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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टीखण्डे

नवमोऽध्यायः ॥

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शिवतत्त्ववर्णनम्
उमासहित भगवान् शिवका प्राकट्य, उनके द्वारा अपने स्वरूपका विवेचन तथा ब्रह्मा आदि तीनों देवताओंकी एकताका प्रतिपादन


ब्रह्मोवाच
अथाकर्ण्य नुतिं विष्णुकृतां स्वस्य महेश्वरः ।
प्रादुर्बभूव सुप्रीतःसवामं करुणानिधिः ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] भगवान् विष्णुके द्वारा की हुई अपनी स्तुति सुनकर करुणानिधि महेश्वर प्रसन्न हुए और उमादेवीके साथ सहसा वहाँ प्रकट हो गये ॥ १ ॥

पञ्चवक्त्रस्त्रिनयनो भालचन्द्रो जटाधरः ।
गौरवर्णो विशालाक्षो भस्मोद्धूलितविग्रहः ॥ २ ॥
[उस समय] उनके पाँच मुख और प्रत्येक मुखमें तीन-तीन नेत्र शोभा पाते थे । भालदेशमें चन्द्रमाका मुकुट सुशोभित था । सिरपर जटा धारण किये, गौरवर्ण, विशाल नेत्रवाले शिवने अपने सम्पूर्ण अंगोंमें विभूति लगा रखी थी ॥ २ ॥

दशबाहुर्नीलगलः सर्वाभरणभूषितः ।
सर्वाङ्‌गसुन्दरो भस्मत्रिपुण्ड्राङ्‌कितमस्तकः ॥ ३ ॥
उनकी दस भुजाएँ थीं । उनके कण्ठमें नीला चिह था । वे समस्त आभूषणोंसे विभूषित थे । उन सर्वागसुन्दर शिवके मस्तक भस्ममय त्रिपुण्ड्रसे अंकित थे ॥ ३ ॥

तं दृष्ट्‍वा तादृशं देवं सवामं परमेश्वरम् ।
तुष्टाव पुनरिष्टाभिर्वाग्भिर्विष्णुर्मया सह ॥ ४ ॥
ऐसे परमेश्वर महादेवजीको भगवती उमाके साथ उपस्थित देखकर भगवान् विष्णुने मेरे साथ पुनः प्रिय वचनोंद्वारा उनकी स्तुति की ॥ ४ ॥

निगमं श्वासरूपेण ददौ तस्मै ततो हरः ।
विष्णवे च प्रसन्नात्मा महेशः करुणाकरः ॥ ५ ॥
तब करुणाकर भगवान् महेश्वर शिवने प्रसन्नचित्त होकर उन श्रीविष्णुदेवको श्वासरूपसे वेदका उपदेश दिया ॥ ५ ॥

ततो ज्ञानमदात्तस्मै रहस्यं परमात्मने ।
परमात्मा पुनर्मह्यं दत्तवान्कृपया मुने ॥ ६ ॥
हे मुने ! उसके बाद शिवने परमात्मा श्रीहरिको गुह्य ज्ञान प्रदान किया । फिर उन परमात्माने कृपा करके मुझे भी वह ज्ञान दिया ॥ ६ ॥

सम्प्राप्य निगमं विष्णुः पप्रच्छ पुनरेव तम् ।
कृतार्थःसाञ्जलिर्नत्वा मया सह महेश्वरम् ॥ ७ ॥
वेदका ज्ञान प्राप्तकर कृतार्थ हुए भगवान् विष्णुने मेरे साथ हाथ जोड़कर महेश्वरको नमस्कार करके पुनः उनसे पूछा ॥ ७ ॥

विष्णुरुवाच
कथं च तुष्यसे देव मया पूज्यः कथं प्रभो ।
कथं ध्यानं प्रकर्तव्यं कथं व्रजसि वश्यताम् । ८ ॥
विष्णुजी बोले-हे देव ! आप कैसे प्रसन्न होते हैं ? हे प्रभो ! मैं आपकी पूजा किस प्रकार करूं ? आपका ध्यान किस प्रकारसे किया जाय और आप किस विधिसे वशमें हो जाते हैं ? ॥ ८ ॥

