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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे
चतुर्दशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] सतीजन्म तस्या बाललीला च
दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन ब्रह्मोवाच
एतस्मिन्नन्तरे देवमुने लोकपितामह । तत्रागममहं प्रीत्या ज्ञात्वा तच्चरितं द्रुतम् ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे देवमुने ! इसी समय मैं लोकपितामह ब्रह्मा भी इस चरित्रको जानकर प्रीतिपूर्वक शीघ्रतासे वहाँ पहुँचा ॥ १ ॥ असान्त्वयमहं दक्षं पूर्ववत्सुविचक्षणः ।
अकार्षं तेन सुस्नेहं तव सुप्रीतिमावहन् ॥ २ ॥ मैंने पूर्वकी भाँति दक्ष प्रजापतिको चैर्य धारण कराया, जिससे वे प्रसन्न हो आपसे पूर्ववत् स्नेह करने लगे ॥ २ ॥ स्वात्मजं मुनिवर्यं त्वां सुप्रीत्या देववल्लभम् ।
समाश्वास्य समादाय प्रत्यपद्यं शुभावहम् ॥ ३ ॥ हे मुनिवर्य ! मैं देवताओंके प्रिय अपने पुत्र आपको प्रेमपूर्वक बहुत धीरज देकर अपने साथ लेकर आश्रमको लौट आया ॥ ३ ॥ ततः प्रजापतिर्दक्षोऽनुनीतो मे निजस्त्रियाम् ।
जनयामास दुहितृः सुभगाः षष्टिसंमिताः ॥ ४ ॥ तदनन्तर दक्षप्रजापतिने मेरी आज्ञासे अपनी स्त्रीमें साठ सौभाग्यवती कन्याओंको उत्पन्न किया ॥ ४ ॥ तासां विवाहं कृतवान् धर्मादिभिरतन्द्रितः ।
तदेव शृणु सुप्रीत्या प्रवदामि मुनीश्वर ॥ ५ ॥ दक्षने आलस्यरहित होकर उन कन्याओंका विवाह धर्मादिकोंके साथ जिस प्रकार किया, उसे प्रीतिपूर्वक सुनिये । हे मुनीश्वर ! उसको मैं कह रहा हूँ ॥ ५ ॥ ददौ दश सुता दक्षो धर्माय विधिवन्मुने ।
त्रयोदश कश्यपाय मुनये त्रिनवेन्दवे ॥ ६ ॥ भूताङ्गिरः कृशाश्वेभ्यो द्वेद्वे पुत्र्यौ प्रदत्तवान् । तार्क्ष्याय चापराः कन्या प्रसूतिप्रसवैर्यतः ॥ ७ ॥ त्रिलोकाः पूरितास्तन्नो वर्ण्यते व्यासतो भयात् । ८ ॥ हे मुने ! दक्षने दस कन्याएँ धर्मको, तेरह कश्यप मुनिको और सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमाको विधिपूर्वक दी । दो-दो कन्याएँ अंगिरा तथा कृशाश्वको और अन्य कन्याएँ तायको दी । जिनकी प्रसूति-परम्परासे यह समस्त जगत् व्याप्त है, विस्तारके भयसे मैं उनका वर्णन नहीं कर रहा हूँ ॥ ६-८ ॥ केचिद्वदन्ति तां ज्येष्ठां मध्यमां चापरे शिवाम् ।
सर्वानन्तरजां केचित्कल्पभेदात्त्रयं च सत् ॥ ९ ॥ कुछ लोग शिवाको इन कन्याओंसे ज्येष्ठ कहते हैं, कोई मध्यम कहते हैं और कोई सबसे छोटी मानते हैं, किंतु कल्पभेदसे ये तीनों ही सही हैं ॥ ९ ॥ अनन्तरं सुतोत्पत्तेः सपत्नीकः प्रजापतिः ।
सुप्रीत्या तां दधौ दक्षो मनसा जगदम्बिकाम् ॥ १० ॥ कन्याकी उत्पत्तिके अनन्तर पत्नीसहित दक्ष प्रजापतिने अत्यन्त प्रेमसे अपने मनमें जगदम्बाका ध्यान किया ॥ १० ॥ अतः प्रेम्णा च तुष्टाव गिरा गद्गदया हि सः ।
भूयो भूयो नमस्कृत्य साञ्जलिर्विनयान्वितः ॥ ११ ॥ उन्होंने गद्गद स्वरसे प्रेमपूर्वक विनययुक्त होकर हाथ जोड़कर बार-बार नमस्कार करके उनकी स्तुति की ॥ ११ ॥ सन्तुष्टा सा तदा देवी विचारं मनसीति च ।
चक्रेऽवतारं वीरिण्यां कुर्यां पणविपूर्तये ॥ १२ ॥ अथ सोवास मनसि दक्षस्य जगदम्बिका । विललास तदातीव स दक्षो मुनिसत्तम ॥ १३ ॥ तब वे देवी सन्तुष्ट होकर मनमें विचार करने लौं कि मुझे अपनी प्रतिज्ञाको पूर्ण करनेके लिये वीरिणीमें अवतार लेना चाहिये । इसके बाद उन जगदम्बाने दक्षके मनमें निवास किया । हे मुनिसत्तम ! उस समय वे अत्यन्त शोभित होने लगे ॥ १२-१३ ॥ सुमुहूर्तेनाथ दक्षोऽपि स्वपत्न्यां निदधे मुदा ।
दक्षपत्न्यास्तदा चित्ते शिवोवास दयान्विता ॥ १४ ॥ आविर्बभूवुश्चिह्नानि दोहदस्याखिलानि वै । १५ ॥ उन्होंने उत्तम शुभ मुहूर्त में अपनी स्वीमें प्रसन्नतापूर्वक गर्भाधान किया । तब वे दयामयी शिवा दक्षपत्नीके हृदयमें निवास करने लगी और दक्षकी स्त्रीमें गर्भके समस्त लक्षण प्रकट होने लगे ॥ १४-१५ ॥ विरेजे वीरिणी तात हृष्टचित्ताधिका च सा ।
शिवावासप्रभावात्तु महामङ्गल रूपिणी ॥ १६ ॥ हे तात ! गर्भमें शिवाके निवासके प्रभावसे वे दक्षपत्नी वीरिणी महामंगल-स्वरूपा और [पहलेकी अपेक्षा] अधिक प्रसन्नचित्त हो गयीं ॥ १६ ॥ कुलस्य सम्प्रदायैश्च श्रुतेश्चित्तसमुन्नतेः ।
व्यधत्त सुक्रिया दक्षः प्रीत्या पुंसवनादिकाः ॥ १७ ॥ उत्सवोऽतीव सञ्जातस्तदा तेषु च कर्मसु । वित्तं ददौ द्विजातिभ्यो यथाकामं प्रजापतिः ॥ १८ ॥ उस समय दक्षने अपने कुलके सम्प्रदायके अनुसार, वेदके अनुसार तथा अपने सम्मानके अनुरूप प्रसन्नतापूर्वक पुंसवनादि सभी संस्कार किये । उन पुंसवनादि कर्मोंमें महान् उत्सव हुआ । दक्ष प्रजापतिने ब्राह्मणोंको उस समय यथेष्ट धन प्रदान किया । १७-१८ ॥ अथ तस्मिन्नवसरे सर्वे हर्यादयः सुराः ।
ज्ञात्वा गर्भगतां देवीं वीरिण्यास्ते मुदं ययुः ॥ १९ ॥ तत्रागत्य च सर्वे ते तुष्टुवुर्जगदम्बिकाम् । लोकोपकारकरिणीं प्रणम्य च मुहुर्मुहुः ॥ २० ॥ उस समय विष्णु आदि सभी देवगण देवीको वीरिणीके गर्भमें आयी हुई जानकर प्रसन्न हो गये और वहाँ आकर उन सबने लोकका उपकार करनेवाली उन जगदम्बाको बार-बार प्रणाम करके उनकी स्तुति की ॥ १९-२० ॥ कृत्वा ततस्ते बहुधा प्रशंसां हृष्टमानसाः ।
दक्षप्रजापतेश्चैव वीरिण्याःस्वगृहं ययुः ॥ २१ ॥ इसके बाद प्रसन्नचित्त होकर वीरिणी तथा दक्ष प्रजापतिकी बहुत ही प्रशंसाकर वे अपने अपने घर चले गये ॥ २१ ॥ गतेषु नवमासेषु कारयित्वा च लौकिकीम् ।
गतिं शिवा च पूर्णे सा दशमे मासि नारद ॥ २२ ॥ आविर्बभूव पुरतो मातुः सद्यस्तदा मुने । मुहूर्ते सुखदे चन्द्रग्रहतारानुकूलके ॥ २३ ॥ हे नारद ! हे मुने ! इस प्रकार नौ मास पूर्ण हो जानेपर समस्त लौकिक क्रिया कर लेनेके बाद जब दसवाँ मास पूर्ण हो गया, तब वे शिवा चन्द्र, ग्रह, तारा [आदि] के अनुकूल होनेपर सुखद मुहूर्तमें शीघ्र ही माताके सामने प्रकट हो गयीं ॥ २२-२३ ॥ तस्यां तु जातमात्रायां सुप्रीतोऽसौ प्रजापतिः ।
सैव देवीति तां मेने दृष्ट्वा तां तेजसोल्बणाम् ॥ २४ ॥ उनके उत्पन्न होते ही प्रजापति दक्ष बड़े प्रसन्न हुए तथा उनके प्रकृष्ट तेजको देखकर उन्होंने उन्हें वही शिवादेवी समझा ॥ २४ ॥ तदाभूत्पुष्पसद्वृष्टिर्मेघाश्च ववृषुर्जलम् ।
