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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टीखण्डे

द्वितीयोऽध्यायः ॥

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नारदतपोवर्णनम्
नारद मुनिकी तपस्या, इन्द्रद्वारा तपस्यामें विघ्न उपस्थित करना, नारदका कामपर विजय पाना और अहंकारसे युक्त होकर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रसे अपने तपका कथन


सूत उवाच
एतस्मिन्समये विप्रा नारदो मुनिसत्तमः ।
ब्रह्मपुत्रो विनीतात्मा तपोऽर्थं मन आदधे ॥ १ ॥
सूतजी बोले-[हे मुनियो !] एक समयको बात है, ब्रह्माजीके पुत्र, मुनिशिरोमणि, विनीतचित्त नारदजीने तपस्याके लिये मनमें विचार किया ॥ १ ॥

हिमशैलगुहा काचिदेका परमशोभना ।
यत्समीपे सुरनदी सदा वहति वेगतः ॥ २ ॥
हिमालय पर्वतमें कोई एक परम शोभा सम्पन्न गुफा थी, जिसके निकट देवनदी गंगा निरन्तर वेगपूर्वक बहती थीं ॥ २ ॥

तत्राश्रमो महादिव्यो नानाशोभासमन्वितः ।
तपोर्थं स ययौ तत्र नारदो दिव्यदर्शनः ॥ ३ ॥
वहाँ एक महान् दिव्य आश्रम था, जो नाना प्रकारको शोभासे सुशोभित था । वे दिव्यदर्शी नारदजी तपस्या करनेके लिये वहाँ गये ॥ ३ ॥

तां दृष्ट्‍वा मुनिशार्दूलस्तेपे स सुचिरं तपः ।
बध्वासनं दृढं मौनी प्राणानायम्य शुद्धधीः ॥ ४ ॥
उस गुफाको देखकर मुनिवर नारदजी बड़े प्रसन्न हुए और सुदीर्घकालतक वहाँ तपस्या करते रहे । उनका अन्तःकरण शुद्ध था । वे दृढ़तापूर्वक आसन बाँधकर मौन हो प्राणायामपूर्वक समाधिमें स्थित हो गये ॥ ४ ॥

चक्रे मुनिः समाधिं तमहम्ब्रह्मेति यत्र ह ।
विज्ञानं भवति ब्रह्मसाक्षात्कारकरं द्विजाः ॥ ५ ॥
हे ब्राह्मणो ! उन्होंने वह समाधि लगायी, जिसमें ब्रह्मका साक्षात्कार करानेवाला 'अहं ब्रहास्मि' [मैं ब्रह्म है-यह विज्ञान प्रकट होता है ॥ ५ ॥

इत्थं तपति तस्मिन्वै नारदे मुनिसत्तमे ।
चकम्पेऽथ शुनासीरो मनः सन्तापविह्वलः ॥ ६ ॥
मुनिवर नारदजी जब इस प्रकार तपस्या करने लगे, तब देवराज इन्द्र काँप उठे और मानसिक सन्तापसे व्याकुल हो गये ॥ ६ ॥

मनसीति विचिन्त्यासौ मुनिर्मे राज्यमिच्छति ।
तद्विघ्नकरणार्थं हि हरिर्यत्नमियेष सः ॥ ७ ॥
सस्मार स स्मरं शक्रश्चेतसा देवनायकः ।
आजगाम द्रुतं कामः समधीर्महिषीसुतः ॥ ८ ॥
वे नारद मुनि मेरा राज्य लेना चाहते हैं'-मनही मन ऐसा सोचकर इन्द्रने उनकी तपस्या में विघ्न डालनेके लिये प्रयत्न करनेकी इच्छा की । उस समय देवनायक इन्द्रने मनसे कामदेवका स्मरण किया । [स्मरण करते ही ] समान बुद्धिवाले कामदेव अपनी पत्नी रतिके साथ आ गये ॥ ७-८ ॥

अथागतं स्मरं दृष्ट्‍वा सम्बोध्य सुरराट् प्रभुः ।
उवाच तं प्रपश्याशु स्वार्थे कुटिलशेमुषिः ॥ ९ ॥
आये हुए कामदेवको देखकर कपटबुद्धि देवराज इन्द्र शीघ्र ही स्वार्थके लिये उनको सम्बोधित करते हुए कहने लगे- ॥ ९ ॥

इन्द्र उवाच
मित्रवर्य्य महावीर सर्वदा हितकारक ।
शृणु प्रीत्या वचो मे त्वं कुरु साहाय्यमात्मना ॥ १० ॥
इन्द्र बोले-मित्रोंमें श्रेष्ठ ! हे महावीर ! हे सर्वदा हितकारक ! तुम प्रेमपूर्वक मेरे वचनोंको सुनो और मेरी सहायता करो ॥ १० ॥

त्वद्‌बलान्मे बहूनाञ्च तपोगर्वो विनाशितः ।
मद्‌राज्यस्थिरता मित्र त्वदनुग्रहतः सदा ॥ ११ ॥
हे मित्र ! तुम्हारे बलसे मैंने बहुत लोगोंकी तपस्याका गर्व नष्ट किया है । तुम्हारी कृपासे ही मेरा यह राज्य स्थिर है ॥ ११ ॥

हिमशैलगुहायां हि मुनिस्तपति नारदः ।
मनसोद्दिश्य विश्वेशं महासंयमवान्दृढः ॥ १२ ॥
पूर्णरूपसे संयमित होकर दृढनिश्चयी देवर्षि नारद मनसे विश्वेश्वर भगवान शंकरकी प्राप्तिका लक्ष्य बनाकर हिमालयकी गुफामें तपस्या कर रहे हैं ॥ १२ ॥

याचेन्न विधितो राज्यं स ममेति विशङ्‌कितः ।
अद्यैव गच्छ तत्र त्वं तत्तपोविघ्नमाचर ॥ १३ ॥
मुझे यह शंका है कि [तपस्यासे प्रसन्न] ब्रह्मासे वे मेरा राज्य ही न माँग लें । आज ही तुम वहाँ चले जाओ और उनकी तपस्या में विघ्न डालो ॥ १३ ॥

इत्याज्ञप्तो महेन्द्रेण स कामः समधुप्रियः ।
जगाम तत्स्थलं गर्वादुपायं स्वञ्चकार ह ॥ १४ ॥
इन्द्रसे ऐसी आज्ञा पाकर वे कामदेव वसन्तको साथ लेकर बड़े गर्वसे उस स्थानपर गये और अपना उपाय करने लगे ॥ १४ ॥

रचयामास तत्राशु स्वकलाः सकला अपि ।
वसन्तोपि स्वप्रभावं चकार विविधं मदात् ॥ १५ ॥
उन्होंने वहाँ शीघ्र ही अपनी सारी कलाएं रच डाली । वसन्तने भी मदमत्त होकर अनेक प्रकारसे अपना प्रभाव प्रकट किया ॥ १५ ॥

न बभूव मुनेश्चेतो विकृतं मुनिसत्तमाः ।
भ्रष्टो बभूव तद्‌गर्वो महेशानुग्रहेण ह ॥ १६ ॥
हे मुनिवरो ! [कामदेव और वसन्तके अथक प्रयत्न करनेपर भी] नारदमुनिके चित्तमें विकार नहीं उत्पन हुआ । महादेवजीके अनुग्रहसे उन दोनोंका गर्व चूर्ण हो गया ॥ १६ ॥

शृणुतादरतस्तत्र कारणं शौनकादयः ।
ईश्वरानुग्रहेणात्र न प्रभावः स्मरस्य हि ॥ १७ ॥
हे शौनक आदि महर्षियो ! ऐसा होनेमें जो कारण था, उसे आदरपूर्वक सुनिये । महादेवजीकी कृपासे ही [नारदमुनिपर] कामदेवका कोई प्रभाव नहीं पड़ा ॥ १७ ॥

अत्रैव शम्भुनाऽकारि सुतपश्च स्मरारिणा ।
अत्रैव दग्धस्तेनाशु कामो मुनितपोपहः ॥ १८ ॥
पहले उसी आश्रममें कामशत्रु भगवान् शिवने उत्तम तपस्या की थी और वहींपर उन्होंने मुनियोंकी तपस्याका नाश करनेवाले कामदेवको शीघ्र ही भस्म कर डाला था ॥ १८ ॥

कामजीवनहेतोर्हि रत्या सम्प्रार्थितैः सुरैः ।
सम्प्रार्थित उवाचेदं शङ्‌करो लोकशङ्‌करः ॥ १९ ॥
कञ्चित्समयमासाद्य जीविष्यति सुराः स्मरः ।
परं त्विह स्मरोपायश्चरिष्यति न कश्चन ॥ २० ॥
उस समय रतिने कामदेवको पुनः जीवित करनेके लिये देवताओंसे प्रार्थना की । तब देवताओंने समस्त लोकोंका कल्याण करनेवाले भगवान् शंकरसे याचना की । इसपर वे बोले-हे देवताओ ! कुछ समय व्यतीत होनेके बाद कामदेव जीवित तो हो जायेंगे, परंतु यहाँ उनका कोई उपाय नहीं चल सकेगा ॥ १९-२० ॥

इह यावद्दृष्यते भूर्जनैः स्थित्वाऽमराः सदा ।
कामबाणप्रभावोत्र न चलिष्यत्यसंशयम् ॥ २१ ॥
जैं जितनी दूरतककी भूमिको नेत्रोंसे देख पाते हैं, वहाँतक कामदेवके बाणोंका प्रभाव नहीं चल सकेगा, इसमें संशय नहीं है ॥ २१ ॥

इति शम्भूक्तितः कामो मिथ्यात्मगतिकस्तदा ।
नारदे स जगामाशु दिवमिन्द्रसमीपतः ॥ २२ ॥
भगवान् शंकरकी इस उक्तिके अनुसार उस समय वहाँ नारदजीके प्रति कामदेवका अपना प्रभाव मिथ्या सिद्ध हुआ । वे शीघ्र ही स्वर्गलोकमें इन्द्रके पास लौट गये ॥ २२ ॥

आचख्यौ सर्ववृत्तान्तं प्रभावं च मुनेः स्मरः ।
तदाज्ञया ययौ स्थानं स्वकीयं स मधुप्रियः ॥ २३ ॥
वहाँ कामदेवने अपना सारा वृत्तान्त और मुनिका प्रभाव कह दिया । तत्पश्चात् इन्द्रकी आज्ञासे वे वसन्तके साथ अपने स्थानको लौट गये ॥ २३ ॥

विस्मितोभूत्सुराधीशः प्रशशंसाद्य नारदम् ।
तद्वृत्तान्तानभिज्ञो हि मोहितः शिवमायया ॥ २४ ॥
उस समय देवराज इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ । उन्होंने नारदजीकी भूरि-भूरि प्रशंसा की । परंतु शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण वे उस पूर्ववृत्तान्तका स्मरण न कर सके ॥ २४ ॥

दुर्ज्ञेया शाम्भवी माया सर्वेषां प्राणिनामिह ।
भक्तं विनार्पितात्मानं तया संमोह्यते जगत् ॥ २५ ॥
वास्तवमें इस संसारमें सभी प्राणियोंके लिये शम्भुकी मायाको जानना अत्यन्त कठिन है । जिसने अपने-आपको शिवको समर्पित कर दिया है, उस भक्तको छोड़कर शेष सम्पूर्ण जगत् उनकी मायासे मोहित हो जाता है ॥ २५ ॥

नारदोऽपि चिरं तस्थौ तत्रेशानुग्रहेण ह ।
पूर्णं मत्वा तपस्तत्स्वं विरराम ततो मुनिः ॥ २६ ॥
नारदजी भी भगवान् शंकरकी कृपासे वहाँ चिरकालतक तपस्यामें लगे रहे । अन्तमें अपनी तपस्याको पूर्ण हुआ जानकर वे मुनि उससे विरत हो गये ॥ २६ ॥

कामाज्जयं निजं मत्वा गर्वितोऽभून्मुनीश्वरः ।
वृथैव विगतज्ञानः शिवमायाविमोहितः ॥ २७ ॥
कामदेवपर अपनी विजय मानकर उन मुनीश्वरको व्यर्थ ही गर्व हो गया । भगवान् शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण उन्हें यथार्थ बातका ज्ञान नहीं रहा ॥ २७ ॥

धन्या धन्या महामाया शाम्भवी मुनिसत्तमाः ।
तद्‌गतिं न हि पश्यन्ति विष्णुब्रह्मादयोपि हि ॥ २८ ॥
हे मुनिश्रेष्ठो ! भगवान् शम्भुकी महामाया धन्य है, धन्य है । ब्रह्मा, विष्णु आदि देव भी उसकी गतिको नहीं देख पाते हैं ॥ २८ ॥

तया संमोहितोतीव नारदो मुनिसत्तमः ।
कैलासं प्रययौ शीघ्रं स्ववृत्तं गदितुं मदी ॥ २९ ॥
उस मायासे अत्यन्त मोहित मुनिशिरोमणि नारद गर्वयुक्त होकर अपना [कामविजय सम्बन्धी] वृत्तान्त बतानेके लिये तुरंत ही कैलास पर्वतपर गये ॥ २९ ॥

रुद्रं नत्वाब्रवीत्सर्वं स्ववृत्तङ्‌गर्ववान्मुनिः ।
मत्वात्मानं महात्मानं स्वप्रभुञ्च स्मरञ्जयम् ॥ ३० ॥
वहाँ रुद्रदेवको नमस्कार करके गर्वसे भरे हुए मुनिने अपने आपको महात्मा, प्रभु तथा कामजेता मानकर उनसे अपना सारा वृत्तान्त कहा ॥ ३० ॥

तच्छ्रुत्वा शङ्‌करः प्राह नारदं भक्तवत्सलः ।
स्वमायामोहितं हेत्वनभिज्ञं भ्रष्टचेतसम् ॥ ३१ ॥
यह सुनकर भक्तवत्सल शंकरजी अपनी मायासे मोहित, वास्तविक कारणसे अनभिज्ञ तथा भ्रष्टचित्त नारदसे कहने लगे- ॥ ३१ ॥

रुद्र उवाच
हे तात नारद प्राज्ञ धन्यस्त्वं शृणु मद्वचः ।
वाच्यमेवं न कुत्रापि हरेरग्रे विशेषतः ॥ ३२ ॥
रुद्र बोले-हे तात ! हे नारद ! हे प्राज्ञ ! तुम धन्य हो । मेरी बात सुनो, अबसे फिर कभी ऐसी बात कहीं भी न कहना और विशेषतः भगवान् विष्णुके सामने तो इसकी चर्चा कदापि न करना ॥ ३२ ॥

पृच्छमानोऽपि न ब्रूयाः स्ववृत्तं मे यदुक्तवान् ।
गोप्यं गोप्यं सर्वथा हि नैव वाच्यं कदाचन ॥ ३३ ॥
तुमने मुझसे अपना जो वृत्तान्त बताया है, उसे पूछनेपर भी दूसरोंके सामने न कहना । यह [सिद्धिसम्बन्धी] वृत्तान्त सर्वथा गुप्त रखनेयोग्य है, इसे कभी किसीसे प्रकट नहीं करना चाहिये ॥ ३३ ॥

शास्म्यहं त्वां विशेषेण मम प्रियतमो भवान् ।
विष्णुभक्तो यतस्त्वं हि तद्‌भक्तोतीव मेऽनुगः ॥ ३४ ॥
तुम मुझे विशेष प्रिय हो, इसीलिये [अधिक जोर देकर] मैं तुम्हें यह शिक्षा देता हूँ; क्योंकि तुम भगवान् विष्णुके भक्त हो और उनके भक्त होते हुए मेरे अत्यन्त अनुगामी हो ॥ ३४ ॥

शास्ति स्मेत्थञ्च बहुशो रुद्रः सूतिकरः प्रभुः ।
नारदो न हितं मेने शिवमायाविमोहितः । ३५ ॥
प्रबला भाविनी कर्म गतिर्ज्ञेया विचक्षणैः ।
न निवार्या जनैः कैश्चिदपीच्छा सैव शाङ्‌करी ॥ ३६ ॥
इस प्रकार बहुत कुछ कहकर संसारकी सृष्टि करनेवाले भगवान् रुद्रने नारदजीको शिक्षा दी, परंतु शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण नारदजीने उनकी दी हुई शिक्षाको अपने लिये हितकर नहीं माना । भावी कर्मगति अत्यन्त बलवान् होती है, उसे बुद्धिमान् लोग ही जान सकते हैं । भगवान् शिवकी इच्छाको कोई भी मनुष्य नहीं टाल सकता ॥ ३५-३६ ॥

ततः स मुनिवर्यो हि ब्रह्मलोकं जगाम ह ।
विधिं नत्वाऽब्रवीत्कामजयं स्वस्य तपोबलात् ॥ ३७ ॥
तदनन्तर मुनिशिरोमणि नारद ब्रह्मलोकमें गये । वहाँ ब्रह्माजीको नमस्कार करके उन्होंने अपने तपोबलसे कामदेवको जीत लेनेकी बात कही ॥ ३७ ॥

तदाकर्ण्य विधिः सोथ स्मृत्वा शम्भुपदाम्बुजम् ।
विज्ञाय कारणं सर्वं निषिषेध सुतं तदा ॥ ३८ ॥
उनकी वह बात सुनकर ब्रह्माजीने भगवान् शिवके चरणारविन्दोंका स्मरण करके और समस्त कारण जानकर अपने पुत्रको यह सब कहनेसे मना किया ॥ ३८ ॥

मेने हितं न विध्युक्तं नारदो ज्ञानिसत्तमः ।
शिवमायामोहितश्च रूढचित्तमदाङ्‌कुरः ॥ ३९ ॥
नारदजी शिवकी मायासे मोहित थे, अतएव उनके चित्तमें मदका अंकुर जम गया था । इसलिये ज्ञानियों में श्रेष्ठ नारदजीने ब्रह्माजीकी बातको अपने लिये हितकर नहीं समझा ॥ ३९ ॥

शिवेच्छा यादृशी लोके भवत्येव हि सा तदा ।
तदधीनं जगत्सर्वं वचस्यस्ति स्थितं यतः ॥ ४० ॥
इस लोकमें शिवकी जैसी इच्छा होती है, वैसा ही होता है । समस्त विश्व उन्होंकी इच्छाके अधीन है और उन्हींकी वाणीरूपी तन्त्रीसे बँधा हुआ है ॥ ४० ॥

नारदोऽथ ययौ शीघ्रं विष्णुलोकं विनष्टधीः ।
मदाङ्‌कुरमना वृत्तं गदितुं स्वं तदग्रतः ॥ ४१ ॥
तब नष्ट बुद्धिवाले नारदजी अपना सारा वृत्तान्त गर्वपूर्वक भगवान् विष्णुके सामने कहनेके लिये वहाँसे शीघ्र ही विष्णुलोकमें गये ॥ ४१ ॥

आगच्छन्तं मुनिं दृष्ट्‍वा नारदं विष्णुरादरात् ।
उत्थित्वाग्रे गतोऽरं तं शिश्लेष ज्ञातहेतुकः ॥ ४२ ॥
स्वासने समुपावेश्य स्मृत्वा शिवपदाम्बुजम् ।
हरिः प्राह वचस्तथ्यं नारदं मदनाशनम् ॥ ४३ ॥
नारद मुनिको आते देखकर भगवान् विष्णु बड़े आदरसे उठकर शीघ्र ही आगे बढ़े और उन्होंने मुनिको हृदयसे लगा लिया । उन्हें मुनिके आगमनके हेतुका ज्ञान पहलेसे ही था । नारदजीको अपने आसनपर बैठाकर भगवान् शिवके चरणारविन्दोंका स्मरण करके श्रीहरि उनसे यथार्थ तथा गर्वनाशक वचन कहने लगे- ॥ ४२-४३ ॥

विष्णुरुवाच
कुत आगम्यते तात किमर्थमिह चागतः ।
धन्यस्त्वं मुनिशार्दूल तीर्थोऽहं तु तवागमात् ॥ ४४ ॥
विष्णु बोले-हे तात ! आप कहाँसे आ रहे हैं ? यहाँ किसलिये आपका आगमन हुआ है ? हे मुनिश्रेष्ठ ! आप धन्य हैं । आपके शुभागमनसे मैं पवित्र हो गया ॥ ४४ ॥

विष्णुवाक्यमिति श्रुत्वा नारदो गर्वितो मुनिः ।
स्ववृत्तं सर्वमाचष्ट समदं मदमोहितः ॥ ४५ ॥
भगवान् विष्णुका यह वचन सुनकर गर्वसे भरे हुए नारद मुनिने मदसे मोहित होकर अपना सारा वृत्तान्त बड़े अभिमानके साथ बताया ॥ ४५ ॥

श्रुत्वा मुनिवचो विष्णुः समदं कारणं ततः ।
ज्ञातवानखिलं स्मृत्वा शिवपादाम्बुजं हृदि ॥ ४६ ॥
नारद मुनिका वह अहंकारयुक्त वचन सुनकर मन-ही-मन शिवके चरणारविन्दोंका स्मरणकर भगवान् विष्णुने उनके कामविजयके समस्त यथार्थ कारणको पूर्णरूपसे जान लिया ॥ ४६ ॥

तुष्टाव गिरिशं भक्त्या शिवात्मा शैवराड् हरिः ।
साञ्जलिर्विसुधीर्नम्रमस्तकः परमेश्वरम् ॥ ४७ ॥
उसके पश्चात् शिवके आत्मस्वरूप, परम शैव, सुबुद्ध भगवान् विष्णु भक्तिपूर्वक अपना सिर झुकाकर हाथ जोड़कर परमेश्वर कैलासपति शंकरकी स्तुति करने लगे ॥ ४७ ॥

विष्णुरुवाच
देवदेव महादेव प्रसीद परमेश्वर ।
धन्यस्त्वं शिव धन्या ते माया सर्व विमोहिनी ॥ ४८ ॥
विष्णु बोले-हे देवेश्वर ! हे महादेव ! हे परमेश्वर ! आप प्रसन्न हों । हे शिव ! आप धन्य हैं और सबको विमोहित करनेवाली आपकी माया भी धन्य है ॥ ४८ ॥

इत्यादि स स्तुतिं कृत्वा शिवस्य परमात्मनः ।
निमील्य नयने ध्यात्वा विरराम पदाम्बुजम् ॥ ४९ ॥
इस प्रकार परमात्मा शिवकी स्तुति करके हरि अपने नेत्रोंको बन्दकर उनके चरणकमलोंमें ध्यानस्थित होकर चुप हो गये ॥ ४९ ॥

यत्कर्तव्यं शङ्‌करस्य स ज्ञात्वा विश्वपालकः ।
शिवशासनतः प्राह हृदाऽथ मुनिसत्तमम् ॥ ५० ॥
विश्वपालक हरि शिवके द्वारा जो होना था, उसे हदयसे जानकर शिवके आज्ञानुसार मुनिश्रेष्ठ नारदजीसे कहने लगे- ॥ ५० ॥

विष्णुरुवाच
धन्यस्त्वं मुनिशार्दूल तपोनिधिरुदारधीः ।
भक्तित्रिकं न यस्यास्ति काममोहादयो मुने ॥ ५१ ॥
विकारास्तस्य सद्यो वै भवन्त्यखिलदुःखदाः ।
नैष्ठिको ब्रह्मचारी त्वं ज्ञानवैराग्यवान्सदा ॥ ५२ ॥
विष्णु बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! आप धन्य हैं, आप तपस्याके भण्डार हैं और आपका हृदय भी बड़ा उदार है । हे मुने ! जिसके भीतर भक्ति, ज्ञान और वैराग्य नहीं होते, उसीके मनमें समस्त दुःखोंको देनेवाले काम, मोह आदि विकार शीघ्र उत्पन्न होते हैं । आप तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं और सदा ज्ञान वैराग्यसे युक्त रहते हैं, फिर आपमें कामविकार कैसे आ सकता है । आप तो जन्मसे निर्विकार तथा शुद्ध बुद्धिवाले हैं ॥ ५१-५२ ॥

कथं कामविकारी स्याज्जन्मनाविकृतः सुधीः ।
इत्याद्युक्तं वचो भूरि श्रुत्वा स मुनिसत्तमः ॥ ५३ ॥
विजहास हृदा नत्वा प्रत्युवाच वचो हरिम् ।
श्रीहरिकी कही हुई बहुत सी बातें सुनकर मुनिशिरोमणि नारदजी जोर-जोरसे हँसने लगे और मन ही मन भगवान्को प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगे- ॥ ५३ १/२ ॥

नारद उवाच
किं प्रभावः स्मरः स्वामिन् कृपा यद्यस्ति ते मयि ॥ ५४ ॥
इत्युक्त्वा हरिमानम्य ययौ यादृच्छिको मुनिः ॥ ५५ ॥
नारदजी बोले-हे स्वामिन् ! यदि मुझपर आपकी कृपा है, तब कामदेवका मेरे ऊपर क्या प्रभाव हो सकता है । ऐसा कहकर भगवान्के चरणोंमें मस्तक झुकाकर इच्छानुसार विचरनेवाले नारदमुनि वहाँसे चले गये ॥ ५४-५५ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथमखण्डे
सृष्ट्युपाख्याने नारदतपोवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके सृष्टिखण्डमें नारदतपोवर्णन नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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