किं कर्तव्यं महादेव ह्यावाभ्यां तव शासनात् ।
सदा सदाज्ञापय नौ प्रीत्यर्थं कुरु शङ्‌कर ॥ ९ ॥
हे महादेव ! आपकी आज्ञासे हम लोगोंको क्या करना चाहिये ? हे शंकर !कौन कार्य अच्छा है और कौन बुरा है, इस विवेकके लिये हम दोनोंके ऊपर कल्याणहेतु आप प्रसन्न हों और उचित बतानेकी कृपा करें ॥ ९ ॥

एतत्सर्वं महाराज कृपां कृत्वाऽवयोः प्रभो ।
कथनीयं तथान्यच्च विज्ञाय स्वानुगौ शिव ॥ १० ॥
हे महाराज ! हे प्रभो ! हे शिव ! हम दोनोंपर कृपा करके यह सब एवं अन्य जो कहनेयोग्य है, वह सब हम दोनोंको अपना अनुचर समझकर बतायें ॥ १० ॥

ब्रह्मोवाच
इत्येतद्वचनं श्रुत्वा प्रसन्नो भगवान्हरः ।
उवाच वचनं प्रीत्या सुप्रसन्नः कृपानिधिः ॥ ११ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे मुने !] [श्रीहरिकी] यह बात सुनकर प्रसन्न हुए कृपानिधान भगवान् शिव प्रीतिपूर्वक यह बात कहने लगे ॥ ११ ॥

श्रीशिव उवाच
भक्त्या च भवतोर्नूनं प्रीतोऽहं सुरसत्तमौ ।
पश्यतं मां महादेवं भयं सर्वं विमुञ्चताम् ॥ १२ ॥
श्रीशिवजी बोले-हे सुरश्रेष्ठगण ! मैं आप दोनोंकी भक्तिसे निश्चय ही बहुत प्रसन्न हूँ । आपलोग मुझ महादेवकी ओर देखते हुए सभी भयोंको छोड़ दीजिये ॥ १२ ॥

मम लिङ्‌गं सदा पूज्य ध्येयं चैतादृशं मम ।
इदानीं दृश्यते यद्वत्तथा कार्यं प्रयत्नतः ॥ १३ ॥
मेरा यह लिंग सदा पूज्य है, सदा ही ध्येय है । इस समय आपलोगोंको मेरा स्वरूप जैसा दिखायी देता है, वैसे ही लिंगरूपका प्रयत्नपूर्वक पूजन-चिन्तन करना चाहिये ॥ १३ ॥

पूजितो लिङ्‌गरूपेण प्रसन्नो विविधं फलम् ।
दास्यामि सर्वलोकेभ्यो मनोभीष्टान्यनेकशः ॥ १४ ॥
यदा दुःखं भवेत्तत्र युवयोः सुरसत्तमौ ।
पूजिते मम लिङ्‌गे च तदा स्याद्दुःखनाशनम् ॥ १५ ॥
लिंगरूपसे पूजा गया मैं प्रसन्न होकर सभी लोगोंको अनेक प्रकारके फल तो दूंगा ही, साथ ही मनकी अन्य अनेक अभिलाषाएँ भी पूरी करूँगा । हे देवश्रेष्ठ ! जब भी आपलोगोंको कष्ट हो, तब मेरे लिंगकी पूजा करें, जिससे आपलोगोंके कष्टका नाश हो जायगा ॥ १४-१५ ॥

युवां प्रसूतौ प्रकृतेर्मदीयाया महाबलौ ।
सव्यापसव्यागात्राभ्यां मम सर्वेश्वरस्य हि ॥ १६ ॥
आप दोनों महाबली देवता मेरी स्वरूपभूत प्रकृतिसे और मुझ सर्वेश्वरके दायें और वायें अंगोंसे प्रकट हुए हैं ॥ १६ ॥

अयं मे दक्षिणात्पार्श्वाद्‌ब्रह्मा लोकपितामहः ।
वामपार्श्वाच्च विष्णुस्त्वं समुत्पन्नः परात्मनः ॥ १७ ॥
ये लोकपितामह ब्रह्मा मुझ परमात्माके दाहिने पावसे उत्पन्न हुए हैं और आप विष्णु वाम पार्श्वसे प्रकट हुए हैं ॥ १७ ॥

प्रीतोहं युवयोः सम्यग्वरं दद्यां यथेप्सितम् ।
मयि भक्तिर्दृढा भूयाद्युवयोरप्यनुज्ञया ॥ १८ ॥
मैं आप दोनोंपर भलीभाँति प्रसन्न हूँ और मनोवांछित वर दे रहा हूँ । मेरी आज्ञासे आप दोनोंकी मुझमें सुदृढ़ भक्ति हो ॥ १८ ॥

पार्थिवीं चैव मन्मूर्तिं विधाय कुरुतं युवाम् ।
सेवां च विविधां प्राज्ञौ कृत्वा सुखमवाप्स्यथ ॥ १९ ॥
हे विद्वानो ! मेरी पार्थिव मूर्ति बनाकर आप दोनों उसकी अनेक प्रकारसे पूजा करें । ऐसा करनेपर आपलोगोंको सुख प्राप्त होगा ॥ १९ ॥

ब्रह्मन्सृष्टिं कुरु त्वं हि मदाज्ञापरिपालकः ।
वत्स वत्स हरे त्वं च पालयैवं चराचरम् ॥ २० ॥
हे ब्रह्मन् ! आप मेरी आज्ञाका पालन करते हुए जगत्की सृष्टि कीजिये और हे विष्णो ! आप इस चराचर जगत्का पालन कीजिये ॥ २० ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा नौ प्रभुस्ताभ्यां पूजाविधिमदाच्छुभाम् ।
येनैव पूजितः शम्भुः फलं यच्छत्यनेकशः ॥ २१ ॥
ब्रह्माजी बोले-हम दोनोंसे ऐसा कहकर भगवान् शंकरने हमें पूजाकी उत्तम विधि प्रदान की, जिसके अनुसार पूजित होनेपर शिव अनेक प्रकारके फल देते हैं ॥ २१ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचश्शम्भोर्मया च सहितो हरिः ।
प्रत्युवाच महेशानं प्रणिपत्य कृताञ्जलिः ॥ २२ ॥
शम्भुकी यह बात सुनकर श्रीहरि मेरे साथ महेश्वरको हाथ जोड़कर प्रणाम करके कहने लगे- ॥ २२ ॥

विष्णुरुवाच
यदि प्रीतिः समुत्पन्ना यदि देयो वरश्च नौ ।
भक्तिर्भवतु नौ नित्यं त्वयि चाव्यभिचारिणी ॥ २३ ॥
विष्णु बोले-[हे प्रभो !] यदि हमारे प्रति आपमें प्रीति उत्पन्न हुई है और यदि आप हमें वर देना चाहते हैं, तो हम यही वर माँगते हैं कि आपमें हम दोनोंकी सदा अविचल भक्ति बनी रहे ॥ २३ ॥

त्वमप्यवतरस्वाद्य लीलया निर्गुणोपि हि ।
सहायं कुरु नौ तात त्वं परः परमेश्वरः ॥ २४ ॥
आप निर्गुण हैं, फिर भी अपनी लीलासे आप अवतार धारण कीजिये । हे तात ! आप परमेश्वर हैं, हमलोगोंकी सहायता करें ॥ २४ ॥

आवयोर्देवदेवेश विवादमपि शोभनम् ।
इहागतो भवान्यस्माद्विवादशमनाय नौ ॥ २५ ॥
हे देवदेवेश्वर ! हम दोनोंका विवाद शुभदायक रहा, जिसके कारण आप हम दोनोंके विवादको शान्त करनेके लिये यहाँ प्रकट हुए ॥ २५ ॥

ब्रह्मोवाच
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा पुनः प्राह हरो हरिम् ।
प्रणिपत्य स्थितं मूर्ध्ना कृताञ्जलिपुटः स्वयम् ॥ २६ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे मुने !] श्रीहरिकी यह बात सुनकर भगवान् हरने मस्तक झुकाकर प्रणाम करके स्थित हुए उन श्रीहरिसे पुन: कहा । वे विष्णु स्वयं हाथ जोड़कर खड़े रहे ॥ २६ ॥

श्रीमहेश उवाच
प्रलयस्थितिसर्गाणां कर्ताहं सगुणोऽगुणः ।
परब्रह्म निर्विकारी सच्चिदानन्दलक्षणः ॥ २७ ॥
श्रीमहेश बोले-मैं सृष्टि, पालन और संहारका कर्ता, सगुण, निर्गुण, निर्विकार, सच्चिदानन्दलक्षणवाला तथा परब्रह्म परमात्मा हूँ ॥ २७ ॥

त्रिधा भिन्नो ह्यहं विष्णो ब्रह्मविष्णुहराख्यया ।
सर्गरक्षालयगुणैर्निष्कलोहं सदा हरे ॥ २८ ॥
हे विष्णो ! सृष्टि, रक्षा और प्रलयरूप गुणोंके भेदसे मैं ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रका नाम धारण करके तीन स्वरूपोंमें विभक्त हुआ हूँ । हे हरे ! मैं वास्तवमें सदा निष्कल हूँ ॥ २८ ॥

स्तुतोऽहं यत्त्वया विष्णो ब्रह्मणा मेऽवतारणे ।
प्रार्थनां तां करिष्यामि सत्यां यद्‌भक्तवत्सलः ॥ २९ ॥
हे विष्णो ! आपने और ब्रह्माने मेरे अवतारके निमित्त जो मेरी स्तुति की है, उस प्रार्थनाको मैं अवश्य सत्य करूँगा; क्योंकि मैं भक्तवत्सल हूँ ॥ २९ ॥

मद्रूपं परमं ब्रह्मन्नीदृशं भवदङ्‌गतः ।
प्रकटीभविता लोके नाम्ना रुद्रः प्रकीर्तितः ॥ ३० ॥
ब्रह्मन् ! मेरा ऐसा ही परम उत्कृष्ट रूप तुम्हारे शरीरसे इस लोकमें प्रकट होगा, जो नामसे 'रुद्र' कहलायेगा ॥ ३० ॥

मदंशात्तस्य सामर्थ्यं न्यूनं नैव भविष्यति ।
योऽहं सोऽहं न भेदोस्ति पूजाविधिविधानतः ॥ ३१ ॥
मेरे अंशसे प्रकट हुए रुद्रकी सामर्थ्य मुझसे कम नहीं होगी । जो मैं हूँ, वही ये रुद्र हैं । पूजाके विधिविधानको दृष्टिसे भी मुझमें और उनमें कोई अन्तर नहीं है ॥ ३१ ॥

यथा च ज्योतिषःसङ्‌गाज्जलादेः स्पर्शता न वै ।
तथा ममागुणस्यापि संयोगाद्‌बन्धनं न हि ॥ ३२ ॥
जैसे जल आदिके साथ ज्योतिर्मय बिम्बका (प्रतिबिम्बके रूपमें) सम्पर्क होनेपर भी बिम्बमें स्पर्शदोष नहीं लगता, उसी प्रकार मुझ निर्गुण परमात्माको भी किसीके संयोगसे बन्धन नहीं प्राप्त होता ॥ ३२ ॥

शिवरूपं ममैतच्च रुद्रोऽपि शिववत्तदा ।
न तत्र परभेदो वै कर्तव्यश्च महामुने ॥ ३३ ॥
यह मेरा शिवरूप है । जब रुद्र प्रकट होंगे, तब वे भी शिवके ही तुल्य होंगे । हे महामुने ! [मुझमें और] उनमें परस्पर भेद नहीं करना चाहिये । ३३ ॥

वस्तुतो ह्येकरूपं हि द्विधा भिन्नं जगत्युत ।
अतो भेदा न विज्ञेयः शिवे रुद्रे कदाचन ॥ ३४ ॥
वास्तवमें एक ही रूप सब जगत्में [व्यवहारनिर्वाहके लिये] दो रूपोंमें विभक्त हो गया है । अतः शिव और रुद्रमें कभी भी भेद नहीं मानना चाहिये ॥ ३४ ॥

सुवर्णस्य तथैकस्य वस्तुत्वं नैव गच्छति ।
अलङ्‌कृतिकृते देव नामभेदो न वस्तुतः ॥ ३५ ॥
[शिव और रुद्रमें भेद वैसे ही नहीं है] जैसे एक सुवर्णखण्डमें समरूपसे एक ही वस्तुतत्त्व विद्यमान रहता है, किंतु उसीका आभूषण बना देनेपर नामभेद आ जाता है । वस्तुतत्त्वकी दृष्टिसे उसमें भेद नहीं होता ॥ ३५ ॥

तथैकस्या मृदो भेदो नानापात्रे न वस्तुतः ।
कारणस्यैव कार्ये च सन्निधानं निदर्शनम् ॥ ३६ ॥
ज्ञातव्यं बुधवर्यैश्च निर्मलज्ञानिभिः सुरैः ।
एवं ज्ञात्वा भवभ्यां तु न दृश्यं भेदकारणम् ॥ ३७ ॥
जिस प्रकार एक ही मिट्टीसे बने हुए नाना प्रकारके पात्रोंमें नाम और रूपका तो भेद आ जाता है, किंतु मिट्टीका भेद नहीं होता; क्योंकि कार्यमें कारणकी ही विद्यमानता दिखायी देती है । हे देवो ! निर्मल ज्ञानवाले श्रेष्ठ विद्वानोंको यह जान लेना चाहिये । ऐसा समझकर आपलोग भी शिव और रुद्रमें भेदबुद्धिवाली दृष्टिसे न देखें ॥ ३६-३७ ॥

वस्तुवत् सर्वदृश्यं च शिवरूपम् मतम्मम ।
अहं भवानजश्चैव रुद्रो योऽयं भविष्यति ॥ ३८ ॥
एकरूपा न भेदस्तु भेदे वै बन्धनं भवेत् ।
तथापि च मदीयं हि शिवरूपं सनातनम् ॥ ३९ ॥
मूलीभूतं सदोक्तं च सत्यज्ञानमनन्तकम् ।
एवं ज्ञात्वा सदा ध्येयं मनसा चैव तत्त्वतः ॥ ४० ॥
वास्तवमें सारा दृश्य ही मेरा शिवरूप है-ऐसा मेरा मत है । मैं, आप, ब्रह्मा तथा जो ये रुद्र प्रकट होंगे, वे सब-के-सब एकरूप हैं, इनमें भेद नहीं है । भेद माननेपर अवश्य ही बन्धन होगा । तथापि मेरे शिवरूपको ही सर्वदा सनातन, मूलकारण, सत्यज्ञानमय तथा अनन्त कहा गया है-ऐसा जानकर आपलोगोंको सदा मनसे मेरे यथार्थ स्वरूपका ध्यान करना चाहिये ॥ ३८-४० ॥

श्रूयतां चैव भो ब्रह्मन्यद्‌गोप्यं कथ्यते मया ।
भवन्तौ प्रकृतेर्यातौ नायं वै प्रकृतेः पुनः ॥ ४१ ॥
हे ब्रह्मन् ! सुनिये, मैं आपको एक गोपनीय बात बता रहा हूँ । आप दोनों प्रकृतिसे उत्पन्न हुए हैं, किंतु ये रुद्र प्रकृतिसे उत्पन्न नहीं हैं ॥ ४१ ॥

मदाज्ञा जायते तत्र ब्रह्मणो भ्रुकुटेरहम् ।
गुणेष्वपि यथा प्रोक्तस्तामसः प्रकृतो हरः ॥ ४२ ॥
वैकारिकश्च विज्ञेयो योऽहङ्‌कार उदाहृतः ।
नामतो वस्तुतो नैव तामसः परिचक्ष्यते ॥ ४३ ॥
मैं अपनी इच्छासे स्वयं ब्रह्माजीकी (कृटिसे प्रकट हुआ हूँ । गुणों में भी मेरा प्राकटय कहा गया है । जैसा कि लोगोंने कहा है कि हर तामस प्रकृतिके हैं । वास्तवमें उस रूपमें अहंकारका वर्णन हुआ है । उस अहंकारको केवल तामस ही नहीं, वैकारिक [सात्त्विक] भी समझना चाहिये; [सात्त्विक देवगण वैकारिक अहंकारकी ही सृष्टि हैं । यह तामस और सात्त्विक आदि भेद केवल नाममात्रका है, वस्तुत: नहीं है । वास्तवमें हरको तामस नहीं कहा जा सकता ॥ ४२-४३ ॥

एतस्मात्कारणाद्‌ब्रह्मन्करणीयमिदं त्वया ।
सृष्टिकर्ता भव ब्रह्मन्सृष्टेश्च पालको हरिः ॥ ४४ ॥
हे ब्रह्मन् ! इस कारणसे आपको ऐसा करना चाहिये । हे ब्रह्मन् ! आप इस सृष्टि के निर्माता बनें और श्रीहरि इसका पालन करनेवाले हों ॥ ४४ ॥

मदीयश्च तथांऽशो यो लयकर्ता भविष्यति ।
इयं या प्रकृतिर्देवी ह्युमाख्या परमेश्वरी ॥ ४५ ॥
तस्यास्तु शक्तिर्वाग्देवी ब्रह्माणं सा भजिष्यति ।
अन्या शक्तिः पुनस्तत्र प्रकृतेः सम्भविष्यति ॥ ४६ ॥
समाश्रयिष्यति विष्णुं लक्ष्मीरूपेण सा तदा ।
पुनश्च काली नाम्ना सा मदंशं प्राप्स्यति ध्रुवम् ॥ ४७ ॥
ज्योतीरूपेण सा तत्र कार्यार्थे सम्भविष्यति ।
एवं देव्यास्तथा प्रोक्ताः शक्तयः परमाः शुभाः ॥ ४८ ॥
मेरे अंशसे प्रकट होनेवाले जो रुद्र हैं, वे इसका प्रलय करनेवाले होंगे । ये जो उमा नामसे विख्यात परमेश्वरी प्रकृति देवी हैं, इन्हींकी शक्तिभूता बाग्देवी ब्रह्माजीका सेवन करेंगी । पुनः इन प्रकृति देवीसे वहाँ जो दूसरी शक्ति प्रकट होंगी, वे लक्ष्मीरूपसे भगवान् विष्णुका आश्रय लेंगी । तदनन्तर पुन: काली नामसे जो तीसरी शक्ति प्रकट होंगी, वे निश्चय ही मेरे अंशभूत रुद्रदेवको प्राप्त होंगी । वे कार्यकी सिद्धिके लिये वहाँ ज्योतिरूपसे प्रकट होंगी । इस प्रकार मैंने देवीकी शुभस्वरूपा पराशक्तियोंको बता दिया ॥ ४५-४८ ॥

सृष्टिस्थितिलयानां हि कार्यं तासां क्रमाद्ध्रुवम् ।
एतस्याः प्रकृतेरंशा मत्प्रियायाः सुरौत्तम ॥ ४९ ॥
उनका कार्य क्रमशः सृष्टि, पालन और संहारका सम्पादन ही है । हे सुरश्रेष्ठ ! ये सब की सब मेरी प्रिया प्रकृति देवीकी अंशभूता है ॥ ४९ ॥

त्वं च लक्ष्मीमुपाश्रित्य कार्यं कर्तुमिहार्हसि ।
ब्रह्मंस्त्वं च गिरां देवीं प्रकृत्यंशामवाप्य च ॥ ५० ॥
सृष्टिकार्यं हृदा कर्तुं मन्निदेशादिहार्हसि ।
अहं कालीं समाश्रित्य मत्प्रियांशां परात्पराम् ॥ ५१ ॥
रुद्ररूपेण प्रलयं करिष्ये कार्यमुत्तमम् ।
चतुर्वर्णमयं लोकं तत्सर्वैराश्रमैर्ध्रुवम् ॥ ५२ ॥
तदन्यैर्विविधैः कार्यैः कृत्वा सुखमवाप्स्यथः ।
हे हरे ! आप लक्ष्मीका सहारा लेकर कार्य कीजिये । हे ब्रह्मन् ! आप प्रकृतिकी अंशभूता वाग्देवीको प्राप्तकर मेरी आज्ञाके अनुसार मनसे सृष्टिकार्यका संचालन करें और मैं अपनी प्रियाकी अंशभूता परात्पर कालीका आश्रय लेकर रुद्ररूपसे प्रलयसम्बन्धी उत्तम कार्य करूँगा । आप सब लोग अवश्य ही सम्पूर्ण आश्रमों तथा उनसे भिन्न अन्य विविध कार्यों द्वारा चारों वर्षों से भरे हुए लोककी सृष्टि एवं रक्षा आदि करके सुख पायेंगे ॥ ५०-५२ १/२ ॥

ज्ञानविज्ञानसंयुक्तो लोकानां हितकारकः ॥ ५३ ॥
मुक्तिदोऽत्र भवानद्य भव लोके मदाज्ञया ।
मद्दर्शने फलं यद्वत्तदेव तव दर्शने ॥ ५४ ॥
इति दत्तो वरस्तेऽद्य सत्यं सत्यं न संशयः ।
ममैव हृदये विष्णुर्विष्णोश्च हृदये ह्यहम् ॥ ५५ ॥
[हे हरे !] आप ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न तथा सम्पूर्ण लोकोंके हितैषी हैं । अतः अब आप मेरी आज्ञासे जगत्में [सब लोगोंके लिये] मुक्तिदाता बनें । मेरा दर्शन होनेपर जो फल प्राप्त होता है, वही फल आपका दर्शन होनेपर भी प्राप्त होगा । मैंने आज आपको यह वर दे दिया, यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है । मेरे हृदयमें विष्णु हैं और विष्णुके हृदयमें मैं हूँ ॥ ५३-५५ ॥

उभयोरन्तरं यो वै न जानाति मनो मम ।
वामाङ्‌गजो मम हरिर्दक्षिणाङ्‌गोद्‌भवो विधिः ॥ ५६ ॥
महाप्रलयकृद्‌रुद्रो विश्वात्मा हृदयोद्‌भवः ।
त्रिधा भिन्नो ह्यहं विष्णो ब्रह्मविष्णुभवाख्यया ॥ ५७ ॥
सर्गरक्षालयकरस्त्रिगुणै रजआदिभिः ।
जो इन दोनोंमें अन्तर नहीं समझता, वही मेरा मन है अर्थात् वही मुझे प्रिय है । श्रीहरि मेरे बायें अंगसे प्रकट हुए हैं, ब्रह्मा दाहिने अंगसे उत्पन्न हुए हैं और महाप्रलयकारी विश्वात्मा रुद्र मेरे हृदयसे प्रादुर्भूत हुए हैं । हे विष्णो ! मैं ही ब्रह्मा, विष्णु और भव नामसे तीन रूपोंमें विभक्त हो गया हूँ । मैं रज आदि तीनों गुणोंके द्वारा सृष्टि, पालन तथा संहार करता हूँ ॥ ५६-५७ १/२ ॥

गुणभिन्नः शिवः साक्षात्प्रकृते पुरुषात्परः ॥ ५८ ॥
परं ब्रह्माद्वयो नित्योऽनन्तः पूर्णो निरञ्जनः ।
अन्तस्तमो बहिःसत्त्वस्त्रिजगत्पालको हरिः ॥ ५९ ॥
अन्तःसत्त्वस्तमोबाह्यस्त्रिजगल्लयकृद्धरः ॥ ६० ॥
अन्तर्बहिरजश्चैव त्रिजगत्सृष्टिकृद्विधिः ।
एवं गुणास्त्रिदेवेषु गुणभिन्नः शिवः स्मृतः ॥ ६१ ॥
विष्णो सृष्टिकरं प्रीत्या पालयैनं पितामहम् ।
शिव गुणोंसे भिन्न हैं और वे साक्षात् प्रकृति तथा पुरुषसे भी परे हैं । वे अद्वितीय, नित्य, अनन्त, पूर्ण एवं निरंजन परब्रह्म हैं । तीनों लोकोंका पालन क रनेवाले श्रीहरि भीतर तमोगुण और बाहर सत्त्वगुण धारण करते हैं । त्रिलोकीका संहार करनेवाले रुद्रदेव भीतर सत्त्वगुण और बाहर तमोगुण धारण करते हैं तथा त्रिभुवनकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजी बाहर और भीतरसे भी रजोगुणी ही हैं । इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र इन तीनों देवताओंमें गुण हैं, परंतु शिव गुणातीत माने गये हैं ॥ ५८-६१ १/२ ॥

सम्पूज्यस्त्रिषु लोकेषु भविष्यसि मदाज्ञया ॥ ६२ ॥
हे विष्णो ! आप मेरी आज्ञासे इन सृष्टिकर्ता पितामहका प्रसन्नतापूर्वक पालन कीजिये । ऐसा करनेसे आप तीनों लोकोंमें पूजनीय होंगे ॥ ६२ ॥

तव सेव्यो विधेश्चापि रुद्र एव भविष्यति ।
शिवपूर्णावतारो हि त्रिजगल्लयकारकः ॥ ६३ ॥
ये रुद्र आपके और ब्रह्माके सेव्य होंगे; क्योंकि त्रैलोक्यके लयका ये रुद्र शिवके पूर्णावतार हैं ॥ ६३ ॥

पाद्मे भविष्यति सुतः कल्पे तव पितामहः ।
तदा द्रक्ष्यसि मां चैव सोऽपि द्रक्ष्यति पद्मजः ॥ ६४ ॥
पाद्यकल्पमें पितामह आपके पुत्र होंगे । उस समय आप मुझे देखेंगे और वे ब्रह्मा भी मुझे देखेंगे ॥ ६४ ॥

एवमुक्त्वा महेशानः कृपां कृत्वाऽतुलां हरः ।
पुनः प्रोवाच सुप्रीत्या विष्णुं सर्वेश्वरः प्रभुः ॥ ६५ ॥
ऐसा कहकर महेश, हर, सर्वेश्वर, प्रभु अतुलनीय कृपाकर पुनः प्रेमपूर्वक विष्णुसे कहने लगे- ॥ ६५ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथमखण्डे
सृष्ट्युपाख्याने शिवतत्त्ववर्णनो नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके प्रथम खण्डके सृष्टि-उपाख्यानमें शिवतत्त्ववर्णन नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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