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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टीखण्डे
दशमोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] परमशिवतत्त्ववर्णनम्
श्रीहरिको सृष्टिकी रक्षाका भार एवं भोग-मोक्ष-दानका अधिकार देकर भगवान् शिवका अन्तर्धान होना परमेश्वर उवाच
अन्यच्छृणु हरे विष्णो शासनं मम सुव्रत । सदा सर्वेषु लोकेषु मान्यः पूज्यो भविष्यसि ॥ १ ॥ परमेश्वर शिवजी बोले-उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हे हरे ! हे विष्णो ! अब आप मेरी दूसरी आज्ञा सुनें । उसका पालन करनेसे आप सदा समस्त लोकोंमें माननीय और पूजनीय होंगे ॥ १ ॥ ब्रह्मणा निर्मिते लोके यदा दुःखं प्रजायते ।
तदा त्वं सर्वदुःखानां नाशाय तत्परो भव ॥ २ ॥ ब्रह्माजीके द्वारा रचे गये लोकमें जब कोई संकट उत्पन्न हो, तब आप उन सम्पूर्ण दुःखोंका नाश करनेके लिये सदा तत्पर रहना ॥ २ ॥ सहायं ते करिष्यामि सर्वकार्ये च दुःसहे ।
तव शत्रून्हनिष्यामि दुःसाध्यान् परमोत्कटान् ॥ ३ ॥ मैं सम्पूर्ण दुस्सह कार्योंमें आपकी सहायता करूँगा । आपके दुर्जेय और अत्यन्त उत्कट शत्रुओंको मैं मार गिराऊँगा ॥ ३ ॥ विविधानवतारांश्च गृहीत्वा कीर्तिमुत्तमाम् ।
विस्तारय हरे लोके तारणाय परो भव । हे हरे ! आप नाना प्रकारके अवतार धारण करके लोकमें अपनी उत्तम कीर्तिका विस्तार कीजिये और संसारमें प्राणियोंके उद्धारके लिये तत्पर रहिये ॥ ४ ॥ गुणरूपो ह्ययं रुद्रो ह्यनेन वपुषा सदा ॥ ४ ॥
कार्यं करिष्ये लोकानां तवाशक्यं न संशयः ॥ ५ ॥ गुणरूप धारणकर मैं रुद्र निश्चित ही अपने इस शरीरसे संसारके उन कार्योको करूँगा, जो आपसे सम्भव नहीं हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५ ॥ रुद्रध्येयो भवांश्चैव भवद्ध्येयो हरस्तथा ।
युवयोरन्तरं नैव तव रुद्रस्य किञ्चन ॥ ६ ॥ आप रुद्रके ध्येय हैं और रुद्र आपके ध्येय हैं । आप दोनोंमें और आप तथा रुद्रमें कुछ भी अन्तर नहीं है ॥ ६ ॥ वस्तुतश्चापि चैकत्वं वरतोऽपि तथैव च ।
लीलयापि महाविष्णो सत्यं सत्यं न संशयः ॥ ७ ॥ हे महाविष्णो ! लीलासे भेद होनेपर भी वस्तुतः आपलोग एक ही तत्त्व हैं । यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ ७ ॥ रुद्रभक्तो नरो यस्तु तव निन्दां करिष्यति ।
तस्य पुण्यं च निखिलं द्रुतं भस्म भविष्यति ॥ ८ ॥ जो मनुष्य रुद्रका भक्त होकर आपकी निन्दा करेगा, उसका सारा पुण्य तत्काल भस्म हो जायगा ॥ ८ ॥ नरके पतनं तस्य त्वद्द्वेषात्पुरुषोत्तम ।
मदाज्ञया भवेद्विष्णो सत्यं सत्यं न संशयः ॥ ९ ॥ हे पुरुषोत्तम विष्णो ! आपसे द्वेष करनेके कारण मेरी आज्ञासे उसको नरकमें गिरना पड़ेगा । यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ ९ ॥ लोकेऽस्मिन्मुक्तिदो नॄणां भुक्तिदश्च विशेषतः ।
