके फिर उन-उन उपचारोंसे पूजा करे । देवताओंकी पूजासे उन-उन देवताओंके लोकोंकी प्राप्ति होती है तथा उनके अवान्तर लोकमें भी यथेष्ट भोगको वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं ॥ १८-१९ १/२ ॥

तद्विशेषान्प्रवक्ष्यामि शृणुत श्रद्धया द्विजाः ॥ २० ॥
विघ्नेशपूजया सम्यग्भूर्लोकेऽभीष्टमाप्नुयात् ।
शुक्रवारे चतुर्थ्यां च सिते श्रावणभाद्रके ॥ २१ ॥
भिषगृक्षे धनुर्मासे विघ्नेशं विधिवद्यजेत् ।
शतं पूजासहस्रं वा तत्संख्याङ्‌कदिनैर्व्रजेत् ॥ २२ ॥
देवाग्निश्रद्धया नित्यं पुत्रदं चेष्टदं नृणाम् ।
सर्वपापप्रशमनं तत्तद्दुरितनाशनम् ॥ २३ ॥
वारपूजां शिवादीनामात्मशुद्धिप्रदां विदुः ।
तीथिनक्षत्रयोगानामाधारं सार्वकामिकम् ॥ २४ ॥
तथा वृद्धिक्षयाभावात्पूर्णब्रह्मात्मकं विदुः ।
उदयादुदयं वारो ब्रह्मप्रभृति कर्मणाम् ॥ २५ ॥
तिथ्यादौ देवपूजा हि पूर्णभोगप्रदा नृणाम् ।
हे द्विजो ! अब मैं देवपूजासे प्राप्त होनेवाले विशेष फलोंका वर्णन करता हूँ । आपलोग श्रद्धापूर्वक सुनें । विघ्नराज गणेशको पूजासे भूलोकमें उत्तम अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है । शुक्रवारको, श्रावण और भाद्रपद मासोंकी शुक्लपक्षकी चतुर्थीको और पौषमासमें शतभिषा नक्षत्रके आनेपर विधिपूर्वक गणेशजीकी पूजा करनी चाहिये । सौ या सहस्र दिनोंमें सौ या सहस्र बार पूजा करे । देवता और अग्निमें श्रद्धा रखते हुए किया जानेवाला उनका नित्य पूजन मनुष्योंको पुत्र एवं अभीष्ट वस्तु प्रदान करता है । वह समस्त पापोंका शमन तथा भिन्न भिन्न दुष्कर्मोका विनाश करनेवाला है । विभिनवारोंमें की हुई शिव आदिकी पूजाको आत्मशुद्धि प्रदान करनेवाली समझना चाहिये । वार या दिन तिथि, नक्षत्र और योगोंका आधार है । वह समस्त कामनाओंको देनेवाला है । उसमें वृद्धि और क्षय नहीं होता है, इसलिये उसे पूर्ण ब्रह्मस्वरूप मानना चाहिये । सूर्योदयकालसे लेकर दूसरे सूर्योदयकाल आनेतक एक वारकी स्थिति मानी गयी है, जो ब्राह्मण आदि सभी वर्गोंके कर्मोका आधार है । विहित तिथिके पूर्वभागमें की हुई देवपूजा मनुष्योंको पूर्ण भोग प्रदान करनेवाली होती है । २०-२५ १/२ ॥

पूर्वभागः पितॄणान्तु निशि युक्तः प्रशस्यते ॥ २६ ॥
परभागस्तु देवानां दिवा युक्तः प्रशास्यते ।
उदयव्यापिनी ग्राह्या मध्याह्ने यदि सा तिथिः ॥ २७ ॥
देवकार्ये तथा ग्राह्यास्थितिऋक्षादिकाः शुभाः ।
सम्यग्विचार्यवारादीन्कुर्यात्पूजाजपादिकम् ॥ २८ ॥
यदि मध्याहके बाद तिथिका आरम्भ होता है, तो रात्रियुक्त तिथिका पूर्वभाग पितरोंके श्राद्ध आदि कर्मके लिये उत्तम बताया जाता है । ऐसी तिथिका परभाग ही दिनसे युक्त होता है, अतः वही देवकर्मके लिये प्रशस्त माना गया है । यदि मध्याहकालतक तिथि रहे तो उदयव्यापिनी तिथिको ही देवकार्यमें ग्रहण करना चाहिये । इसी तरह शुभ तिथि एवं नक्षत्र आदि देवकार्यमें ग्राह्य होते हैं । वार आदिका भलीभाँति विचार करके पूजा और जप आदि करने चाहिये ॥ २६-२८ ॥

पूजार्यते ह्यनेनेति वेदेष्वर्थस्य योजना ।
पूर्भोगफलसिद्धिश्च जायते तेन कर्मणा ॥ २९ ॥
मनोभावांस्तथाज्ञानमिष्टभोगार्थयोजनात् ।
पूजाशब्दर्थ एवं हि विश्रुतो लोकवेदयोः ॥ ३० ॥
नित्यनैमित्तिकं कालात्सद्यः काम्ये स्वनुष्ठिते ।
नित्यं मासं च पक्षं च वर्षं चैव यथाक्रमम् ॥ ३१ ॥
तत्तत्कर्मफलप्राप्तिस्तादृक्पापक्षयः क्रमात् ।
वेदोंमें पूजा-शब्दके अर्थकी इस प्रकार योजना कही गयी है-'पूर्जायते अनेन इति पूजा । ' यह पूजाशब्दकी व्युत्पत्ति है । पू: का अर्थ है भोग और फलकी सिद्धि-वह जिस कर्मसे सम्पन्न होती है, उसका नाम पूजा है । मनोवांछित वस्तु तथा ज्ञानये ही अभीष्ट वस्तुएँ हैं; सकाम भाववालेको अभीष्ट भोग अपेक्षित होता है और निष्काम भाववालेको अर्थ-पारमार्थिक ज्ञान । ये दोनों ही पूजाशब्दके अर्थ हैं । इनकी योजना करनेसे ही पूजा-शब्दकी सार्थकता है । इस प्रकार लोक और वेदमें पूजा-शब्दका अर्थ विख्यात है । नित्य और नैमित्तिक कर्म कालान्तरमें फल देते हैं, किंतु काम्य कर्मका यदि भलीभांति अनुष्ठान हुआ हो तो वह तत्काल फलदायक होता है । प्रतिदिन एक पक्ष, एक मास और एक वर्षतक लगातार पूजन करनेसे उन-उन कर्मोंके फलकी प्राप्ति होती है और उनसे वैसे ही पापोंका क्रमशः क्षय होता है ॥ २९-३१ १/२ ॥

महागणपतेः पूजा चतुर्थ्यां कृष्णपक्षके ॥ ३२ ॥
पक्षपापक्षयकरी पक्षभोगफलप्रदा ।
चैत्रे चतुर्थ्यां पूजा च कृता मासफलप्रदा ॥ ३३ ॥
वर्षभोगप्रदा ज्ञेया कृता वै सिंहभाद्रके ।
। प्रत्येक मासके कृष्णपक्षकी चतुर्थी तिथिको की हुई महागणपतिकी पूजा एक पक्षके पापोंका नाश करनेवाली और एक पक्षतक उत्तम भोगरूपी फल देनेवाली होती है । चैत्रमासमें चतुर्थीको की हुई पूजा एक मासतक किये गये पूजनका फल देनेवाली होती है और जब सूर्य सिंह राशिपर स्थित हों, उस समय भाद्रपदमासकी चतुर्थीको की हुई गणेशजीकी पूजाको एक वर्षतक [मनोवांछित] भोग प्रदान करनेवाली जानना चाहिये । ३२-३३ १/२ ॥

श्रवण्यादित्यवारे च सप्तम्यां हस्तभे दिने ॥ ३४ ॥
माघशुक्ले च सप्तम्यामादित्ययजनं चरेत् ।
ज्येष्ठभाद्रकसौम्ये च द्वादश्यां श्रवणर्क्षके ॥ ३५ ॥
कृतं विष्णुयजनमिष्टसम्पत्करं विदुः ।
श्रावणे विष्णुयजनमिष्टारोग्यप्रदं भवेत् ॥ ३६ ॥
गवादीन्द्वादशानर्थान्साङ्‌गान्दत्त्वा तु यत्फलम् ।
तत्फलं समवाप्नोति द्वादश्यां विष्णुतर्पणात् ॥ ३७ ॥
द्वादश्यां द्वादशान्विप्रान्विष्णोर्द्वादशनामतः ।
षोडशैरुपचारैश्च यजेत्तत्प्रीतिमाप्नुयात् ॥ ३८ ॥
एवं च सर्वदेवानां तत्तद् द्वादशनामकैः ।
द्वादशब्रह्मयजनं तत्तत्प्रीतिकरं भवेत् ॥ ३९ ॥
श्रावणमासके रविवारको, हस्त नक्षत्रसे युक्त सप्तमी तिथिको तथा माघशुक्ला सप्तमीको भगवान् सूर्यका पूजन करना चाहिये । ज्येष्ठ तथा भाद्रपदमाके बुधवारको, श्रवण नक्षत्रसे युक्त द्वादशी तिथिको तथा केवल द्वादशीको भी किया गया भगवान् विष्णुका पूजन अभीष्ट सम्पत्तिको देनेवाला माना गया है । श्रावणमासमें की जानेवाली श्रीहरिकी पूजा अभीष्ट मनोरथ और आरोग्य प्रदान करनेवाली होती है । अंगों एवं उपकरणोंसहित पूर्वोक्त गौ आदि बारह वस्तुओंका दान करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, उसीको द्वादशी तिथिमें आराधनाद्वारा श्रीविष्णुको तृप्ति करके मनुष्य प्राप्त कर लेता है । जो द्वादशी तिथिको भगवान् विष्णुके बारह नामोंद्वारा बारह ब्राह्मणोंका षोडशोपचार पूजन करता है, वह उनकी प्रसन्नता प्राप्त कर लेता है । इसी प्रकार सम्पूर्ण देवताओंके विभिन्न बारह नामोंद्वारा बारह ब्राह्मणोंका किया हुआ पूजन उन-उन देवताओंको प्रसन्न करनेवाला होता है । ३४-३९ ॥

कर्कटे सोमवारे च नवम्यां मृगशीर्षके ।
अम्बां यजेद्‌भूतिकामः सर्वभोगफलप्रदाम् ॥ ४० ॥
आश्वयुक्छुक्लनवमी सर्वाभीष्टफलप्रदा ।
आदिवारे चतुर्दश्यां कृष्णपक्षे विशेषतः ॥ ४१ ॥
आर्द्रायां च महार्द्रायां शिवपूजा विशिष्यते ।
माघकृष्णचतुर्दश्यां सर्वाभीष्टफलप्रदा ॥ ४२ ॥
आयुष्करी मृत्युहरा सर्वसिद्धिकरी नृणाम् ।
ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको कर्ककी संक्रान्तिसे युक्त श्रावणमासमें नवमी तिथिको मृगशिरा नक्षत्रके योगमें सम्पूर्ण मनोवांछित भोगों और फलोंको देनेवाली अम्बिकाका पूजन करना चाहिये । आश्विनमासके शुक्लपक्षकी नवमी तिथि सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंको देनेवाली है । उसी मासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको यदि रविवार पड़ा हो तो उस दिनका महत्त्व विशेष बढ़ जाता है । उसके साथ ही यदि आर्द्रा और महार्दा (सूर्यसंक्रान्तिसे युक्त आर्द्रा)-का योग हो तो उक्त अवसरोंपर की हुई शिवपूजाका विशेष महत्त्व माना गया है । माघ कृष्ण चतुर्दशीको शिवजीकी की हुई पूजा सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंको देनेवाली है । वह मनुष्योंकी आयु बढ़ाती है, मृत्युको दूर हटाती है और समस्त सिद्धियोंकी प्राप्ति कराती है । ४०-४२ १/२ ॥

ज्येष्ठमासे महार्द्रायां चतुर्दशीदिनेपि च ॥ ४३ ॥
मार्गशीर्षार्द्रकायां वा षोडशैरुपचारकैः ।
तत्तन्मूर्तिशिवं पूज्य तस्य वै पाददर्शनम् ॥ ४४ ॥
शिवस्य यजनं ज्ञेयं भोगमोक्षप्रदं नृणाम् ।
वारादिदेवयजनं कार्तिके हि विशिष्यते ॥ ४५ ॥
कार्तिके मासि सम्प्राप्ते सर्वान्देवान्यजेद्‌बुधः ।
दानेन तपसा होमैर्जपेन नियमेन च ॥ ४६ ॥
षोडशैरुपचारैश्च प्रतिमाविप्रमन्त्रकैः ।
ब्राह्मणानां भोजनेन निष्कामार्तिकरो भवेत् ॥ ४७ ॥
ज्येष्ठमासमें चतुर्दशीको यदि महाका योग हो अथवा मार्गशीर्षमासमें किसी भी तिथिको यदि आर्दा नक्षत्र हो तो उस अवसरपर विभिन्न वस्तुओंकी बनी हुई मूर्तिके रूपमें शिवजीकी जो सोलह उपचारोंसे पूजा करता है, उस पुण्यात्माके चरणोंका दर्शन करना चाहिये । भगवान् शिवकी पूजा मनुष्योंको भोग और मोक्ष देनेवाली है-ऐसा जानना चाहिये । कार्तिक मासमें प्रत्येक वार और तिथि आदिमें देवपूजाका विशेष महत्त्व है । कार्तिकमास आनेपर विद्वान् पुरुष दान, तप, होम, जप और नियम आदिके द्वारा समस्त देवताओंका षोडशोपचारोंसे पूजन करे । उस पूजनमें देवप्रतिमा, ब्राह्मण तथा मन्त्रोंका उपयोग आवश्यक है । ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे वह पूजन-कर्म सम्पन्न होता है । पूजकको चाहिये कि वह कामनाओंको त्यागकर पीडारहित (शान्त) हो देवाराधनमें तत्पर रहे ॥ ४३-४७ ॥

कार्तिके देवयजनं सर्वभोगप्रदं भवेत् ।
व्याधीनां हरणं चैव भवेद्‌भूतग्रहक्षयः ॥ ४८ ॥
कार्तिकादित्यवारेषु नृणामादित्यपूजनात् ।
तैलकार्पासदानात्तु भवेत्कुष्ठादिसङ्‌क्षयः ॥ ४९ ॥
हरीतकीमरीचीनां वस्त्रक्षीरादिदानतः ।
ब्रह्मप्रतिष्ठया चैव क्षयरोगक्षयो भवेत् ॥ ५० ॥
दीपसर्षपदानाच्च अपस्मारक्षयो भवेत् ।
कार्तिकमासमें देवताओंका यजन-पूजन समस्त भोगोंको देनेवाला होता है; यह व्याधियोंको हर लेनेवाला और भूतों तथा ग्रहोंका विनाश भी करनेवाला है । कार्तिकमासके रविवारोंको भगवान् सूर्यकी पूजा करने और तेल तथा कपासका दान करनेसे मनुष्योंके कोढ़ आदि रोगोंका नाश होता है । हरे, काली मिर्च, वस्त्र तथा दूध आदिके दानसे और ब्राह्मणोंकी प्रतिष्ठा करनेसे क्षयके रोगका नाश होता है । दीप और सरसोंके दानसे मिरगीका रोग मिट जाता है । ४८-५० १/२ ॥

कृत्तिकासोमवारेषु शिवस्य यजनं नृणाम् ॥ ५१ ॥
महादारिद्र्यशमनं सर्वसम्पत्करं भवेत् ।
गृहक्षेत्रादिदानाच्च गृहोपकरणादिना ॥ ५२ ॥
कृत्तिकाभौमवारेषु स्कन्दस्य यजनान्नृणाम् ।
दीपघण्टादिदानाद्वै वाक्सिद्धिरचिराद्‌भवेत् ॥ ५३ ॥
कृत्तिका नक्षत्रसे युक्त सोमवारोंको किया हुआ शिवजीका पूजन मनुष्योंकि महान् दारिद्रयको मिटानेवाला और सम्पूर्ण सम्पत्तियोंको देनेवाला है । घरकी आवश्यक सामग्रियोंके साथ गृह और क्षेत्र आदिका दान करनेसे भी उक्त फलकी प्राप्ति होती है । कृत्तिकायुक्त मंगलवारोंको श्रीस्कन्दका पूजन करनेसे तथा दीपक एवं घण्टा आदिका दान देनेसे मनुष्योंको शीघ्र ही वासिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥ ५१-५३ ॥

कृत्तिकासौम्यवारेषु विष्णोर्वै यजनं नृणाम् ।
दध्योदनस्य दानं च सत्सन्तानकरं भवेत् ॥ ५४ ॥
कृत्तिकागुरुवारेषु ब्रह्मणो यजनाद्धनैः ।
मधुस्वर्णाज्यदानेन भोगवृद्धिर्भवेन्नृणाम् ॥ ५५ ॥
कृत्तिकायुक्त बुधवारोंको किया हुआ श्रीविष्णुका यजन तथा दही-भातका दान मनुष्योंको उत्तम सन्तानकी प्राप्ति करानेवाला होता है । कृत्तिकायुक्त गुरुवारोंको धनसे ब्रह्माजीका पूजन तथा मधु, सोना और घीका दान करनेसे मनुष्योंके भोग-वैभवकी वृद्धि होती है ॥ ५४-५५ ॥

कृत्तिकाशुक्रवारेषु गजतुण्डस्य याजनात् ।
गन्धपुष्पान्नदानेन भोग्यवृद्धिर्भवेन्नृणाम् ॥ ५६ ॥
वन्ध्या सुपुत्रं लभते स्वर्णरौप्यादिदानतः ।
कृत्तिकाशनिवारेषु दिक्पालानां च वन्दनम् ॥ ५७ ॥
दिग्गजानां च नागानां सेतुपानां च पूजनम् ।
त्र्यम्बकस्य च रुद्रस्य विष्णोः पापहरस्य च ॥ ५८ ॥
ज्ञानदं ब्रह्मणश्चैव धन्वन्तर्यश्विनोस्तथा ।
रोगापमृत्युहरणं तत्कालव्यात्रशान्तिदम् ॥ ५९ ॥
लवणायसतैलानां माषादीनां च दानतः ।
त्रिकटुफलगन्धानां जलादीनां च दानतः ॥ ६० ॥
द्रवाणां कठिनानां च प्रस्थेन पलमानतः ।
स्वर्गप्राप्तिर्धनुर्मासे ह्युषःकाले च पूजनम् ॥ ६१ ॥
शिवादीनां च सर्वेषां क्रमाद्वै सर्वसिद्धये ।
शाल्यन्नस्य हविष्यस्य नैवेद्यं शस्तमुच्यते ॥ ६२ ॥
विविधान्नस्य नैवेद्यं धनुर्मासे विशिष्यते ।
कृत्तिकायुक्त शुक्रवारोंको गजानन गणेशजीकी पूजा करनेसे तथा गन्ध, पुष्प एवं अन्नका दान देनेसे मानवोंके सुख भोगनेयोग्य पदार्थोकी वृद्धि होती है । उस दिन सोना, चाँदी आदिका दान करनेसे वन्ध्याको भी उत्तम पुत्रकी प्राप्ति होती है । कृत्तिकायुक्त शनिवारोंको दिक्पालोंकी वन्दना, दिग्गजों नागों-सेतुपालोंका पूजन और त्रिनेत्रधारी रुद्र तथा पापहारी विष्णुका पूजन ज्ञानकी प्राप्ति करानेवाला है । ब्रह्मा, धन्वन्तरि एवं दोनों अश्विनीकुमारोंका पूजन करनेसे रोग तथा अपमृत्युका निवारण होता है और तात्कालिक व्याधियोंकी शान्ति हो जाती है । नमक, लोहा, तेल और उड़द आदिका; त्रिकटु (सोंठ, पीपल और गोल मिर्च), फल, गन्ध और जल आदिका तथा [घृत आदि] द्रव पदार्थीका और [सुवर्ण, मोती, धान्य आदि] ठोस वस्तुओंका भी दान देनेसे स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है । इनमेंसे नमक आदिका मान कम-से-कम एक प्रस्थ (सेर) और सुवर्ण आदिका मान कम-से-कम एक पल होना चाहिये । धनुकी संक्रान्तिसे युक्त पौषमासमें उषःकालमें शिव आदि समस्त देवताओंका पूजन क्रमशः समस्त सिद्धियोंकी प्राप्ति करानेवाला होता है । इस पूजनमें अगहनीके चावलसे तैयार किये गये हविष्यका नैवेद्य उत्तम बताया जाता है । पौषमासमें नाना प्रकारके अन्नका नैवेद्य विशेष महत्त्व रखता है । ५६-६२ १/२ ॥

मार्गशीर्षेऽन्नदस्यैव सर्वमिष्टफलं भवेत् ॥ ६३ ॥
पापक्षयं चेष्टसिद्धिं चारोग्यं धर्ममेव च ।
सम्यग्वेदपरिज्ञानं सदनुष्ठानमेव च ॥ ६४ ॥
इहामुत्र महाभोगानन्ते योगं च शाश्वतम् ।
वेदान्तज्ञानसिद्धिं च मार्गशीर्षान्नदो लभेत् ॥ ६५ ॥
मार्गशीर्षे ह्युषःकाले दिनत्रयमथापि वा ।
यजेद्देवान्भोगकामो नाधनुर्मासिको भवेत् ॥ ६६ ॥
यावत्सङ्‌गवकालं तु धनुर्मासो विधीयते ।
धनुर्मासे निराहारो मासमात्रं जितेन्द्रियः ॥ ६७ ॥
आमध्याह्नं जपेद्विप्रो गायत्रीं वेदमातरम् ।
पञ्चाक्षरादिकान्मन्त्रान्पश्चादासुप्तिकं जपेत् ॥ ६८ ॥
ज्ञानं लब्ध्वा च देहान्ते विप्रो मुक्तिमवाप्नुयात् ।
अन्येषां नरनारीणां त्रिःस्नानेन जपेन च ॥ ६९ ॥
सदा पञ्चाक्षरस्यैव विशुद्धं ज्ञानमाप्यते ।
इष्टमन्त्रान्सदा जप्त्वा महापापक्षयं लभेत् ॥ ७० ॥
मार्गशीर्षमासमें केवल अन्नका दान करनेवाले मनुष्यको सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंकी प्राप्ति हो जाती है । मार्गशीर्षमासमें अन्नका दान करनेवाले मनुष्यके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, वह अभीष्ट सिद्धि, आरोग्य, धर्म, वेदका सम्यक् ज्ञान, उत्तम अनुष्ठानका फल, इहलोक और परलोकमें महान् भोग तथा अन्तमें सनातन योग (मोक्ष) तथा वेदान्तज्ञानकी सिद्धि प्राप्त कर लेता है । जो भोगकी इच्छा रखनेवाला है, वह मनुष्य मार्गशीर्षमास आनेपर कम-से-कम तीन दिन भी उष:कालमें अवश्य देवताओंका पूजन करे और पौषमासको पूजनसे खाली न जाने दे । उषःकालसे लेकर संगवकालतक ही पौषमासमें पूजनका विशेष महत्त्व बताया गया है । पौषमासमें पूरे महीनेभर जितेन्द्रिय और निराहार रहकर द्विज प्रात:कालसे मध्याहनकालतक वेदमाता गायत्रीका जप करे । तत्पश्चात् रातको सोनेके समयतक पंचाक्षर आदि मन्त्रोंका जप करे । ऐसा करनेवाला ब्राह्मण ज्ञान पाकर शरीर छूटनेके बाद मोक्ष प्राप्त कर लेता है । द्विजेतर नर-नारियोंको त्रिकाल स्नान और पंचाक्षर मन्त्रके ही निरन्तर जपसे विशुद्ध ज्ञान प्राप्त हो जाता है । इष्ट मन्त्रोंका सदा जप करनेसे बड़े-से बड़े पापोंका भी नाश हो जाता है ॥ ६३-७० ॥

धनुर्मासे विशेषेण महानैवेद्यमाचरेत् ।
शालितण्डुलभारेण मरीचप्रस्थकेन च ॥ ७१ ॥
गणनाद्‌द्वादशं सर्वं मध्वाज्यकुडवेन हि ।
द्रोणयुक्तेन मुद्‌गेन द्वादशव्यञ्जनेन च ॥ ७२ ॥
घृतपक्वैरपूपैश्च मोदकैः शालिकादिभिः ।
द्वादशैश्च दधिक्षीरैर्द्वादशप्रस्थकेन च ॥ ७३ ॥
नारिकेलफलादीनां तथा गणनया सह ।
द्वादशक्रमुकैर्युक्तं षट्त्रिंशत्पत्रकैर्युतम् ॥ ७४ ॥
कर्पूरखुरचूर्णेन पञ्चसौगन्धिकैर्युतम् ।
ताम्बूलयुक्तं तु यदा महानैवेद्यलक्षणम् ॥ ७५ ॥
पौषमासमें विशेषरूपसे महानैवेद्य चढ़ाना चाहिये । यहाँ बतायी सभी वस्तुएँ बारहकी संख्या में समझनी चाहिये-चावल (बारह) भार', काली मिर्च (बारह) प्रस्थर, मधु और घृत (बारह) कुडव', मूंग (बारह) द्रोण", बारह प्रकारके व्यंजन, धीमें तले हुए पूए, लड्डू और चावलके मिष्टान्न (बारह) प्रस्थ, दही और दूध और बारह नारियल आदि फल, बारह सुपारी, कपूर, कत्था और पाँच प्रकारके सुगन्धद्रव्योंसे युक्त छत्तीस पत्ते पानसे महानैवेद्य बनता है ॥ ७१-७५ ॥

महानैवेद्यमेतद्वै देवतार्पणपूर्वकम् ।
वर्णानुक्रमपूर्वेण तद्‌भक्तेभ्यः प्रदापयेत् ॥ ७६ ॥
एवं चौदननैवेद्याद्‌भूमौ राष्ट्रपतिर्भवेत् ।
महानैवेद्यदानेन नरः स्वर्गमवाप्नुयात् ॥ ७७ ॥
महानैवेद्यदानेन सहस्रेण द्विजर्षभाः ।
सत्यलोके च तल्लोके पूर्णमायुरवाप्नुयात् ॥ ७८ ॥
सहस्राणां च त्रिंशत्या महानैवेद्यदानतः ।
तदूर्ध्वलोकमाप्यैव न पुनर्जन्मभाग्भवेत् ॥ ७९ ॥
इस महानैवेद्यको देवताओंको अर्पण करके वर्णानुसार उस देवताके भक्तोंको दे देना चाहिये । इस प्रकारके ओदन नैवेद्यसे मनुष्य पृथ्वीपर राष्ट्रका स्वामी होता है । महानैवेद्यके दानसे स्वर्गप्राप्ति होती है । हे द्विजश्रेष्ठो । एक हजार महानैवेद्योंके दानसे सत्यलोक प्राप्त होता है और उस लोकमें पूर्णायु प्राप्त होती है एवं तीस हजार महानैवेद्योंके दानसे उसके ऊपरके लोकोंकी प्राप्ति होती है तथा पुनर्जन्म नहीं होता ॥ ७६-७९ ॥

सहस्राणां च षट्त्रिंशज्जन्मनैवेद्यमीरितम् ।
तावन्नैवेद्यदानं तु महापूर्णं तदुच्यते ॥ ८० ॥
महापूर्णस्य नैवेद्यं जन्मनैवेद्यमिष्यते ।
जन्मनैवेद्यदानेन पुनर्जन्म न विद्यते ॥ ८१ ॥
छत्तीस हजार महानैवेद्योंको जन्मनैवेद्य कहा गया है । उतने नैवेद्योंका दान महापूर्ण कहलाता है । महापूर्ण नैवेद्य ही जन्मनैवेद्य कहा गया है । जन्मनैवेद्यके दानसे पुनर्जन्म नहीं होता ॥ ८०-८१ ॥

ऊर्जे मासि दिने पुण्ये जन्मनैवेद्यमाचरेत् ।
सङ्‌क्रान्तिपातजन्मर्क्षपौर्णमास्यादिसंयुते ॥ ८२ ॥
अब्दजन्मदिने कुर्याज्जन्मनैवेद्यमुत्तमम् ।
मासान्तरेषु जन्मर्क्षपूर्णयोगदिनेपि च ॥ ८३ ॥
मेलने च शनेर्वापि तावत्साहस्रमाचरेत् ।
जन्मनैवेद्यदानेन जन्मार्पणफलं लभेत् ॥ ८४ ॥
जन्मार्पणाच्छिवः प्रीतः स्वसायुज्यं ददाति हि ।
इदं तज्जन्मनैवेद्यं शिवस्यैव प्रदापयेत् ॥ ८५ ॥
योनिलिङ्‌गस्वरूपेण शिवो जन्मानिरूपकः ।
तस्माज्जन्मनिवृत्त्यर्थः जन्मपूजा शिवस्य हि ॥ ८६ ॥
कार्तिक मासमें संक्रान्ति, व्यतीपात, जन्मनक्षत्र, पूर्णिमा आदि किसी पवित्र दिनको जन्मनैवेद्य चढ़ाना चाहिये । संवत्सरके प्रारम्भिक दिनको भी उत्तम जन्मनैवेद्यका अर्पण करना चाहिये । किसी अन्य महीनेमें भी जन्मनक्षत्रके पूर्ण योगके दिन तथा अधिक पुण्ययोगोंके मिलनेपर धीरे-धीरे छत्तीस हजार महानैवेद्य अर्पण करे । जन्मनैवेद्यके दानसे जन्मार्पणका फल प्राप्त होता है । जन्मार्पणसे प्रसन्न होकर भगवान् शंकर अपना सायुज्य प्रदान करते हैं । इसलिये इस जन्मनैवेद्यको शिवको ही अर्पण करना चाहिये । योनि और लिंगरूपमें विराजमान शिव जन्मको देनेवाले हैं, अतः पुनर्जन्मकी निवृत्तिके लिये जन्मनैवेद्यसे शिवकी पूजा करनी चाहिये ॥ ८२-८६ ॥

बिन्दुनादात्मकं सर्वं जगत्स्थावरजङ्‌गमम् ।
बिन्दुः शक्तिः शिवो नादः शिवशक्त्यात्मकं जगत् ॥ ८७ ॥
नादाधारमिदं बिन्दु बिन्द्वाधारमिदं जगत् ।
जगदाधारभूतौ हि बिन्दुनादौ व्यवस्थितौ ॥ ८८ ॥
बिन्दुनादयुतं सर्वं सकलीकरणं भवेत् ।
सकलीकरणाज्जन्म जगत्प्राप्नोत्यसंशयः ॥ ८९ ॥
बिन्दुनादात्मकं लिङ्‌गं जगत्कारणमुच्यते ।
बिन्दुर्देवी शिवो नादः शिवलिङ्‌गं तु कथ्यते ॥ ९० ॥
तस्माज्जन्मनिवृत्त्यर्थं शिवलिङ्‌गं प्रपूजयेत् ।
माता देवी बिन्दुरूपा नादरूपः शिवः पिता ॥ ९१ ॥
पूजिताभ्यां पितृभ्यां तु परमानन्द एव हि ।
परमानन्दलाभार्थं शिवलिङ्‌गं प्रपूजयेत् ॥ ९२ ॥
सारा चराचर जगत् बिन्दु नादस्वरूप है । बिन्दु शक्ति है और नाद शिव । इस तरह यह जगत् शिवशक्तिस्वरूप ही है । नाद बिन्दुका और बिन्दु इस जगत्का आधार है, ये बिन्दु और नाद (शक्ति और शिव) सम्पूर्ण जगत्के आधाररूपसे स्थित हैं । बिन्दु और नादसे युक्त सब कुछ शिवस्वरूप है; क्योंकि वही सबका आधार है । आधारमें ही आधेयका समावेश अथवा लय होता है । यही सकलीकरण है । इस सकलीकरणकी स्थितिसे ही सृष्टिकालमें जगत्का प्रादुर्भाव होता है । इसमें संशय नहीं है । शिवलिंग बिन्दुनादस्वरूप है, अत: उसे जगत्का कारण बताया जाता है । बिन्दु देवी है और नाद शिव, इन दोनोंका संयुक्तरूप ही शिवलिंग कहलाता है । अतः जन्मके संकटसे छुटकारा पानेके लिये शिवलिंगकी पूजा करनी चाहिये । बिन्दुरूपा देवी उमा माता हैं और नादस्वरूप भगवान् शिव पिता । इन माता-पिताके पूजित होनेसे परमानन्दकी ही प्राप्ति होती है । अत: परमानन्दका लाभ लेनेके लिये शिवलिंगका विशेषरूपसे पूजन करे ॥ ८७-९२ ॥

सा देवी जगतां माता स शिवो जगतः पिता ।
पित्रोः शुश्रूषके नित्यं ‌कृपाधिक्यं हि वर्धते ॥ ९३ ॥
कृपयान्तर्गतैश्वर्यं पूजकस्य ददाति हि ।
तस्मादन्तर्गतानन्दलाभार्थं मुनिपुङ्‌गवाः ॥ ९४ ॥
पितृमातृस्वरूपेण शिवलिङ्‌गं प्रपूजयेत् ।
भर्गः पुरुषरूपो हि भर्गा प्रकृतिरुच्यते ॥ ९५ ॥
अव्यक्तान्तरधिष्ठानं गर्भः पुरुष उच्यते ।
सुव्यक्तान्तरधिष्ठानं गर्भः प्रकृतिरुच्यते ॥ ९६ ॥
पुरुषत्वादिगर्भो हि गर्भवाञ्जनको यतः ।
पुरुषात्प्रकृतौ युक्तं प्रथमं जन्म कथ्यते ॥ ९७ ॥
प्रकृतेर्व्यक्ततां यातं द्वितीयं जन्म कथ्यते ।
जन्म जन्तुर्मृत्युजन्म पुरुषात्प्रतिपद्यते ॥ ९८ ॥
अन्यतो भाव्यतेऽवश्यं मायया जन्म कथ्यते ।
जीर्यते जन्मकालाद्यत्तस्माज्जीव इति स्मृतः ॥ ९९ ॥
जन्यते तन्यते पाशैर्जीवशब्दार्थ एव हि ।
जन्मपाशनिवृत्त्यर्थं जन्मलिङ्‌गं प्रपूजयेत् ॥ १०० ॥
वे देवी उमा जगत्की माता हैं और भगवान् शिव जगत्के पिता । जो इनकी सेवा करता है, उस पुत्रपर इन दोनों माता-पिताकी कृपा नित्य अधिकाधिक बढ़ती रहती है । वे पूजकपर कृपा करके उसे अपना आन्तरिक ऐश्वर्य प्रदान करते हैं । अतः हे मुनीश्वरो आन्तरिक आनन्दकी प्राप्तिके लिये शिवलिंगको माता-पिताका स्वरूप मानकर उसकी पूजा करनी चाहिये । भर्ग (शिव) पुरुषरूप है और भर्गा (शिवा अथवा शक्ति) प्रकृति कहलाती है । अव्यक्त आन्तरिक अधिष्ठानरूप गर्भको पुरुष कहते हैं और सुव्यक्त आन्तरिक अधिष्ठानभूत गर्भको प्रकृति । पुरुष आदिगर्भ है, वह प्रकृतिरूप गर्भसे युक्त होनेके कारण गर्भवान् है क्योंकि वही प्रकृतिका जनक है । प्रकृतिमें जो पुरुषका संयोग होता है, यही पुरुषसे उसका प्रथम जन्म कहलाता है । अव्यक्त प्रकृतिसे महत्तत्त्वादिके क्रमसे जो जगत्का व्यक्त होना है, यही उस प्रकृतिका द्वितीय जन्म कहलाता है । जीव पुरुषसे ही बार-बार जन्म और मृत्युको प्राप्त होता है । मायाद्वारा अन्यरूपसे प्रकट किया जाना ही उसका जन्म कहलाता है । जीवका शरीर जन्मकालसे ही जीर्ण (छ: भावविकारोंसे युक्त) होने लगता है, इसीलिये उसे 'जीव' यह संज्ञा दी गयी है । जो जन्म लेता और विविध पाशोंद्वारा बन्धनमें पड़ता है, उसका नाम जीव है, जन्म और बन्धन जीव शब्दका ही अर्थ है । अत: जन्ममृत्युरूपी बन्धनकी निवृत्तिके लिये जन्मके अधिष्ठानभूत माता-पितृस्वरूप शिवलिंगका भली-भांति पूजन करना चाहिये । ९३-१०० ॥

भं वृद्धिं गच्छतीत्यर्थाद्‌भगः प्रकृतिरुच्यते ।
प्राकृतैः शब्दमात्राद्यैः प्राकृतेन्द्रियभोजनात् ॥ १०१ ॥
भगस्य दं भोगमिति शब्दार्थो मुख्यतः श्रुतः ।
मुख्यो भगस्तु प्रकृतिर्भगवाञ्छिव उच्यते ॥ १०२ ॥
शब्दादि पंचतन्मात्राओं तथा पंचेन्द्रियोंसे विषय ग्रहण करनेसे 'भ' अर्थात् वृद्धिको 'गच्छति' अर्थात् प्राप्त होती है, इसलिये 'भग' शब्दका अर्थ प्रकृति है । भोग ही भगका मुख्य शब्दार्थ है । मुख्य भग' प्रकृति है और 'भगवान्' शिव कहे जाते हैं ॥ १०१-१०२ ॥

भगवान्भोगदाता हि नाऽन्यो भोगप्रदायकः ।
भगस्वामी च भगवान्भर्ग इत्युच्यते बुधैः ॥ १०३ ॥
भगेन सहितं लिङ्‌गं भगं लिङ्‌गेन संयुतम् ।
इहामुत्र च भोगार्थं नित्यभोगार्थमेव च ॥ १०४ ॥
भगवन्तं महादेवं शिवलिङ्‌गं प्रपूजयेत् ।
भगवान् ही भोग प्रदान करते हैं, दूसरा कोई नहीं दे सकता । भग (प्रकृति) का स्वामी भगवान् ही विद्वानोंद्वारा भर्ग कहा जाता है । भग प्रकृतिसे संयुक्त परमात्मलिंग और लिंगसंयुक्त भग-प्रकृति ही इस लोक और परलोकमें नित्य भोग प्रदान करते हैं, अत: भगवान् महादेवके शिवलिंगकी पूजा करनी चाहिये ॥ १०३-१०४ १/२ ॥

लोकप्रसविता सूर्यस्तच्चिह्नं प्रसवाद्‌भवेत् ॥ १०५ ॥
लिङ्‌गे प्रसूतिकर्तारं लिङ्‌गिनं पुरुषो यजेत् ।
लिङ्‌गार्थगमकं चिह्नं लिङ्‌गमित्यभिधीयते ॥ १०६ ॥
संसारको उत्पन्न करनेवाले सूर्य हैं और उत्पन्न करनेके कारण जगत् ही उनका (प्रत्यक्ष) चिह्न है । [इसलिये उनका एक नाम भग भी है । पुरुषको लिंगमें जगत्को उत्पन्न करनेवाले लिंगीकी ही पूजा करनी चाहिये । सृष्टिके अर्थको बतानेवाले चिके रूपमें ही उसे लिंग कहा जाता है ॥ १०५-१०६ ॥

लिङ्‌गमर्थं हि पुरुषं शिवं ‌गमयतीत्यदः ।
शिवशक्त्योश्च चिह्नस्य मेलनं लिङ्‌गमुच्यते ॥ १०७ ॥
स्वचिह्नपूजनात्प्रीतश्चिह्नकार्यं न विद्यते ।
चिह्नकार्यं तु जन्मादि जन्माद्यं विनिवर्तते ॥ १०८ ॥
प्राकृतः पुरुषश्चापि बाह्याभ्यन्तरसम्भवैः ।
षोशशैरुपचारैश्च शिवलिङ्‌गं प्रपूजयेत् ॥ १०९ ॥
लिंग परमपुरुष शिवका बोध कराता है । इस प्रकार शिव और शक्तिके मिलनके प्रतीकको ही शिवलिंग कहा गया है । अपने चिह्नके पूजनसे प्रसन्न होकर महादेव उस चिहलके कार्यरूप जन्मादिको समाप्त कर देते हैं तथा पूजकको पुनर्जन्मकी प्राप्ति नहीं होती । अतः सभी लोगोंको यथाप्राप्त बाहा और मानसिक षोडशोपचारोंसे शिवलिंगका पूजन करना चाहिये ॥ १०७-१०९ ॥

एवमादित्यवारे हि पूजा जन्मनिवर्तिका ।
आदिवारे महालिङ्‌गं प्रणवेनैव पूजयेत् ॥ ११० ॥
आदिवारे पञ्चगव्यैरभिषेको विशिष्यते ।
गोमयं ‌गोजलं ‌क्षीरं दध्याज्यं पञ्चगव्यकम् ॥ १११ ॥
रविवारको की गयी पूजा पुनर्जन्मका निवारण कर देती है । रविवारको महालिंगकी प्रणव (ॐ)से ही पूजा करनी चाहिये । उस दिन पंचगव्यसे किया गया अभिषेक विशेष महत्त्वका होता है । गोबर, गोमूत्र, गौदुग्ध, उसका दही और गोघृत-ये पंचगव्य कहे जाते हैं ॥ ११०-१११ ॥

क्षीराद्यं च पृथक्च्चैव मधुना चेक्षुसारकैः ।
गव्यक्षीरान्ननैवेद्यं प्रणवेनैव कारयेत् ॥ ११२ ॥
प्रणवं ध्वनिलिङ्‌गं तु नादलिङ्‌गं स्वयम्भुवः ।
बिन्दुलिङ्‌गं तु यन्त्रं स्यान्मकारं तु प्रतिष्ठितम् ॥ ११३ ॥
उकारं चरलिङ्‌गं स्यादकारं ‌गुरुविग्रहम् ।
षड्लिङ्‌गपूजया नित्यं जीवन्मुक्तोनसंशयः ॥ ११४ ॥
गायका दूध, गायका दही और गायका घीइन तीनोंको पूजनके लिये शहद और शक्करके साथ पृथक-पृथक् भी रखे और इन सबको मिलाकर सम्मिलितरूपसे पंचामृत भी तैयार कर ले । (इनके द्वारा शिवलिंगका अभिषेक एवं स्नान कराये), फिर गायके दूध और अन्नके मेलसे नैवेद्य तैयार करके प्रणव मन्त्रके उच्चारणपूर्वक उसे भगवान् शिवको अर्पित करे । सम्पूर्ण प्रणवको ध्वनिलिंग कहते हैं । स्वयम्भूलिंग नादस्वरूप होनेके कारण नादलिंग कहा गया है । यन्त्र या अर्घा बिन्दुस्वरूप होनेके कारण बिन्दुलिंगके रूपमें विख्यात है । उसमें अचलरूपसे प्रतिष्ठित जो शिवलिंग है, वह मकार-स्वरूप है, इसलिये मकारलिंग कहलाता है । सवारी निकालने आदिके लिये जो चरलिंग होता है, वह उकारस्वरूप होनेसे उकारलिंग कहा गया है तथा पूजाकी दीक्षा देनेवाले जो गुरु या आचार्य हैं, उनका विग्रह अकारका प्रतीक होनेसे अकारलिंग माना गया है । इस प्रकार प्रणवमें प्रतिष्ठित अकार, उकार, मकार, बिन्दु, नाद और ध्वनिके रूपमें लिंगके छः भेद हैं । इन छहों लिंगोंकी नित्य पूजा करनेसे साधक जीवन्मुक्त हो जाता है । इसमें संशय नहीं है ॥ ११२-११४ ॥

शिवस्य भक्त्या पूजा हि जन्ममुक्तिकरी नृणाम् ।
रुद्राक्षधारणात्पादमर्धं वै भूतिधारणात् ॥ ११५ ॥
त्रिपादं मन्त्रजाप्याच्च पूजया पूर्णभक्तिमान् ।
शिवलिङ्‌गं च भक्तं च पूज्यं मोक्षं लभेन्नरः ॥ ११६ ॥
य इमं पठतेऽध्यायं शृणुयाद्वा समाहितः ।
तस्यैव शिवभक्तिश्च वर्धते सुदृढा द्विजाः ॥ ११७ ॥
भक्तिपूर्वक की गयी शिवपूजा मनुष्योंको पुनर्जन्मसे छुटकारा दिलाती है । रुद्राक्षधारणसे एक चौथाई, विभूति (भस्म)-धारणसे आधा, मन्त्रजपसे तीन चौथाई और पूजासे पूर्ण फल प्राप्त होता है । शिवलिंग और शिवभक्तकी पूजा करके मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है । हे द्विजो ! जो इस अध्यायको ध्यानपूर्वक पढ़ता-सुनता है, उसकी शिवभक्ति सुदृढ होकर बढ़ती रहती है ॥ ११५-११७ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां
पार्थिवपूजाप्रकारादिवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत प्रथम विहोश्वरसंहितामें पार्थिव पूजा आदिका प्रकार वर्णन नामक सोलहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥


श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


GO TOP