![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टीखण्डे
द्वादशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] पूजाविधिवर्णने सारासारविचारवर्णनम्
भगवान् शिवकी श्रेष्ठता तथा उनके पूजनकी अनिवार्य आवश्यकताका प्रतिपादन नारद उवाच
ब्रह्मन् प्रजापते तात धन्यस्त्वं शिवसक्तधीः । एतदेव पुनः सम्यग्ब्रूहि मे विस्तराद्विधे ॥ १ ॥ नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! हे प्रजापते ! हे तात ! आप धन्य हैं; क्योंकि आपकी बुद्धि भगवान् शिवमें लगी हुई है । हे विधे ! आप पुनः इसी विषयका सम्यक् प्रकारसे विस्तारपूर्वक मुझसे वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ ब्रह्मोवाच
एकस्मिन्समये तात ऋषीनाहूय सर्वतः । निर्जरांश्चाऽवदं प्रीत्या सुवचः पद्मसम्भवः ॥ २ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे तात ! एक समयकी बात है; कमलसे उत्पन होनेवाले मैंने चारों ओरसे ऋषियों और देवताओंको बुलाकर प्रेमपूर्वक सुन्दर और मधुर वाणीमें कहा- ॥ २ ॥ यदि नित्यसुखे श्रद्धा यदि सिद्धेश्च कामुकाः ।
आगन्तव्यं मया सार्द्धं तीरं क्षीरपयोनिधेः ॥ ३ ॥ यदि आप सब नित्य सुख प्राप्त करनेकी इच्छा रखते हैं और नित्य अपने मनोरथकी सिद्धि चाहते हैं, तो मेरे साथ क्षीरसागरके तटपर आयें ॥ ३ ॥ इत्येतद्वचनं श्रुत्वा गतास्ते हि मया सह ।
यत्रास्ते भगवान्विष्णुः सर्वेषां हितकारकः ॥ ४ ॥ इस वचनको सुनकर वे सब मेरे साथ वहाँपर गये, जहाँ सर्वकल्याणकारी भगवान् विष्णु निवास करते हैं ॥ ४ ॥ तत्र गत्वा जगन्नाथं देवदेवं जनार्द्दनम् ।
उपतस्थुः सुरा नत्वा सुकृताञ्जलयोः मुने ॥ ५ ॥ तान्दृष्ट्वा च तदा विष्णुर्ब्रह्माद्यानमरान्स्थितान् । स्मरञ्छिवपदाम्भोजमब्रवीत्परमं वचः ॥ ६ ॥ हे मुने ! बहाँपर जाकर सभी देवता भगवान् जगन्नाथ देवदेवेश्वर जनार्दन विष्णुको हाथ जोड़कर प्रणाम करके खड़े हो गये । ब्रह्मा आदि उन उपस्थित देवताओंको देखकर [मनमें] शिवके चरणकमलका स्मरण करते हुए विष्णु कहने लगे- ॥ ५-६ ॥ विष्णुरुवाच
किमर्थमागता यूयं ब्रह्माद्याश्च सुरर्षयः । सर्वं वदत तत्प्रीत्या किं कार्यं विद्यतेऽधुना ॥ ७ ॥ विष्णुजी बोले-हे ब्रह्मादि देवो और ऋषियो ! आपलोग यहाँ किसलिये आये हुए हैं ? प्रेमपूर्वक सब कुछ कहें ? इस समय कौन-सा कार्य आ पड़ा ? ॥ ७ ॥ ब्रह्मोवाच
इति पृष्टास्तदा तेन विष्णुना च मया सुराः । पुनः प्रणम्य तं प्रीत्या किं कार्यं विद्यतेऽधुना ॥ ब्रह्माजी बोले-भगवान् विष्णुके द्वारा ऐसा पूछनेपर मैंने उन्हें प्रणाम किया और उपस्थित उन सभी देवताओंसे कहा कि इस समय आप सबके आनेका क्या प्रयोजन है ? इसका निवेदन आप सब करें ॥ ८ ॥ विनिवेदयितुं कार्यं ह्यब्रुवन्वचनं शुभम् ॥ ८ ॥
देवा ऊचुः नित्यं सेवा तु कस्यैव कार्या दुःखपहारिणी ॥ ९ ॥ इत्येतद्वचनं श्रुत्वा भगवान्भक्तवत्सलः । सामरस्य मम प्रीत्या कृपया वाक्यमब्रवीत् ॥ १० ॥ देवता बोले-[हे विष्णो !] किसकी सेवा है, जो सभी दुःखोंको दूर करनेवाली है, जिसको कि हमें नित्य करना चाहिये । देवताओंका यह वचन सुनकर भक्तवत्सल भगवान् विष्णु देवताओंसहित मेरी प्रसन्नताके लिये कृपापूर्वक यह वाक्य कहने लगे- ॥ ९-१० ॥ श्रीभगवानुवाच
