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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे
त्रयोदशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] दक्षसृष्टौ नारदशापः
ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजनेके कारण दक्षका नारदको शाप देना नारद उवाच
ब्रह्मन्विधे महाप्राज्ञ वद नो वदतां वर । दक्षे गृहं गते प्रीत्या किमभूत्तदनन्तरम् ॥ १ ॥ नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! हे विधे ! हे महाप्राज्ञ ! हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ । दक्षप्रजापतिके घर चले जानेके बाद फिर क्या हुआ ? यह सब [वृत्तान्त] प्रीतिपूर्वक कहिये ॥ १ ॥ ब्रह्मोवाच
दक्षः प्रजापतिर्गत्वा स्वाश्रमं हृष्टमानसः । सर्गं चकार बहुधा मानसं मम चाज्ञया ॥ २ ॥ तमबृंहितमालोक्य प्रजासर्गं प्रजापतिः । दक्षो निवेदयामास ब्रह्मणे जनकाय मे ॥ ३ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] दक्षप्रजापतिने अपने आश्रममें जाकर प्रसन्नचित्त हो मेरी आज्ञासे बहुत-सी मानसी सृष्टि की, किंतु उस प्रजासृष्टिको बढ़ता हुआ न देखकर दक्ष अपने पिता मुझ ब्रह्मासे कहने लगे- ॥ २-३ ॥ दक्ष उवाच
ब्रह्मंस्तात प्रजानाथ वर्द्धन्ते न प्रजाः प्रभो । मया विरचिताः सर्वास्तावत्यो हि स्थिताः खलु ॥ ४ ॥ दक्ष बोले-हे तात ! हे ब्रह्मन् ! हे प्रजानाथ ! मेरे द्वारा बनायी गयी प्रजाएँ बढ़ नहीं रही हैं । मैंने भली प्रकारसे विचारकर देख लिया है कि मैंने जितनी भी सृष्टि की है, वह उतनी ही है ॥ ४ ॥ किं करोमि प्रजानाथ वर्द्धेयुः कथमात्मना ।
तदुपायं समाचक्ष्व प्रजाः कुर्यां न संशयः ॥ ५ ॥ हे प्रजानाथ ! मैं क्या करूँ ? यह मेरी प्रजा किस प्रकार बड़ेगी ? आप कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे प्रजाओंके सृष्टिक्रमका विस्तार करूँ ॥ ५ ॥ ब्रह्मोवाच
दक्ष प्रजापते तात शृणु मे परमं वचः । तत्कुरुष्व सुरश्रेष्ठ शिवस्ते शं करिष्यति ॥ ६ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे दक्ष ! हे प्रजापते ! हे तात ! मेरी उत्तम बात सुनिये और उसे कीजिये । हे सुरश्रेष्ठ ! भगवान् शंकर आपका कल्याण करेंगे ॥ ६ ॥ या च पञ्चजनस्याङ्ग सुता रम्या प्रजापतेः ।
असिक्नी नाम पत्नीत्वे प्रजेश प्रतिगृह्यताम् ॥ ७ ॥ हे प्रजेश ! पंचजन प्रजापतिकी जो असिक्नी नामक सुन्दर पुत्री है, उसे आप पत्नीरूपसे ग्रहण कीजिये ॥ ७ ॥ वामव्यवायधर्मस्त्वं प्रजासर्गमिमं पुनः ।
तद्विधायां च कामिन्यां भूरिशो भावयिष्यसि ॥ ८ ॥ अभीतक आप पत्नीरहित होकर धर्माचरण करते रहे हैं, किंतु इस प्रकारकी पत्नीमें मैथुनधर्मसे प्रवृत्त होकर जब आप सृष्टि करेंगे, तब प्रजा बढ़ेगी ॥ ८ ॥ ततःसमुत्पादयितुं प्रजा मैथुनधर्मतः ।
उपयेमे वीरणस्य निदेशान्मे सुतां ततः ॥ ९ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] तब दक्षप्रजापतिने मैथुनधर्मसे प्रजासृष्टि करनेके लिये मेरी आज्ञासे वीरणकी कन्याके साथ विवाह किया ॥ ९ ॥ अथ तस्यां स्वपत्न्यां च वीरिण्यां स प्रजापतिः ।
हर्यश्वसञ्ज्ञानयुतं दक्षः पुत्रानजीजनत् ॥ १० ॥ प्रजापति दक्षने अपनी पत्नी उस वीरिणीके गर्भसे हर्यश्व नामक दस हजार पुत्रोंको उत्पन्न किया ॥ १० ॥ अपृथग्धर्मशीलास्ते सर्व आसन् सुता मुने ।
पितृभक्तिरता नित्यं वेदमार्गपरायणाः ॥ ११ ॥ हे मुने । वे सभी पुत्र समान धर्माचरण करनेवाले, पिताकी भक्ति में तत्पर रहनेवाले और सदा वेदमार्गका अनुसरण करनेवाले थे ॥ ११ ॥ पितृप्रोक्ताः प्रजासर्गकरणार्थं ययुर्दिशम् ।
प्रतीचीं तपसे तात सर्वे दाक्षायणाः सुताः ॥ १२ ॥ हे तात ! वे सभी दक्षपुत्र अपने पिताकी आज्ञा पाकर सृष्टिके उद्देश्यसे तपस्याहेत पश्चिम दिशाकी ओर चले गये ॥ १२ ॥ तत्र नारायणसरस्तीर्थं परमपावनम् ।
सङ्गमो यत्र सञ्जातो दिव्यसिन्धुसमुद्रयोः ॥ १३ ॥ वहाँपर परम पवित्र नारायणसर नामक तीर्थ है, जहाँ दिव्य सिन्धु नदी तथा समुद्रका संगम हुआ है ॥ १३ ॥ तदपस्पर्शनादेव प्रोत्पन्नमतयोऽ भवन् ।
धर्मे पारमहंसे च विनिर्धूतमलाशयाः ॥ १४ ॥ उस तीर्थके स्पर्शमात्रसे उनकी बुद्धि अत्यन्त निर्मल हो गयी और पापके दूर होते ही वे सभी परमहंसधर्ममें स्थित हो गये ॥ १४ ॥ प्रजाविवृद्धये ते वै तेपिरे तत्र सत्तमाः ।
दाक्षायणा दृढात्मानः पित्रादेशेन यन्त्रिता ॥ १५ ॥ तत्पश्चात् दृढ़चित्तवाले तथा श्रेष्ठ वे दक्षपुत्र पिताकी आज्ञासे बँधे होनेके कारण प्रजावृद्धिके लिये तप करने लगे ॥ १५ ॥ त्वं च तान् नारद ज्ञात्वा तपतः सृष्टिहेतवे ।
भूरीणो हार्दमाज्ञाय ह्यगमस्तत्र मापतेः ॥ १६ ॥ अदृष्ट्वा तं भवः सृष्टिं कथं कर्तुं समुद्यताः । हर्यश्वा दक्षतनया इत्यवोचंस्तमादरात् ॥ १७ ॥ हे नारद ! सृष्टिसंवर्धनहेतु उन्हें घोर तप करते हुए जानकर और विष्णुका मनोगत अभिप्राय समझकर आप उनके पास गये और आदरपूर्वक आपने उनसे कहा-हे दक्षपुत्र हर्यश्वो ! तुमलोग पृथिवीका विस्तार न जानकर सृष्टिकर्ममें किस प्रकार प्रवृत्त हुए हो ? ॥ १६-१७ ॥ तं निशम्याथ हर्यश्वास्ते त्वदुक्तमतन्द्रिताः ।
औत्पत्तिकधियःसर्वे स्वयं विममृशुर्भृशम् ॥ १८ ॥ । ब्रह्माजी बोले-वे हर्यश्वगण आपकी कही हुई बात सुनकर सृष्टिके विषयमें सावधान होकर मनमें बहुत विचार करने लगे ॥ १८ ॥ सुशास्त्रजनकादेशं यो न वेद निवर्तकम् ।
स कथं गुणविश्रम्भी कर्तुं सर्गमुपक्रमेत् ॥ १९ ॥ जो उत्तम शास्त्ररूपी पिताके निवृत्तिपरक वचनोंको नहीं जानता, वह मात्र गुणोंपर ही विश्वास रखनेवाली सृष्टिका उपक्रम किस प्रकार कर सकता है ? ॥ १९ ॥ इति निश्चित्य ते पुत्राः सुधियश्चैकचेतसः ।
प्रणम्य तं परिक्रम्यायुर्मार्गमनिवर्तकम् ॥ २० ॥ वे परम बुद्धिमान् दक्षपुत्र एकाग्र बुद्धिसे ऐसा विचारकर देवर्षि नारदकी परिक्रमा करके एवं उन्हें प्रणामकर निवृत्तिमार्गमें परायण हो गये ॥ २० ॥ नारद त्वं मनः शम्भोर्लोङ्कानन्यचरो मुने ।
निर्विकारो महेशानमनोवृत्तिकरस्तदा ॥ २१ ॥ हे नारद ! हे मुने ! आप शिवके मन हैं और लोकमें पर्यटन करते रहते हैं तथा निर्विकार रहकर शिवकी चित्तवृत्तिके अनुसार रहते हैं ॥ २१ ॥ काले गते बहुतरे मम पुत्रः प्रजापतिः ।
नाशं निशम्य पुत्राणां नारदादन्वतप्यत ॥ २२ ॥ बहुत काल बीतनेपर मेरे पुत्र दक्षप्रजापति नारदजीके द्वारा अपने पुत्रोंके नाशको सुनकर बहुत सन्तप्त हुए ॥ २२ ॥ मुहुर्मुहुरुवाचेति सुप्रजात्वं शुचां पदम् ।
शुशोच बहुशो दक्षः शिवमायाविमोहितः ॥ २३ ॥ उस समय आपने शोक करते हुए दक्षसे बारबार कहा कि आप अच्छी सन्तानवाले थे. [जो कि आपके पुत्र श्रेष्ठ मार्गका अनुसरण करते हुए मुक्त हो गये] किंतु वे दक्ष शिवकी मायासे मोहित हो बारबार शोक करते रहे ॥ २३ ॥ अहमागत्य सुप्रीत्या सान्त्वयं दक्षमात्मजम् ।
शान्तिभावं प्रदर्श्यैव देवं प्रबलमित्युत ॥ २४ ॥ तदनन्तर दक्षके पास आकर मैंने उन्हें शान्तिभावका उपदेशकर सान्त्वना देते हुए कहा [शोक मत करो], दैव बड़ा प्रबल होता है ॥ २४ ॥ अथ दक्षः पञ्चजन्यां मया स परिसान्त्वितः ।
सबलाश्वाभिधान् पुत्रान् सहस्रं चाप्यजीजनत् ॥ २५ ॥ तब दक्षप्रजापतिने मेरे द्वारा धीरज बँधाये जानेपर पुनः पंचजनकी कन्या [असिनी] -के गर्भसे सबलाश्व नामक हजार पुत्रोंको उत्पन्न किया ॥ २५ ॥ तेऽपि जग्मुस्तत्र सुताः पित्रादिष्टा दृढव्रताः ।
प्रजासर्गे यत्र सिद्धाःस्वपूर्वभ्रातरो ययुः ॥ २६ ॥ दृढ़ व्रतवाले वे सबलाश्व भी पिताकी आज्ञासे सृष्टिसंवर्धनहेतु वहाँ गये, जहाँ उनसे पूर्व उनके भाई गये थे और सिद्ध हो गये थे ॥ २६ ॥ तदपस्पर्शनादेव नष्टाघा विमलाशयाः ।
तेपुर्महत्तपस्तत्र जपन्तो ब्रह्म सुव्रताः ॥ २७ ॥ वे भी उस तीर्थके स्पर्शमात्रसे सर्वथा निष्पाप तथा शुद्ध अन्तःकरणवाले हो गये और उत्तम व्रतमें परायण होकर ब्रह्मका जप करते हुए कठिन तप करने लगे ॥ २७ ॥ प्रजासर्गोद्यतांस्तान् वै ज्ञात्वा गत्वेति नारदः ।
पूर्ववच्चागदद् वाक्यं संस्मरन्नैश्वरीं गतिम् ॥ २८ ॥ हे नारद ! आपने सृष्टि करनेके लिये उन्हें तपस्या उद्यत देखकर उनके पास जाकर ईश्वरकी गतिका स्मरण करते हुए वही उपदेश दिया, जो पूर्वमें उनके भाइयोंको दिया था ॥ २८ ॥ भ्रातः पन्थानमादिश्य त्वं मुने मोघदर्शन ।
अयांश्चोर्ध्वगतिं तेऽपि भ्रातृमार्गं ययुः सुताः ॥ २९ ॥ हे मुने ! आपका दर्शन निष्फल नहीं होता, इसलिये आपने उनको भी पूर्वके भाइयोंके मार्गका उपदेश किया, जिससे वे भी अपने भाइयों के मार्गका अनुसरण करते हुए उसी मार्गपर चले गये ॥ २९ ॥ उत्पातान् बहुशोऽपश्यत्तदैव स प्रजापतिः ।
विस्मितोऽभूत्स मे पुत्रो दक्षो मनसि दुःखितः ॥ ३० ॥ उसी समय दक्षप्रजापतिको अनेक उत्पात दिखायी पड़ने लगे । वे अपने पुत्रोंको आया न देखकर आश्चर्यचकित होकर मनमें दुखी हो गये ॥ ३० ॥ पूर्ववत् त्वत्कृतं दक्षः शुश्राव चकितो भृशम् ।
पुत्रनाशं शुशोचाति पुत्रशोकविमूर्छितः ॥ ३१ ॥ उन्होंने आपके द्वारा प्रथम पुत्रोंके नाशके समान ही इन पुत्रोंके भी नाशका जब समाचार सुना, तो वे आश्चर्यमें भरकर पुत्रशोकसे मूच्छित हो अत्यन्त सन्तप्त हो उठे ॥ ३१ ॥ चुक्रोध तुभ्यं दक्षोऽसौ दुष्टोऽयमिति चाब्रवीत् ।
आगतस्तत्र दैवात् त्वमनुग्रहकरस्तदा ॥ ३२ ॥ वे दक्ष आपपर कुपित हो गये और कहने लगे कि यह नारद दुष्ट है । उसी समय दैवयोगसे उनके पुत्रोंपर अनुग्रह करनेवाले आप भी दक्षके पास आ गये ॥ ३२ ॥ शोकाविष्टः स दक्षो हि रोषविस्फुरिताधरः ।
उपलभ्य तमाहत्य धिग्धिक् प्रोच्य विगर्हयन् ॥ ३३ ॥ उस समय वे प्रजापति दक्ष क्रोधमें भरकर अपने ओठोंको फड़फड़ाते हुए आपके पास आये और आपको धिक्कारते हुए निन्दापूर्वक कहने लगे- ॥ ३३ ॥ दक्ष उवाच
किं कृतं तेऽधमश्रेष्ठ साधूनां साधुलिङ्गतः । भिक्षोमार्गोऽर्भकानां वै दर्शितः साधुकारि नो ॥ ३४ ॥ दक्ष बोले-हे अधोंमें श्रेष्ठ ! तुमने साधुका रूप धारणकर मेरे सत्पुत्रोंको यह कैसा उपदेश किया ? तुमने मेरे इन पुत्रोंको इस प्रकार भिक्षुमार्गका उपदेश क्यों किया, जो उनके लिये कल्याणकारी नहीं था ॥ ३४ ॥ ऋणैस्त्रिभिरमुक्तानां लोकयोरुभयोः कृतः ।
विघातः श्रेयसोऽमीषां निर्दयेन शठेन ते ॥ ३५ ॥ ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य यो गृहात्प्रव्रजेत्पुमान् । मातरं पितरं त्यक्त्वा मोक्षमिच्छन् व्रजत्यधः ॥ ३६ ॥ तुम्हारे-जैसे निर्दयी शठने देव, ऋषि तथा पितृऋणसे मुक्त हुए बिना ही मेरे पुत्रोंको ऐसा उपदेशकर उनके इस लोक तथा परलोकके कल्याणको नष्ट कर दिया, क्योंकि जो बिना तीनों ऋणों से मुक्त हुए ही माता-पिताको छोड़कर मोक्षकी इच्छा करता हुआ निवृत्तिमार्गका अनुसरण करता है, वह नरकगामी होता है ॥ ३५-३६ ॥ निर्दयस्त्वं सुनिर्लज्जः शिशुधीभिद्यशोऽपहा ।
हरेः पार्षदमध्ये हि वृथा चरसि मूढधीः ॥ ३७ ॥ तुम निर्दयी, अत्यन्त निर्लज हो, बालकोंको बहकानेवाले तथा यशको नष्ट करनेवाले हो । हे मूर्ख ! तुम हरिके पार्षदोंके बीचमें व्यर्थ ही विचरण करते हो ॥ ३७ ॥ मुहुर्मुहुरभद्रं त्वमचरो मेऽधमाऽधम ।
विभवेद्भ्रमतस्तेऽतः पदं लोकेषु न स्थिरम् ॥ ३८ ॥ हे अधमाधम ! तुमने बार-बार मेरा अहित किया है । इसलिये लोकमें भ्रमण करते हुए तुम्हारा पैर स्थिर न रहे ॥ ३८ ॥ शशापेति शुचा दक्षस्त्वां तदा साधुसंमतम् ।
बुबोध नेश्वरेच्छां स शिवमायाविमोहितः ॥ ३९ ॥ शापं प्रत्यग्रहीश्च त्वं स मुने निर्विकारधीः । एष एव ब्रह्म साधो सहते सोपि च स्वयम् ॥ ४० ॥ इस प्रकार शिवजीको मायासे मोहित हुए दक्षने ईश्वरकी इच्छाको नहीं समझा और सज्जनोंके मान्य आपको शोकसन्तप्त होकर शाप दे दिया और हे मुने ! निर्मल बुद्धिवाले आपने भी दक्ष प्रजापतिके इस शापको ग्रहण कर लिया, हे ब्रह्मसाधो ! ऐसा साधु स्वयं इस प्रकारके अपकारको सहन कर लेता है ॥ ३९-४० ॥ इति श्रीशिव महापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये
सतीखण्डे दक्षसृष्टौ नारदशापो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसहिताके द्वितीय सतीखण्डमें दक्षकी सृष्टि [उपाख्यान में नारद-शापवर्णन नामक तेरहवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |