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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥ ॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥
विद्येश्वरसंहिता
॥ सप्तदशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] प्रणवपंचाक्षरमंत्रमाहात्म्यम् -
षड्लिंगस्वरूप प्रणवका माहात्म्य, उसके सूक्ष्म रूप (ॐकार) और स्थूल रूप (पंचाक्षर मन्त्र) का विवेचन, उसके जपकी विधि एवं महिमा, कार्यब्रह्मके लोकोंसे लेकर कारणरुद्रके लोकोंतकका विवेचन करके कालातीत, पंचावरणविशिष्ट शिवलोकके अनिर्वचनीय वैभवका निरूपण तथा शिवभक्तोंके सत्कारकी महत्ता ऋषय ऊचुः -
प्रणवस्य च माहात्म्यं षड्लिङ्गस्यमहामुने । शिवभक्तस्य पूजां च क्रमशो ब्रूहि नः प्रभो ॥ १ ॥ ऋषिगण बोले-हे महामुने ! हे प्रभो ! आप हमारे लिये क्रमशः षड्लिंगस्वरूप प्रणवका माहात्म्य तथा शिवभक्तके पूजनकी विधि बताइये ॥ १ ॥ सूत उवाच -
तपोधनैर्भवद्भिश्च सम्यक्प्रश्नस्त्वयं कृतः । अस्योत्तरं महादेवो जानाति स्म न चापरः ॥ २ ॥ तथापि वक्ष्ये तमहं शिवस्य कृपयैव हि । शिवोऽस्माकं च युष्माकं रक्षां गृह्णातु भूरिशः ॥ ३ ॥ सूतजीने कहा-महर्षियो ! आपलोग तपस्याके धनी हैं, आपने यह बड़ा सुन्दर प्रश्न उपस्थित किया है । किंतु इसका ठीक-ठीक उत्तर महादेवजी ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं । तथापि भगवान् शिवकी कृपासे ही मैं इस विषयका वर्णन करूँगा । वे भगवान् शिव हमारी और आपलोगोंकी रक्षाका महान् भार बारम्बार स्वयं ही ग्रहण करें ॥ २-३ ॥ यो हि प्रकृतिजातस्य संसारस्य महोदधेः ।
नवं नौकान्तरमिति प्रणवं वै विदुर्बुधाः ॥ ४ ॥ प्रः प्रपञ्चो न नास्तीति युष्माकं प्रणवं विदुः । प्रकर्षेण नयेद्यस्मान्मोक्षं वः प्रणवं विदुः ॥ ५ ॥ 'प्र' नाम है प्रकृतिसे उत्पन्न संसाररूपी महासागरका । प्रणव' इसे पार करनेके लिये दूसरी (नव) नाव है । इसलिये विद्वान् इस ओंकारको 'प्रणव' की संज्ञा देते हैं । [ॐकार अपने जप करनेवाले साधकोंसे कहता है-]'प्र-प्रपंच, न-नहीं है, व:तुमलोगोंके लिये । ' अत: इस भावको लेकर भी ज्ञानी पुरुष'ओम्' को 'प्रणव' नामसे जानते हैं । इसका दूसरा भाव यह है-'प्र-प्रकर्षण, न-नयेत्, वः-युष्मान्मोक्षम् इति वा प्रणवः । अर्थात् यह तुम सब उपासकोंको बलपूर्वक मोक्षतक पहुँचा देगा । ' इस अभिप्रायसे भी इसे ऋषि-मुनि 'प्रणव' कहते हैं ॥ ४-५ ॥ स्वमंत्रजापकानां च पूजकानां च योगिनाम् ।
सर्वकर्मक्षयं कृत्वा दिव्यज्ञानं तु नूतनम् ॥ ६ ॥ तमेव मायारहितं नूतनं परिचक्षते । प्रकर्षेण महात्मानं नवं शुद्धस्वरूपकम् ॥ ७ ॥ नूतनं वै करोतीति प्रणवं तं विदुर्बुधाः । अपना जप करनेवाले योगियोंकेतथा अपने मन्त्रकी पूजा करनेवाले उपासकके समस्त कौका नाश करके यह दिव्य नूतन ज्ञान देता है । इसलिये भी इसका नाम प्रणव है । उन मायारहित महेश्वरको ही नव अर्थात् नूतन कहते हैं । वे परमात्मा प्रकृष्टरूपसे नव अर्थात् शुद्धस्वरूप हैं, इसलिये 'प्रणव' कहलाते हैं । प्रणव साधकको नव अर्थात नवीन (शिवस्वरूप) कर देता है । इसलिये भी विद्वान् पुरुष उसे 'प्रणव' कहते हैं । अथवा प्रकृष्टरूपसे नव-दिव्य परमात्मज्ञान प्रकट करता है, इसलिये वह प्रणव कहा गया है ॥ ६-७ १/२ ॥ प्रणवं द्विविधं प्रोक्तं सूक्ष्मस्थूलविभेदतः ॥ ८ ॥
सूक्ष्ममेकाक्षरं विद्यात्स्थूलं पञ्चाक्षरं विदुः । सूक्ष्ममव्यक्तपञ्चार्णं सुव्यक्तार्णं तथेतरत् ॥ ९ ॥ जीवन्मुक्तस्य सूक्ष्मं हि सर्वसारं हि तस्य हि । मन्त्रेणार्थानुसन्धानं स्वदेहविलयावधि ॥ १० ॥ स्वदेहे गलिते पूर्णं शिवं प्राप्नोति निश्चयः । प्रणवके दो भेद बताये गये हैं-स्थूल और सूक्ष्म । एक अक्षररूप जो 'ओम्' है, उसे सूक्ष्म प्रणव जानना चाहिये और 'नमः शिवाय' इस पाँच अक्षरवाले मन्त्रको स्थूल प्रणव समझना चाहिये । जिसमें पाँच अक्षर व्यक्त नहीं हैं, वह सूक्ष्म है और जिसमें पाँचों अक्षर सुस्पष्टरूपसे व्यक्त हैं, वह स्थूल है । जीवन्मुक्त पुरुषके लिये सूक्ष्म प्रणवके जपका विधान है । वही उसके लिये समस्त साधनोंका सार है । (यद्यपि जीवन्मुक्तके लिये किसी साधनकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह सिद्धरूप है, तथापि दूसरोंकी दृष्टिमें जबतक उसका शरीर रहता है, तबतक उसके द्वारा प्रणव-जपकी सहज साधना स्वतः होती रहती है । वह अपनी देहका विलय होनेतक सूक्ष्म प्रणव मन्त्रका जप और उसके अर्थभूत परमात्मतत्त्वका अनुसंधान करता रहता है । जब शरीर नष्ट हो जाता है, तब वह पूर्ण ब्रह्मस्वरूप शिवको प्राप्त कर लेता है-यह सुनिश्चित है ॥ ८-१० १/२ ॥ केवलं मन्त्रजापो तु योगं प्राप्नोति निश्चयः ॥ ११ ॥
षट्त्रिंशत्कोटिजापी तु निश्चयं योगमाप्नुयात् । सूक्ष्मं च द्विविधं ज्ञेयं ह्रस्वदीर्घविभेदतः ॥ १२ ॥ अकारश्च उकारश्च मकारश्च ततः परम् । बिन्दुनादयुतं तद्धि शब्दकालकलान्वितम् ॥ १३ ॥ दीर्घप्रणवमेवं हि योगिनामेव हृद्गतम् । मकारं तन्त्रितत्त्वं हि ह्रस्वप्रणव उच्यते ॥ १४ ॥ शिवः शक्तिस्तयोरैक्यं मकारं तु त्रिकात्मकम् । ह्रस्वमेवं हि जाप्यं स्यात्सर्वपापक्षयैषिणाम् ॥ १५ ॥ जो केवल मन्त्रका जप करता है, उसे निश्चय ही योगकी प्राप्ति होती है । जिसने छत्तीस करोड़ मन्त्रका जप कर लिया हो, उसे अवश्य ही योग प्राप्त हो जाता है । सूक्ष्म प्रणवके भी ह्रस्व और दीर्घके भेदसे दो रूप जानने चाहिये । अकार, उकार, मकार, बिन्दु, नाद, शब्द, काल और कला-इनसे युक्त जो प्रणव है, उसे 'दीर्घ प्रणव' कहते हैं । वह योगियोंके ही हृदय में स्थित होता है । मकारपर्यन्त जो ओम् है, वह अ उम्-इन तीन तत्त्वोंसे युक्त है । इसीको ह्रस्व प्रणव' कहते हैं । 'अ' शिव है, 'उ' शक्ति है और मकार इन दोनोंकी एकता है; वह त्रितत्त्वरूप है, ऐसा समझकर हस्व प्रणवका जप करना चाहिये । जो अपने समस्त पापोंका क्षय करना चाहते हैं, उनके लिये इस ह्रस्व प्रणवका जप अत्यन्त आवश्यक है ॥ ११-१५ ॥ भूवायुकनकार्णोद्योः शब्दाद्याश्च तथा दश ।
आशान्वये दश पुनः प्रवृत्ता इति कथ्यते ॥ १६ ॥ ह्रस्वमेव प्रवृत्तानां निवृत्तानां तु दीर्घकम् । व्याहृत्यादौ च मन्त्रादौ कामं शब्दकलायुतम् ॥ १७ ॥ वेदादौ च प्रयोज्यं स्याद्वन्दने सन्ध्ययोरपि । पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-ये पाँच भूत तथा शब्द, स्पर्श आदि इनके पाँच विषय-ये सब मिलकर दस वस्तुएँ मनुष्योंकी कामनाके विषय हैं । इनकी आशा मनमें लेकर जो कोंके अनुष्ठानमें संलग्न होते हैं, वे दस प्रकारके पुरुष प्रवृत्त अथवा प्रवृत्तिमार्गी कहलाते हैं तथा जो निष्कामभावसे शास्त्रविहित कर्मोका अनुष्ठान करते हैं, वे निवृत्त अथवा निवृत्तिमार्गी कहे गये हैं । प्रवृत्त पुरुषोंको हस्व प्रणवका ही जप करना चाहिये और निवृत्त पुरुषोंको दीर्घ प्रणवका । व्याहृतियों तथा अन्य मन्त्रोंके आदिमें इच्छानुसार शब्द और कलासे युक्त प्रणवका उच्चारण करना चाहिये । वेदके आदिमें और दोनों संध्याओंकी उपासनाके समय भी ओंकारका उच्चारण करना चाहिये ॥ १६-१७ १/२ ॥ नवकौटिजपाञ्जप्त्वा संशुद्धःपुरुषो भवेत् ॥ १८ ॥
पुनश्च नवकोट्या तु पृथिवीजयमाप्नुयात् । पुनश्च नवकोट्या तु ह्यपां जयमवाप्नुयात् ॥ १९ ॥ पुनश्च नवकोट्या तु तेजसां जयमाप्नुयात् । पुनश्च नवकोट्या तु वायोर्जयमवाप्नुयात् । आकाशजयमाप्नोति नवकोटिजपेन वै ॥ २० ॥ गन्धादीनां क्रमेणैव नवकोटिजपेन वै । अहङ्कारस्य च पुनर्नवकोटिजपेन वै ॥ २१ ॥ प्रणवका नौ करोड़ जप करनेसे मनुष्य शुद्ध हो जाता है । पुनः नौ करोड़का जप करनेसे वह पृथ्वीतत्त्वपर विजय पा लेता है । तत्पश्चात् पुनः नौ करोड़का जप करके वह जल-तत्त्वको जीत लेता है । पुन: नौ करोड़ जपसे वह अग्नितत्त्वपर विजय पाता है । तदनन्तर फिर नौ करोड़का जप करके वह वायु तत्त्वपर विजयी होता है और फिर नौ करोड़केजपसे आकाशको अपने अधिकारमें कर लेता है । इसी प्रकार नौ-नौ करोड़का जप करके वह क्रमशः गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्दपर विजय पाता है, इसके बाद फिर नौ करोड़का जप करके अहंकारको भी जीत लेता है ॥ १८-२१ ॥ सहस्रमन्त्रजप्तेन नित्यशुद्धो भवेत्पुमान् ।
ततः परं स्वसिद्ध्यर्थं जपो भवति हि द्विजाः ॥ २२ ॥ हे द्विजो ! मनुष्य एक हजार मन्त्रोंके जप |करनेसे नित्य शुद्ध होता है, इसके अनन्तर अपनी सिद्धिके लिये जप किया जाता है । ॥ २२ ॥ एवमष्टोत्तरशतकोटिजप्तेन वै पुनः ।
प्रणवेन प्रबुद्धस्तु शुद्धयोगमवाप्नुयात् ॥ २३ ॥ शुद्धयोगेन संयुक्तो जीवन्मुक्तो न संशयः । सदा जपन्सदा ध्यायञ्छिवं प्रणवरूपिणम् ॥ २४ ॥ समाधिस्थो महायोगी शिव एव न संशयः । ऋषिच्छन्दो देवतादि न्यस्य देहे पुनर्जपेत् ॥ २५ ॥ प्रणवं मातृकायुक्तं देहे न्यस्य ऋषिर्भवेत् । दशमातृषडध्वादि सर्वं न्यासफलं लभेत् ॥ २६ ॥ प्रवृत्तानां च मिश्राणां स्थूलप्रणवमिष्यते । इस तरह एक सौ आठ करोड़ प्रणवका जप करके उत्कृष्ट बोधको प्राप्त हुआ पुरुष शुद्ध योग प्राप्त कर लेता है । शुद्ध योगसे युक्त होनेपर वह जीवन्मुक्त हो जाता है । इसमें संशय नहीं है । सदा प्रणवका जप और प्रणवरूपी शिवका ध्यान करतेकरते समाधिमें स्थित हुआ महायोगी पुरुष साक्षात् शिव ही है । इसमें संशय नहीं है । पहले अपने शरीरमें प्रणवके ऋषि, छन्द और देवता आदिका न्यास करके फिर जप आरम्भ करना चाहिये । अकारादि मातृकावर्णोसे युक्त प्रणवका अपने अंगोंमें न्यास करके मनुष्य ऋषि हो जाता है । मन्त्रोंके दशविध संस्कार[&&], मातृकान्यास तथा षडध्वशोधन[%%] आदिके साथ सम्पूर्ण न्यासका फल उसे प्राप्त हो जाता है । प्रवृत्ति तथा प्रवृत्ति-निवृत्तिसे मिश्रित भाववाले पुरुषोंके लिये स्थूल प्रणवका जप ही अभीष्टका साधक होता है । २३-२६ १/२ ॥ क्रियातपोजपैर्युक्तास्त्रिविधाः शिवयोगिनः ॥ २७ ॥
धनादिविभवैश्चैव कराद्यङ्गैर्नमादिभिः । क्रियया पूजया युक्तः क्रियायोगीति कथ्यते ॥ २८ ॥ पूजायुक्तश्च मितभुग्बाह्यन्द्रियजयान्वितः । परद्रोहादिरहितस्तपोयोगीति कथ्यते ॥ २९ ॥ एतैर्युक्तःसदा शुद्धः सर्वकामादिवर्जितः । सदा जपपरः शान्तो जपयोगीति तं विदुः ॥ ३० ॥ उपचारैः षोडशभिः पूजया शिवयोगिनाम् । सालोक्यादिक्रमेणैव शुद्धो मुक्तिं लभेन्नरः ॥ ३१ ॥ क्रिया, तप और जपके योगसे शिवयोगी तीन प्रकारके होते हैं-[वे क्रमशः क्रियायोगी, तपोयोगी और जपयोगी कहलाते हैं । ] जो धन आदि वैभवोंसे पूजा सामग्रीका संचय करके हाथ आदि अंगोंसे नमस्कारादि क्रिया करते हुए इष्टदेवकी पूजामें लगा रहता है, वह 'क्रियायोगी' कहलाता है । पूजामें संलग्न रहकर जो परिमित भोजन करता हुआ बाह्य इन्द्रियोंको जीतकर वशमें किये रहता है और मनको भी वशमें करके परद्रोह आदिसे दूर रहता है, वह 'तपोयोगी' कहलाता है । इन सभी सद्गुणोंसे युक्त होकर जो सदा शुद्धभावसे रहता तथा समस्त काम आदि दोषोंसे रहित हो शान्तचित्तसे निरन्तर जप किया करता है, उसे महात्मा पुरुष 'जपयोगी' मानते हैं । जो मनुष्य सोलह प्रकारके उपचारोंसे शिवयोगी महात्माओंकी पूजा करता है, वह शुद्ध होकर सालोक्य आदिके क्रमसे उत्तरोत्तर उत्कृष्ट मुक्तिको प्राप्त कर लेता है ॥ २७-३१ ॥ जपयोगमथो वक्ष्ये गदतः शृणुत द्विजाः ।
तपः कर्तुर्जपः प्रोक्तो यज्जपन्परिमार्जते ॥ ३२ ॥ शिवनामनमःपूर्वं चतुर्थ्यां पञ्चतत्त्वकम् । स्थूलप्रणवरूपं हि शिवपञ्चाक्षरं द्विजाः ॥ ३३ ॥ पञ्चाक्षरजपेनैव सर्वसिद्धिं लभेन्नरः । प्रणवेनादिसंयुक्तं सदा पञ्चाक्षरं जपेत् ॥ ३४ ॥ गुरूपदेशं सङ्गम्य सुखवासे सुभूतले । पूर्वपक्षे समारभ्य कृष्णभूतावधि द्विजाः ॥ ३५ ॥ माघं भाद्रं विशिष्टं तु सर्वकालोत्तमोत्तमम् । हे द्विजो ! अब मैं जपयोगका वर्णन करता हूँ, आप सब लोग ध्यान देकर सुनें । तपस्या करनेवालेके लिये जपका उपदेश किया गया है; क्योंकि वह जप करते-करते अपने आपको सर्वथा शुद्ध (निष्पाप) कर लेता है । हे ब्राह्मणो ! पहले 'नमः' पद हो, उसके बाद चतुर्थी विभक्तिमें 'शिव' शब्द हो, तो पंचतत्वात्मक 'नमः शिवाय' मन्त्र होता है । इसे 'शिव-पंचाक्षर' कहते हैं । यह स्थूल प्रणवरूप है । इस पंचाक्षरके जपसे ही मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धियोंको प्राप्त कर लेता है । पंचाक्षरमन्त्रके आदिमें ओंकार लगाकर ही सदा उसका जप करना चाहिये । हे द्विजो ! गुरुके मुखसे पंचाक्षरमन्त्रका उपदेश पाकर जहाँ सुखपूर्वक निवास |किया जा सके, ऐसी उत्तम भूमिपर महीनेके पूर्वपक्ष (शुक्ल) में प्रतिपदासे आरम्भ करके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीतक निरन्तर जप करता रहे । माघ और भादोंके महीने अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं । यह समय सब समयोंसे उत्तमोत्तम माना गया । है ॥ ३२-३५ १/२ ॥ एकवारं मिताशी तु वाग्यतो नियतेन्द्रियः ॥ ३६ ॥
स्वस्य राज्ञ पितॄणां च नित्यं शुश्रूषणं चरेत् । सहस्रजपमात्रेण भवेच्छुद्धोऽन्यथा ऋणी ॥ ३७ ॥ पञ्चाक्षरं पञ्चलक्षं जपेच्छिवमनुस्मरन् । पद्मासनस्थं शिवदं गङ्गाचन्द्रकलान्वितम् ॥ ३८ ॥ वामोरुस्थितशक्त्या च विराजन्तं महागणैः । मृगटङ्कधरं देवं वरदाभयपाणिकम् ॥ ३९ ॥ सदानुग्रहकर्तारं सदाशिवमनुस्मरन् । सम्पूज्य मनसा पूर्वं हृदि वा सूर्यमण्डले ॥ ४० ॥ जपेत्पञ्चाक्षरीं विद्यां प्राङ्मुखः शुद्धकर्मकृत् । प्रातः कृष्णचतुर्दश्यां नित्यकर्म समाप्य च ॥ ४१ ॥ मनोरमे शुचौ देशे नियतः शुद्धमानसः । पञ्चाक्षरस्य मन्त्रस्य सहस्रं द्वादशं जपेत् ॥ ४२ ॥ साधकको चाहिये कि वह प्रतिदिन एक बार परिमित भोजन करे, मौन रहे, इन्द्रियोंको वशमें रखे, अपने स्वामी एवं माता-पिताकी नित्य सेवा करे । इस नियमसे रहकर जप करनेवाला पुरुष एक हजार जपसे ही शुद्ध हो जाता है, अन्यथा वह ऋणी होता है । भगवान शिवका निरन्तर चिन्तन करते हए पंचाक्षर| मन्त्रका पाँच लाख जप करे । [जपकालमें इस प्रकार ध्यान करे] कल्याणदाता भगवान् शिव कमलके आसनपर विराजमान हैं. उनका मस्तक श्रीगंगाजी तथा चन्द्रमाकी कलासे सुशोभित है, उनकी बायौं जाँघपर आदिशक्ति भगवती उमा बैठी हैं, वहाँ खड़े हुए बड़े-बड़े गण भगवान् शिवकी शोभा बढ़ा रहे हैं, महादेवजी अपने चार हाथोंमें मृगमुद्रा, टंक तथा वर एवं अभयकी मुद्राएँ धारण किये हुए हैं । इस प्रकार सदा सबपर अनुग्रह करनेवाले भगवान् सदाशिवका बार-बार स्मरण करते हुए हृदय अथवा सूर्यमण्डलमें पहले उनकी मानसिक पूजा करके फिर पूर्वाभिमुख हो पूर्वोक्त पंचाक्षरी विद्याका जप करे । उन दिनों साधक सदा शुद्ध कर्म ही करे । जपकी समाप्तिके दिन कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको प्रातःकाल नित्यकर्म सम्पन्न करके शुद्ध एवं सुन्दर स्थानमें [शौचसंतोषादि] नियमोंसे युक्त होकर शुद्ध हृदयसे पंचाक्षरमन्त्रका बारह हजार जप करे ॥ ३६-४२ ॥ वरयेच्च सपत्नीकाञ्छैवान्वै ब्राह्मणोत्तमान् ।
एकं गुरुवरं शिष्टं वरयेत्साम्बमूर्तिकम् ॥ ४३ ॥ ईशानं चाथ पुरुषमघोरं वाममेव च । सद्योजातं च पञ्चैव शिवभक्तान्द्विजोत्तमान् ॥ ४४ ॥ पूजाद्रव्याणि सम्पाद्य शिवपूजां समारभेत् । शिवपूजां च विधिवत्कृत्वा होमं समारभेत् ॥ ४५ ॥ मुखान्तं च स्वसूत्रेण कृत्वा होमं समाचरेत् । दशैकं वा शतैकं वा सहस्रैकमथापि वा ॥ ४६ ॥ कापिलेन घृतेनैव जुहुयात्स्वयमेव हि । कारयेच्छिवभक्तैर्वाप्यष्टोत्तरशतं बुधः ॥ ४७ ॥ तत्पश्चात् सपत्नीक पाँच ब्राह्मणोंका, जो श्रेष्ठ एवं शिवभक्त हों, वरण करे । इनके अतिरिक्त एक श्रेष्ठ आचार्यका भी वरण करे और उसे साम्बसदाशिवका स्वरूप समझे । ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात-इन पाँचोंक प्रतीकस्वरूप श्रेष्ठ और शिवभक्त ब्राह्मणोंका वरण करनेके पश्चात् पूजन-सामग्रीको एकत्र करके भगवान् शिवका पूजन आरम्भ करे । विधिपूर्वक शिवकी पूजा सम्पन्न करके होम आरम्भ करे । अपने गृह्यसूत्रके अनुसार मुखान्त कर्म करनेके [अर्थात् परिसमूहन, उपलेपन, उल्लेखन, मद्-उद्धरण और अभ्युक्षण-इन पंच भू-संस्कारों के पाश्चात् वेदीपर स्वाभिमुख अग्निको स्थापित करके कुशकण्डिका करनेके अनन्तर प्रज्वलित अग्निमें आज्यभागान्त आहुति देकर] पश्चात् होमका कार्य आरम्भ करे । कपिला गायके पीसे ग्यारह, एक सौ एक अथवा एक हजार एक आहुतियाँ स्वयं ही दे अथवा विद्वान् पुरुष शिवभक्त ब्राह्मणोंसे एक सौ आठ आहुतियाँ दिलाये ॥ ४३-४७ ॥ होमान्ते दक्षिणा देया गुरोर्गोमिथुनं तथा ।
ईशानादिस्वरूपांस्तान्गुरुं साम्बं विभाव्य च ॥ ४८ ॥ तेषां पत्सिक्ततोयेन स्वशिरः स्नानमाचरेत् । षट्त्रिंशत्कोटितीर्थेषु सद्यः स्नानफलं लभेत् ॥ ४९ ॥ दशाङ्गमन्नं तेषां वै दद्याद्वै भक्तिपूर्वकम् । पराबुद्ध्यागुरोः पत्नीमीशानादिक्रमेण तु ॥ ५० ॥ परमान्नेन सम्पूज्य यथाविभवविस्तरम् । रुद्राक्षवस्त्रपूर्वं च वटकापूपकैर्युतम् ॥ ५१ ॥ बलिदानं ततः कृत्वा भूरि भोजनमाचरेत् । ततः सम्प्रार्थ्य देवेशं जपं तावत्समापयेत् ॥ ५२ ॥ पुरश्चरणमेवं तु कृत्वा मन्त्री भवेन्नरः । पुनश्च पञ्चलक्षेण सर्वपापक्षयो भवेत् ॥ ५३ ॥ अतलादि समारभ्य सत्यलोकावधि क्रमात् । पञ्चलक्षजपात्तत्तल्लोकैश्वर्यमवाप्नुयात् ॥ ५४ ॥ होमकर्म समाप्त होनेपर गुरुको दक्षिणाके रूपमें एक गाय और बैल देने चाहिये । ईशान आदिके प्रतीकरूप जिन पाँच ब्राह्मणोंका वरण किया गया हो, उनको ईशान आदिका ही स्वरूप समझे तथा आचार्यको साम्बसदाशिवका स्वरूप माने । इसी भावनाके साथ उन सबके चरण धोये और उनके चरणोदकसे अपने . मस्तकको सींचे । ऐसा करनेसे वह साधक छत्तीस करोड़ तीर्थोंमें स्नान करनेका फल तत्काल प्राप्त कर लेता है । उन ब्राह्मणोंको भक्तिपूर्वक दांग अन्न देना चाहिये । गुरुपत्नीको पराशक्ति मानकर उनका भी पूजन करे । ईशानादि क्रमसे उन सभी ब्राह्मणोंका उत्तम अन्नसे पूजन करके अपने वैभव विस्तारके अनुसार रुद्राक्ष, वस्त्र, बड़ा और पूआ आदि अर्पित करे । तदनन्तर दिक्पालादिको बलि देकर ब्राह्मणोंको भरपूर भोजन कराये । इसके बाद देवेश्वर शिवसे प्रार्थना करके अपना जप समाप्त करे । इस प्रकार पुरश्चरण करके मनुष्य उस मन्त्रको सिद्ध कर लेता है । फिर पाँच लाख जप करनेसे उसके समस्त पापोंका नाश हो जाता है । तदनन्तर पुनः पाँच लाख जप करनेपर मनुष्य अतलसे लेकर सत्यलोकतकके लोकोंका ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता है ॥ ४८-५४ ॥ मध्येमृतश्चेद्भोगान्ते भूमौ तज्जापको भवेत् ।
पुनश्च पञ्चलक्षेण ब्रह्मसामीप्यमाप्नुयात् ॥ ५५ ॥ पुनश्च पञ्चलक्षेण सारूप्यैश्वर्यमाप्नुयात् । आहत्य शतलक्षेण साक्षाद्ब्रह्मसमो भवेत् ॥ ५६ ॥ कार्यब्रह्मण एवं हि सायुज्यं प्रतिपद्य वै । यथेष्टं भोगमाप्नोति तद्ब्रह्म प्रलयावधि ॥ ५७ ॥ पुनः कल्पान्तरे वृत्ते ब्रह्मपुत्रः स जायते । पुनश्च तपसी दीप्तः क्रमान्मुक्तो भविष्यति ॥ ५८ ॥ यदि अनुष्ठान पूर्ण होनेके पहले बीचमें ही साधककी मृत्यु हो जाय तो वह परलोकमें उत्तम भोग भोगनेके पश्चात् पुनः पृथ्वीपर जन्म लेकर पंचाक्षरमन्त्रके जपका अनुष्ठान करता है । [समस्त लोकोंका ऐश्वर्य पानेके पश्चात् मन्त्रको सिद्ध करनेवाला] वह पुरुष यदि पुनः पाँच लाख जप करे तो उसे ब्रह्माजीका सामीप्य प्राप्त होता है । पुनः पाँच लाख जप करनेसे उसे सारूप्य नामक ऐश्वर्य प्राप्त होता है । सौ लाख जप करनेसे वह साक्षात् ब्रह्माके समान हो जाता है । इस तरह कार्य-ब्रह्म (हिरण्यगर्भ) का सायुज्य प्राप्त करके वह उस ब्रह्माका प्रलय होनेतक उस लोकमें यथेष्ट भोग भोगता है । फिर दूसरे कल्पका आरम्भ होनेपर वह ब्रह्माजीका पुत्र होता है । उस समय फिर तपस्या करके दिव्य तेजसे प्रकाशित होकर वह क्रमशः मुक्त हो जाता है ॥ ५५-५८ ॥ पृथ्व्यादिकार्यभूतेभ्यो लोका वै निर्मिताः क्रमात् ।
पातालादि च सत्यान्तं ब्रह्मलोकाश्चतुर्दश ॥ ५९ ॥ सत्यादूर्ध्वं क्षमान्तं वै विष्णुलोकाश्चतुर्दश । क्षमलोके कार्यविष्णुर्वैकुण्ठे वरपत्तने ॥ ६० ॥ कार्यलक्ष्म्या महाभोगिरक्षां कृत्वाऽधितिष्ठति । तदूर्ध्वगाश्च शुच्यन्तां लोकाष्टाविंशतिः स्थिताः ॥ ६१ ॥ शुचौ लोके तु कैलासे रुद्रो वै भूतहृत्स्थितः । षडुत्तराश्च पञ्चाशदहिंसान्तास्तदूर्ध्वगाः ॥ ६२ ॥ अहिंसालोकमास्थाय ज्ञानकैलासके पुरे । कार्येश्वरस्तिरोभावं सर्वान्कृत्वाऽधितिष्ठति ॥ ६३ ॥ तदन्ते कालचक्रं हि कालातीतस्ततः परम् । शिवेनाधिष्ठितिस्तत्र कालश्चक्रेश्वराह्वयः ॥ ६४ ॥ माहिषं धर्ममास्थाय सर्वान्कालेन युञ्जति । पृथ्वी आदि कार्यस्वरूप भूतोंद्वारा पातालसे लेकर सत्यलोकपर्यन्त ब्रह्माजीके चौदह लोक क्रमश: निर्मित हुए हैं । सत्यलोकसे ऊपर क्षमालोकतक जो चौदह भुवन हैं, वे भगवान् विष्णुके लोक हैं । उस क्षमालोक वाले श्रेष्ठ वैकुण्ठमें महाभोगी कार्यविष्णु कार्यलक्ष्मीसहित सबकी रक्षा करते हुए विराजमान रहते हैं । क्षमालोकसे ऊपर शुचिलोकपर्यन्त अट्ठाईस भुवन स्थित हैं । शुचिलोकके अन्तर्गत कैलासमें प्राणियोंका संहार करनेवाले रुद्रदेव विराजमान हैं । शुचिलोकसे ऊपर अहिंसालोकपर्यन्त छप्पन भुवनोंकी स्थिति है । अहिंसालोकका आश्रय लेकर जो ज्ञानकैलास नामक नगर शोभा पाता है, उसमें कार्यभूत महेश्वर सबको अदृश्य करके रहते हैं । अहिंसालोकके अन्तमें कालचक्रकी स्थिति है । तदनन्तर कालातीत स्थित है; जहाँ कालचक्रेश्वर नामक शिव माहिष धर्मका आश्रय लेकर सबको कालसे संयुक्त किये रहते हैं ॥ ५९-६४ १/२ ॥ असत्यश्चाशुचिश्चैव हिंसाचैवाथ निर्घृणा ॥ ६५ ॥
असत्यादिचतुष्पादः सर्वांशः कामरूपधृक् । नास्तिक्यलक्ष्मीर्दुःसङ्गो वेदबाह्यध्वनिः सदा ॥ ६६ ॥ क्रोधसङ्गः कृष्णवर्णो महामहिषवेषवान् । तावन् महेश्वरः प्रोक्तस्तिरोधास्तावदेव हि ॥ ६७ ॥ तदर्वाक्कर्मभोगो हि तदूर्ध्वं ज्ञानभोगकम् । तदर्वाक्कर्ममाया हि ज्ञानमाया तदूर्ध्वकम् ॥ ६८ ॥ असत्य, अशुचि, हिंसा, निर्दयता-ये असत्य आदि चार पाद कामरूप धारण करनेवाले शिवके अंश हैं । नास्तिकतायुक्त लक्ष्मी, दुःसंग, वेदबाह्य शब्द, क्रोधका संग, कृष्ण वर्ण-ये महामहिषके रूपवाले हैं । यहाँतक महेश्वरके विराट-स्वरूपका वर्णन किया गया । वहींतक लोकोंका तिरोधान अथवा लय होता है । उससे नीचे कौका भोग है और उससे ऊपर ज्ञानका भोग, उसके नीचे कर्ममाया है और उसके ऊपर ज्ञानमाया ॥ ६५-६८ ॥ मालक्ष्मीः कर्मभोगो वै याति मायेति कथ्यते ।
मालक्ष्मीर्ज्ञानभोगी वै याति मायेति कथ्यते ॥ ६९ ॥ तदूर्ध्वं नित्यभोगो हि तदर्वाङ् नश्वरं विदुः । तदर्वाक्च तिरोधानं तदूर्ध्वं न तिरोधनम् ॥ ७० ॥ तदर्वाक्पाशबन्धो हि तदूर्ध्वं नहि बन्धनम् । तदर्वाक्परिवर्तन्ते काम्यकर्मानुसारिणः ॥ ७१ ॥ निष्कामकर्मभोगस्तु तदूर्ध्वं परिकीर्तितः । [अब मैं कर्ममाया और ज्ञानमायाका तात्पर्य बता रहा हूँ-] 'मा' का अर्थ है लक्ष्मी; उससे कर्मभोग यात-प्राप्त होता है, इसलिये वह माया अथवा कर्ममाया कहलाती है । इसी तरह मा अर्थात् लक्ष्मीसे ज्ञानभोग यात अर्थात् प्राप्त होता है, इसलिये उसे माया या ज्ञानमाया कहा गया है । उपर्युक्त सीमासे नीचे नश्वर भोग हैं और ऊपर नित्य भोग । उससे नीचे ही तिरोधान अथवा लय है, ऊपर तिरोधान नहीं है । वहाँसे नीचे ही कर्ममय पाशोंद्वारा बन्धन होता है । ऊपर बन्धनका सदा अभाव है । उससे नीचे ही जीव सकाम कर्माका अनुसरण करते हुए विभिन्न लोकों और योनियों में चक्कर काटते हैं । उससे ऊपरके लोकोंमें निष्काम कर्मका ही भोग बताया गया है । ६९-७१ १/२ ॥ तदर्वाक्परिवर्तन्ते बिन्दुपूजापरायणाः ॥ ७२ ॥
तदूर्ध्वं हि व्रजन्त्येव निष्कामा लिङ्गपूजकाः । तदर्वाक्परिवर्तन्ते शिवान्यसुरपूजकाः ॥ ७३ ॥ शिवैकनिरता ये च तदूर्ध्वं सम्प्रयान्ति ते । तदर्वाग्जीवकोटिः स्यात्तदूर्ध्वं परकोटिकाः ॥ ७४ ॥ बिन्दुपूजामें तत्पर रहनेवाले उपासक वहाँसे नीचेके लोकोंमें ही घूमते हैं । उसके ऊपर तो निष्कामभावसे शिवलिंगकी पूजा करनेवाले उपासक ही जाते हैं । उसके नीचे शिवके अतिरिक्त अन्य देवताओंकी पूजा करनेवाले घूमते रहते हैं । जो एकमात्र शिवकी ही उपासनामें तत्पर हैं, वे उससे ऊपरके लोकोंमें जाते हैं । वहाँसे नीचे जीवकोटि है और ऊपर ईश्वरकोटि ॥ ७२-७४ ॥ सांसारिकास्तदर्वाक्च मुक्ताः खलु तदूर्ध्वगाः ।
तदर्वाक्परिवर्तन्ते प्राकृतद्रव्यपूजकाः ॥ ७५ ॥ तदूर्ध्वं हि व्रजन्त्येते पौरुषद्रव्यपूजकाः । तदर्वाक्छक्तिलिङ्गं तु शिवलिङ्गं तदूर्ध्वकम् ॥ ७६ ॥ तदर्वागावृतं लिङ्गं तदूर्ध्वं हि निराकृति । तदर्वाक्कल्पितं लिङ्गं तदूर्ध्वं वै न कल्पितम् ॥ ७७ ॥ तदर्वाग्बाह्यलिङ्गं स्यादन्तरङ्गं तदूर्ध्वकम् । तदर्वाक्छक्तिलोका हि शतं वै द्वादशाधिकम् ॥ ७८ ॥ तदर्वाग्बिन्दुरूपं हि नादरूपं तदुत्तरम् । तदर्वाक्कर्मलोकस्तु तदूर्ध्वं ज्ञानलोककः ॥ ७९ ॥ नीचे संसारी जीव रहते हैं और ऊपर मुक्त लोग । प्राकृत द्रव्योंसे पूजा करनेवाले उसके नीचे रहते हैं और पौरुष द्रव्योंसे पूजा करने वाले उससे ऊपर जाते हैं । उसके नीचे शक्तिलिंग है और उसके ऊपर शिवलिंग । उसके नीचे सगुण लिंग है और उसके ऊपर निर्गुण लिंग । उसके नीचे कल्पित लिंग है और उसके ऊपर कल्पित नहीं है । उसके नीचे आधिभौतिक लिंग और उसके ऊपर आध्यात्मिक लिंग है । उसके नीचे एक सौ बारह शक्ति-लोक हैं । उसके नीचे बिन्दुरूप और उसके ऊपर नादरूप है । उसके नीचे कर्मलोक है और उसके ऊपर ज्ञानलोक ॥ ७५-७९ ॥ नमस्कारस्तदूर्ध्वं हि मदाहङ्कारनाशनः ।
जनं तस्मात्तिरोधानं प्रत्यायाति न ना यतः ॥ ८० ॥ ज्ञानशब्दार्थ एवं हि तिरोधाननिवारणात् । तदर्वाक्परिवर्तन्ते ह्याधिभौतिकपूजकाः ॥ ८१ ॥ आध्यात्मिकार्चका एव तदूर्ध्वं सम्प्रयान्ति वै । तावद्वै वेदिभागं तन्महालोकात्मलिङ्गके ॥ ८२ ॥ प्रकृत्याद्यष्टबन्धोपि वेद्यन्ते सम्प्रतिष्ठतः । एवमेतादृशं ज्ञेयं सर्वं लौकिकवैदिकम् ॥ ८३ ॥ - इसी प्रकार उसके ऊपर मद और अहंकारका नाश करनेवाली नम्रता है, वहाँ जन्मजनित तिरोधान नहीं है । उसका निवारण किये बिना वहाँ किसीका प्रवेश सम्भव नहीं है । इस प्रकार तिरोधानका निवारण करनेसे वहाँ ज्ञानशब्दका अर्थ ही प्रकाशित होता है । आधिभौतिक पूजा करनेवाले लोग उससे नीचेके लोकोंमें ही चक्कर काटते हैं । जो आध्यात्मिक उपासना करनेवाले हैं, वे ही उससे ऊपरको जाते हैं । इस प्रकार वहाँतक महालोकरूपी आत्मलिंगमें विभागको जानना चाहिये और प्रकृति आदि (प्रकृति, महत्, अहंकार, पंच तन्मात्राएँ) आठ बन्धोंको भी जाने । इस प्रकार सब लौकिक तथा वैदिक स्वरूपको जानना चाहिये ॥ ८०-८३ ॥ अधर्ममहिषारूढं कालचक्रं तरन्ति ते ।
सत्यादिधर्मयुक्ता ये शिवपूजापराश्च ये ॥ ८४ ॥ तदूर्ध्वं वृषभो धर्मो ब्रह्मचर्यस्वरूपधृक् । सत्यादिपादयुक्तस्तु शिवलोकाग्रतः स्थितः ॥ ८५ ॥ क्षमाशृङ्गः शमश्रोत्रो वेदध्वनिविभूषितः । आस्तिक्यचक्षुर्निश्वासगुरुबुद्धिमना वृषः ॥ ८६ ॥ क्रियादिवृषभा ज्ञेयाः कारणादिषु सर्वदा । तं क्रियावृषभं धर्मं कालातीतोऽधितिष्ठति ॥ ८७ ॥ जो सत्य-अहिंसा आदि धौंसे युक्त होकर भगवान् शिवके पूजनमें तत्पर रहते हैं, वे अधर्मरूप भैसेपर आरूड कालचक्रको पार कर जाते हैं । कालचक्रेश्वरकी सीमातक जो विराट् महेश्वरलोक बताया गया है, उससे ऊपर वृषभके आकारमें धर्मकी स्थिति है । वह ब्रह्मचर्यका मूर्तिमान् रूप हैं । उसके सत्य, शौच, अहिंसा और दयाये चार पाद हैं । वह शिवलोकके आगे स्थित है । क्षमा उसके सींग हैं, शम कान हैं, वे वेदध्वनिरूपी शब्दसे विभूषित हैं । आस्तिकता उसके दोनों नेत्र हैं, नि:श्वास ही उसकी श्रेष्ठ बुद्धि एवं मन है । क्रिया आदि धर्मरूपी जो वृषभ हैं, वे कारण आदिमें सर्वदा स्थित हैं-ऐसा जानना चाहिये । उस क्रियारूप वृषभाकार धर्मपर कालातीत शिव आरूढ़ होते हैं । ८४-८७ ॥ ब्रह्मविष्णुमहेशानां स्वस्वायुर्दिनमुच्यते ।
तदूर्ध्वं न दिनं रात्रिर्न जन्ममरणादिकम् ॥ ८८ ॥ पुनः कारणसत्यान्ताः कारणब्रह्मणस्तथा । गन्धादिभ्यस्तु भूतेभ्यस्तदूर्ध्वं निर्मिताः सदा ॥ ८९ ॥ सूक्ष्मगन्धस्वरूपा हि स्थिता लोकाश्चतुर्दश । ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वरकी जो अपनी अपनी आयु है, उसीको दिन कहते हैं । जहाँ धर्मरूपी वृषभकी स्थिति है, उससे ऊपर न दिन है, न रात्रि और वहाँ जन्म-मरण आदि भी नहीं है । फिर कारणस्वरूप ब्रह्माके भी कारण सत्यलोकपर्यन्त चौदह लोक स्थित है, जो पांचभौतिक गन्ध आदिसे परे हैं । उनकी सनातन स्थिति है । सूक्ष्म गन्ध ही उनका स्वरूप है ॥ ८८-८९ १/२ ॥ पुनः कारणविष्णोर्वै स्थिता लोकाश्चतुर्दश ॥ ९० ॥
पुनः कारणरुद्रस्य लोकाष्टाविंशका मताः । पुनश्च कारणेशस्य षट्पञ्चाशत्तदूर्ध्वगाः ॥ ९१ ॥ ततः परं ब्रह्मचर्यलोकाख्यं शिवसंमतम् । तत्रैव ज्ञानकैलासे पञ्चावरणसंयुते ॥ ९२ ॥ पञ्चमण्डलसंयुक्तं पञ्चब्रह्मकलान्वितम् । आदिशक्तिसमायुक्तमादिलिङ्गं तु तत्र वै ॥ ९३ ॥ शिवालयमिदं प्रोक्तं शिवस्य परमात्मनः । परशक्त्या समायुक्तस्तत्रैव परमेश्वरः ॥ ९४ ॥ सृष्टिः स्थितिश्च संहारस्तिरोभावोऽप्यनुग्रहः । पञ्चकृत्यप्रवीणोऽसौ सच्चिदानन्दविग्रहः ॥ ९५ ॥ इसके ऊपर कारणरूप विष्णके चौदह लोक स्थित हैं । उनसे भी ऊपर फिर कारणरूपी रुद्रके अट्ठाईस लोकोंकी स्थिति मानी गयी है । फिर उनसे भी ऊपर कारणेश शिवके छप्पन लोक विद्यमान है । तदनन्तर शिवसम्मत ब्रह्मचर्यलोक है और वहीं पाँच आवरणोंसे युक्त ज्ञानमय कैलास है; वहाँपर पाँच मण्डलों, पाँच ब्रह्मकलाओं और आदिशक्तिसे संयुक्त आदिलिंग प्रतिष्ठित है । उसे परमात्मा शिवका शिवालय कहा गया है । वहीं पराशक्तिसे युक्त परमेश्वर शिव निवास करते हैं । वे सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह-इन पाँचों कृत्योंमें प्रवीण हैं । उनका श्रीविग्रह सच्चिदानन्दस्वरूप है ॥ ९०-९५ ॥ ध्यानधर्मः सदा यस्य सदानुग्रहतत्परः ।
समाध्यासनमासीनः स्वात्मारामोविराजते ॥ ९६ ॥ तस्यसन्दर्शनं साध्यं कर्मध्यानादिभिः क्रमात् । नित्यादिकर्मयजनाच्छिवकर्ममतिर्भवेत् ॥ ९७ ॥ क्रियादिशिवकर्मभ्यः शिवज्ञानं प्रसाधयेत् । तद्दर्शनगताः सर्वे मुक्ता एव नसंशयः ॥ ९८ ॥ वे सदा ध्यानरूपी धर्ममें ही स्थित रहते हैं और सदा सबपर अनुग्रह किया करते हैं । वे स्वात्माराम हैं और समाधिरूपी आसनपर आसीन हो सुशोभित होते हैं । कर्म एवं ध्यान आदिका अनुष्ठान करनेसे क्रमशः साधनपथमें आगे बढ़नेपर उनका दर्शन साध्य होता है । नित्य-नैमित्तिक आदि कर्मोद्वारा देवताओंका यजन करनेसे भगवान् शिवके समाराधन कर्ममें मन लगता है । क्रिया आदि जो शिवसम्बन्धी कर्म हैं, उनके द्वारा शिवज्ञान सिद्ध करे । जिन्होंने शिवतत्त्वका साक्षात्कार कर लिया है अथवा जिनपर शिवकी कृपादृष्टि पड़ चुकी है, वे सब मुक्त ही हैं । इसमें संशय नहीं है ॥ ९६-९८ ॥ मुक्तिरात्मस्वरूपेण स्वात्मारामत्वमेव हि ।
क्रियातपोजपज्ञानध्यानधर्मेषु सुस्थितः ॥ ९९ ॥ शिवस्य दर्शनं लब्धा स्वात्मारामत्वमेव हि । यथा रविः स्वकिरणादशुद्धिमपनेष्यति ॥ १०० ॥ कृपाविचक्षणः शम्भुरज्ञानमपनेष्यति । अज्ञानविनिवृत्तौ तु शिवज्ञानं प्रवर्तते ॥ १०१ ॥ शिवज्ञानात्स्वस्वरूपमात्मारामत्वमेष्यति । आत्मारामत्वसंसिद्धौ कृतकृत्यो भवेन्नरः ॥ १०२ ॥ आत्मस्वरूपसे जो स्थिति है, वही मुक्ति है । एकमात्र अपने आत्मामें रमण या आनन्दका अनुभव करना ही मुक्तिका स्वरूप है । जो पुरुष क्रिया, तप, जप, ज्ञान और ध्यानरूपी धर्मोंमें भलीभाँति स्थित है, वह शिवका साक्षात्कार करके स्वात्मारामत्वस्वरूप मोक्षको भी प्राप्त कर लेता है । जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे अशुद्धिको दूर कर देते हैं, उसी प्रकार कृपा करनेमें कुशल भगवान् शिव अपने भक्तके अज्ञानको मिटा देते हैं । अज्ञानकी निवृत्ति हो जानेपर शिवज्ञान स्वतः प्रकट हो जाता है । शिवज्ञानसे अपना विशुद्ध |स्वरूप आत्मारामत्व प्राप्त होता है और आत्मारामत्वकी सम्यक् सिद्धि हो जानेपर मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है ॥ ९९-१०२ ॥ पुनश्च शतलक्षेण ब्रह्मणः पदमाप्नुयात् ।
पुनश्च शतलक्षेण विष्णोः पदमवाप्नुयात् ॥ १०३ ॥ (शिव मन्त्रका) सौ लाख जप करनेसे ब्रह्मपदकी प्राप्ति होती है और फिर सौ लाख जप करनेसे विष्णुपद प्राप्त होता है ॥ १०३ ॥ पुनश्च शतलक्षेण रुद्रस्य पदमाप्नुयात् ।
पुनश्च शतलक्षेण ऐश्वर्यं पदमाप्नुयात् ॥ १०४ ॥ पुनः सौ लाख (शिवमन्त्रका) जप करनेसे रुद्रका पद प्राप्त होता है । उसके बाद फिर सौ लाख जप करनेपर ऐश्वर्यमय पदकी प्राप्ति हो जाती है ॥ १०४ ॥ पुनश्चैवंविधेनैव जपेन सुसमाहितः ।
शिवलोकादिभूतं हि कालचक्रमवाप्नुयात् ॥ १०५ ॥ फिर इसी प्रकार सम्यक् रूपसे जप करनेपर शिवलोकके आदिभूत अर्थात् शिवलोकके आधारभूत निर्माता कालचक्रको प्राप्त किया जा सकता है । १०५ ॥ कालचक्रं पञ्चचक्रमेकैकेन क्रमोत्तरे ।
सृष्टिमोहौ ब्रह्मचक्रं भोगमोहौ तु वैष्णवम् ॥ १०६ ॥ कोपमोहौ रौद्रचक्रं भ्रमणं चैश्वरं विदुः । शिवचक्रं ज्ञानमोहौ पञ्चचक्रं विदुर्बुधाः ॥ १०७ ॥ यह कालचक्र पंचचक्रोंसे युक्त है, जो एकके पश्चात् एकमें स्थित हैं । सृष्टि और मोहसे युक्त ब्रह्मचक्र, भोग तथा मोहसे युक्त वैष्णवचक्र, कोप एवं मोहसे युक्त रौद्रचक्र, भ्रमणसे युक्त ईश्वरचक्र और ज्ञान तथा मोहसे युक्त शिवचक्र है । ऐसा इन पाँच चक्रॉके विषयमें बुद्धिमानोंका कहना है ॥ १०६-१०७ ॥ पुनश्च दशकोट्या हि कारणब्रह्मणः पदम् ।
पुनश्च दशकोट्या हि तत्पदैश्वर्यमाप्नुयात् ॥ १०८ ॥ पुनः दस करोड़ (शिवमन्त्रका) जप करनेपर कारणब्रह्मका पद प्राप्त होता है । तदनन्तर दस करोड़ जप करनेसे ऐश्वर्ययुक्त पदकी प्राप्ति होती है । १०८ ॥ एवं क्रमेण विष्ण्वादेः पदं लब्ध्वा महौजसः ।
क्रमेण तत्पदैश्वर्यं लब्ध्वा चैव महात्मनः ॥ १०९ ॥ इस प्रकार क्रमशः जप करता हुआ प्राणी महान् ओजस्वी विष्णुके पदको प्राप्तकर पुनः उसी क्रमसे जपता हुआ महात्माओंके उस ऐश्वर्यपदको प्राप्त करता है ॥ १०९ ॥ शतकोटिमनुं जप्त्वा पञ्चोत्तरमतन्द्रितः ।
शिवलोकमवाप्नोति पञ्चमावरणाद्बहिः ॥ ११० ॥ बिना असावधानी किये १०५ करोड़ मन्त्रोंका जप करनेके पश्चात् वह प्राणी पाँच आवरणों (पशु, पाश, माया, शक्ति, रोध)-से बाहर स्थित शिवलोक प्राप्त करता है ॥ ११० ॥ राजसं मण्डपं तत्र नन्दीसंस्थानमुत्तमम् ।
तपोरूपश्च वृषभस्तत्रैव परिदृश्यते ॥ १११ ॥ वहाँ (उस शिवलोकमें) राजसमण्डप है, नन्दीश्वरका उत्तम निवास है । तपस्यारूपी वृषभ वहींपर दिखायी देता है ॥ १११ ॥ सद्योजातस्य तत्स्थानं पञ्चमावरणं परम् ।
वामदेवस्य च स्थानं चतुर्थावरणं पुनः ॥ ११२ ॥ वहींपर पाँचों आवरणोंसे बाहर सद्योजात (अर्थात् तत्काल आवरणरहित हुए भगवान् शिव) का स्थान है । पुन: चतुर्थ आवरणमें वामदेवका स्थान है ॥ ११२ ॥ अघोरनिलयं पश्चात्तृतीयावरणं परम् ।
पुरुषस्यैव साम्बस्य द्वितीयावरणं शुभम् ॥ ११३ ॥ ईशानस्य परस्यैव प्रथमावरणं ततः । ध्यानधर्मस्य च स्थानं पञ्चमं मण्डपं ततः ॥ ११४ ॥ उसके पश्चात् तृतीयावरणमें अघोर शिवका, दूसरे आवरणमें साम्बशिवका मंगलमय तथा प्रथमावरणमें ईशान शिवका निवासस्थान है । उसके पश्चात् पंचम मण्डप है, जहाँ ध्यान और धर्मका निवास रहता है ॥ ११३-११४ ॥ बलिनाथस्य संस्थानं तत्र पूर्णामृतप्रदम् ।
चतुर्थं मण्डपं पश्चाच्चन्द्रशेखरमूर्तिमत् ॥ ११५ ॥ तदनन्तर चतुर्थ मण्डप है, वहाँपर चन्द्रशेखरकी मूर्तिसे युक्त भगवान् बलिनाथका वासस्थान है, जो पूर्ण अमृतको प्रदान करनेवाला है ॥ ११५ ॥ सोमस्कन्दस्य च स्थानं तृतीयं मण्डपं परम् ।
द्वितीयं मण्डपं नृत्यमण्डपं प्राहुरास्तिकाः ॥ ११६ ॥ तृतीय मण्डपमें सोमस्कन्दका परम निवासस्थान है । उसके पश्चात् द्वितीय मण्डप है, आस्तिक लोग जिसे नृत्यमण्डप कहते हैं ॥ ११६ ॥ प्रथमं मूलमायायाः स्थानं तत्रैव शोभनम् ।
ततः परं गर्भगृहं लिङ्गस्थानं परं शुभम् ॥ ११७ ॥ प्रथम मण्डपमें मूलमायाका स्थान है, वहाँपर अत्यन्त शोभा वास करती है । उसके परे गर्भगृह है, जहाँपर शिवका लिंगस्थान है ॥ ११७ ॥ नन्दिसंस्थानतः पश्चान्न विदुः शिववैभवम् ।
नन्दीश्वरो बहिस्तिष्ठन्पञ्चाक्षरमुपासते ॥ ११८ ॥ नन्दीस्थानके पश्चात् शिबके वैभवको कोई नहीं जान सकता है । नन्दीश्वर (गर्भगृहसे) बाहर रहकर शिवके पंचाक्षर मन्त्रकी उपासना करते हैं ॥ ११८ ॥ एवं गुरुक्रमाल्लब्धं नन्दीशाच्च मया पुनः ।
ततः परं स्वसंवेद्यं शिवेनैवानुभावितम् ॥ ११९ ॥ इस प्रकार गुरुपरम्परासे नन्दीश्वर और सनत्कुमारके संवादकी जानकारी मुझे हुई है । उसके पश्चात्का परम रहस्य स्वसंवेद्य है, जिसका अनुभव स्वयं शिव करते हैं ॥ ११९ ॥ शिवस्य कृपया साक्षाच्छिवलोकस्य वैभवम् ।
विज्ञातुं शक्यते सर्वैर्नान्यथेत्याहुरास्तिकाः ॥ १२० ॥ आस्तिकजनोंका कहना है कि साक्षात् शिवकी कृपासे ही शिवलोकके ऐश्वर्यको लोग जान सकते हैं, अन्यथा असम्भव है । १२० ॥ एवं क्रमेण मुक्ताः स्युर्ब्राह्मणा वै जितेन्द्रियः ।
अन्येषां च क्रमं वक्ष्ये गदतः शृणुतादरात् ॥ १२१ ॥ इस प्रकारसे शिवका साक्षात्कार प्राप्तकर जितेन्द्रिय ब्राह्मण मुक्त हो जाते हैं अर्थात् मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं । अब मैं अन्य क्षत्रियादि वर्गों के विषय में कहूँगा । उसे आदरपूर्वक आप सब सुनें ॥ १२१ ॥ गुरूपदेशाज्जाप्यं वै ब्राह्मणानां नमोऽन्तकम् ।
पञ्चाक्षरं पञ्चलक्षमायुष्यं प्रजपेद्विधिः ॥ १२२ ॥ यदि ब्राह्मणको आयु प्राप्त करनेकी इच्छा है तो उसे गुरुके द्वारा बताये गये उपदेशके अनुसार इस शिवके पंचाक्षरमन्त्रका विधिपूर्वक पाँच लाख जप करना चाहिये ॥ १२२ ॥ स्त्रीत्वापनयनार्थं तु पञ्चलक्षं जपेत्पुनः ।
मन्त्रेण पुरुषो भूत्वा क्रमान्मुक्तो भवेद्बुधः ॥ १२३ ॥ यदि स्त्री स्त्रीत्व अर्थात् स्त्रीयोनिसे मुक्त होना चाहती है तो वह भी पाँच लाख पंचाक्षर मन्त्रोंका जप करे । उन मन्त्रों के प्रभावसे पुरुषका जन्म लेकर वह क्रमशः मुक्त हो जाती है ॥ १२३ ॥ क्षत्रियः पञ्चलक्षेण क्षत्त्रत्वमपनेष्यति ।
पुनश्च पञ्चलक्षेण क्षत्त्रियो ब्राह्मणो भवेत् ॥ १२४ ॥ मन्त्रसिद्धिर्जपाच्चैव क्रमान्मुक्तो भवैन्नरः । वैश्यस्तु पञ्चलक्षेण वैश्यत्वमपनेष्यति ॥ १२५ ॥ पुनश्च पञ्चलक्षेण मन्त्रक्षत्त्रिय उच्यते । पुनश्च पञ्चलक्षेण क्षत्त्रत्वमपनेष्यति ॥ १२६ ॥ पुनश्च पञ्चलक्षेण मन्त्रब्राह्मण उच्यते । शूद्रश्चैव नमोऽन्तेन पञ्चविंशतिलक्षतः ॥ १२७ ॥ मन्त्रविप्रत्वमापद्य पश्चाच्छुद्धो भवेद्द्विजः । नारीवाथ नरो वाथ ब्राह्मणो वान्य एव वा ॥ १२८ ॥ क्षत्रिय पाँच लाख मन्त्रोंका जप करके क्षत्रियत्वको दूर कर लेता है अर्थात् क्षत्रियवर्णमें रहनेवाले गुणोंसे वह मुक्त हो जाता है । तदनन्तर पुनः पाँच लाख मन्त्रोंका जप करनेपर वह ब्राह्मण हो जाता है । फिर उतनेही मन्त्रोंके जपसे मन्त्रसिद्धि प्राप्त हो जाती है और तत्पश्चात् उसी क्रमसे पाँच लाख मन्त्रोंका जप करनेपर वह मनुष्य मुक्त हो जाता है । वैश्य पंचलक्ष मन्त्रोंका जप करनेसे अपने वैश्यत्व (गुण) का परित्याग कर देता है । पुनः पंचलक्ष मन्त्रका जप करनेपर वह मन्त्र क्षत्रिय कहलानेका अधिकारी हो जाता है । उसके बाद पाँच लाख मन्त्रोंका जप करनेसे क्षत्रियत्वको दूर कर देता है । तदनन्तर पुनः पंचलक्ष मन्त्रका जप करके मन्त्र ब्राह्मण कहलानेका अधिकारी हो जाता है । इसी प्रकार शूद्र भी मन्त्रके अन्तमें नमः शब्द लगाकर यदि २५ लाख मन्त्रोंका जप करता है तो वह शूद्र मन्त्रविप्रत्वको प्राप्त द्विज (ब्राह्मण) हो जाता है । चाहे स्त्री हो अथवा पुरुष, ब्राह्मण हो या अन्य ही कोई वर्ण हो, पंचाक्षर मन्त्रका जप करनेसे सभी शुद्ध हो जाते हैं ॥ १२४-१२८ ॥ नमोन्तं वा नमः पूर्वमातुरः सर्वदा जपेत् ।
ततः स्त्रीणां तथैवोह्य गुरुर्निर्दर्शयेत्क्रमात् ॥ १२९ ॥ जो कामनापूर्तिके लिये आतुर है, उसे चाहिये कि वह नमः को आदि-अन्तमें लगाकर शिवमन्त्रका सदैव जप करता रहे । स्त्रियों तथा शूद्रोंके लिये मन्त्रजपका जैसा स्वरूप कहा गया है, उसीके अनुसार गुरुको भी चाहिये कि वह उन्हें निर्देश दे ॥ १२९ ॥ साधकः पञ्चलक्षान्ते शिवप्रीत्यर्थमेव हि ।
महाभिषेकनैवेद्यं कृत्वा भक्तांश्च पूजयेत् ॥ १३० ॥ साधकको चाहिये कि वह पाँच लाख जप करनेके पश्चात् भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये महाभिषेक एवं नैवेद्य निवेदन करके शिवभक्तोंका पूजन करे ॥ १३० ॥ पूजया शिवभक्तस्य शिवः प्रीततरो भवेत् ।
शिवस्य शिवभक्तस्य भेदो नास्ति शिवो हि सः ॥ १३१ ॥ शिवभक्तकी पूजासे भगवान् शिव बहुत प्रसन्न होते हैं । शिव और उनके भक्तमें कोई भेद नहीं है । वह साक्षात् शिवस्वरूप ही है । १३१ ॥ शिवस्वरूपमन्त्रस्य धारणाच्छिव एव हि ।
शिवभक्तशरीरे हि शिवे तत्परमो भवेत् ॥ १३२ ॥ शिवस्वरूप मन्त्रको धारण करके वाह शिव ही हो जाता है, शिवभक्तका शरीर शिवरूप ही है । अत: उसकी सेवामें तत्पर रहना चाहिये ॥ १३२ ॥ शिवभक्ताः क्रियाः सर्वा वेदसर्वक्रियां विदुः ।
यावद्यावच्छिवं मन्त्रं येन जप्तं भवेत्क्रमात् ॥ १३३ ॥ तावद्वै शिवसान्निध्यं तस्मिन्देहे न संशयः । देवीलिङ्गं भवेद्रूपं शिवभक्तस्त्रियास्तथा ॥ १३४ ॥ यावन्मन्त्रं जपेद्देव्यास्तावत्सान्निध्यमस्ति हि । जो शिवके भक्त हैं, वे लोक और वेदकी सारी क्रियाओंको जानते हैं । जो क्रमशः जितनाजितना शिवमन्त्रका जप कर लेता है, उसके शरीरको उतना ही उतना शिवका सामीप्य प्राप्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है । शिवभक्त स्त्रीका रूप देवी पार्वतीका ही स्वरूप है । वह जितना मन्त्र जपती है, उसे उतना ही देवीका सांनिध्य प्राप्त होता जाता है ॥ १३३-१३४ १/२ ॥ शिवंसम्पूजयेद्धीमान्स्वयं वै शब्दरूपभाक् ॥ १३५ ॥
स्वयं चैव शिवो भूत्वा परां शक्तिं प्रपूजयेत् । शक्तिं वेरं च लिङ्गं च ह्यालेख्य मायया यजेत् ॥ १३६ ॥ बुद्धिमान् व्यक्तिको शिवका पूजन करना चाहिये, इससे वह साक्षात् मन्त्ररूप हो जाता है । साधक स्वयं शिवस्वरूप होकर पराशक्तिका पूजन करे । शक्ति, वेर (मूर्ति) तथा लिंगका चित्र बनाकर अथवा मिट्टी आदिसे इनकी आकृतिका निर्माण करके प्राणप्रतिष्ठापूर्वक निष्कपट भावसे इनका पूजन करे ॥ १३५-१३६ ॥ शिवलिङ्गं शिवं मत्वा स्वात्मानं शक्तिरूपकम् ।
शक्तिलिङ्गं च देवीं च मत्वा स्वं शिवरूपकम् ॥ १३७ ॥ शिवलिङ्गं नादरूपं बिन्दुरूपं तु शक्तिकम् । उपप्रधानभावेन अन्योन्यासक्तलिङ्गकम् ॥ १३८ ॥ पूजयेच्च शिवं शक्ति स शिवो मूलभावनात् । शिवभक्ताञ्छिवमंत्ररूपकाञ्छिवरूपकान् ॥ १३९ ॥ शिवलिंगको शिव मानकर अपनेको शक्तिरूप समझकर, शक्तिलिंगको देवी और अपनेको शिवरूप समझकर शिवलिंगको नादरूप तथा शक्तिको बिन्दुरूप मानकर परस्पर सटे हुए शक्तिलिंग और शिवलिंगके प्रति उपप्रधान और प्रधानको भावना रखते हुए जो शिव और शक्तिका पूजन करता है, वह मूलरूपी भावना करनेके कारण शिवरूप ही है । शिवभक्त शिवमन्त्ररूप होनेके कारण शिवके ही स्वरूप हैं ॥ १३७-१३९ ॥ षोडशैरुपचारैश्च पूजयेदिष्टमाप्नुयात् ।
येन शुश्रूषणाद्यैश्च शिवभक्तस्य लिङ्गिनः ॥ १४० ॥ आनन्दं जनयेद्विद्वाञ्छिवः प्रीततरो भवेत् । शिवभक्तान्सपत्नीकान्पत्न्या सह सदैव तत् ॥ १४१ ॥ पूजयेद्भोजनाद्यैश्च पञ्च वा दश वा शतम् । धने देहे च मन्त्रे च भावनायामवञ्चकः ॥ १४२ ॥ शिवशक्तिस्वरूपेण न पुनर्जायते भुवि । जो सोलह उपचारोंसे उनकी पूजा करता है, उसे अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है । जो शिवलिंगोपासक शिवभक्तकी सेवा आदि करके उसे आनन्द प्रदान करता है, उस विद्वान्पर भगवान् शिव बड़े प्रसन्न होते हैं । पाँच, दस या सौ सपत्नीक शिवभक्तोंको बुलाकर भोजन आदिके द्वारा पत्नीसहित उनका सदैव समादर करे । धनमें, देहमें और मन्त्रमें शिवभावना रखते हुए उन्हें शिव और शक्तिका स्वरूप जानकर निष्कपटभावसे उनकी पूजा करे । ऐसा करनेवाला पुरुष शिवशक्तिस्वरूप होकर इस भूतलपर फिर जन्म नहीं लेता है ॥ १४०-१४२ १/२ ॥ नाभेरधो ब्रह्मभागमाकच्छं विष्णुभागकम् ॥ १४३ ॥
मुखं लिङ्गमिति प्रोक्तं शिवभक्तशरीरकम् । मृतान्दाहादियुक्तान्वा दाहादिरहितान्मृतान् ॥ १४४ ॥ उद्दिश्य पूजयेदादिपितरं शिवमेव हि । पूजां कृत्वादिमातुश्च शिवभक्तांश्च पूजयेत् ॥ १४५ ॥ पितृलोकं समासाद्य क्रमान्मुक्तो भवेन्मृतः । क्रियायुक्तदशभ्यश्च तपोयुक्तो विशिष्यते ॥ १४६ ॥ शिवभक्तकी नाभिके नीचेका भाग ब्रह्मभाग तथा नाभिसे ऊपर कण्ठपर्यन्त तकका भाग विष्णुभाग और मुख शिवलिंगस्वरूप कहा गया है । मृत्युके पश्चात् (जिनका) दाहादि संस्कार हुआ हो अथवा जो दाहादि संस्कारसे रहित हों, उन पितरोंके उद्देश्यसे शिवको ही आदिपितर मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये । पुनः आदिमाता शिवकी शक्तिकी पूजाकर शिवभक्तोंका पूजन करना चाहिये । ऐसा करनेवाला पुरुष मरनेके पश्चात् क्रमश: पितृलोकको प्राप्त करता है । तदनन्तर उसे मुक्ति प्राप्त हो जाती है । दस क्रियावान् पुरुषोंसे युक्त योगियोंकी अपेक्षा एक तपोयुक्त प्राणी श्रेष्ठ है । १४३-१४६ ॥ तपोयुक्तशतेभ्यश्च जपयुक्तो विशिष्यते ।
जपयुक्तसहस्रेभ्यः शिवज्ञानी विशिष्यते ॥ १४७ ॥ सौ तपोयुक्तों (तपस्वियों) की अपेक्षा एक जपयुक्त जापक विशिष्ट है । सहस्र जपयुक्त जापकोंकी अपेक्षा एक शिवज्ञानीका विशेष महत्त्व है ॥ १४७ ॥ शिवज्ञानिषुलक्षेषु ध्यानयुक्तो विशिष्यते ।
ध्यानयुक्तेषु कोटिभ्यः समाधिस्थो विशिष्यते ॥ १४८ ॥ एक लाख शिवज्ञानियोंसे शिवका ध्यान करनेवाला एक ध्यानी श्रेष्ठ है और करोड़ ध्यानियोंकी अपेक्षा शिवके लिये एक समाधिस्थ श्रेष्ठ है ॥ १४८ ॥ उत्तरोत्तरवैशिष्ट्यात्पूजायामुत्तरोत्तरम् ।
फलं वैशिष्ट्यरूपं च दुर्विज्ञेयं मनीषिभिः ॥ १४९ ॥ तस्माद्वै शिवभक्तस्य महिमानं वेत्ति को नरः । शिवशक्त्योः पूजनं च शिवभक्तस्य पूजनम् ॥ १५० ॥ कुरुते यो नरो भक्त्या स शिवः शिवमेधते । य इमं पठतेऽध्यायमर्थवद्वेदसंमतम् ॥ १५१ ॥ शिवज्ञानी भवेद्विप्रः शिवेन सह मोदते । श्रावयेच्छिवभक्तांश्च विशेषज्ञो मनीश्वराः ॥ १५२ ॥ इस प्रकार उत्तरोत्तर वैशिष्टय-क्रमसे की जानेवाली पूजासे प्राप्त फलमें भी विशिष्टता आ जाती है, जिसको जानना विद्वानोंके लिये भी कठिन है । इस कारणसे शिवभक्तकी महिमाको कौन मनुष्य जान सकता है । जो मनुष्य शिवशक्ति और शिवभक्तकी पूजा भक्तिपूर्वक करता है, वह शिवस्वरूप होकर सदैव कल्याणको प्राप्त करता है । जो ब्राह्मण इस वेदसम्मत अध्यायको अर्थसहित पढ़ता है, वह शिवज्ञानी होकर शिवके साथ आनन्द प्राप्त करता है । हे मुनीश्वरो ! विद्वान् पुरुषको चाहिये कि यह अध्याय वह शिवभक्तोंको सुनाये ॥ १४९-१५२ ॥ शिवप्रसादसिद्धिः स्याच्छिवस्य कृपया बुधाः ॥ १५३ ॥
हे बुधजनो ! ऐसा करनेसे भगवान् शिवकी कृपासे उनका अनुग्रह प्राप्त हो जाता है ॥ १५३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां
प्रणवपञ्चाक्षरमंत्रमाहात्म्यवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत प्रथम विह्येश्वरसंहितामें प्रणवयुक्त पंचाक्षर मन्त्रका माहात्म्य-वर्णन नामक सत्रहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥
&& - मन्त्रोंके दस संस्कार ये है-जनन, दीपन, बोधन, ताड़न, अभिषेचन, विमलीकरण, जीवन, तर्पण, गोपन और आप्यायन । इनकी विधि इस प्रकार है - श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |