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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

विद्येश्वरसंहिता

॥ अष्टादशोऽध्यायः ॥

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बंधमोक्षस्वरूपं शिवलिंगमाहात्म्यं च -
बन्धन और मोक्षका विवेचन, शिवपूजाका उपदेश, लिंग आदिमें शिवपूजनका विधान, भस्मके स्वरूपका निरूपण और महत्त्व, शिवके भस्मधारणका रहस्य, शिव एवं गुरु शब्दकी व्युत्पत्ति तथा विघ्नशान्तिके उपाय और शिवधर्मका निरूपण


ऋषय ऊचुः -
बन्धमोक्षस्वरूपं हि ब्रूहि सर्वार्थवित्तम ।
ऋषिगण बोले-हे सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ ! बन्धन और मोक्षका स्वरूप क्या है ? यह हमें बताइये ॥ १/२ ॥

सूत उवाच -
बन्धं मोक्षं तथोपायं वक्ष्येऽहं शृणुतादरात् ॥ १ ॥
प्रकृत्याद्यष्टबन्धेन बद्धो जीवः स उच्यते ।
प्रकृत्याद्यष्टबन्धेन निर्मुक्तो मुक्त उच्यते ॥ २ ॥
प्रकृत्यादिवशीकारो मोक्ष इत्युच्यते स्वतः ।
बद्धजीवस्तु निर्मुक्तो मुक्तजीवः स कथ्यते ॥ ३ ॥
सूतजी बोले-[हे महर्षियो !] मैं बन्धन और मोक्षका स्वरूप तथा मोक्षके उपायका वर्णन करूंगा । आपलोग आदरपूर्वक सुनें । जो प्रकृति आदि आठ बन्धनोंसे बँधा हुआ है, वह जीव बद्ध कहलाता है और जो उन आठों बन्धनोंसे छूटा हुआ है, उसे मुक्त कहते हैं । प्रकृति आदिको वशमें कर लेना मोक्ष कहलाता है । बन्धन आगन्तुक है और मोक्ष स्वतःसिद्ध है । बद्ध जीव जब बन्धनसे मुक्त हो जाता है, तब उसे मुक्त जीव कहते हैं ॥ १-३ ॥

प्रकृत्यग्रे ततो बुद्धिरहङ्‌कारो गुणात्मकः ।
पञ्चतन्मात्रमित्येतत्प्रकृत्याद्यष्टकं विदुः ॥ ४ ॥
प्रकृत्याद्यष्टजो देहो देहजं कर्म उच्यते ।
पुनश्च कर्मजो देहो जन्मकर्म पुनः पुनः ॥ ५ ॥
प्रकृति, बुद्धि (महत्तत्त्व), त्रिगुणात्मक अहंकार और पाँच तन्मात्राएँ-इन्हें ज्ञानी पुरुष प्रकृत्याद्यष्टक मानते हैं । प्रकृति आदि आठ तत्त्वोंके समूहसे देहकी उत्पत्ति हुई है । देहसे कम उत्पन्न होता है और फिर कर्मसे नूतन देहकी उत्पत्ति होती है । इस प्रकार बारबार जन्म और कर्म होते रहते हैं ॥ ४-५ ॥

शरीरं त्रिविधं ज्ञेयं स्थूलं सूक्ष्मं च कारणम् ।
स्थूलं व्यापारदं प्रोक्तं सूक्ष्ममिन्द्रियभोगदम् ॥ ६ ॥
कारणं त्वात्मभोगार्थं जीवकर्मानुरूपतः ।
सुखं दुःखं पुण्यपापैः कर्मभिः फलमश्नुते ॥ ७ ॥
तस्माद्धि कर्मरज्ज्वा हि बद्धो जीवः पुनः पुनः ।
शरीरत्रयकर्मभ्यां चक्रवद्‌भ्राम्यते सदा ॥ ८ ॥
शरीरको स्थूल, सूक्ष्म और कारणके भेदसे तीन प्रकारका जानना चाहिये । स्थूल शरीर (जाग्रत्-अवस्थामें) व्यापार करानेवाला, सूक्ष्म शरीर (जाग्रत् और स्वप्नअवस्थाओंमें) इन्द्रिय-भोग प्रदान करनेवाला तथा कारणशरीर (सुषुप्तावस्थामें) आत्मानन्दकी अनुभूति करानेवाला कहा गया है । जीवको उसके प्रारब्ध-कर्मानुसार सुख-दुःख प्राप्त होते हैं । वह अपने पुण्यकर्मकि फलस्वरूप सुख और पापकर्मोके फलस्वरूप दुःख प्राप्त करता है । अतः कर्मपाशसे बँधा हुआ जीव अपने त्रिविध शरीरसे होनेवाले शुभाशुभ कर्मोद्वारा सदा चक्रकी भाँति बार-बार घुमाया जाता है ॥ ६-८ ॥

चक्रभ्रमनिवृत्यर्थं चक्रकर्तारमीडयेत् ।
प्रकृत्यादि महाचक्रं प्रकृतेः परतः शिवः ॥ ९ ॥
चक्रकर्ता महेशो हि प्रकृतेः परतो यतः ।
जीवन् पिबति वा बालो वमत्यथ जलं यथा ॥ १० ॥
शिवस्तथा प्रकृत्यादि वशीकृत्याधितिष्ठति ।
सर्वं वशीकृतं यस्मात्तस्माच्छिव इति स्मृतः ।
शिव एव हि सर्वज्ञः परिपूर्णश्च निःस्पृहः ॥ ११ ॥
इस चक्रवत् भ्रमणको निवृत्ति के लिये चक्रकर्ताका स्तवन एवं आराधन करना चाहिये । प्रकृति आदि जो आठ पाश बतलाये गये हैं, उनका समुदाय ही महाचक्र है और जो प्रकृतिसे परे हैं, वे परमात्मा शिव हैं । भगवान् महेश्वर ही प्रकृति आदि महाचक्रके कर्ता हैं; क्योंकि वे प्रकृतिसे परे हैं । जैसे बकायन नामक वृक्षका थाला जलको पीता और उगलता है, उसी प्रकार शिव प्रकृति आदिको अपने वशमें करके उसपर शासन करते हैं । उन्होंने सबको वशमें कर लिया है, इसीलिये वे शिव कहे गये हैं । शिव ही सर्वज्ञ, परिपूर्ण तथा निःस्पृह हैं ॥ ९-११ ॥

सर्वज्ञता तृप्तिरनादिबोधः
     स्वतन्त्रता नित्यमलुप्तशक्तिः ।
अनन्तशक्तिश्च महेश्वरस्य
     यन्मानसैश्वर्यमवैति वेदः ॥ १२ ॥
अतः शिवप्रसादेन प्रकृत्यादि वशं भवेत् ।
शिवप्रसादलाभार्थं शिवमेव प्रपूजयतेत् ॥ १३ ॥
सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादिबोध, स्वतन्त्रता, नित्य अलुप्त शक्ति आदिसे संयुक्त होना और अपने भीतर अनन्त शक्तियोंको धारण करना-महेश्वरके इन छ: प्रकारके मानसिक ऐश्वयोंको केवल वेद जानता है । अतः भगवान् शिवके अनुग्रहसे ही प्रकृति आदि आठों तत्त्व वशमें होते हैं । भगवान् शिवका कृपाप्रसाद प्राप्त करनेके लिये उन्हींका पूजन करना चाहिये । १२-१३ ॥

निःस्पृहस्य च पूर्णस्य तस्य पूजा कथं भवेत् ।
शिवोद्देशकृतं कर्म प्रसादजनकं भवेत् ॥ १४ ॥
लिङ्‌गे वेरे भक्तजने शिवमुद्दिश्य पूजयेत् ।
कायेन मनसा वाचा धनेनापि प्रपूजयेत् ॥ १५ ॥
पूजया तु महेशो हि प्रकृतेः परमः शिवः ।
प्रसादं कुरुते सत्यं पूजकस्य विशेषतः ॥ १६ ॥
शिव तो परिपूर्ण हैं, नि:स्पृह हैं; उनकी पूजा कैसे हो सकती है ? [इसका उत्तर यह है कि] भगवान् शिवके उद्देश्यसे-उनकी प्रसन्नताके लिये किया हुआ सत्कर्म उनके कृपाप्रसादको प्राप्त करानेवाला होता है । शिवलिंगमें, शिवकी प्रतिमामें तथा शिवभक्तजनोंमें शिवकी भावना करके उनकी प्रसन्नताके लिये पूजा करनी चाहिये । वह पूजन शरीरसे, मनसे, वाणीसे और धनासे भी किया जा सकता है । उस पूजासे प्रकृतिसे परे महेश्वर पूजकपर विशेष कृपा करते हैं; यह सत्य है ॥ १४-१६ ॥

शिवप्रसादात्कर्माद्यं क्रमेण स्ववशं भवेत् ।
कर्मारभ्य प्रकृत्यन्तं यदा सर्वं वशं भवेत् ॥ १७ ॥
तदामुक्त इति प्रोक्तः स्वात्मारामो विराजते ।
प्रसादात्परमेशस्य कर्मदेहो यदा वशः ॥ १८ ॥
तदा वै शिवलोके तु वासः सालोक्यमुच्यते ।
सामीप्यं यान्ति साम्बस्य तन्मात्रे च वशं गते ॥ १९ ॥
तदा तु शिवसायुज्यमायुधाद्यैः क्रियादिभिः ।
महाप्रसादलाभे च बुद्धिश्चापि वशं भवेत् ॥ २० ॥
बुद्धिस्तु कार्यं प्रकृतेस्तत्सृष्टिरिति कथ्यते ।
पुनर्महाप्रसादेन प्रकृतिर्वशमेष्यति ॥ २१ ॥
शिवकी कृपासे कर्म आदि सभी बन्धन अपने वशमें हो जाते हैं । कर्मसे लेकर प्रकृतिपर्यन्त सब कुछ जब वशमें हो जाता है, तब वह जीव मुक्त कहलाता है और स्वात्मारामरूपसे विराजमान होता है । परमेश्वर शिवकी कृपासे जब कर्मजनित शरीर अपने वशमें हो जाता है, तब भगवान् शिवके लोकमें निवास प्राप्त होता है; इसीको सालोक्यमुक्ति कहते हैं । जब तन्मात्राएँ वशमें हो जाती हैं, तब जीव जगदम्बासहित शिवका सामीप्य प्राप्त कर लेता है । यह सामीप्यमुक्ति है, उसके आयुध आदि और क्रिया आदि सब कुछ भगवान् शिवके समान हो जाते हैं । भगवान्का महाप्रसाद प्राप्त होनेपर बुद्धि भी वशमें हो जाती है । बुद्धि प्रकृतिका कार्य है । उसका वशमें होना साटिमुक्ति कही गयी है । पुनः भगवान्का महान् अनुग्रह प्राप्त होनेपर प्रकृति वशमें हो जायगी ॥ १७-२१ ॥

शिवस्य मानसैश्वर्यं तदाऽयत्‍नं भविष्यति ।
सार्वज्ञाद्यं शिवैश्वर्यं लब्ध्वा स्वात्मनि राजते ॥ २२ ॥
तत्सायुज्यमिति प्राहुर्वेदागमपरायणाः ।
एवं क्रमेण मुक्तिः स्याल्लिङ्‌गादौ पूजया स्वतः ॥ २३ ॥
अतः शिवप्रसादार्थं क्रियाद्यैः पूजयेच्छिवम् ।
शिवक्रिया शिवतपः शिवमन्त्रजपः सदा ॥ २४ ॥
शिवज्ञानं शिवध्यानमुत्तरोत्तरमभ्यसेत् ।
आसूतेरामृतेः कालं नयेद्वै शिवचिन्तया ॥ २५ ॥
पद्यादिभिश्च कुसुमैरर्चयेच्छिवमेष्यति ॥
उस समय भगवान् शिवका मानसिक ऐश्वर्य बिना यत्नके ही प्राप्त हो जायगा । सर्वज्ञता आदि जो शिवके ऐश्वर्य हैं, उन्हें पाकर मुक्त पुरुष अपनी आत्मामें ही विराजमान होता है । वेद और शास्त्रों में विश्वास रखनेवाले विद्वान् पुरुष इसीको सायुज्यमुक्ति कहते हैं । इस प्रकार लिंग आदिमें शिवकी पूजा करनेसे क्रमश: मुक्ति स्वतः प्राप्त हो जाती है । इसलिये शिवका कृपाप्रसाद प्राप्त करनेके लिये तत्सम्बन्धी क्रिया आदिके द्वारा उन्हींका पूजन करना चाहिये । शिवक्रिया, शिवतप, शिवमन्त्र-जप, शिवज्ञान और शिवध्यानके लिये सदा उत्तरोत्तर अभ्यास बढ़ाना चाहिये । प्रतिदिन प्रात:कालसे रातको सोते समयतक और जन्मकालसे लेकर मृत्युपर्यन्त सारा समय भगवान् शिवके चिन्तनमें ही बिताना चाहिये । सद्योजातादि मन्त्रों तथा नाना प्रकारके पुष्पोंसे जो शिवकी पूजा करता है, वह शिवको ही प्राप्त होगा ॥ २२–२५ १/२ ॥

ऋषय ऊचुः
लिङ्‌गादौ शिवपूजाया विधानं ब्रूहि सुव्रतः ॥ २६ ॥
ऋषिगण बोले-हे सुव्रत ! अब आप लिंग आदिमें शिवजीकी पूजाका विधान बताइये ॥ २६ ॥

सूत उवाच
लिङ्‌गानां च क्रमं वक्ष्ये यथावच्छृणुत द्विजाः ।
तदेव लिङ्‌गं प्रथमं प्रणवं सार्वकामिकम् ॥ २७ ॥
सूक्ष्मप्रणवरूपं हि सूक्ष्मरूपं तु निष्कलम् ।
स्थूललिङ्‌गं हि सकलं तत्पञ्चाक्षरमुच्यते ॥ २८ ॥
तयोः पूजा तपः प्रोक्तं साक्षान्मोक्षप्रदे उभे ।
पौरुषप्रकृतिभूतानि लिङ्‌गानि सुबहूनि च ॥ २९ ॥
तानि विस्तरतो वक्तुं शिवो वेत्ति न चापरः ।
भूविकाराणि लिङ्‌गानि ज्ञातानि प्रब्रवीमि वः ॥ ३० ॥
सूतजी बोले-हे द्विजो ! मैं लिंगोंके क्रमका यथावत् वर्णन कर रहा हूँ, आप लोग सुनिये । वह प्रणव ही समस्त अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाला प्रथम लिंग है । उसे सूक्ष्म प्रणवरूप समझिये । सूक्ष्मलिंग निष्कल होता है और स्थूललिंग सकल । पंचाक्षर मन्त्रको ही स्थूललिंग कहते हैं । उन दोनों प्रकारके लिंगोंका पूजन तप कहलाता है । वे दोनों ही लिंग साक्षात् मोक्ष देनेवाले हैं । पौरुषलिंग और प्रकृतिलिंगके रूपमें बहुत-से लिंग हैं । उन्हें भगवान् शिव ही विस्तारपूर्वक बता सकते हैं । दूसरा कोई नहीं जानता । पृथ्वीके विकारभूत जो-जो लिंग ज्ञात हैं, उन-उनको मैं आपलोगोंको बता रहा हूँ ॥ २७-३० ॥

स्वयम्भू प्रथमं लिङ्‌गं बिन्दुलिङ्‌गं द्वितीयकम् ।
प्रतिष्ठितं चरं चैव गुरुलिङ्‌गं तु पञ्चमम् ॥ ३१ ॥
देवर्षितपसा तुष्टः सान्निध्यार्थं तु तत्र वै ।
पृथिव्यन्तर्गतः शर्वो बीजं वै नादरूपतः ॥ ३२ ॥
स्थावराङ्‌कुरवद्‌भूमिमुद्‌भिद्य व्यक्त एव सः ।
स्वयम्भूतं जातमिति स्वयम्भूरिति तं विदुः ॥ ३३ ॥
उनमें प्रथम स्वयम्भूलिंग, दूसरा बिन्दुलिंग, तीसरा प्रतिष्ठित लिंग, चौथा चरलिंग और पाँचवाँ गुरुलिंग है । देवर्षियोंकी तपस्यासे सन्तुष्ट होकर उनके समीप प्रकट होनेके लिये पृथ्वीके अन्तर्गत बीजरूपसे व्याप्त हुए भगवान् शिव वृक्षोंके अंकुरकी भाँति भूमिको भेदकर नादलिंग रूपमें व्याप्त हो जाते हैं । वे स्वतः व्यक्त हुए शिव ही स्वयं प्रकट होनेके कारण स्वयम्भू नाम धारण करते हैं । ज्ञानीजन उन्हें स्वयम्भूलिंगके रूपमें जानते हैं ॥ ३१-३३ ॥

तल्लिङ्‌गपूजया ज्ञानं स्वयमेव प्रवर्धते ।
सुवर्णरजतादौ वा पृथिव्यां स्थण्डिलेपि वा ॥ ३४ ॥
स्वहस्ताल्लिखितं लिङ्‌गं शुद्धप्रणवमन्त्रकम् ।
यन्त्रलिङ्‌गं समालिख्य प्रतिष्ठावाहनं चरेत् ॥ ३५ ॥
बिन्दुनादमयं लिङ्‌गं स्थावरं जङ्‌गमं च यत् ।
भावनामयमेतद्धि शिवदृष्टं न संशयः ॥ ३६ ॥
यत्र विश्वस्यते शम्भुस्तत्र तस्मै फलप्रदः ।
स्वहस्ताल्लिख्यते यन्त्रे स्थावरादावकृत्रिमे ॥ ३७ ॥
आवाह्य पूजयेच्छम्भुं षोडशैरुपचारकैः ।
स्वयमैश्वर्यमाप्नोति ज्ञानमभ्यासतो भवेत् ॥ ३८ ॥
उस स्वयम्भूलिंगकी पूजासे उपासकका ज्ञान स्वयं ही बढ़ने लगता है । सोने चाँदी आदिके पत्रपर, भूमिपर अथवा वेदीपर अपने हाथसे लिखित जो शुद्ध प्रणव मन्त्ररूप लिंग है, उसमें तथा यन्त्रलिंगका आलेखन करके उसमें भगवान् शिवकी प्रतिष्ठा और आवाहन करे । ऐसा बिन्दुनादमय लिंग स्थावर और जंगम दोनों ही प्रकारका होता है । इसमें शिवका दर्शन भावनामय ही है । इसमें सन्देह नहीं है । जिसको जहाँ भगवान् |शंकरके प्रकट होनेका विश्वास हो, उसके लिये वहीं प्रकट होकर वे अभीष्ट फल प्रदान करते हैं । अपने हाथसे लिखे हुए यन्त्रमें अथवा अकृत्रिम स्थावर आदिमें भगवान् शिवका आवाहन करके सोलह उपचारोंसे उनकी पूजा करे । ऐसा करनेसे साधक स्वयं ही ऐश्वर्यको प्राप्त कर लेता है और इस साधनके अभ्याससे उसको ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है ॥ ३४-३८ ॥

देवैश्च ऋषिभिश्चापि स्वात्मसिद्ध्यर्थमेव हि ।
समन्त्रेणात्महस्तेन कृतं यच्छुद्धमण्डले ॥ ३९ ॥
शुद्धभावनया चैव स्थापितं लिङ्‌गमुत्तमम् ।
तल्लिङ्‌गं पौरुषं प्राहुस्तत्प्रतिष्ठितमुच्यते ॥ ४० ॥
तल्लिङ्‌गं पूजयानित्यं पौरुषैश्वर्यमाप्नुयात् ।
महद्‌भिर्ब्राह्मणैश्चापि राजभिश्च महाधनैः ॥ ४१ ॥
शिल्पिना कल्पितं लिङ्‌गं मन्त्रेण स्थापितं च यत् ।
प्रतिष्ठितं प्राकृतं हि प्राकृतैश्वर्यभोगदम् ॥ ४२ ॥
यदूर्जितं च नित्यं च तद्धि पौरुषमुच्यते ।
यद्दुर्बलमनित्यं च तद्धि प्राकृतमुच्यते ॥ ४३ ॥
देवताओं और ऋषियोंने आत्मसिद्धिके लिये अपने हाथसे वैदिक मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक शुद्ध मण्डलमें शुद्ध भावनाद्वारा जिस उत्तम शिवलिंगकी स्थापना की है, उसे पौरुषलिंग कहते हैं तथा वही प्रतिष्ठित लिंग कहलाता है । उस लिंगकी पूजा करनेसे सदा पौरुष ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है । महान् ब्राह्मणों और महाधनी राजाओंद्वारा किसी शिल्पीसे शिवलिंगका निर्माण कराकर मन्त्रपूर्वक जिस लिंगकी स्थापना तथा प्रतिष्ठा की गयी हो, वह प्राकृतलिंग है, वह [शिवलिंग] प्राकृत ऐश्वर्व-भोगको देनेवाला होता है । जो शक्तिशाली और नित्य होता है, उसे पौरुषलिंग कहते हैं और जो दुर्बल तथा अनित्य होता है, वह प्राकृतलिंग कहलाता है ॥ ३९-४३ ॥

लिङ्‌गं नाभिस्तथा जिह्वा नासाग्रं च शिखा क्रमात् ।
कट्यादिषु त्रिलोकेषु लिङ्‌गमाध्यात्मिकं चरम् ॥ ४४ ॥
पर्वतं पौरुषं प्रोक्तं भूतलं प्राकृतं विदुः ।
वृक्षादि पौरुषं ज्ञेयं गुल्मादि प्राकृतं विदुः ॥ ४५ ॥
षाष्टिकं प्राकृतं ज्ञेयं शालिगोधूमपौरुषम् ।
ऐश्वर्यं पौरुषं विद्यादणिमाद्यष्टसिद्धिदम् ॥ ४६ ॥
सुस्त्रीधनादिविषयं प्राकृतं प्राहुरास्तिकाः ।
लिंग, नाभि, जिह्वा, नासिकाका अग्र भाग और शिखाके क्रमसे कटि, हृदय और मस्तक तीनों स्थानोंमें जो लिंगकी भावना की गयी है, उस आध्यात्मिक लिंगको ही चरलिंग कहते हैं । पर्वतको पौरुषलिंग बताया गया है और भूतलको विद्वान् पुरुष प्राकृतलिंग मानते हैं । वृक्ष आदिको पौरुषलिंग जानना चाहिये । गुल्म आदिको प्राकृतलिंग कहा गया है । साठी नामक धान्यको प्राकृतलिंग समझना चाहिये और शालि (अगहनी) एवं गेहूँको पौरुषलिंग । अणिमा आदि आठों सिद्धियोंको देनेवाला जो ऐश्वर्य है, उसे पौरुष ऐश्वर्य जानना चाहिये । सुन्दर स्त्री तथा धन आदि विषयोंको आस्तिक पुरुष प्राकृत ऐश्वर्य कहते हैं ॥ ४४-४६ १/२ ॥

प्रथमं चरलिङ्‌गेषु रसलिङ्‌गं प्रकथ्यते ॥ ४७ ॥
रसलिङ्‌गं ब्राह्मणानां सर्वाभीष्टप्रदं भवेत् ।
बाणलिङ्‌गं क्षत्रियाणां महाराज्यप्रदं शुभम् ॥ ४८ ॥
स्वर्णलिङ्‌गं तु वैश्यानां महाधनपतित्वदम् ।
शिलालिङ्‌गं तु शूद्राणां महाशुद्धिकरं शुभम् ॥ ४९ ॥
स्फाटिकं बाणलिङ्‌गं च सर्वेषां सर्वकामदम् ।
स्वीयाभावेऽन्यदीयं तु पूजायां न निषिद्ध्यते ॥ ५० ॥
स्त्रीणां तु पार्थिवं लिङ्‌गं सभतॄणां विशेषतः ।
विधवानां प्रवृत्तानां स्फाटिकं परिकीर्तितम् ॥ ५१ ॥
विधवानां प्रवृत्तानां रसलिङ्‌गं विशिष्यते ।
बाल्ये वा यौवने वापि वार्धके वापि सुव्रताः ॥ ५२ ॥
शुद्धस्फटिकलिङ्‌गं तु स्त्रीणां तत्सर्वभोगदम् ।
प्रवृत्तानां पीठपूजा सर्वाभीष्टप्रदा भुवि ॥ ५३ ॥
चरलिंगोंमें सबसे प्रथम रसलिंगका वर्णन किया जाता है । रसलिंग ब्राह्मणोंको उनकी सारी अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाला है । शुभकारक बाणलिंग क्षत्रियोंको महान् राज्यकी प्राप्ति करानेवाला है । सुवर्णलिंग वैश्योंको महाधनपतिका पद प्रदान करानेवाला है तथा सुन्दर शिलालिंग शूद्रोंको महाशुद्धि देनेवाला है । स्फटिकलिंग तथा बाणलिंग सब लोगोंको उनकी समस्त कामनाएँ प्रदान करते हैं । अपना न हो तो दूसरेका स्फटिक या बाणलिंग भी पूजाके लिये निषिद्ध नहीं है । स्त्रियों, विशेषतः सधवाओंके लिये पार्थिवलिंगकी पूजाका विधान है । प्रवृत्तिमार्गमें स्थित विधवाओंके लिये स्फटिकलिंगकी पूजा बतायी गयी है । परंतु विरक्त विधवाओंके लिये रसलिंगकी पूजाको ही श्रेष्ठ कहा गया है । हे सुव्रतो ! बचपनमें, युवावस्थामें और बुढ़ापेमें भी शुद्ध स्फटिकमय शिवलिंगका पूजन स्त्रियोंको समस्त भोग प्रदान करनेवाला है । गृहासक्त स्त्रियोंके लिये पीठपूजा भूतलपर सम्पूर्ण अभीष्टको देनेवाली है ॥ ४७-५३ ॥

पात्रेणैव प्रवृत्तस्तु सर्वपूजां समाचरेत् ।
अभिषेकान्ते च नैवेद्यं शाल्यन्नेन समाचरेत् ॥ ५४ ॥
पूजान्ते स्थापयेल्लिङ्‌गं सम्पुटेषु पृथग्गृहे ।
करपूजानिवृत्तानां स्वभोज्यं तु निवेदयेत् ॥ ५५ ॥
निवृत्तानां परं सूक्ष्मं लिङ्‌गमेव विशिष्यते ।
विभूत्याभ्यर्चनं कुर्याद्विभूतिं च निवेदयेत् ॥ ५६ ॥
पूजां ‌कृत्वाऽथ तल्लिङ्‌गं शिरसा धारयेत्सदा ।
प्रवृत्तिमार्गमें चलनेवाला पुरुष सुपात्र गुरुकेसहयोगसे ही समस्त पूजाकर्म सम्पन्न करे । इष्टदेवका अभिषेक करनेके पश्चात् अगहनीके चावलसे बने हुए [खीर आदि पक्वान्नोंद्वारा] नैवेद्य अर्पण करे । पूजाके अन्तमें शिवलिंगको पधराकर घरके भीतर पृथक् सम्पुट में स्थापित करे । जो निवृत्तिमार्गी पुरुष हैं, उनके लिये हाथपर ही शिवलिंग-पूजाका विधान है । उन्हें भिक्षादिसे प्राप्त हुए अपने भोजनको ही नैवेद्यरूपमें निवेदित करना चाहिये । निवृत्त पुरुषोंके लिये सूक्ष्मलिंग ही श्रेष्ठ बताया जाता है । वे विभूतिके द्वारा पूजन करें और विभूतिको ही नैवेद्यरूपसे निवेदित भी करें । पूजा करके उस लिंगको सदा अपने मस्तकपर धारण करें ॥ ५४-५६ १/२ ॥

विभूतिस्त्रिविधां प्रोक्ता लोकवेदशिवाग्निभिः ॥ ५७ ॥
विभूति तीन प्रकारकी बतायी गयी है| लोकाग्निजनित, वेदाग्निजनित और शिवाग्निजनित । लोकाग्निजनित या लौकिक भस्मको द्रव्योंकी शुद्धिके लिये लाकर रखे । मिट्टी, लकड़ी और लोहेके पात्रोंकी, धान्योंकी, तिल आदि द्रव्योंकी, वस्त्र आदिकी तथा पर्युषित वस्तुओंकी शुद्धि भस्मसे होती है । कुत्ते आदिसे दूषित हुए पात्रोंकी भी शुद्धि भस्मसे ही मानी गयी है । वस्तु विशेषकी शुद्धिके लिये यथायोग्य सजल अथवा निर्जल भस्मका उपयोग करना चाहिये ॥ ५७-६० ॥

लोकाग्निजमथो भस्म द्रव्यशुद्ध्यर्थमावहेत् ।
मृद्दारुलोहरूपाणां धान्यानां च तथैव च ॥ ५८ ॥
तिलादीनां च द्रव्याणां वस्त्रादीनां तथैव च ।
तथा पर्युषितानां च भस्मना शुद्धिरिष्यते ॥ ५९ ॥
श्वादिभिर्दूषितानां च भस्मना शुद्धिरिष्यते ।
सजलं निर्जलं भस्म यथायोग्यं तु योजयेत् ॥ ६० ॥
वेदाग्निजनित जो भस्म है, उसको उन-उन वैदिक कर्मोके अन्तमें धारण करना चाहिये । मन्त्र और क्रियासे जनित जो होमकर्म है, वह अग्निमें भस्मका रूप धारण करता है । उस भस्मको धारण करनेसे वह कर्म आत्मामें आरोपित हो जाता है । अघोर- मूर्तिधारी शिवका जो अपना मन्त्र है, उसे पढ़कर बेलकी लकड़ीको जलाये । उस मन्त्रसे अभिमन्त्रित अग्निको शिवाग्नि कहा गया है । उसके द्वारा जले हुए काष्ठका जो भस्म है, वह शिवाग्निजनित है । कपिला गायके गोबर अथवा गायमात्रके गोबरको तथा शमी, पीपल, पलाश, वट, अमलतास और बिल्व-इनकी लकड़ियोंको शिवाग्निसे जलाये । वह शुद्ध भस्म शिवाग्निजनित माना गया है अथवा कुशकी अग्निमें शिवमन्त्रके उच्चारणपूर्वक काष्ठको जलाये । फिर उस भस्मको कपड़ेसे अच्छी तरह छानकर नये घड़ेमें भरकर रख दे । उसे समय-समयपर अपनी कान्ति या शोभाकी वृद्धि के लिये धारण करे । ऐसा करनेवाला पुरुष सम्मानित एवं पूजित होता है ॥ ६१-६५ १/२ ॥

वेदाग्निजं तथा भस्म तत्कर्मान्तेषु धारयेत् ।
मन्त्रेण क्रियया जन्यं ‌कर्माग्नौ भस्मरूपधृक् ॥ ६१ ॥
तद्‌भस्मधारणात्कर्म स्वात्मन्यारोपितं भवेत् ।
अघोरेणात्ममन्त्रेण बिल्वकाष्ठं प्रदाहयेत् ॥ ६२ ॥
शिवाग्निरिति सम्प्रोक्तस्तेन दग्धं शिवाग्निजम् ।
कपिलागोमयं पूर्वं केवलं गव्यमेव वा ॥ ६३ ॥
शम्यश्वत्थपलाशान्वा वटारग्वधबिल्वकान् ।
शिवाग्निना दहेच्छुद्धं तद्वै भस्म शिवाग्निजम् ॥ ६४ ॥
दर्भाग्नौ वा दहेत्काष्ठं शिवमन्त्रं समुच्चरन् ।
सम्यक्संशोध्य वस्त्रेण नवकुम्भे निधापयेत् ॥ ६५ ॥
दीप्त्यर्थं तत्तु सङ्‌ग्राह्यं मन्यते पूज्यतेऽपि च ।
पूर्वकालमें भगवान् शिवने भस्म शब्दका ऐसा ही अर्थ प्रकट किया था । जैसे राजा अपने राज्यमें सारभूत करको ग्रहण करता है, जैसे मनुष्य सस्य आदिको जलाकर (पकाकर) उसका सार ग्रहण करते हैं तथा जैसे जठरानल नाना प्रकारके भक्ष्य, भोज्य आदि पदार्थीको भारी मात्रामें ग्रहण करके उसे जलाकर सारतर वस्तु ग्रहण करता और उस सारतर वस्तुसे स्वदेहका पोषण करता है, उसी प्रकार प्रपंचकर्ता परमेश्वर शिवने भी अपनेमें आधेय रूपसे विद्यमान प्रपंचको जलाकर भस्मरूपसे उसके सारतत्त्वको ग्रहण किया है । प्रपंचको दग्ध करके शिवने उसके भस्मको अपने शरीरमें लगाया है । उन्होंने विभूति (भस्म) पोतनेके बहाने जगत्के सारको ही ग्रहण किया है । ६६-७० ॥

भस्मशब्दार्थ एवं हि शिवः पूर्वं तथाऽकरोत् ॥ ६६ ॥
यथा स्वविषये राजा सारं ‌गृह्णाति यत्करम् ।
यथा मनुष्याःसस्यादीन्दग्ध्वा सारं भजन्ति वै ॥ ६७ ॥
यथा हि जाठराग्निश्च भक्ष्यादीन्विविधान्बहून् ।
दग्ध्वा सारतरं सारात्स्वदेहं परिपुष्यति ॥ ६८ ॥
तथा प्रपञ्चकर्ताऽपि स शिवः परमेश्वरः ।
स्वाधिष्ठेयप्रपञ्चस्य दग्ध्वा सारं गृहीतवान् ॥ ६९ ॥
दग्ध्वा प्रपञ्चं तद्‌भस्म स्वात्मन्यारोपयच्छिवः ।
उद्धूलनस्य व्याजेन जगत्सारं गृहीतवान् ॥ ७० ॥
शिवने अपने शरीरमें अपने लिये रत्नस्वरूप भस्मको इस प्रकार स्थापित किया है-आकाशके सारतत्त्वसे केश, वायुके सारतत्त्वसे मुख, अग्निके सारतत्त्वसे हृदय, जलके सारतत्त्वसे कटिभाग और पृथ्वीके सारतत्त्वसे घुटनेको धारण किया है । इसी तरह उनके सारे अंग विभिन्न वस्तुओंके साररूप हैं ॥ ७१-७२ ॥

स्वरत्‍नं स्थापयामास स्वकीये हि शरीरके ।
केशमाकाशसारेण वायुसारेण वै मुखम् ॥ ७१ ॥
हृदयं चाग्निसारेण त्वपां सारेण वै कटिम् ।
जानु चावनिसारेण तद्वत्सर्वं तदङ्‌गकम् ॥ ७२ ॥
महेश्वरने अपने ललाटके मध्यमें तिलकरूपसे जो त्रिपुण्ड्र धारण किया है, वह ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रका सारतत्त्व है । वे इन सब वस्तुओंको जगत्के अभ्युदयका हेतु मानते हैं । इन भगवान् शिवने ही प्रपंचके सार-सर्वस्वको अपने वशमें किया है । अतः इन्हें अपने वशमें करनेवाला दूसरा कोई नहीं है, इसीलिये वे शिव कहे जाते हैं । जैसे समस्त मृगोंका हिंसक मृग (पशु) सिंह कहलाता है और उसकी हिंसा करनेवाला दूसरा कोई मृग नहीं है, अतएव उसे सिंह कहा गया है ॥ ७३-७५ १/२ ॥

ब्रह्मविष्ण्वोश्च रुद्राणां सारं चैव त्रिपुण्ड्रकम् ।
तथा तिलकरूपेण ललाटान्ते महेश्वरः ॥ ७३ ॥
भ्रूवृद्धया सर्वमेतद्धि मन्यते स्वयमित्यसौ ।
प्रपञ्चसारसर्वस्वमनेनैव वशीकृतम् ॥ ७४ ॥
तस्मादस्य वशीकर्ता नास्तीति स शिवः स्मृतः ।
यथा सर्व मृगाणां च हिंसको मृगहिंसकः ॥ ७५ ॥
अस्य हिंसा मृगो नास्ति तस्मात्सिंह इतीरितः ।
शकारका अर्थ है नित्यसुख एवं आनन्द । इकारको पुरुष और वकारको अमृतस्वरूपा शक्ति कहा गया है । इन सबका सम्मिलित रूप ही शिव कहलाता है । अत: इस रूपमें भगवान् शिवको अपनी आत्मा मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये । [साधक] पहले अपने अंगोंमें भस्म लगाये, फिर ललाटमें उत्तम त्रिपुण्ड्र धारण करे । पूजाकालमें सजल भस्मका उपयोग होता है और द्रव्यशुद्धिके लिये निर्जल भस्मका ॥ ७६-७८ ॥

शं नित्यं सुखमानन्दमिकारः पुरुषः स्मृतः ॥ ७६ ॥
वकारः शक्तिरमृतं मेलनं शिव उच्यते ।
तस्मादेवं स्वमात्मानं शिवं ‌कृत्वार्चयेच्छिवम् ॥ ७७ ॥
तस्मादुद्धूलनं पूर्वं त्रिपुण्ड्रं धारयेत्परम् ।
पूजाकाले हि सजलं शुद्ध्यर्थं निर्जलं भवेत् ॥ ७८ ॥
दिन हो अथवा रात्रि, नारी हो या पुरुषः पूजा करनेके लिये उसे भस्म जलसहित ही त्रिपुण्ड्ररूपमें (ललाटपर) धारण करना चाहिये । जलमिश्रित भस्मको त्रिपुण्डरूपमें धारणकर जो व्यक्ति शिवकी पूजा करता है, उसे सांग शिवकी पूजाका फल तुरंत प्राप्त होता है, यह सुनिश्चित है । जो (प्राणी) शिवमन्त्रके द्वारा भस्मको धारण करता है, वह सभी (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) आश्रमोंमें श्रेष्ठ होता है । उसे शिवाश्रमी कहा जाता है; क्योंकि वह एकमात्र शिवको ही परम श्रेष्ठ मानता है । शिव-व्रतमें एकमात्र शिवमें ही निष्ठा रखनेवालेको न तो अशौचका दोष लगता है और न तो सूतकका । ललाटके अग्रभागमें अपने हाथसे या गुरुके हाथसे श्वेत भस्म या मिट्टीसे तिलक लगाना चाहिये, यह शिवभक्तका लक्षण है ॥ ७९-८२ १/२ ॥

दिवा वा यदि वा रात्रौ नारी वाथ नरोपि वा ।
पूजार्थं सजलं भस्म त्रिपुण्ड्रेणैव धारयेत् ॥ ७९ ॥
त्रिपुण्ड्रं सजलं भस्म धृत्वा पूजां ‌करोति यः ।
शिवपूजाफलं साङ्‌गं तस्यैव हि सुनिश्चितम् ॥ ८० ॥
भस्म वै शिवमन्त्रेण धृत्वा ह्यत्याश्रमी भवेत् ।
शिवाश्रमीति संम्प्रोक्तः शिवैकपरमो यतः ॥ ८१ ॥
शिवव्रतैकनिष्ठस्य नाशौचं न च सूतकम् ।
ललाटेऽग्रे सितं भस्म तिलकं धारयेन्मृदा ॥ ८२ ॥
स्वहस्ताद्‌गुरुहस्ताद्वा शिवभक्तस्य लक्षणम् ।
जो गुणोंका रोध करता है, वह गुरु है-यह 'गुरु' शब्दका विग्रह कहा गया है । गुणातीत परम शिव राजस आदि सविकार गुणोंका अवरोध करते हैं-दूर हटाते हैं, इसलिये वे सबके गुरुरूपका आश्रय लेकर स्थित हैं । गुरु विश्वासी शिष्योंके तीनों गुणोंको पहले दूर करके उन्हें शिवतत्त्वका बोध कराते हैं, इसीलिये गुरु कहलाते हैं । ८३-८५ ॥

गुणान्‌रुन्ध इति प्रोक्तो गुरुशब्दस्य विग्रहः ॥ ८३ ॥
सविकारान्‌राजसादीन्गुणान्‌रुन्धे व्यपोहति ।
गुणातीतः परशिवो गुरुरूपं समाश्रितः ॥ ८४ ॥
गुणत्रयं व्यपोह्याग्रे शिवं बोधयतीति सः ।
विश्वस्तानां तु शिष्याणां ‌गुरुरित्यभिधीयते ॥ ८५ ॥
तस्माद्‌गुरुशरीरं तु गुरुलिङ्‌गं भवेद्‌बुधः ।
गुरुलिङ्‌गस्य पूजा तु गुरुशुश्रूषणं भवेत् ॥ ८६ ॥
श्रुतं ‌करोति शुश्रूषा कायेन मनसा गिरा ।
उक्तं यद्‌गुरुणा पूर्वं शक्यं वाऽशक्यमेव वा ॥ ८७ ॥
करोत्येव हि पूतात्मा प्राणैरपि धनैरपि ।
तस्माद्वै शासने योग्यः शिष्य इत्यभिधीयते ॥ ८८ ॥
अतः बुद्धिमान् शिष्यको उन गुरुके शरीरको गुरुलिंग समझना चाहिये । गुरुजीकी सेवा शुश्रूषा ही गुरुलिंगकी पूजा होती है । शरीर, मन और वाणीसे की गयी गुरुसेवासे शास्त्रज्ञान प्राप्त होता है । अपनी शक्तिसे शक्य अथवा अशक्य जिस बातका भी आदेश गुरुने दिया हो, उसका पालन प्राण और धन लगाकर पवित्रात्मा शिष्य करता है, इसीलिये इस प्रकार अनुशासित रहनेवालेको शिष्य कहा जाता है । ८६-८८ ॥

शरीराद्यर्थकं सर्वं ‌गुरोर्दत्त्वा सुशिष्यकः ।
अग्रपाकं निवेद्याग्रे भुञ्जीयाद्‌गुर्वनुज्ञया ॥ ८९ ॥
शिष्यःपुत्र इति प्रोक्तः सदाशिष्यत्वयोगतः ।
जिह्वालिङ्‌गान्मन्त्रशुक्रं ‌कर्णयोनौ निषिच्य वै ॥ ९० ॥
जातः पुत्रो मन्त्रपुत्रः पितरं पूजयेद्‌गुरुम् ।
निमज्जयति पुत्रं वै संसारे जनकः पिता ॥ ९१ ॥
सन्तारयति संसाराद्‌गुरुर्वै बोधकः पिता ।
उभयोरन्तरं ज्ञात्वा पितरं ‌गुरुमर्चयेत् ॥ ९२ ॥
अङ्‌गशुश्रूषया चापि धनाद्यैः स्वार्जितैर्गुरुम् ।
पादादिकेशपर्यन्तं लिङ्‌गान्यङ्‌गानि यद्‌गुरोः ॥ ९३ ॥
धनरूपैः पादुकाद्यैः पादसङ्‌ग्रणादिभिः ।
स्नानाभिषेकनैवेद्यैर्भोजनैश्च प्रपूजयेत् ॥ ९४ ॥
सुशील शिष्यको शरीर-धारणके सभी साधन गुरुको अर्पित करके तथा अन्नका पहला पाक उन्हें समर्पित करके उनकी आज्ञा लेकर भोजन करना चाहिये । शिष्यको निरन्तर गुरुके सान्निध्यके कारण पुत्र कहा जाता है । जिहारूप लिंगसे मन्त्ररूपी शुक्रका कानरूपी योनिमें आधान करके जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे मन्त्रपुत्र कहते हैं । उसे अपने पितास्वरूप गुरुकी सेवा करनी ही चाहिये । शरीरको उत्पन्न करनेवाला पिता तो संसारप्रपंचमें पुत्रको डुबोता है । ज्ञान देनेवाला गुरुरूप पिता संसारसागरसे पार कर देता है । इन दोनों पिताओंके अन्तरको जानकर गुरुरूप पिताकी अपने कमाये धनसे तथा अपने शरीरसे विशेष सेवा पूजा करनी चाहिये । पैरसे केशपर्यन्त जो गुरुके शरीरके अंग हैं, उनकी भिन्न भिन्न प्रकारसे यथा-स्वयं अर्जित धनके द्वारा उपयोगकी सामग्री प्राप्त कराकर, अपने हाथोंसे पैर दबाकर, स्नान-अभिषेक आदि कराकर तथा नैवेद्य| भोजनादि देकर पूजा करनी चाहिये ॥ ८९-९४ ॥

गुरुपूजैव पूजा स्याच्छिवस्य परमात्मनः ।
गुरुसेवा तु यत्सर्वमात्मशुद्धिकरं भवेत् ॥ ९५ ॥
गुरुकी पूजा ही परमात्मा शिवकी पूजा है । गुरुके उपयोगसे बचा हुआ सारा पदार्थ आत्मशुद्धि करनेवाला होता है । ९५ ॥

गुरोः शेषः शिवोच्छिष्टजलमन्नादि निर्मितम् ।
शिष्याणां शिवभक्तानां ‌ग्राह्यं भोज्यं भवेद्‌द्विजाः ॥ ९६ ॥
गुर्वनुज्ञाविरहितं चोरवत्सकलं भवेत् ।
गुरोरपि विशेषज्ञं यत्‍नाद्‌ गृह्णीत वै गुरुम् ॥ ९७ ॥
अज्ञानमोचनं साध्यं विशेषज्ञो हि मोचकः ।
हे द्विजो ! गुरुका शेष, जल तथा अन्न आदिसे बना हुआ शिवोच्छिष्ट शिवभक्तों और शिष्योंके लिये ग्राह्य तथा भोज्य है । गुरुकी आज्ञाके बिना उपयोगमें लाया हुआ सब कुछ वैसा ही है, जैसे चौर चोरी करके लायी हुई वस्तुका उपयोग करता है । गुरुसे भी विशेष ज्ञानवान् पुरुष मिल जाय, तो उसे भी यत्नपूर्वक गुरु बना लेना चाहिये । अज्ञानरूपी बन्धनसे छूटना ही जीवमात्रके लिये साध्य पुरुषार्थ है । अतः जो विशेष ज्ञानवान् है, वही जीवको उस बन्धनसे छुड़ा सकता है ॥ ९६-९७ १/२ ॥

आदौ च विघ्नशमनं ‌कर्तव्यं ‌कर्मपूर्तये ॥ ९८ ॥
निर्विघ्नेन कृतं साङ्‌गं ‌कर्म वै सफलं भवेत् ।
तस्मात्सकलकर्मादौ विघ्नेशं पूजयेद्बुधः ॥ ९९ ॥
सर्वबाधानिवृत्त्यर्थं सर्वान्देवान्यजेद्‌बुधः ।
कर्मकी सांगोपांग पूर्तिके लिये पहले विघ्नशान्ति करनी चाहिये । निर्विघ्नतापूर्वक तथा सांग सम्पन्न हुआ कार्य ही सफल होता है । इसलिये सभी कर्मोक प्रारम्भमें बुद्धिमान् व्यक्तिको विघ्नविनाशक गणपतिका पूजन करना चाहिये । सभी बाधाओंको दूर करनेके लिये विद्वान् व्यक्तिको सभी देवताओंकी पूजा करनी चाहिये ॥ ९८-९९ १/२ ॥

ज्वरादिग्रंथिरोगांश्च बाधा ह्याध्यात्मिकी मता ॥ १०० ॥
पिशाचजम्बुकादीनां वल्मीकाद्युद्‌भवे तथा ।
अकस्मादेव गोधादिजन्तूनां पतनेऽपि च ॥ १०१ ॥
गृहे कच्छपसर्पस्त्रीदुर्जनादर्शनेऽपि च ।
वृक्षनारीगवादीनां प्रसूतिविषयेऽपि च ॥ १०२ ॥
भावि दुःखं समायाति तस्मात्ते भौतिका मता ।
अमेध्याशनिपातश्च महामारी तथैव च ॥ १०३ ॥
ज्वरमारी विसूचिश्च गोमारी च मसूरिका ।
जन्मर्क्षग्रहसङ्‌क्रान्तिग्रहयोगाः स्वराशिके ॥ १०४ ॥
दुःस्वप्नदर्शनाद्याश्च मता वै ह्याधिदैविकाः ।
चर आदि ग्रन्थिरोग आध्यात्मिक बाधा कही जाती है । पिशाच और सियार आदिका दीखना, बाँबीका जमीनपर उठ आना, अकस्मात् छिपकली आदि जन्तुओंका गिरना, घरमें कच्छप, साँप, दुष्ट स्त्रीका दीखना, वृक्ष, नारी और गौ आदिकी प्रसूतिका दर्शन होना आगामी दुःखका संकेत होता है । अतः यह आधिभौतिक बाधा मानी जाती है । किसी अपवित्र वस्तुका गिरना, बिजली गिरना, महामारी, ज्वरमारी, हैजा, गोमारी, मसूरिका (एक प्रकारका शीतला रोग), जन्मनक्षत्रपर ग्रहण, संक्रान्ति, अपनी राशिमें अनेक ग्रहोंका योग होना तथा दुःस्वप्नदर्शन आदि आधिदैविक बाधा कही जाती है ॥ १००-१०४ १/२ ॥

शवचाण्डालपतितस्पर्शादन्तर्गृहे गते ॥ १०५ ॥
एतादृशे समुत्पन्ने भाविदुःखस्य सूचके ।
शान्तियज्ञं तु मतिमान्कुर्यात्तद्दोषशान्तये ॥ १०६ ॥
देवालयेऽथ गोष्ठे वा चैत्ये वापि गृहाङ्‌गणे ।
प्रादेशोन्नतधिष्ण्ये वै द्विहस्ते च स्वलङ्‌कृते ॥ १०७ ॥
भारमात्रं व्रीहिधान्यं प्रस्थाप्य परिसृत्य च ।
मध्ये विलिख्य कमलं तथा दिक्षु विलिख्य वै ॥ १०८ ॥
तन्तुना वेष्टितं ‌कुम्भं नवगुग्गुलधूपितम् ।
मध्ये स्थाप्य महाकुम्भं तथा दिक्ष्वपि विन्यसेत् ॥ १०९ ॥
शव, चाण्डाल और पतितका स्पर्श अथवा इनका घरके भीतर आना भावी दुःखका सूचक होता है । बुद्धिमान् व्यक्तिको चाहिये कि उस दोषकी शान्तिके लिये शान्तियज्ञ करे । किसी मन्दिर, गोशाला, यज्ञशाला अथवा घरके आँगनमें जहाँ दो हाथपर ऊँची जमीन हो, उसे अच्छी तरह साफ करके उसपर एक भार धान रखकर उसे फैला दे । उसके बीच में कमल बनाये तथा कोणसहित आठों दिशाओंमें भी कमल बना दे । फिर प्रधान कलशमें सूत्र बाँधकर तथा गुग्गुलकी धूप दिखाकर उसे बीचमें तथा दिशाओंमें बनाये गये कमलोंपर अन्य आठ कलश स्थापित कर दे ॥ १०५-१०९ ॥

सनालाम्रककूर्चादीन्कलशांश्च तथाष्टसु ।
पूरयेन्मन्त्रपूतेन पञ्चद्रव्ययुतेन हि ॥ ११० ॥
प्रक्षिपेन्नव रत्‍नानि नीलादीन्क्रमशस्तथा ।
कर्मज्ञं च सपत्‍नीकमाचार्यं वरयेद्‌बुधः ॥ १११ ॥
सुवर्णप्रतिमां विष्णोरिन्द्रादीनां च निक्षिपेत् ।
सशिरस्के मध्यकुम्भे विष्णुमावाह्य पूजयेत् ॥ ११२ ॥
प्रागादिषु यथामन्त्रमिन्द्रादीन्क्रमशो यजेत् ।
तत्तन्नाम्ना चतुर्थ्यां च नमोन्तेन यथाक्रमम् ॥ ११३ ॥
आठ कलशोंमें कमल, आम्रपल्लव, कुशा डालकर [[गन्ध आदि] पंचद्रव्योंसे युक्त मन्त्रपूत जलसे उन्हें भरे । उन समस्त कलशोंमें नीलम आदि नवरत्नोंको क्रमशः डालना चाहिये । तत्पश्चात् बुद्धिमान् यजमान कर्मकाण्डको जाननेवाले सपत्नीक आचार्यका वरण करे । भगवान् विष्णुकी स्वर्णप्रतिमा तथा इन्द्रादि देवताओंकी भी प्रतिमाएं बनाकर उन कलशोंमें छोड़े । पूर्णपात्रसे बके मध्यकलशपर भगवान् विष्णुका आवाहन करके उनकी पूजा करे । पूर्व दिशासे प्रारम्भ करके सभी दिशाओंमें मन्त्रानुसार इन्द्रादिका क्रमशः पूजन करना चाहिये । उनके नामोंमें चतुर्थी विभक्तिसहित नमःका प्रयोग करते हुए उनका पूजन करना चाहिये ॥ ११०-११३ ॥

आवाहनादिकं सर्वं आचार्येणैव कारयेत् ।
आचार्यं ऋत्विजा सार्धं तन्मात्रान्प्रजपेच्छतम् ॥ ११४ ॥
कुम्भस्य पश्चिमे भागे जपान्ते होममाचरेत् ।
कोटिं लक्षं सहस्रं वा शतमष्टोत्तरं बुधाः ॥ ११५ ॥
एकाहं वा नवाहं वा तथा मण्डलमेव वा ।
यथायोग्यं प्रकुर्वीत कालदेशानुसारतः ॥ ११६ ॥
आवाहनादि सारे कार्य आचार्यद्वारा सम्पन्न कराये तथा आचार्य और ऋत्विजोंसहित उन देवताओंके मन्वोंको सौ-सौ बार जपे । कलशोंकी पश्चिम दिशामें जपके बाद होम करना चाहिये । हे विट्ठजनो ! वह जपहोम करोड़, लाख, हजार अथवा १०८ की संख्या हो सकता है । इस विधिसे एक दिन, नौ दिन अथवा चालीस दिनोंमें देश-कालकी व्यवस्थाके अनुसार [शान्तियज्ञ] यथोचित रूपमें सम्पन्न करे ॥ ११४-११६ ॥

शमीहोमश्च शान्त्यर्थे वृत्त्यर्थे च पलाशकम् ।
समिदन्नाज्यकैर्द्रव्यैर्नाम्ना मन्त्रेण वा हुनेत् ॥ ११७ ॥
प्रारम्भे यत्कृतं द्रव्यं तत्क्रियान्तं समाचरेत् ।
पुण्याहं वाचयित्वान्ते दिने संप्रोक्ष्ययेज्जलैः ॥ ११८ ॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्यावदाहुतिसंख्यया ।
आचार्यश्च हविष्याशी ऋत्विजश्च भवेद्‌ बुधाः ॥ ११९ ॥
शान्तिके लिये शमी तथा वृत्ति (रोजगार)-के लिये पलाशकी समिधासे, अन्न, घृत तथा [सुगन्धित] द्रव्योंसे उन देवताओंके नाम अथवा मन्त्रोंसे हवन करना चाहिये । प्रारम्भमें जिस द्रव्यका उपयोग किया हो, अन्ततक उसीका प्रयोग करते रहना चाहिये । अन्तिम दिन पुण्याहवाचन कराकर कलशोंके जलसे प्रोक्षण करना चाहिये । तत्पश्चात् आहुतिकी संख्याके बराबर ब्राह्मणोंको भोजन कराये । हे विद्वानो ! आचार्य और ऋत्विजोंको हविष्यका भोजन कराना चाहिये ॥ ११७-११९ ॥

आदित्यादीन्ग्रहानिष्ट्‍वा सर्वहोमान्त एव हि ।
ऋत्विभ्यो दक्षिणां दद्यान्नवरत्‍नं यथाक्रमम् ॥ १२० ॥
दश दानं ततः कुर्याद्‌भूरिदानं ततः परम् ।
बालानामुपनीतानां ‌गृहिणां वनिनां धनम् ॥ १२१ ॥
कन्यानां च सभर्तॄणां विधवानां ततः परम् ।
तन्त्रोपकरणं सर्वमाचार्याय निवेदयेत् ॥ १२२ ॥
सूर्य आदि नवग्रहोंका होमके अन्तमें पूजन करना चाहिये । ऋत्विजोंको क्रमानुसार नवरत्नोंकी दक्षिणा देनी चाहिये । तत्पश्चात् दशदान करे और उसके बाद भूयसीदान करना चाहिये । बालक, यज्ञोपवीती, गृहस्थाश्रमी और वानप्रस्थियोंको धनका दान करना चाहिये । तत्पश्चात् कन्या, सधवा और विधवा स्त्रियोंको देनेके अनन्तर बची हुई तथा यज्ञमें बची हुई सारी सामग्री आचार्यको समर्पित कर देनी चाहिये ॥ १२०-१२२ ॥

उत्पातानां च मारीणां दुःखस्वामी यमः स्मृतः ।
तस्माद्यमस्य प्रीत्यर्थं ‌कालदानं प्रदापयेत् ॥ १२३ ॥
शतनिष्केण वा कुर्याद्दशनिष्केण वा पुनः ।
पाशाङ्‌कुशधरं कालं कुर्यात्पुरुषरूपिणम् ॥ १२४ ॥
तत्स्वर्णप्रतिमादानं ‌कुर्याद्दक्षिणया सह ।
तिलदानं ततः कुर्यात्पूर्णायुष्यप्रसिद्धये ॥ १२५ ॥
आज्यावेक्षणदानं च कुर्याद्व्याधिनिवृत्तये ।
सहस्रं भोजयेद्विप्रान्दरिद्रः शतमेव वा ॥ १२६ ॥
वित्ताभावे दरिद्रस्तु यथाशक्ति समाचरेत् ।
उत्पात, महामारी और दुःखोंके स्वामी यमराज माने जाते हैं । इसलिये यमराजकी प्रसन्नताके लिये कालप्रतिमाका दान करना चाहिये । सौ निष्क या दस निष्कके परिमाणकी पाश और अंकुश धारण की हुई पुरुषके आकारको स्वर्णप्रतिमा बनाये । उस स्वर्णप्रतिमाका दक्षिणासहित दान करना चाहिये । उसके बाद पूर्णायु प्राप्त करनेहेतु तिलका दान करना चाहिये । रोगनिवारणके लिये घृतमें अपनी परछाई देखकर दान करना चाहिये । हजार ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये, धनाभावमें सौ अथवा यथाशक्ति ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये ॥ १२३–१२६ १/२ ॥

भैरवस्य महापूजां ‌कुर्याद्‌भूतादिशान्तये ॥ १२७ ॥
महाभिषेकं नैवेद्यं शिवस्यान्ते तु कारयेत् ।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्‌भूरिभोजनरूपतः ॥ १२८ ॥
भूत आदिकी शान्तिके लियो भैरवकी महापूजा करे । अन्तमें भगवान् शिवका महाभिषेक और नैवेद्य समर्पित करके ब्राह्मणोंको भूरिभोजन कराना चाहिये ॥ १२७-१२८ ॥

एवं ‌कृतेन यज्ञेन दोषशान्तिमवाप्नुयात् ।
शान्तियज्ञमिमं ‌कुर्याद्वर्षे वर्षे तु फाल्गुने ॥ १२९ ॥
दुर्दर्शनादौ सद्यो वै मासमात्रे समाचरेत् ।
महापापादिसम्प्राप्तौ कुर्याद्‌भैरवपूजनम् ॥ १३० ॥
महाव्याधिसमुत्पत्तौ सङ्‌कल्पं पुनराचरेत् ।
सर्वाभावे दरिद्रस्तु दीपदानमथाचरेत् ॥ १३१ ॥
तदप्यशक्तः स्नात्वा वै यत्किञ्चिद्दानमाचरेत् ।
दिवाकरं नमस्कुर्यान्मन्त्रेणाष्टोत्तरं शतम् ॥ १३२ ॥
सहस्रमयुतं लक्षं ‌कोटिं वा कारयेद् बुधः ।
नमस्कारात्मयज्ञेन तुष्टाः स्युः सर्वदेवताः ॥ १३३ ॥
इस प्रकार यज्ञ सम्पन्न करनेसे दोषोंकी शान्ति हो जाती है । इस शान्तियज्ञका प्रतिवर्ष फाल्गुनमासमें आयोजन करना चाहिये । अशुभ दर्शन होनेपर तुरंत अथवा एक महीनेके भीतर यज्ञका आयोजन करना चाहिये । महापाप हो जाय, तो भैरवकी पूजा करनी चाहिये । महाव्याधि हो जाय, तो यज्ञका पुनः संकल्प लेकर उसे सम्पन्न करना चाहिये । अकिंचन दरिद्र व्यक्ति तो केवल दीपदान कर दे । उतना भी न हो सके, तो स्नान करके कुछ दान कर दे । एक सौ आठ, एक हजार, दस हजार, एक लाख या एक करोड़ मन्त्रोंसे भगवान् सूर्यको नमस्कार करे । इस नमस्कारात्मक यज्ञसे सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं । १२९-१३३ ॥

त्वत्स्वरूपेर्पिता बुद्धिर्न तेऽशून्ये च रोचते ।
या चास्त्यस्मदहन्तेति त्वयि दृष्टे विवर्जिता ॥ १३४ ॥
नम्रोऽहं हि स्वदेहेन भो महांस्त्वमसि प्रभो ।
न शून्यो मत्स्वरूपो वै तव दासोऽस्मि साम्प्रतम् ॥ १३५ ॥
यथायोग्यं स्वात्मयज्ञं नमस्कारं प्रकल्पयेत् ।
अथात्र शिवनैवेद्यं दत्त्वा ताम्बूलमाहरेत् ॥ १३६ ॥
भगवान् शिवको इस प्रकार प्रार्थना करे-मेरी बुद्धि आपके ज्योतिर्मय पूर्णस्वरूपमें लगी है । मुझमें जो अहंता थी, वह आपके दर्शनसे नष्ट हो गयी है । मैं अपनी देहसे आपको प्रणाम करता हूँ । हे प्रभो ! आप महान् हैं । आप पूर्ण हैं और मेरा स्वरूप भी आप ही हैं, तो भी इस समय मैं आपका दास हूँ । इस प्रकार यथायोग्य नमस्कारपूर्वक स्वात्मयज्ञ करना चाहिये । तत्पश्चात् भगवान् शिवको नैवेद्य देकर ताम्बूल समर्पित करना चाहिये । १३४-१३६ ॥

शिवप्रदक्षिणं ‌कुर्यात्स्वयमष्टोत्तरं शतम् ।
सहस्रमयुतं लक्षं कोटिमन्येन कारयेत् ॥ १३७ ॥
शिवप्रदक्षिणात्सर्वं पातकं नश्यति क्षणात् ।
दुःखस्य मूलं व्याधिर्हि व्याधेर्मूलं हि पातकम् ॥ १३८ ॥
धर्मेणैव हि पापानामपनोदनमीरितम् ।
शिवोद्देशकृतो धर्मः क्षमः पापविनोदने ॥ १३९ ॥
तब स्वयं १०८ बार शिवकी प्रदक्षिणा करनी चाहिये । एक हजार, दस हजार, एक लाख या करोड़ प्रदक्षिणा दूसरोंके द्वारा करायी जा सकती है । शिवको प्रदक्षिणासे सारे पापोंका तत्क्षण नाश हो जाता है । दुःखका मूल व्याधि है और व्याधिका मूल पापमें होता है । धर्माचरणसे ही पापोंका नाश बताया गया है । भगवान् शिवके उद्देश्यसे किया गया धर्माचरण पार्पोका नाश करने में समर्थ होता है ॥ १३७-१३९ ॥

अध्यक्षं शिवधर्मेषु प्रदक्षिणमितीरितम् ।
क्रियया जपरूपं हि प्रणवं तु प्रदक्षिणम् ॥ १४० ॥
जननं मरणं द्वन्द्वं मायाचक्रमितीरितम् ।
शिवस्य माया चक्रे हि बलिपीठं तदुच्यते ॥ १४१ ॥
बलिपीठं समारभ्य प्रादक्षिण्यक्रमेण वै ।
पदे पदान्तरं ‌गत्वा बलिपीठं समाविशेत् ॥ १४२ ॥
नमस्कारं ततः कुर्यात्प्रदक्षिणमितीरितम् ।
निर्गमाज्जननं प्राप्तं नमस्त्वात्मसमर्पणम् ॥ १४३ ॥
शिवके धर्मोंमें प्रदक्षिणाको प्रधाना कहा गया है । क्रियासे जपरूप होकर प्रणव ही प्रदक्षिणा बन जाता है । जन्म और मरणका द्वन्द्व ही मायाचक्र कहा गया है । शिवका मायाचक्र ही बलिपीठ कहलाता है । बलिपीठसे आरम्भ करके प्रदक्षिणाके क्रमसे एक परके पीछे दूसरा पैर रखते हुए बलिपीठमें पुनः प्रवेश करना चाहिये । तत्पश्चात् नमस्कार करना चाहिये । इसे प्रदक्षिणा कहा जाता है । बलिपीठसे बाहर निकलना जन्म प्राप्त होना और नमस्कार करना ही आत्मसमर्पण है ॥ १४०-१४३ ॥

जननं मरणं द्वन्द्वं शिवमायासमर्पितम् ।
शिवमायार्पितद्वन्द्वो न पुनस्त्वात्मभाग्भवेत् ॥ १४४ ॥
यावद्देहं ‌क्रियाधीनः स जीवो बद्ध उच्यते ।
देहत्रयवशीकारे मोक्ष इत्युच्यते बुधैः ॥ १४५ ॥
मायाचक्रप्रणेता हि शिवः परमकारणम् ।
शिवमायार्पितद्वन्द्वं शिवस्तु परिमार्जति ॥ १४६ ॥
शिवेन कल्पितं द्वन्द्वं तस्मिन्नेव समर्पयेत् ।
जन्म और मरणरूप दुन्दु भगवान् शिवकी मायासे प्राप्त है । जो इन दोनोंको शिवकी मायाको ही अर्पित कर देता है, वह फिर शरीरके बन्धनमें नहीं पड़ता । जबतक शरीर रहता है, तबतक जो क्रियाके ही अधीन है, वह जीव बद्ध कहलाता है । स्थूल, सूक्ष्म और कारण-तीनों शरीरोंको वशमें कर लेनेपर जीवका मोक्ष हो जाता है, ऐसा ज्ञानी पुरुषोंका कथन है । मायाचक्रके निर्माता भगवान् शिव ही परम कारण हैं । वे अपनी मायाके दिये हुए द्वन्द्वका स्वयं ही परिमार्जन करते हैं । अतः शिवके द्वारा कल्पित हुआ द्वन्द्व उन्हींको समर्पित कर देना चाहिये ॥ १४४-१४६ १/२ ॥

शिवस्यातिप्रियं विद्यात्प्रदक्षिणं नमो बुधाः ॥ १४७ ॥
प्रदक्षिणनमस्काराः शिवस्यपरमात्मनः ।
षोडशैरुपचारैश्च कृता पूजाफलप्रदा ॥ १४८ ॥
प्रदक्षिणाऽविनाश्यं हि पातकं नास्ति भूतले ।
तस्मात्प्रदक्षिणेनैव सर्वपापं विनाशयेत् ॥ १४९ ॥
हे विद्वानो ! प्रदक्षिणा और नमस्कार शिवको अतिप्रिय हैं, ऐसा जानना चाहिये । भगवान् शिवकी प्रदक्षिणा, नमस्कार और षोडशोपचार पूजन अत्यन्त फलदायी होता है । ऐसा कोई पाप इस पृथ्वीपर नहीं है, जो शिवप्रदक्षिणासे नष्ट न हो सके । इसलिये प्रदक्षिणाका आश्रय लेकर सभी पापोंका नाश कर लेना चाहिये ॥ १४७-१४९ ॥

शिवपूजापरो मौनी सत्यादिगुणसंयुतः ।
क्रियातपोजपज्ञानध्यानेष्वेकैकमाचरेत् ॥ १५० ॥
ऐश्वर्यं दिव्यदेहश्च ज्ञानमज्ञानसंक्षयः ।
शिवसान्निध्यमित्येतत्क्रियादीनां फलं भवेत् ॥ १५१ ॥
करणेन फलं याति तमसः परिहापनात् ।
जन्मनः परिमार्जित्वाज्ज्ञबुद्ध्या जनितानिव ॥ १५२ ॥
यथादेशं यथाकालं यथादेहं यथाधनम् ।
यथायोग्यं प्रकुर्वीत क्रियादीञ्छिवभक्तिमान् ॥ १५३ ॥
जो शिवकी पूजामें तत्पर हो, वह मौन रहे, सत्य आदि गुणोंसे संयुक्त हो तथा क्रिया, जप, तप, ज्ञान और ध्यानमेंसे एक एकका अनुष्ठान करता रहे । ऐश्वर्य, दिव्य शरीरको प्राप्ति, ज्ञानका उदय, अज्ञानका निवारण और भगवान् शिवके सामीप्यका लाभ-ये क्रमशः क्रिया आदिके फल हैं । निष्काम कर्म करनेसे अज्ञानका निवारण हो जानेके कारण शिवभक्त पुरुष उसके यथोक्त फलको पाता है । शिवभक्त पुरुष देश, काल, शरीर और धनके अनुसार यथायोग्य क्रिया आदिका अनुष्ठान करे ॥ १५०-१५३ ॥

न्यायार्जितसुवित्तेन वसेत्प्राज्ञः शिवस्थले ।
जीवहिंसादिरहितमतिक्लेशविवर्जितम् ॥ १५४ ॥
पञ्चाक्षरेण जप्तं च तोयमन्नं विदुः सुखम् ।
अथवाऽऽहुर्दरिद्रस्य भिक्षान्नं ज्ञानदं भवेत् ॥ १५५ ॥
शिवभक्तस्य भिक्षान्नं शिवभक्तिविवर्धनम् ।
शम्भुसत्रमिति प्राहुर्भिक्षान्नं शिवयोगिनः ॥ १५६ ॥
येन केनाप्युपायेन यत्रकुत्रापि भूतले ।
शुद्धान्नभुक्सदा मौनी रहस्यं न प्रकाशयेत् ॥ १५७ ॥
प्रकाशयेत्तु भक्तानां शिवमाहात्म्यमेव हि ।
रहस्यं शिवमन्त्रस्य शिवो जानाति नापरः ॥ १५८ ॥
न्यायोपार्जित उत्तम धनसे निर्वाह करते हुए विद्वान पुरुष शिवके स्थानमें निवास करे । जीवहिंसा आदिसे रहित और अत्यन्त क्लेशशून्य जीवन बिताते हुए पंचाक्षरमन्त्र के जपसे अभिमन्त्रित अन्न और जलको सुखस्वरूप माना गया है अथवा यह भी कहते हैं कि दरिद्र पुरुषके लिये भिक्षासे प्राप्त हुआ अन्न ज्ञान देनेवाला होता है, शिवभक्तको भिक्षान्न प्राप्त हो, तो वह शिवभक्तिको बढ़ानेवाला होता है । शिवयोगी पुरुष भिक्षान्नको शम्भुसत्र कहते हैं । जिस किसी भी उपायसे जहाँ-कहीं भी भूतलपर शुद्ध अनका भोजन करते हुए सदा मौनभावसे रहे और अपने साधनका रहस्य किसीपर प्रकट न करे । भक्तोंके समक्ष ही शिवके माहात्म्यको प्रकाशित करे । शिवमन्त्रके रहस्यको भगवान् शिव ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जान पाता ॥ १५४-१५८ ॥

शिवभक्तो वसेन्नित्यं शिवलिङ्‌गं समाश्रितः ।
स्थाणुलिङ्‌गाश्रयेणैव स्थाणुर्भवति भूसुराः ॥ १५९ ॥
पूजया चरलिङ्‌गस्य क्रमान्मुक्तो भवेद्ध्रुवम् ।
सर्वमुक्तं समासेन साध्यसाधनमुत्तमम् ॥ १६० ॥
व्यासेन यत्पुरा प्रोक्तं यच्छ्रुतं हि मया पुरा ।
भद्रमस्तु हि वोऽस्माकं शिवभक्तिर्दृढाऽस्तु सा ॥ १६१ ॥
य इमं पठतेऽध्यायं यः शृणोति नरः सदा ।
शिवज्ञानं स लभते शिवस्य कृपया बुधाः ॥ १६२ ॥
शिवभक्तको सदा शिवलिंगके आश्रित होकर वास करना चाहिये । हे ब्राह्मणो ! शिवलिंगाश्रयके प्रभावसे वह भक्त भी शिवरूप ही हो जाता है । चरलिंगकी पूजा करनेसे वह क्रमश: अवश्य ही मुक्त हो जाता है । महर्षि व्यासने पूर्वकालमें जो कहा था और मैंने जैसा सुना था, उस सब साध्य और साधनका संक्षेपमें मैंने वर्णन कर दिया । आप सबका कल्याण हो और भगवान् शिवमें आपकी दृढ़ भक्ति बनी रहे । जो मनुष्य इस अध्यायका पाठ करता है अथवा जो इसे सुनता है, हे विज्ञजनो ! वह भगवान् शिवकी कृपासे शिवज्ञानको प्राप्त कर लेता है ॥ १५९-१६२ ॥

इति श्रीशैवे महापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां साध्यसाधनखण्डे
शिवलिङ्‌गमहिमावर्णनं नामाष्टादशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत प्रथम विद्यश्वरसंहिताके साध्यसाधनखण्डमें शिवलिङ्‌गके माहात्म्यका वर्णन नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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