ब्रह्मञ्च्छृणु सुरैःसम्यक् श्रुतं च भवता पुरा । तथापि कथ्यते तुभ्यं देवेभ्यश्च तथा पुनः ॥ ११ ॥ श्रीभगवान् बोले-हे ब्रह्मन् ! देवोंके साथ आपने पहले भी इस विषय में सुना है, किंतु आज पुनः आपको और देवताओंको बता रहा हूँ ॥ ११ ॥ दृष्टं च दृश्यतेऽद्यैव किं पुनः पृच्छ्यतेऽधुना ।
ब्रह्मन्देवैः समस्तैश्च बहुधा कार्यतत्परैः ॥ १२ ॥ हे ब्रह्मन् ! अपने-अपने कार्यों में संलग्न समस्त देवोंके साथ आपने जो देखा है और इस समय जो देख रहे हैं, उसके विषयमें बार बार क्यों पूछ रहे हैं ? ॥ १२ ॥ सेव्यः सेव्यःसदा देवः शङ्करः सर्वदुःखहा ।
ममापि कथितं तेन ब्रह्मणोऽपि विशेषतः ॥ १३ ॥ सभी दु:खोंको दूर करनेवाले शंकरजीकी ही सदा सेवा करनी चाहिये । यह बात स्वयं ही उन्होंने विशेषकर मुझसे और ब्रह्मासे भी कही थी ॥ १३ ॥ प्रस्तुतं चैव दृष्टं वः सर्वं दृष्टान्तमद्भुतम् ।
त्याज्यं तदर्चनं नैव कदापि सुखमीप्सुभिः ॥ १४ ॥ इस अद्भुत दृष्टान्तको आप सब लोगोंने भी देखा है । अतः सुख चाहनेवाले लोगोंको कभी भी उनका पूजन नहीं छोड़ना चाहिये ॥ १४ ॥ सन्त्यज्य देवदेवेशं लिङ्गमूर्तिं महेश्वरम् ।
तारपुत्रास्तथैवैते नष्टास्तेऽपि सबान्धवाः ॥ १५ ॥ मया च मोहितास्ते वै मायया दूरतः कृताः । सर्वे विनष्टाः प्रध्वस्ताः शिवेन रहिता यदा ॥ १६ ॥ देवदेवेश्वर भगवान् शंकरके लिंगमूर्तिरूप महेश्वरका त्याग करके अपने बन्धु-बान्धवोंसहित तारपुत्र नष्ट हो गये । [शिवकी आराधनाका परित्याग करनेके कारण] वे सब मेरे द्वारा मायासे मोहित कर दिये गये और जब वे शिवकी भक्तिसे वंचित हो गये, तब वे सब नष्ट और ध्वस्त हो गये ॥ १५-१६ ॥ तस्मात्सदा पूजनीयो लिङ्गमूर्तिधरो हरः ।
सेवनीयो विशेषेण श्रद्धया देवसत्तमः ॥ १७ ॥ शर्वलिङ्गार्चनादेव देवा दैत्याश्च सत्तमाः । अहं त्वं च तथा ब्रह्मन्कथं तद्विस्मृतं त्वया ॥ १८ ॥ अतः हे देवसत्तम ! लिंगमूर्ति धारण करनेवाले भगवान् शंकरकी विशेष श्रद्धाके साथ सदैव पूजा और सेवा करनी चाहिये । शिवलिंगकी पूजा करनेसे ही देवता, दैत्य, हम और आप सभी श्रेष्ठताको प्राप्त कर सके हैं, हे ब्रह्मन् ! आपने उसे कैसे भुला दिया है ? ॥ १७-१८ ॥ तल्लिङ्गमर्चयेन्नित्यं येन केनापि हेतुना ।
तस्माद्ब्रह्मन्सुरः शर्वः सर्वकामफलेप्सया ॥ १९ ॥ इसलिये जिस किसी भी तरहसे भगवान् शिवके लिंगका पूजन नित्य करना ही चाहिये । हे ब्रह्मन् ! सभी मनोकामनाओंकी पूर्तिके लिये देवताओंको भगवान् शिवकी पूजा करनी चाहिये ॥ १९ ॥ सा हानिस्तन्महाछिद्रं सान्धता सा च मुग्धता ।
यन्मुहूर्त्तं क्षणं वापि शिवं नैव समर्चयेत् ॥ २० ॥ वही [मनुष्यके जीवनकी बहुत बड़ी] हानि है, वही [उसके चरित्रका] बहुत बड़ा छिद्र है, वही उसकी अन्धता और वही महामूर्खता है, जिस मुहूर्त अथवा क्षणमें मनुष्य शिवका पूजन नहीं करता है ॥ २० ॥ भवभक्तिपरा ये च भवप्रणतचेतसः ।
भवसंस्मरणा ये च न ते दुःखस्य भाजनाः ॥ २१ ॥ भवनानि मनोज्ञानि मनोज्ञाभरणाः स्त्रियः । धनं च तुष्टिपर्यन्तं पुत्रपौत्रादिसन्ततिः ॥ २२ ॥ आरोग्यं च शरीरं च प्रतिष्ठां चाप्यलौकिकीम् । ये वाञ्छन्ति महाभागाः सुखं वा त्रिदशालयम् ॥ २३ ॥ अन्ते मुक्तिफलं चैव भक्तिं वा परमेशितुः । पूर्वपुण्यातिरेकेण तेऽर्चयन्ति सदाशिवम् ॥ २४ ॥ जो शिवभक्तिपरायण हैं, जो शिवमें अनुरक्त चित्तवाले हैं और जो शिवका स्मरण करते हैं, वे दुःखके पात्र नहीं होते । जो महाभाग मनको अच्छे लगनेवाले सुन्दर सुन्दर भवन, सुन्दर आभूषणोंसे युक्त स्त्रियाँ, इच्छानुकूल धन, पुत्र-पौत्रादि सन्तति, निरोग शरीर, अलौकिक प्रतिष्ठा, स्वर्गलोकका सुख, अन्तकालमें मुक्तिलाभ तथा परमेश्वरकी भक्ति चाहते हैं, वे पूर्वजन्मकृत पुण्याधिक्यके कारण सदाशिवकी अर्चना किया करते हैं ॥ २१-२४ ॥ योऽर्चयेच्छिवलिङ्गं वै नित्यं भक्तिपरायणः ।
तस्य वै सफला सिद्धिर्न स पापैश्च युज्यते ॥ २५ ॥ । जो भक्तिपरायण मनुष्य शिवलिंगकी नित्य पूजा करता है, उसीकी सिद्धि सफल होती है और वह पापोंसे लिप्त नहीं होता है ॥ २५ ॥ ब्रह्मोवाच
इत्युक्ताश्च तदा देवाः प्रणिपत्य हरिं स्वयम् । लिङ्गानि प्रार्थयामासुः सर्वकामाप्तये नृणाम् ॥ २६ ॥ ब्रह्माजी बोले-श्रीभगवान् विष्णुने जब देवताओंसे ऐसा कहा, तब उन्होंने साक्षात् हरिको प्रणाम करके मनुष्योंकी समस्त कामनाओंकी प्राप्तिके लिये उनसे शिवलिंग देनेकी प्रार्थना की ॥ २६ ॥ तच्छ्रुत्वा च तदा विष्णुर्विश्वकर्माणमब्रवीत ।
अहं च मुनिशार्दूल जीवोद्धारपरायणः ॥ २७ ॥ विश्वकर्मन्यथा शम्भोः कल्पयित्वा शुभानि च । लिङ्गानि सर्वदेवेभ्यो देयानि वचनान्मम ॥ २८ ॥ उसको सुनकर भगवान् विष्णुने विश्वकर्मासे कहा-हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं तो जीवोंका उद्धार करनेमें तत्पर हूँ । हे विश्वकर्मन् ! मेरी आज्ञासे आप भगवान् शिवके कल्याणकारी लिंगोंका निर्माण करके उन्हें सभी देवताओंको प्रदान कीजिये ॥ २७-२८ ॥ ब्रह्मोवाच
लिङ्गानि कल्पयित्वैवमधिकारानुरूपतः । विश्वकर्मा ददौ तेभ्यो नियोगान्मम वा हरेः ॥ २९ ॥ ब्रह्माजी बोले-तब विश्वकर्माने अधिकारके अनुसार शिवलिंगोंका निर्माण करके मेरी और विष्णुकी आज्ञासे उन सभी शिवलिंगोंको उन देवताओंको प्रदान किया ॥ २९ ॥ तदेव कथयाम्यद्य श्रूयतामृषिसत्तम ।
पद्मरागमयं शक्रो हैमं विश्रवसः सुतः ॥ ३० ॥ पीतं मणिमयं धर्मो वरुणः श्यामलं शिवम् । इन्द्रनीलमयं विष्णुर्ब्रह्मा हेममयं तथा ॥ ३१ ॥ विश्वेदेवास्तथा रौप्यं वसवश्च तथैव च । आरकूटमयं वापि पार्थिवं ह्यश्विनौ मुने ॥ ३२ ॥ लक्ष्मीश्च स्फाटिकं देवी ह्यादित्यास्ताम्रनिर्मितम् । मौक्तिकं सोमराजो वै वज्रलिङ्गं विभावसुः ॥ ३३ ॥ मृण्मयं चैव विप्रेन्द्रा विप्रपत्न्यस्तथैव च । चान्दनं च मयो नागः प्रवालमयमादरात् ॥ ३४ ॥ हे ऋषिश्रेष्ठ ! वही मैं आज आपसे कह रहा हूँ. सुनिये । इन्द्र पारागमणिसे बने शिवलिंग, विश्रयापुत्र कुबेर सुवर्णलिंग, धर्म पीतवर्ण पुखराजकी मणिसे निर्मित लिंग, वरुण श्यामवर्णकी मणियोंसे बने हुए लिंग, विष्णु इन्द्रनीलमणिसे निर्मित लिंग, ब्रह्मा सुवर्णसे बने शिवलिंग, हे मुने । सभी विश्वेदेव चाँदीसे निर्मित शिवलिंग, वसुगण पीतलके शिवलिंग, अश्विनीकुमार पार्थिव लिंग, देवी लक्ष्मी स्फटिकमणिनिर्मित लिंग, सभी आदित्य ताम्रनिर्मित लिंग, सोमराज चन्द्रमा मौक्तिक शिवलिंग, अग्निदेव वज्रमणि [हीरे] से बने शिवलिंग, श्रेष्ठ ब्राह्मण और उनकी पलियाँ मृण्मय पार्थिव शिवलिंग, मवदानव चन्दनके शिवलिंग, नाग मूंगेसे बने शिवलिंगका आदरपूर्वक विधिवत् पूजन करते हैं ॥ ३०-३४ ॥ नवनीतमयं देवी योगी भस्ममयं तथा ।
यक्षा दधिमयं लिङ्गं छाया पिष्टमयं तथा ॥ ३५ ॥ शिवलिङ्गं च ब्रह्माणी रत्नं पूजयति ध्रुवम् । पारदं पार्थिवं बाणः समर्चति परेऽपि वा ॥ ३६ ॥ देवी दुर्गा मक्खनसे बने हुए शिवलिंग, योगी भस्मनिर्मित शिवलिंग, यक्ष दधिनिर्मित शिवलिंग तथा छाया चावलके आटेकी पीठीसे बने हुए शिवलिंगकी विधिवत् पूजा करती हैं । ब्रह्माणी देवी रत्नमय शिवलिंगकी पूजा करती हैं । बाणासुर पारेसे बने शिवलिंग तथा दूसरे लोग मिट्टी आदिसे बनाये गये पार्थिव शिवलिंगका विधिवत् पूजन करते हैं ॥ ३५-३६ ॥ एवं विधानि लिङ्गानि दत्तानि विश्वकर्मणा ।
ते पूजयन्ति सर्वे वै देवा ऋषिगणा स्तथा ॥ ३७ ॥ विश्वकर्माने इसी प्रकारके शिवलिंग देवताओं और ऋषियोंको भी दिये थे, जिनकी पूजा वे सभी देवता और ऋषि सदैव करते रहते हैं ॥ ३७ ॥ विष्णुर्दत्त्वा च लिङ्गानि देवेभ्यो हितकाम्यया ।
पूजाविधिं समाचष्ट ब्रह्मणे मे पिनाकिनः ॥ ३८ ॥ तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य ब्रह्माहं देवसत्तमैः । आगच्छं च स्वकं धाम हर्षनिर्भरमानसः ॥ ३९ ॥ देवताओंकी हितकामनाके लिये विष्णुने उन्हें शिवलिंग प्रदान करके मुझ ब्रह्मासे शिवका पूजनविधान भी बताया । उनके द्वारा कहे गये शिवलिंगके उस पूजनविधानको सुनकर प्रसन्नचित्त मैं ब्रह्मा देवताओंके साथ अपने स्थानपर लौट आया ॥ ३८-३९ ॥ तत्रागत्य ऋषीन्सर्वान् देवांश्चाहं तथा मुने ।
शिवपूजाविधिं सम्यगब्रुवं सकलेष्टदम् ॥ ४० ॥ हे मुने ! वहाँ आकरके मैंने सभी देवों और ऋषियोंको सम्पूर्ण अभीष्टकी सिद्धि करनेवाले शिवलिंगके पूजन-विधानको सम्यक् रूपसे बताया ॥ ४० ॥ ब्रह्मोवाच
श्रूयतामृषयः सर्वे सामराः प्रेमतत्पराः । शिवपूजाविधिं प्रीत्या कथये भुक्तिमुक्तिदम् ॥ ४१ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे सभी देवताओ और ऋषियो ! सुनिये । मैं प्रसन्नतापूर्वक आप सबसे शिवपूजनकी उस विधिका वर्णन करने जा रहा हूँ, जो भोग और मोक्षको देनेवाली है ॥ ४१ ॥ मानुषं जन्म सम्प्राप्य दुर्लभं सर्वजन्तुषु ।
तत्रापि सत्कुले देवा दुष्प्राप्यं च मुनीश्वराः ॥ ४२ ॥ अव्यङ्गं चैव विप्रेषु साचारेषु सपुण्यतः । शिवसन्तोषहेतोश्च कर्मस्वोक्तं समाचरेत् ॥ ४३ ॥ हे देवो ! हे मुनीश्वरो ! सभी जीव-जन्तुओंमें मनुष्यका जन्म प्राप्त करना दुर्लभ है, उसमें भी उत्तम कुलमें जन्म लेना तो अत्यन्त दुर्लभ है । उत्तम कुलमें भी सदाचारी ब्राह्मणोंके यहाँ जन्म लेना अच्छे पुण्योंसे ही सम्भव है । अत: भगवान् सदाशिवकी प्रसन्नताके लिये सदैव स्ववर्णाश्रम-विहित कर्म करते रहना चाहिये ॥ ४२-४३ ॥ यद्यज्जातिसमुद्दिष्टं तत्तत्कर्म न लङ्घयेत् ।
यावद्दानस्य सम्पत्तिस्तावत्कर्म समावहेत् ॥ ४४ ॥ जिस जातिके लिये जो-जो सत्कर्म बताया गया है, उस उस कर्मका उल्लंघन नहीं करना चाहिये, जितनी सम्पत्ति हो, उसके अनुसार दानकर्म करना चाहिये ॥ ४४ ॥ कर्मयज्ञसहस्रेभ्यस्तपोयज्ञो विशिष्यते ।
तपोयज्ञसहस्रेभ्यो जपयज्ञो विशिष्यते ॥ ४५ ॥ ध्यानयज्ञात्परं नास्ति ध्यानं ज्ञानस्य साधनम् । यतः समरसं स्वेष्टं योगी ध्यानेन पश्यति ॥ ४६ ॥ कर्ममय सहस्रों यज्ञोंकी अपेक्षा तपयज्ञ श्रेष्ठ है । सहस्रों तपयज्ञोंकी अपेक्षा जपयज्ञका महत्त्व अधिक है । ध्यान-यजसे बढ़कर तो कोई वस्तु है ही नहीं । ध्यान ज्ञानका साधन है । क्योंकि योगी ध्यानके द्वारा अपने इष्टदेव एकरस सदाशिवका साक्षात्कार करता है ॥ ४५-४६ ॥ ध्यानयज्ञरतस्यास्य सदा सन्निहितश्शिवः ।
नास्ति विज्ञानिनां किञ्चित्प्रायश्चित्तादिशोधनम् ॥ ४७ ॥ भगवान् सदाशिव सदैव ध्यानयज्ञमें तत्पर रहनेवाले उपासकके सान्निध्यमें रहते हैं । जो विज्ञानसे सम्पन्न हैं, उनकी शुद्धिके लिये किसी प्रायश्चित्त आदिको आवश्यकता नहीं है । ४७ ॥ विशुद्धा विद्यया ये च ब्रह्मन्ब्रह्मविदो जनाः ।
नास्ति क्रिया च तेषां वै सुखं दुखं विचारतः ॥ ४८ ॥ धर्माधर्मौ जपो होमो ध्यानं ध्यानविधिस्तथा । सर्वदा निर्विकारास्ते विद्यया च तयामराः ॥ ४९ ॥ हे ब्रह्मन् ! जो ब्रह्मविद् विशुद्ध ब्रह्मविद्याके द्वारा ब्रह्म-साक्षात्कार कर लेते हैं, उन्हें क्रिया, सुख-दुःख, धर्म-अधर्म, जप, होम, ध्यान और ध्यान-विधिको जानने तथा करनेकी आवश्यकता नहीं है । वे इस विद्यासे सदा निर्विकार रहते हैं और अन्तमें अमर हो जाते हैं ॥ ४८-४९ ॥ परानन्दकरं लिङ्गं विशुद्धं शिवमक्षरम् ।
निष्कलं सर्वगं ज्ञेयं योगिनां हृदि संस्थितम् ॥ ५० ॥ इस शिवलिंगको परमानन्द देनेवाला, विशुद्ध, कल्याणस्वरूप, अविनाशी, निष्कल, सर्वव्यापक तथा योगियोंके हृदयमें अवस्थित रहनेवाला जानना चाहिये ॥ ५० ॥ लिङ्गं द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं द्विजाः ।
बाह्यं स्थूलं समुद्दिष्टं सूक्ष्ममाभ्यन्तरं मतम् ॥ ५१ ॥ हे द्विजो ! शिवलिंग दो प्रकारका बताया गया है-बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य लिंगको स्थूल एवं आभ्यन्तर लिंगको सूक्ष्म माना गया है ॥ ५१ ॥ कर्मयज्ञरता ये च स्थूललिङ्गार्चने रताः ।
असतां भावनार्थाय सूक्ष्मेण स्थूलविग्रहाः ॥ ५२ ॥ आध्यात्मिकं तु यल्लिङ्गं प्रत्यक्षं यस्य नो भवेत् । स तल्लिङ्गे तथा स्थूले कल्पयेच्च न चान्यथा ॥ ५३ ॥ जो कर्मयज्ञमें तत्पर रहनेवाले हैं, वे स्थूल लिंगकी अर्चनामें रत रहते हैं । सूक्ष्मतया शिवके प्रति ध्यान करनेमें अशक्त अज्ञानियोंके लिये शिवके इस स्थूलविग्रहकी कल्पना की गयी है । जिसको इस आध्यात्मिक सूक्ष्मलिंगका प्रत्यक्षीकरण नहीं होता है, उसे उस स्थूल लिंगमें इस सूक्ष्म लिंगकी कल्पना करनी चाहिये, इसके अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं है ॥ ५२-५३ ॥ ज्ञानिनां सूक्ष्मममलं भावात्प्रत्यक्षमव्ययम् ।
यथा स्थूलमयुक्तानामुत्कृष्टादौ प्रकल्पितम् ॥ ५४ ॥ ज्ञानियोंके लिये सूक्ष्मलिंगकी पूजाका विधान है, [जिसमें ध्यानकी प्रधानता होती है । ] ध्यान करनेसे उस शिवका साक्षात्कार होता है, जो सदैव निर्मल और अव्यय रहनेवाला है । जिस प्रकार अज्ञानियोंके लिये स्थूल लिंगकी उत्कृष्टता बतायी गयी है, उसी प्रकार ज्ञानियोंके लिये इस सूक्ष्मलिंगको उत्तम माना गया है ॥ ५४ ॥ अहो विचारतो नास्ति ह्यन्यत्तत्वार्थवादिनः ।
निष्कलं सकलं चित्ते सर्वं शिवमयं जगत् ॥ ५५ ॥ दूसरे तत्त्वार्थवादियोंके विचारसे आगे कोई अन्तर नहीं है क्योंकि निष्कल तथा कलामयरूपसे वह सबके चित्त रहता है । सम्पूर्ण जगत् शिवस्वरूप ही है ॥ ५५ ॥ एवं ज्ञानविमुक्तानां नास्ति दोष विकल्पना ।
विधिश्चैव तथा नास्ति विहिताविहिते तथा ॥ ५६ ॥ इस प्रकार ज्ञानके द्वारा शिवका साक्षात्कार करके विमुक्त हुए लोगोंको कोई भी पाप नहीं लगता । उनके लिये विधि निषेध और विहित-अविहित कुछ भी नहीं है ॥ ५६ ॥ यथा जलेषु कमलं सलिलैर्नावलिप्यते ।
तथा ज्ञानी गृहे तिष्ठन्कर्मणा नावबध्यते ॥ ५७ ॥ जिस प्रकार जलके भीतर रहते हुए भी कमल जलसे लिप्त नहीं होता है, उसी प्रकार घरमें रहते हुए भी ज्ञानी पुरुषको कर्म अपने बन्धनमें बाँध नहीं पाते हैं ॥ ५७ ॥ इति ज्ञानं समुत्पन्नं यावन्नैव नरस्य वै ।
तावच्च कर्मणा देवं शिवमाराधयेन्नरः ॥ ५८ ॥ इस प्रकारका ज्ञान जबतक मनुष्यको प्राप्त न हो जाय, तबतक उसे कर्मविहित स्थूल या सूक्ष्म शिवलिंगका निर्माणादि करके सदाशिवकी ही आराधना करनी चाहिये ॥ ५८ ॥ प्रत्ययार्थं च जगतामेकस्थोऽपि दिवाकरः ।
एकोऽपि बहुधा दृष्टो जलाधारादिवस्तुषु ॥ ५९ ॥ दृश्यते श्रूयते लोके यद्यत्सदसदात्मकम् । तत्तत्सर्वं सुरा वित्त परं ब्रह्म शिवात्मकम् ॥ ६० ॥ जिस प्रकार विश्वासके लिये जगत्में सूर्य एक ही स्थित है और एक होते हुए भी जलके आधार जलाशय आदि वस्तुओंमें [अपने प्रतिबिम्बके कारण] बहुत-से रूपोंमें दिखायी पड़ता है, उसी प्रकार हे देवो ! यह सत्-असत्रूप जो कुछ भी इस संसारमें सुनायी और दिखायी दे रहा है, उसे आपलोग शिवस्वरूप परब्रह्म ही समझें ॥ ५९-६० ॥ भेदो जलानां लोकेऽस्मिन्प्रतिभावेऽविचारतः ।
एवमाहुस्तथा चान्ये सर्वे वेदार्थतत्त्वगाः ॥ ६१ ॥ जलतत्त्वके एक होनेपर भी उनके सम्बन्धमें जो भेद प्रतीत होता है, वह संसारमें सम्यक् विचार न करनेके कारण ही है-ऐसा अन्य सभी वेदार्थतत्त्वज्ञ भी कहते हैं । ६१ ॥ हृदि संसारिणः साक्षात्सकलः परमेश्वरः ।
इति विज्ञानयुक्तस्य किं तस्य प्रतिमादिभिः ॥ ६२ ॥ संसारियोंके हृदयमें सकल लिंगस्वरूप साक्षात् परमेश्वरका वास है-ऐसा ज्ञान जिसको हो गया है, उसको प्रतिमा आदिसे क्या प्रयोजन है ! ॥ ६२ ॥ इति विज्ञानहीनस्य प्रतिमाकल्पना शुभा ।
पदमुच्चैः समारोढुं पुंसो ह्यालम्बनं स्मृतम् ॥ ६३ ॥ इस प्रकारके ज्ञानसे हीन प्राणीके लिये शुभ प्रतिमाकी कल्पना की गयी है । क्योंकि ऊँचे स्थानपर चढ़नेके लिये मनुष्यके लिये आलम्बन आवश्यक बताया गया है ॥ ६३ ॥ आलम्बनं विना तस्य पदमुच्चैः सुदुष्करम् ।
निर्गुणप्राप्तये नॄणां प्रतिमालम्बनं स्मृतम् ॥ ६४ ॥ जैसे आलम्बनके बिना ऊँचे स्थानपर चढ़ना मनुष्यके लिये अत्यन्त कठिन ही नहीं सर्वथा असम्भव है, वैसे ही निर्गुण ब्रह्मकी प्राप्तिके लिये प्रतिमाका अवलम्बन आवश्यक कहा गया है ॥ ६४ ॥ सगुणानिर्गुणप्राप्तिर्भवतीति सुनिश्चितम् ।
एवं च सर्वदेवानां प्रतिमा प्रत्ययावहा ॥ ६५ ॥ सगुणसे ही निर्गुणकी प्राप्ति होती है-ऐसा निश्चित है । इस प्रकार सभी देवताओंकी प्रतिमाएँ उन देवोंमें विश्वास उत्पन्न करनेके लिये होती हैं ॥ ६५ ॥ देवश्चायं महीयान्वै तस्यार्थे पूजनं त्विदम् ।
गन्धचन्दनपुष्पादि किमर्थं प्रतिमां विना ॥ ६६ ॥ ये देव सभी देवताओंसे महान् हैं । इन्हींके लिये यह पूजनका विधान है । यदि प्रतिमा न हो, तो गन्धचन्दन, पुष्पादिकी आवश्यकता किस कार्यसिद्धिके लिये रह जायगी ॥ ६६ ॥ तावच्च प्रतिमा पूज्या यावद्विज्ञानसम्भवः ।
ज्ञानाभावेन पूज्येत पतनं तस्य निश्चितम् ॥ ६७ ॥ प्रतिमाका पूजन तबतक करते रहना चाहिये, जबतक विज्ञान [परब्रह्म परमेश्वरका ज्ञान] प्राप्त नहीं हो जाता । बिना ज्ञान प्राप्त किये ही जो प्रतिमाका पूजन छोड़ देता है, उसका निश्चित ही पतन होता है । ६७ ॥ एतस्मात्कारणाद्विप्राः श्रूयतां परमार्थतः ।
स्वजात्युक्तं तु यत्कर्म कर्तव्यं तत्प्रयत्नतः ॥ ६८ ॥ हे ब्राह्मणो ! इस कारण आपलोग परमार्थरूपसे सुनें । अपनी जातिके अनुसार [शास्त्रोंमें] जो कर्म बताया गया है, उसे प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ॥ ६८ ॥ यत्र यत्र यथा भक्तिः कर्तव्यं पूजनादिकम् ।
विना पूजनदानादि पातकं भवति ध्रुवम् ॥ ६९ ॥ जहाँ-जहाँ जैसी भक्ति हो, वहाँ-वहाँ तदनुरूप पूजनादि कर्म करना चाहिये; क्योंकि पूजन, दान आदिके बिना पाप दूर नहीं होता ॥ ६९ ॥ यावच्च पातकं देहे तावत्सिद्धिर्न जायते ।
गते च पातके तस्य सर्वं च सफलं भवेत् ॥ ७० ॥ जबतक शरीरमें पाप रहता है, तबतक सिद्धिकी प्राप्ति नहीं होती है । पापके दूर हो जानेपर उसका सब कुछ सफल हो जाता है ॥ ७० ॥ तथा च मलिने वस्त्रे रङ्गः शुभतरो न हि ।
क्षालने हि कृते शुद्धे सर्वो रङ्गः प्रसज्जते ॥ ७१ ॥ जिस प्रकार मलिन वस्त्रमें रंग बहुत सुन्दर नहीं चढ़ता, किंतु उसे भली प्रकारसे धोकर स्वच्छ कर लेनेपर पूरा रंग अच्छी तरहसे चढ़ता है, उसी प्रकार देवताओंकी विधिवत् पूजा करनेसे जब निर्मल शरीरमें ज्ञानरूपी रंग चढ़ता है, तब जाकर उस ब्रह्मविज्ञानका प्रादुर्भाव होता है । ७१-७२ ॥ तथा च निर्मले देहे देवानां सम्यगर्चया ।
ज्ञानरङ्गः प्रजायेत तदा विज्ञानसम्भवः ॥ ७२ ॥ विज्ञानस्य च सन्मूलं भक्तिरव्यभिचारिणी । ज्ञानस्यापि च सन्मूलं भक्तिरेवाऽभिधीयते ॥ ७३ ॥ विज्ञानका मूल अनन्य भक्ति है और ज्ञानका मूल भी भक्ति ही कही जाती है ॥ ७३ ॥ भक्तेर्मूलं तु सत्कर्म स्वेष्टदेवादिपूजनम् ।
तन्मूलं सद्गुरुः प्रोक्तस्तन्मूलं सङ्गतिः सताम् ॥ ७४ ॥ भक्तिका मूल सत्कर्म और अपने इष्टदेव आदिका पूजन है और उसका मूल सद्गुरु कहे गये हैं और उन सद्गुरुका मूल सत्संगति है ॥ ७४ ॥ सङ्गत्या गुरुराप्येत गुरोर्मन्त्रादि पूजनम् ।
पूजनाज्जायते भक्तिर्भक्त्या ज्ञानं प्रजायते ॥ ७४ ॥ सत्संगतिसे सद्गुरुको प्राप्त करना चाहिये । सद्गुरुसे प्राप्त मन्त्रसे देवपूजन आदि सत्कर्म करने चाहिये क्योंकि देवपूजनसे भक्ति उत्पन्न होती है और उस भक्तिसे ज्ञानका प्रादुर्भाव होता है ॥ ७५ ॥ विज्ञानं जायते ज्ञानात्परब्रह्मप्रकाशकम् ।
विज्ञानं च यदा जातं तदा भेदो निवर्तते ॥ ७६ ॥ ज्ञानसे परब्रहाके प्रकाशक विज्ञानका उदय होता है । जब विज्ञानका उदय हो जाता है, तब भेदबुद्धि [स्वतः ही] नष्ट हो जाती है ॥ ७६ ॥ भेदे निवृत्ते सकले द्वन्द्वदुःखविहीनता ।
द्वन्द्वदुःखविहीनस्तु शिवरूपो भवत्यसौ ॥ ७७ ॥ समस्त भेदोंके नष्ट हो जानेपर द्वन्द्व-दुःख भी नष्ट हो जाते हैं । द्वन्द्व-दुःखसे रहित हो जानेपर वह साधक शिवस्वरूप हो जाता है ॥ ७७ ॥ द्वन्द्वाप्राप्तौ न जायेतां सुखदुःखे विजानतः ।
विहिताविहिते तस्य न स्यातां च सुरर्षयः ॥ ७८ ॥ हे देवर्षियो ! द्वन्द्वके नष्ट हो जानेपर ज्ञानीको सुखदुःखकी अनुभूति नहीं होती और विहित-अविहितका प्रपंच भी उसके लिये नहीं रह जाता है ॥ ७८ ॥ ईदृशो विरलो लोके गृहाश्रमविवर्जितः ।
यदि लोके भवत्यस्मिन्दर्शनात्पापहारकः ॥ ७९ ॥ तीर्थानि श्लाघयन्तीह तादृशं ज्ञानवित्तमम् । देवाश्च मुनयःसर्वे परब्रह्मात्मकं शिवम् ॥ ८० ॥ इस संसारमें ऐसा गृहस्थाश्रमरहित प्राणी विरला ही होता है । यदि लोकमें कोई हो, तो उसके दर्शनमात्रसे ही पाप नष्ट हो जाते हैं । सभी तीर्थ, देवता और मुनि भी उस प्रकारके परब्रह्ममय शिवस्वरूप परमज्ञानीकी प्रशंसा करते रहते हैं ॥ ७९-८० ॥ तादृशानि न तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
ते पुनन्त्युरुकालेन विज्ञानी दर्शनादपि ॥ ८१ ॥ वैसे न तो तीर्थ हैं, न मिट्टी और पत्थरसे बने देवता ही हैं, वे तो बहुत समयके बाद पवित्र करते हैं, किंतु विज्ञानी दर्शनमात्रसे पवित्र कर देता है ॥ ८१ ॥ यावद्गृहाश्रमे तिष्ठेत्तावदाकारपूजनम् ।
कुर्याच्छ्रेष्ठस्य सुप्रीत्या सुरेषु खलु पञ्चसु ॥ ८२ ॥ अथवा च शिवः पूज्यो मूलमेकं विशिष्यते । मूले सिक्ते तथा शाखास्तृप्ताःसत्यखिलाः सुराः ॥ ८३ ॥ जबतक मनुष्य गृहस्थाश्रममें रहे, तबतक प्रेमपूर्वक उसे पाँच देवताओं (गणेश, सूर्य, विष्णु शिव तथा देवी) की और उनमें भी सर्वश्रेष्ठ भगवान् सदाशिवकी प्रतिमाका पूजन करना चाहिये अथवा मात्र सदाशिवकी ही पूजा करनी चाहिये; एकमात्र वे ही सबके मूल कहे गये हैं । हे देवो ! जैसे मूल (जड़) के सींचे जानेपर सभी शाखाएँ स्वतः तृप्त हो जाती हैं, वैसे ही सर्वदेवमय सदाशिवके ही पूजनसे सभी देवताओंका पूजन हो जाता है और वे प्रसन्न हो जाते हैं । ८२-८३ ॥ शाखासु च सुतृप्तासु मूलं तृप्तं न कर्हिचित् ।
एवं सर्वेषु तृप्तेषु सुरेषु मुनिसत्तमाः ॥ ८४ ॥ सर्वथा शिवतृप्तिर्नो विज्ञेया सूक्ष्मबुद्धिभिः । शिवे च पूजिते देवाः पूजिताःसर्व एव हि ॥ ८५ ॥ जैसे वृक्षकी शाखाओंके तृप्त होनेपर अर्थात् उन्हें सींचनेपर कभी भी मूलको तृप्ति नहीं होती, वैसे ही हे मुनिश्रेष्ठो ! सभी देवताओंके तृप्त होनेपर शिवकी भी तृप्ति नहीं होती है-ऐसा सूक्ष्म बुद्धिवाले लोगोंको जानना चाहिये । शिवके पूजित हो जानेपर सभी देवताओंका पूजन स्वतः ही हो जाता है ॥ ८४-८५ ॥ तस्माच्च पूजयेद्देवं शङ्करं लोकशङ्करम् ।
सर्वकामफलावाप्त्यै सर्वभूतहिते रतः ॥ ८६ ॥ अतः सभी प्राणियोंके कल्याणमें लगे हुए मनुष्यको चाहिये कि वह सभी कामनाओंकी फलप्राप्तिके लिये संसारका कल्याण करनेवाले भगवान् सदाशिवकी पूजा करे ॥ ८६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्र संहितायां
प्रथमखण्डे सृष्ट्युपाख्याने पूजाविधिवर्णने सारासारविचारवर्णनो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके प्रथम खण्डमें सृष्टि-उपाख्यानमें पूजा-विधि वर्णन-क्रममें सारासार विचारवर्णन नामक बारहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |