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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां प्रथमः सृष्टीखण्डे

एकोनविंशोऽध्यायः ॥

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कैलासगमनोपाख्याने कुबेरस्य शिवमित्रत्ववर्णनम्
कुबेरका काशीपुरीमें आकर तप करना, तपस्यासे प्रसन उमासहित भगवान् विश्वनाथका प्रकट हो उसे दर्शन देना और अनेक वर प्रदान करना, कुबेरद्वारा शिवमैत्री प्राप्त करना


ब्रह्मोवाच
पाद्मे कल्पे मम पुरा ब्रह्मणो मानसात्सुतात् ।
पुलस्त्याद्विश्रवा जज्ञे तस्य वैश्रवणःसुतः ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-पहलेके पाद्मकल्पकी बात है, मुझ ब्रह्माके मानसपुत्र पुलस्त्यसे विश्रवाका जन्म हुआ और विश्रवाके पुत्र वैश्रवण कुबेर हुए ॥ १ ॥

तेनेयमलका भुक्ता पुरी विश्वकृता कृता ।
आराध्य त्र्यम्बकं देवमत्युग्रतपसा पुरा ॥ २ ॥
उन्होंने पूर्वकालमें अत्यन्त उग्र तपस्याके द्वारा त्रिनेत्रधारी महादेवकी आराधना करके विश्वकर्माको बनायी हुई इस अलकापुरीका उपभोग किया ॥ २ ॥

व्यतीते तत्र कल्पे वै प्रवृत्ते मेघवाहने ।
याज्ञदत्तिरसौ श्रीदस्तपस्तेपे सुदुःसहम् ॥ ३ ॥
उस कल्पके व्यतीत हो जानेपर मेघवाहनकल्प आरम्भ हुआ, उस समय वह यज्ञदत्तका पुत्र [कुबेरके रूपमें] अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगा ॥ ३ ॥

भक्ति प्रभावं विज्ञाय शम्भोस्तद्दीपमात्रतः ।
पुरा पुरारेः सम्प्राप्य काशिकां चित्प्रकाशिकाम् ॥ ४ ॥
शिवैकादशमुद्‌बोध्य चित्तरत्नप्रदीपकैः ।
अनन्यभक्तिस्नेहाढ्यस्तन्मयो ध्याननिश्चलः ॥ ५ ॥
दीपदानमात्रसे मिलनेवाली शिवभक्तिके प्रभावको जानकर शिवकी चित्प्रकाशिका काशिकापुरीमें जाकर अपने चित्तरूपी रत्नमय दीपकोंसे ग्यारह रुद्रोंको उद्‌बोधित करके अनन्य भक्ति एवं स्नेहसे सम्पन्न हो वह तन्मयतापूर्वक शिवके ध्यानमें मग्न होकर निश्चलभावसे बैठ गया ॥ ४-५ ॥

शिवैक्यं सुमहापात्रं तपोग्निपरिबृंहितम् ।
कामक्रोधमहाविघ्नपतङ्‌गाघातवर्जितम् ॥ ६ ॥
प्राणसंरोधनिर्वातं निर्मलं निर्मलेक्षणात् ।
संस्थाप्य शाम्भवं लिङ्‌गं सद्‌भावकुसुमार्चितम् ॥ ७ ॥
तावत्तताप स तपस्त्वगस्थिपरिशेषितम् ।
यावद्‌बभूव तद्वर्णं वर्षाणामयुतं शतम् ॥ ८ ॥
जो शिवसे एकताका महान् पात्र है, तपरूपी अग्निसे बढ़ा हुआ है, काम क्रोधादि महाविघ्नरूपी पतंगोंके आघातसे शून्य है, प्राणनिरोधरूपी वायुशून्य स्थानमें निश्चलभावसे प्रकाशित है, निर्मल दृष्टिके कारण स्वरूपसे भी निर्मल है तथा सद्‌भावरूपी पुष्पोंसे पूजित है-ऐसे शिवलिंगकी प्रतिष्ठा करके वह तबतक तपस्या में लगा रहा, जबतक उसके शरीरमें केवल अस्थि और चर्ममात्र ही अवशिष्ट नहीं रह गये । इस प्रकार उसने दस हजार वर्षांतक तपस्या की ॥ ६-८ ॥

ततः सह विशालाक्ष्या देवो विश्वेश्वरः स्वयम् ।
अलकापतिमालोक्य प्रसन्नेनान्तरात्मना ॥ ९ ॥
लिङ्‌गे मनःसमाधाय स्थितं स्थाणुस्वरूपिणम् ।
उवाच वरदोऽस्मीति तदाचक्ष्वालकापते ॥ १० ॥
तदनन्तर विशालाक्षी पार्वतीदेवीके साथ भगवान् विश्वनाथ स्वयं प्रसन्नमनसे अलकापुरीके स्वामीको देखकर, जो शिवलिंगमें मनको एकाग्र करके सूंठे वृक्षकी भाँति स्थिरभावसे बैठे थे, बोले-हे अलकापते ! मैं वर देनेके लिये उद्यत हूँ, तुम अपने मनकी बात कहो- ॥ ९-१० ॥

उन्मील्य नयने यावत्स पश्यति तपोधनः ।
तावदुद्यत्सहस्रांशुसहस्राधिकतेजसम् ॥ ११ ॥
पुरो ददर्श श्रीकण्ठं चन्द्रचूडमुमाधवम् ।
तत्तेजः परिभूताक्षितेजाः संमील्य लोचने ॥ १२ ॥
उवाच देवदेवेशं मनोरथपदातिगम् ।
निजाङ्‌घ्रिदर्शने नाथ दृक्सामर्थ्यं प्रयच्छ मे ॥ १३ ॥
अयमेव वरो नाथ यत्त्वं साक्षान्निरीक्ष्यसे ।
किमन्येन वरेणेश नमस्ते शशिशेखर ॥ १४ ॥
उन तपोनिधिने जब अपने नेत्रोंको खोलकर देखा, तो उन्हें उदित हो रहे हजार किरणोंवाले हजार सूर्योसे भी अधिक तेजस्वी श्रीकण्ठ उमावल्लभ भगवान् चन्द्रशेखर अपने सामने दिखायी दिये । उनके तेजसे प्रतिहत हुए तेजवाले कुबेर चौंधिया गये और अपनी आँखोंको बन्द करके वे मनके लिये अगोचर देवेश्वर भगवान् शंकरसे कहने लगे कि हे नाथ ! अपने चरणोंको देखनेके लिये मुझे दृष्टिसामर्थ्य प्रदान करें । हे नाथ ! यही वर चाहता हूँ कि मैं आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त कर सकूँ । हे ईश ! अन्य वरसे क्या लाभ है ? हे शशिशेखर ! आपको प्रणाम है ॥ ११-१४ ॥

इति तद्वचनं श्रुत्वा देवदेव उमापतिः ।
ददौ दर्शनसामर्थ्यं स्पृष्ट्‍वा पाणितलेन तम् ॥ १५ ॥
उनकी यह बात सुनकर देवाधिदेव उमापतिने अपनी हथेलीसे उनका स्पर्श करके उन्हें अपने दर्शनकी शक्ति प्रदान की ॥ १५ ॥

प्रसार्य नयने पूर्वमुमामेव व्यलोकयत् ।
तोऽसौ याज्ञदत्तिस्तु तत्सामर्थ्यमवाप्य च ॥ १६ ॥
देखनेकी शक्ति मिल जानेपर यज्ञदत्तके उस पुत्रने आँखें खोलकर पहले उमाकी ओर ही देखना आरम्भ किया ॥ १६ ॥

शम्भोः समीपे का योषिदेषा सर्वाङ्‌गसुन्दरी ।
अनया किं तपस्तप्तं ममापि तपसोऽधिकम् ॥ १७ ॥
वह मन-ही-मन सोचने लगा, भगवान् शंकरके समीप यह सर्वांगसुन्दरी स्त्री कौन है ? इसने मेरे तपसे भी अधिक कौन-सा तप किया है ॥ १७ ॥

अहो रूपमहो प्रेम सौभाग्यं श्रीरहो भृशम् ।
इत्यवादीदसौ पुत्रो मुहुर्मुहुरतीव हि ॥ १८ ॥
यह रूप, यह प्रेम, यह सौभाग्य और यह असीम शोभा-सभी अद्‌भुत हैं, वह ब्राह्मणकुमार बार-बार यही कहने लगा ॥ १८ ॥

क्रूर दृग्वीक्षते यावत्पुनः पुनरिदं वदन् ।
तावत्पुस्फोट तन्नेत्रं वारां वामाविलोकनात् ॥ १९ ॥
बार-बार यही कहता हुआ जब वह क्रूरदृष्टिसे उनकी ओर देखने लगा, तब पार्वतीके अवलोकनसे उसकी बॉयों आँख फूट गयी ॥ १९ ॥

अथ देव्यब्रवीद्‌देवं किमसौ दुष्टतापसः ।
असकृद्वीक्ष्य मां वक्ति कुरु त्वं मे तपस्विताम् ॥ २० ॥
तदनन्तर देवी पार्वतीने महादेवजीसे कहा[हे प्रभो !] यह दुष्ट तपस्वी बार-बार मेरी ओर देखकर क्या बोल रहा है ? आप मेरी तपस्याके तेजको प्रकट कीजिये ॥ २० ॥

असकृद्दक्षिणेनाक्ष्णा पुनर्मामेव पश्यति ।
असूयमानो मे रूपप्रेमसौभाग्यसम्पदः ॥ २१ ॥
यह पुन: अपने दाहिने नेत्रसे बार-बार मुझे देख रहा है, निश्चित ही यह मेरे रूप, प्रेम और सौन्दर्यकी सम्पदासे ईर्ष्या करनेवाला है ॥ २१ ॥

इति देवीगिरं श्रुत्वा प्रहस्य प्राह तां प्रभुः ।
उमे त्वदीयः पुत्रोऽयं न च क्रूरेण चक्षुषा ॥ २२ ॥
देवीकी यह बात सुनकर भगवान् शिवने हँसते हुए उनसे कहा-हे उमे ! यह तुम्हारा पुत्र है, यह तुम्हें क्रूरदृष्टिसे नहीं देख रहा है, अपितु तुम्हारी तपःसम्पत्तिका वर्णन कर रहा है ॥ २२ ॥

सम्पश्यति तपोलक्ष्मीं तव किं त्वधिवर्णयेत् ।
इति देवीं समाभाष्य तमीशः पुनरब्रवीत् ॥ २३ ॥
वरान्ददामि ते वत्स तपसाऽनेन तोषितः ।
निधीनामथ नाथस्त्वं गुह्यकानां भवेश्वरः ॥ २४ ॥
देवीसे ऐसा कहकर भगवान् शिव पुनः उस [ब्राह्मणकुमार] से बोले-हे वत्स ! मैं तुम्हारी इस तपस्यासे सन्तुष्ट होकर तुम्हें वर देता हूँ । तुम निधियोंके स्वामी और गुहाकोंके राजा हो जाओ ॥ २३-२४ ॥

यक्षाणां किन्नराणां च राज्ञां राज च सुव्रतः ।
पतिः पुण्यजनानां च सर्वेषां धनदो भव ॥ २५ ॥
हे सुव्रत ! तुम यक्षों, किन्नरों और राजाओंके भी राजा, पुण्यजनोंके पालक और सबके लिये धनके दाता हो जाओ ॥ २५ ॥

मया सख्यं च ते नित्यं वत्स्यामि च तवान्तिके ।
अलकां निकषा मित्र तव प्रीतिविवृद्धये ॥ २६ ॥
आगच्छ पादयोरस्याः पत ते जननी त्वियम् ।
याज्ञदत्ते महाभक्ते सुप्रसन्नेन चेतसा ॥ २७ ॥
मेरे साथ सदा तुम्हारी मैत्री बनी रहेगी और हे मित्र ! तुम्हारी प्रीति बढ़ानेके लिये मैं अलकाके पास ही रहूँगा । नित्य तुम्हारे निकट निवास करूंगा । हे महाभक्त यज्ञदत्त-कुमार ! आओ, इन उमादेवीके चरणोंमें प्रसन्न मनसे प्रणाम करो, ये तुम्हारी माता हैं ॥ २६-२७ ॥

ब्रह्मोवाच
इति दत्त्वा वरान्देवः पुनराह शिवां शिवः ।
प्रसादं कुरु देवेशि तपस्विन्यङ्‌गजेऽत्र वै ॥ २८ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] इस प्रकार वर देकर भगवान् शिवने देवी पार्वतीसे पुन: कहा-हे देवेश्वरि । तपस्विनि ! पुत्रपर कृपा करो । यह तुम्हारा पुत्र है ॥ २८ ॥

इत्याकर्ण्य वचश्शम्भोः पार्वती जगदम्बिका ।
अब्रवीद्याज्ञदत्तिं तं सुप्रसन्नेन चेतसा ॥ २९ ॥
भगवान् शंकरका यह कथन सुनकर जगदम्बा पार्वती अति प्रसन्नचित्तसे उस यज्ञदत्तकुमारसे कहने लगीं- ॥ २९ ॥

देव्युवाच
वत्स ते निर्मला भक्तिर्भवे भवतु सर्वदा ।
भवैकपिङ्‌गो नेत्रेण वामेन स्फुटितेन ह ॥ ३० ॥
देवेन दत्ता ये तुभ्यं वराः सन्तु तथैव ते ।
कुबेरो भव नाम्ना त्वं मम रूपेर्ष्यया सुत ॥ ३१ ॥
देवी बोलीं-हे वत्स ! भगवान् शिवमें तुम्हारी सदा निर्मल भक्ति बनी रहे । तुम्हारी बायीं आँख तो फूट ही गयी । इसलिये एक ही पिंगल नेत्रसे युक्त रहो । महादेवजीने तुम्हें जो वर दिये हैं, वे सब उसी रूपमें तुम्हें सुलभ हों । हे पुत्र ! मेरे रूपके प्रति ईर्ष्या करनेके कारण तुम कुबेर नामसे प्रसिद्ध होओ ॥ ३०-३१ ॥

इति दत्त्वा वरान्देवो देव्या सह महेश्वरः ।
धनदायाविवेशाथ धाम वैश्वेश्वराभिधम् ॥ ३२ ॥
इस प्रकार कुबेरको वर देकर भगवान् महेश्वर पार्वती-देवीके साथ अपने वैश्वेश्वर नामक धाममें चले गये ॥ ३२ ॥

इत्थं सखित्वं श्रीशम्भोः प्रापैष धनदः पुरम् ।
अलकान्निकषा चासीत्कैलासः शङ्‌करालयः ॥ ३३ ॥
इस तरह कुबेरने भगवान् शंकरकी मैत्री प्राप्त की और अलकापुरीके पास जो कैलास पर्वत है, वह भगवान् शंकरका निवास हो गया ॥ ३३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
प्रथमखण्डे कैलासगमनोपाख्याने कुबेरस्य
शिवमित्रत्ववर्णनो नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके प्रथम खण्डमें सृष्टि-उपाख्यानमें कैलासगमनोपाख्यानमें कुबेरकी शिवमैत्रीका वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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