ध्येयः पूज्यश्च भक्तानां निग्रहानुग्रहौ कुरु ॥ १० ॥ आप इस लोकमें मनुष्योंके लिये विशेषतः भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले और भक्तोंके ध्येय तथा पूज्य होकर प्राणियोंका निग्रह और अनुग्रह कीजिये ॥ १० ॥ इत्युक्त्वा मां च धातारं हस्ते धृत्वा स्वयं हरिम् ।
कथयामास दुःखेषु सहायो भव सर्वदा ॥ ११ ॥ ऐसा कहकर भगवान् शिवने मेरा हाथ पकड़ लिया और श्रीविष्णुको सौंपकर उनसे कहा-आप संकटके समय सदा इनकी सहायता करते रहें ॥ ११ ॥ सर्वाध्यक्षश्च सर्वेषु भुक्तिमुक्तिप्रदायकः ।
भव त्वं सर्वथा श्रेष्ठः सर्वकामप्रसाधकः ॥ १२ ॥ सबके अध्यक्ष होकर आप सभीको भक्ति और मुक्ति प्रदान करें तथा सर्वदा समस्त कामनाओंके साधक एवं सर्वश्रेष्ठ बने रहें ॥ १२ ॥ सर्वेषां प्राणरूपश्च भव त्वं च ममाज्ञया ।
सङ्कटे भजनीयो हि स रुद्रो मत्तनुर्हरे ॥ १३ ॥ हे हरे ! यह मेरी आज्ञा है कि आप सबके प्राणस्वरूप होइये और संकटकाल आनेपर निश्चय ही मेरे शरीररूप उस रुद्रका भजन कीजिये ॥ १३ ॥ त्वां यः समाश्रितो नूनं मामेव स समाश्रितः ।
अन्तरं यश्च जानाति निरये पतति ध्रुवम् ॥ १४ ॥ जो आपकी शरणमें आ गया, वह निश्चय ही मेरी शरणमें आ गया । जो मुझमें और आपमें अन्तर समझता है, वह अवश्य ही नरकमें गिरता है ॥ १४ ॥ आयुर्बलं शृणुष्वाद्य त्रिदेवानां विशेषतः ।
सन्देहोऽत्र न कर्त्तव्यो ब्रह्मविष्णुहरात्मनाम् ॥ १५ ॥ अब आप तीनों देवताओंके आयुबलको विशेषरूपसे सुनिये । ब्रह्मा, विष्णु और शिवकी एकतामें [किसी प्रकारका] सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ १५ ॥ चतुर्युगसहस्राणि ब्रह्मणो दिनमुच्यते ।
रात्रिश्च तावती तस्य मानमेतत्क्रमेण ह ॥ १६ ॥ एक हजार चतुर्युगको ब्रह्माका एक दिन कहा जाता है और उतनी ही उनकी रात्रि होती है । इस प्रकार क्रमसे यह ब्रह्माके एक दिन और एक रात्रिका परिमाण है ॥ १६ ॥ तेषां त्रिंशद्दिनेर्मासो द्वादशैस्तैश्च वत्सरः ।
शतवर्षप्रमाणेन ब्रह्मायुः परिकीर्तितम् ॥ १७ ॥ इस प्रकारके तीस दिनोंका एक मास और बारह मासोंका एक वर्ष होता है । सौ वर्षके परिमाणको ब्रह्माकी आयु कहा गया है ॥ १७ ॥ ब्रह्मणो वर्षमात्रेण दिनं वैष्णवमुच्यते ।
सोऽपि वर्षशतं यावदात्ममानेन जीवति ॥ १८ ॥ ब्रह्माके एक वर्षके बराबर विष्णुका एक दिन कहा जाता है । वे विष्णु भी अपने सौ वर्षके प्रमाणतक जीवित रहते हैं ॥ १८ ॥ वैष्णवेन तु वर्षेण दिनं रौद्रं भवेद्ध्रुवम् ।
हरो वर्षशते याते नररूपेण संस्थितः ॥ १९ ॥ विष्णुके एक वर्षके बरावर रुद्रका एक दिन होता है । भगवान् रुद्र भी उस मानके अनुसार नररूपमें सौ वर्षतक स्थित रहते हैं ॥ १९ ॥ यावदुच्छ्वसितं वक्त्रे सदाशिवसमुद्भवम् ।
पश्चाच्छक्तिं समभ्येति यावन्निश्वसितं भवेत् ॥ २० ॥ निःश्वासोच्छ्वसितानां च सर्वेषामेव देहिनाम् । ब्रह्मविष्णुहराणां च गन्धर्वोरगरक्षसाम् ॥ २१ ॥ एकविंशसहस्राणि शतैः षड्भिः शतानि च । अहोरात्राणि चोक्तानि प्रमाणं सुरसत्तमौ ॥ २२ ॥ तदनन्तर शिवके मुखसे एक श्वास निकलता है और जबतक वह निकलता रहता है, तबतक वह शक्तिको प्राप्तकर पुन: जब निःश्वास लेते हैं, तबतक ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गन्धर्व, नाग और राक्षस आदि सभी देहधारियोंके नि:श्वास और उच्छ्वासको बाहर और भीतर ले जानेके क्रमकी संख्या हे सुरसत्तम ! दिन-रातमें मिलाकर इक्कीस हजारका सौ गुना एवं छ: सौ अर्थात् इक्कीस लाख छ: सौ कही गयी है ॥ २०-२२ ॥ षड्भिरुच्छवासनिश्वासैः पलमेकं प्रवर्तितम् ।
घटी षष्टिपला प्रोक्ता सा षष्ट्या च दिनं निशा ॥ २३ ॥ छ: उच्छ्वास और छ: निःश्वासका एक पल होता है । साठ पलोंकी एक घटी और साठ घटीप्रमाणको एक दिन और रात्रि कहते हैं ॥ २३ ॥ निश्वासोच्छ्वासितानां च परिसङ्ख्या न विद्यते ।
सदाशिवसमुत्थानमेतस्मात्सोऽक्षयः स्मृतः ॥ २४ ॥ सदाशिवके नि:श्वासों और उच्छ्वासोंकी गणना नहीं की जा सकती है । अत: शिवजी सदैव प्रबुद्ध और अक्षय हैं ॥ २४ ॥ इत्थं रूपं त्वया तावद्रक्षणीयं ममाज्ञया ।
तावत्सृष्टेश्च कार्यं वै कर्तव्यं विविधैर्गुणैः ॥ २५ ॥ मेरी आज्ञासे तुम्हें अपने विविध गुणोंके द्वारा सृष्टिके इस प्रकारके होनेवाले कार्योकी रक्षा करनी चाहिये ॥ २५ ॥ ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचः शम्भोर्मया च भगवान्हरिः । प्रणिपत्य च विश्वेशं प्राह मन्दतरं वशी ॥ २६ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे देवर्षेभगवान् शिवका यह वचन सुनकर सबको वशमें करनेवाले भगवान् विष्णु मेरे साथ विश्वनाथको प्रणाम करके मन्द स्वरमें उनसे कहने लगे- ॥ २६ ॥ विष्णुरुवाच
शङ्कर श्रूयतामेतत्कृपासिन्धो जगत्पते । सर्वमेतत्करिष्यामि भवदाज्ञावशानुगः ॥ २७ ॥ विष्णुजी बोले-हे शंकर ! हे करुणासिन्धो ! हे जगत्पते ! मेरी यह बात सुनिये । मैं आपकी आज्ञाके अधीन रहकर यह सब कुछ करूँगा ॥ २७ ॥ मम ध्येयःसदा त्वं च भविष्यसि न चान्यथा ।
भवतः सर्वसामर्थ्यं लब्धं चैव पुरा मया ॥ २८ ॥ आप ही मेरे सदा ध्येय होंगे, इसमें अन्यथा नहीं है । मैंने पूर्वकालमें भी आपसे समस्त सामर्थ्य प्राप्त किया था ॥ २८ ॥ क्षणमात्रमपि स्वामिंस्तव ध्यानं परं मम ।
चेतसो दूरतो नैव सङ्गच्छतु कदाचन ॥ २९ ॥ हे स्वामिन् ! क्षणमात्र भी आपका श्रेष्ठ ध्यान मेरे चित्तसे कभी दूर न हो ॥ २९ ॥ मम भक्तश्च यः स्वामिँस्तव निन्दा करिष्यति ।
तस्य वै निरये वासं प्रयच्छ नियतं ध्रुवम् ॥ ३० ॥ हे स्वामिन् ! मेरा जो भक्त आपकी निन्दा करे, उसे आप निश्चय ही नरकवास प्रदान करें ॥ ३० ॥ त्वद्भक्तो यो भवेत्स्वामिन्मम प्रियतरो हि सः ।
एवं वै यो विजानाति तस्य मुक्तिर्न दुर्लभा ॥ ३१ ॥ हे नाथ ! जो आपका भक्त है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है । जो ऐसा जानता है, उसके लिये मोक्ष दुर्लभ नहीं है ॥ ३१ ॥ महिमा च मदीयोऽद्य वर्द्धितो भवता ध्रुवम् ।
कदाचिदगुणश्चैव जायते क्षम्यतामिति ॥ ३२ ॥ आज आपने निश्चय ही मेरी महिमा बढ़ा दी है, यदि कभी कोई अवगुण आ जाय, तो उसे क्षमा करें ॥ ३२ ॥ ब्रह्मोवाच
तदा शम्भुस्तदीयं हि श्रुत्वा वचनमुत्तमम् । उवाच विष्णुं सुप्रीत्या क्षम्या तेऽगुणता मया ॥ ३३ ॥ ब्रह्माजी बोले-तदनन्तर विष्णुके द्वारा कहे गये श्रेष्ठ वचनको सुनकर शिवजीने अत्यन्त प्रीतिपूर्वक विष्णुसे कहा कि मैंने आपके अवगुणोंको क्षमा कर दिया है ॥ ३३ ॥ एवमुक्त्वा हरिं नौ स कराभ्यां परमेश्वरः ।
पस्पर्श सकलाङ्गेषु कृपया तु कृपानिधिः ॥ ३४ ॥ विष्णुसे ऐसा कहकर उन कृपानिधि परमेश्वरने कृपापूर्वक अपने हाथोंसे हम दोनोंके सम्पूर्ण अंगोंका स्पर्श किया ॥ ३४ ॥ आदिश्य विविधान्धर्मान्सर्वदुःखहरो हरः ।
ददौ वराननेकांश्चावयोर्हितचिकीर्षया ॥ ३५ ॥ सर्वदुःखहारी सदाशिवने नाना प्रकारके धर्मोका उपदेशकर हम दोनोंके हितकी इच्छासे अनेक प्रकारके वर दिये ॥ ३५ ॥ ततः स भगवाञ्छम्भुः कृपया भक्तवत्सलः ।
दृष्ट्या सम्पश्यतो शीघ्रं तत्रैवान्तरधीयतः ॥ ३६ ॥ इसके बाद भक्तवत्सल भगवान् शम्भु कृपापूर्वक हमारी ओर देखकर हम दोनोंके देखते-देखते शीघ्र वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ३६ ॥ तदाप्रभृति लोकेऽस्मिँल्लिङ्गपूजाविधिः स्मृतः ।
लिङ्गे प्रतिष्ठितः शम्भुर्भुक्तिमुक्तिप्रदायकः ॥ ३७ ॥ तभीसे इस लोकमें लिंगपूजाका विधान प्रचलित हुआ है । लिंगमें प्रतिष्ठित भगवान् शिव भोग और मोक्ष देनेवाले हैं ॥ ३७ ॥ लिङ्गवेदिर्महादेवी लिङ्गं साक्षान्महेश्वरः ।
लयनाल्लिङ्गमित्युक्तं तत्रैव निखिलं जगत् ॥ ३८ ॥ शिवलिंगको वेदी महादेवीका स्वरूप है और लिंग साक्षात् महेश्वर है । लयकारक होनेके कारण ही इसे लिंग कहा गया है । इसीमें सम्पूर्ण जगत् स्थित रहता है ॥ ३८ ॥ यस्तु लैङ्गं पठेन्नित्यमाख्यानं लिङ्गसन्निधौ ।
षण्मासाच्छिवरूपो वै नात्र कार्या विचारणा ॥ ३९ ॥ जो शिवलिंगके समीप स्थिर होकर नित्य इस लिंगके आख्यानको पढ़ता है, वह छ: मासमें ही शिवरूप हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ३९ ॥ यस्तु लिङ्गसमीपे तु कार्यं किञ्चित्करोति च ।
तस्य पुण्यफलं वक्तुं न शक्नोमि महामुने ॥ ४० ॥ हे महामुने ! जो शिवलिंगके समीप कोई भी कार्य करता है, उसके पुण्यफलका वर्णन करनेमें मैं समर्थ नहीं हूँ ॥ ४० ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथमखण्डे
सृष्ट्युपाख्याने परम शिवतत्त्ववर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके प्रथम खण्डमें सृष्टि-उपाख्यानमें परमशिवतत्त्ववर्णन नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |