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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

विद्येश्वरसंहिता

॥ एकोनविंशोऽध्यायः ॥

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पार्थिवपूजनमाहात्म्यं भस्मप्रकाराभिधानं च -
पार्थिव शिवलिंगके पूजनका माहात्म्य


ऋषय ऊचुः -
सूत सूत चिरञ्जीव धन्यस्त्वं शिवभक्तिमान् ।
सम्यगुक्तस्त्वया लिङ्‌गमहिमा सत्फलप्रदः ॥ १ ॥
यत्रपार्थिवमाहेशलिङ्‌गस्य महिमाऽधुना ।
सर्वोत्कृष्टश्च कथितो व्यासतो ब्रूहि तं पुनः ॥ २ ॥
ऋषिगण बोले-हे सूतजी ! आप चिरंजीवी हों । आप धन्य हैं, जो परम शिवभक्त हैं । आपने शुभ फलको देनेवाली शिवलिंगकी महिमा सम्यक् प्रकारसे बतायी । अब आप व्यासजीद्वारा वर्णित भगवान् शिवके सर्वोत्कृष्ट पार्थिव लिंगकी महिमाका वर्णन करें ॥ १-२ ॥

सूत उवाच -
शृणुध्वमृषयः सर्वे सद्‌भक्त्यादरतोऽखिलाः ।
शिवपार्थिवलिङ्‌गस्य महिमा प्रोच्यते मया ॥ ३ ॥
उक्तेष्वेतेषु लिङ्‌गेषु पार्थिवं लिङ्‌गमुत्तमम् ।
तस्य पूजनतो विप्रा बहवः सिद्धिमागताः ॥ ४ ॥
सूतजी बोले-हे ऋषियो ! मैं शिवके पार्थिव लिंगकी महिमा बता रहा हूँ, आप लोग भक्ति और आदरसहित इसका श्रवण करें । हे द्विजो ! अभीतक बताये हुए सभी शिवलिंगोंमें पार्थिव लिंग सर्वोत्तम है । उसकी पूजा करनेसे अनेक भक्तोंको सिद्धि प्राप्त हुई है ॥ ३-४ ॥

हरिर्ब्रह्मा च ऋषयः सप्रजापतयस्तथा ।
सम्पूज्य पार्थिवं लिङ्‌गं प्रापुः सर्वेप्सितं द्विजाः ॥ ५ ॥
देवासुरमनुष्याश्च गन्धर्वोरगराक्षसाः ।
अन्येऽपि बहवः सिद्धिं तं सम्पूज्य ‌गताः परम् ॥ ६ ॥
हे ब्राह्मणो ! ब्रह्मा, विष्णु, प्रजापति तथा अनेक ऋषियोंने पार्थिव लिंगकी पूजा करके अपना सम्पूर्ण अभीष्ट प्राप्त किया है । देव, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग, राक्षसगण और अन्य प्राणियोंने भी उसकी पूजा करके परम सिद्धि प्राप्त की है । ५-६ ॥

कृते रत्‍नमयं लिङ्‌गं त्रेतायां हेमसम्भवम् ।
द्वापरे पारदं श्रेष्ठं पार्थिवं तु कलौ युगे ॥ ७ ॥
अष्टमूर्तिषु सर्वासु मूर्तिर्वै पार्थिवी वराः ।
अनन्यपूजिता विप्रास्ततस्तस्मान्महत्फलम् ॥ ८ ॥
सत्ययुगमें मणिलिंग, त्रेतायुगमें स्वर्णलिंग, द्वापरयुगमें पारदलिंग और कलियुगमें पार्थिवलिंगको श्रेष्ठ कहा गया है । भगवान् शिवकी सभी आठ* मूर्तियोंमें पार्थिव मूर्ति श्रेष्ठ है । किसी अन्यद्वारा न पूजी हुई (नवनिर्मित) पार्थिव मूर्तिकी पूजा करनेसे तपस्यासे भी अधिक फल मिलता है । ७-८ ॥

यथा सर्वेषु देवेषु ज्येष्ठः श्रेष्ठो महेश्वरः ।
एवं सर्वेषु लिङ्‌गेषु पार्थिवं श्रेष्ठमुच्यते ॥ ९ ॥
यथा नदीषु सर्वासु ज्येष्ठा श्रेष्ठा सुरापगा ।
तथा सर्वेषु लिङ्‌गेषु पार्थिवं श्रेष्ठमुच्यते ॥ १० ॥
यथा सर्वेषु मन्त्रेषु प्रणवो हि महान्स्मृतः ।
तथेदं पार्थिवं श्रेष्ठमाराध्यं पूज्यमेव हि ॥ ११ ॥
यथा सर्वेषु वर्णेषु ब्राह्मणः श्रेष्ठ उच्यते ।
तथा सर्वेषु लिङ्‌गेषु पार्थिवं श्रेष्ठमुच्यते ॥ १२ ॥
यथा पुरीषु सर्वासु काशी श्रेष्ठतमा स्मृता ।
तथा सर्वेषु लिङ्‌गेषु पार्थिवं श्रेष्ठमुच्यते ॥ १३ ॥
यथा व्रतेषु सर्वेषु शिवरात्रिव्रतं परम् ।
तथा सर्वेषु लिङ्‌गेषु पार्थिवं श्रेष्ठमुच्यते ॥ १४ ॥
यथा देवीषु सर्वासु शैवी शक्तिः परा स्मृता ।
तथा सर्वेषु लिङ्‌गेषु पार्थिवं श्रेष्ठमुच्यते ॥ १५ ॥
जैसे सभी देवताओंमें शंकर ज्येष्ठ और श्रेष्ठ कहे जाते हैं, उसी प्रकार सभी लिंगमूर्तियोंमें पार्थिवलिंग श्रेष्ठ कहा जाता है । जैसे सभी नदियोंमें गंगा ज्येष्ठ और श्रेष्ठ कही जाती है, वैसे ही सभी लिंगमूर्तियोंमें पार्थिव लिंग श्रेष्ठ कहा जाता है । जैसे सभी मन्त्रोंमें प्रणव (ॐ) महान् कहा गया है, उसी प्रकार शिवका यह पार्थिवलिं ग श्रेष्ठ, आराध्य तथा पूजनीय होता है । जैसे सभी वर्गों में ब्राह्मण श्रेष्ठ कहा जाता है, उसी प्रकार सभी लिंगमूर्तियोंमें पार्थिवलिंग श्रेष्ठ कहा जाता है । जैसे सभी पुरियोंमें काशीको श्रेष्ठतम कहा गया है, वैसे ही सभी शिवलिंगोंमें पार्थिवलिंग श्रेष्ठ कहा जाता है । जैसे सभी व्रतोंमें शिवरात्रिका व्रत सर्वोपरि है, उसी प्रकार सभी शिवलिंगोंमें पार्थिवलिंग सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है । जैसे सभी देवियोंमें शैवी शक्ति प्रधान मानी जाती है, उसी प्रकार सभी शिवलिंगोंमें पार्थिवलिंग प्रधान माना जाता है ॥ ९-१५ ॥

प्रकृत्य पार्थिवं लिङ्‌गं योऽन्यदेवं प्रपूजयेत् ।
वृथा भवति सा पूजा स्नानदानादिकं वृथा ॥ १६ ॥
पार्थिवाराधनं पुण्यं धन्यमायुर्विवर्धनम् ।
तुष्टिदं पुष्टिदं श्रीदं ‌कार्यं साधकसत्तमैः ॥ १७ ॥
जो पार्थिवलिंगका निर्माण करनेके बाद किसी अन्य देवताकी पूजा करता है, उसकी वह पूजा तथा स्नान-दान आदिकी क्रियाएँ व्यर्थ हो जाती हैं । पार्थिव-पूजन अत्यन्त पुण्यदायी तथा सब प्रकारसे धन्य करनेवाला, दीर्घायुष्य देनेवाला है । यह तुष्टि, पुष्टि और लक्ष्मी प्रदान करनेवाला है, अतः श्रेष्ठ साधकोंको पूजन अवश्य करना चाहिये । १६-१७ ॥

यथालब्धोपचारैश्च भक्तिश्रद्धासमन्वितः ।
पूजयेत्पार्थिवं लिङ्‌गं सर्वकामार्थसिद्धिदम् ॥ १८ ॥
यः कृत्वा पार्थिवं लिङ्‌गं पूजयेच्छुभवेदिकम् ।
इहैव धनवाञ्छ्रीमानन्ते रुद्रोऽभिजायते ॥ १९ ॥
त्रिसन्ध्यं योर्चयंल्लिङ्‌गं ‌कृत्वा बिल्वेन पार्थिवम् ।
दशैकादशकं यावत्तस्य पुण्यफलं शृणु ॥ २० ॥
अनेनैव स्वदेहेन रुद्रलोके महीयते ।
पापहं सर्वमर्त्यानां दर्शनात्स्पर्शनादपि ॥ २१ ॥
जीवन्मुक्तः स वै ज्ञानी शिव एव न संशयः ।
तस्य दर्शनमात्रेण भुक्तिर्मुक्तिश्च जायते ॥ २२ ॥
उपलब्ध उपचारोंसे भक्ति-श्रद्धापूर्वक पार्थिव लिंगका पूजन करना चाहिये; यह सभी कामनाओंकी सिद्धि देनेवाला है । जो सुन्दर वेदीसहित पार्थिव लिंगका निर्माण करके उसकी पूजा करता है, वह इस लोकमें धन-धान्यसे सम्पन्न होकर अन्तमें रुद्रलोकको प्राप्त करता है । जो पार्थिवलिंगका निर्माण करके बिल्वपत्रोंसे ग्यारह वर्षतक उसका त्रिकाल पूजन करता है, उसके पुण्यफलको सुनिये । वह अपने इसी शरीरसे रुद्रलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है । उसके दर्शन और स्पर्शसे मनुष्योंके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । वह जीवन्मुक्त ज्ञानी और शिवस्वरूप है; इसमें संशय नहीं है । उसके दर्शनमात्रसे भोग और मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ १८-२२ ॥

शिवं यः पूजयेन्नित्यं कृत्वा लिङ्‌गं तु पार्थिवम् ।
यावज्जीवनपर्यन्तं स याति शिवमन्दिरम् ॥ २३ ॥
मृतेनाप्रमितान्वर्षाञ्छिवलोके हि तिष्ठति ।
सकामः पुनरागत्य राजेन्द्रो भारते भवेत् ॥ २४ ॥
निष्कामः पूजयेन्नित्यं पार्थिवं लिङ्‌गमुत्तमम् ।
शिवलोके सदा तिष्ठेत्ततस्य सायुज्यमाप्नुयात् ॥ २५ ॥
जो पार्थिव शिवलिंगका निर्माण करके जीवनपर्यन्त नित्य उसका पूजन करता है, वह शिवलोक प्राप्त करता है । वह असंख्य वर्षांतक भगवान् शिवके सान्निध्यमें शिवलोकमें वास करता है और कोई कामना शेष रहनेपर वह भारतवर्षमें सम्राट् बनता है । जो निष्कामभावसे नित्य उत्तम पार्थिवलिंगका पूजन करता है, वह सदाके लिये शिवलोकमें वास करता है और शिवसायुज्यको प्राप्त कर लेता है ॥ २३–२५ ॥

पार्थिवं शिवलिङ्‌गं च विप्रो यदि न पूजयेत् ।
स याति नरकं ‌घोरं शूलप्रोतं सुदारुणम् ॥ २६ ॥
यथाकथञ्चिद्विधिना रम्यं लिङ्‌गं प्रकारयेत् ।
पञ्चसूत्रविधानं च पार्थिवेन विचारयेत् ॥ २७ ॥
यदि ब्राह्मण पार्थिव शिवलिंगका पूजन नहीं करता है, तो वह अत्यन्त दारुण शूलपोत नामक घोर नरकमें जाता है । किसी भी विधिसे सुन्दर पार्थिवलिंगका निर्माण करना चाहिये, किंतु उसमें पंचसूत्रविधान नहीं करना चाहिये ॥ २६-२७ ॥

अखण्डं तद्धि कर्तव्यं न विखण्डं प्रकारयेत् ।
द्विखण्डं तु प्रकुर्वाणो नैव पूजाफलं लभेत् ॥ २८ ॥
रत्‍नजं हेमजं लिङ्‌गं पारदं स्फाटिकं तथा ।
पार्थिवं पुष्परागोत्थमखण्डं तु प्रकारयेत् ॥ २९ ॥
उसे अखण्ड रूपमें बनाना चाहिये, खण्डितरूपमें नहीं । खण्डित लिंगका निर्माण करनेवाला पूजाका फल नहीं प्राप्त करता है । मणिलिंग, स्वर्णलिंग, पारदलिंग, स्फटिकलिंग, पुष्परागलिंग और पार्थिवलिंगको अखण्ड ही बनाना चाहिये । २८-२९ ॥

अखण्डं तु चरं लिङ्‌गं द्विखण्डमचरं स्मृतम् ।
खण्डाखण्डविचारोऽयं सचराचरयोः स्मृतः ॥ ३० ॥
वेदिका तु महाविद्या लिङ्‌गं देवो महेश्वरः ।
अतो हि स्थावरे लिङ्‌गे स्मृता श्रेष्ठा द्विखण्डिता ॥ ३१ ॥
अखण्ड लिंग चरलिंग होता है और दो खण्डवाला अचरलिंग कहा गया है । इस प्रकार चर और अचर लिंगका यह खण्ड-अखण्ड विधान कहा गया है । स्थावरलिंगमें वेदिका भगवती महाविद्याका रूप है और लिंग भगवान् महेश्वरका स्वरूप है । इसलिये स्थावर (अचर)-लिंगोंमें वेदिकायुक्त द्विखण्ड लिंग ही श्रेष्ठ माना गया है । ३०-३१ ॥

द्विखण्डं स्थावरं लिङ्‌गं ‌कर्तव्यं हि विधानतः ।
अखण्डं जङ्‌गमं प्रोक्तं शैवसिद्धान्तवेदिभिः ॥ ३२ ॥
द्विखण्डं तु चरं लिङ्‌गं ‌कुर्वन्त्यज्ञानमोहिताः ।
नैव सिद्धान्तवेत्तारो मुनयः शास्त्रकोविदाः ॥ ३३ ॥
अखण्डं स्थावरं लिङ्‌गं द्विखण्डं चरमेवच ।
ये कुर्वन्ति नरा मूढा न पूजाफलभागिनः ॥ ३४ ॥
द्विखण्ड (वेदिकायुक्त) स्थावर लिंगका विधानपूर्वक निर्माण करना चाहिये । शिवसिद्धान्तके जाननेवालोंने अखण्ड लिंगको जंगम (चर)-लिंग माना है । अज्ञानतावश ही कुछ लोग चरलिंगको दो खण्डोंमें (वेदिका और लिंग) बना लेते हैं, शास्त्रोंको जाननेवाले सिद्धान्तमर्मज्ञ मुनिजन ऐसा नहीं करते । जो मूढजन अचरलिंगको अखण्ड तथा चरलिंगको द्विखण्ड रूपमें बनाते हैं, उन्हें शिवपूजाका फल नहीं प्राप्त होता ॥ ३२-३४ ॥

तस्माच्छास्त्रोक्तविधिना अखण्डं चरसंज्ञकम् ।
द्विखण्डं स्थावरं लिङ्‌गं कर्तव्यं परया मुदा ॥ ३५ ॥
अखण्डे तु चरे पूजा सम्पूर्णफलदायिनी ।
द्विखण्डे तु चरे पूजा महाहानिप्रदा स्मृता ॥ ३६ ॥
अखण्डे स्थावरे पूजा न कामफलदायिनी ।
प्रत्यवायकरी नित्यमित्युक्तं शास्त्रवेदिभिः ॥ ३७ ॥
इसलिये अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक शास्त्रोक्तविधिसे चरलिंगको अखण्ड तथा अचरलिंगको द्विखण्ड बनाना चाहिये । अखण्ड चरलिंगमें की गयी पूजासे सम्पूर्ण फलकी प्राप्ति होती है । द्विखण्ड चरलिंगकी पूजा महान् अनिष्टकर कही गयी है । उसी प्रकार अखण्ड अचरलिंगकी पूजासे कामना सिद्ध नहीं होती; उससे तो अनिष्ट प्राप्त होता है-ऐसा शास्त्रज्ञ विद्वानोंने कहा है ॥ ३५-३७ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे प्रथमायां विद्येश्वरसंहितायां
साध्यसाधनखण्डे पार्थिवशिवलिङ्‌गपूजनमाहात्म्यवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिताके साध्यसाधनखण्डमें पार्थिव शिवलिंगके पूजनका माहात्म्यवर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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