दिशः शान्ता द्रुतं तस्यां जातायां च मुनीश्वर ॥ २५ ॥ अवादयन्त त्रिदशाः शुभवाद्यानि खे गताः । जज्ज्वलुश्चाग्नयः शान्ताः सर्वमासीत्सुमङ्गलम् ॥ २६ ॥ हे मुनीश्वर ! उन देवीके उत्पन्न होते ही उस समय आकाशसे पुष्पवृष्टि होने लगी, मेघोंने जलकी वर्षा प्रारम्भ कर दी और सभी दिशाएँ शान्त हो गयीं । देवता आकाशमें स्थित होकर उत्तम बाजे बजाने लगे और शान्त अग्नियाँ प्रज्वलित हो उठीं । इस प्रकार [सभी दिशाओंमें] मंगल-ही-मंगल हो गया ॥ २५-२६ ॥ वीरिणीसम्भवां दृष्ट्वा दक्षस्तां जगदम्बिकाम् ।
नमस्कृत्य करौ बद्ध्वा बहु तुष्टाव भक्तितः ॥ २७ ॥ वीरिणीमें उत्पन्न हुई उन जगदम्बाको देखकर दक्ष भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार करके स्तुति करने लगे ॥ २७ ॥ दक्ष उवाच
महेशानि नमस्तुभ्यं जगदम्बे सनातनि । कृपां कुरु महादेवि सत्ये सत्यस्वरूपिणि ॥ २८ ॥ दक्ष बोले-हे महेशानि ! हे सनातनि ! हे जगदम्बे ! आपको नमस्कार है, हे सत्ये ! हे सत्यस्वरूपिणि ! हे महादेवि ! [मेरे ऊपर दया करें ॥ २८ ॥ शिवा शान्ता महामाया योगनिद्रा जगन्मयी ।
या प्रोच्यते वेदविद्भिर्नमामि त्वां हितावहाम् ॥ २९ ॥ वेदके ज्ञाता जिन्हें शिवा, शान्ता, महामाया, योगनिद्रा तथा जगन्मयी कहते हैं, उन आप हितकारिणी देवीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २९ ॥ यया धाता जगत्सृष्टौ नियुक्तस्तां पुराकरोत् ।
तां त्वां नमामि परमां जगद्धात्रीं महेश्वरीम् ॥ ३० ॥ जिन्होंने पूर्वकालमें ब्रह्माजीको उत्पन्नकर इस जगत्की सृष्टिके कार्यमें नियुक्त किया है, उन परमा जगन्माता आप महेश्वरीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३० ॥ यया विष्णुर्जगत्स्थित्यै नियुक्तस्तां सदाकरोत् ।
तां त्वां नमामि परमां जगद्धात्रीं महेश्वरीम् ॥ ३१ ॥ यया रुद्रो जगन्नाशे नियुक्तस्तां सदाकरोत् । तां त्वां नमामि परमां जगद्धात्रीं महेश्वरीम् ॥ ३२ ॥ जिन्होंने सदा संसारके पालनके लिये विष्णुको नियुक्त किया है, उन परमा जगन्माता आप महेश्वरीको मैं नमस्कार करता हैं । जिन्होंने संसारके विनाशके लिये रुद्रको नियुक्त किया है, उन परमा जगन्माता आप महेश्वरीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३१-३२ ॥ रजःसत्त्वतमोरूपां सर्वकार्यकरीं सदा ।
त्रिदेवजननीं देवीं त्वां नमामि च तां शिवाम् ॥ ३३ ॥ सत्त्व-रज-तमरूपोंवाली, सर्वदा समस्त कार्योंको साधनेवाली तथा तीनों देवताओंको उत्पन्न करनेवाली उन आप शिवादेवीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३३ ॥ यस्त्वां विचिन्तयेद्देवि विद्याविद्यात्मिकां पराम् ।
तस्य भुक्तिश्च मुक्तिश्च सदा करतले स्थिता ॥ ३४ ॥ हे देवि ! जो आपको विद्या-अविद्या-इन दोनों रूपोंसे स्मरण करता है, उसके हाथमें भोग तथा मोक्ष दोनों ही स्थित हो जाते हैं ॥ ३४ ॥ यस्त्वां प्रत्यक्षतो देवि शिवां पश्यति पावनीम् ।
तस्यावश्यं भवेन्मुक्तिर्विद्याविद्याप्रकाशिका ॥ ३५ ॥ हे देवि ! जो परमपावनी शिवास्वरूपा आपका प्रत्यक्ष दर्शन करता है, उसे विद्या तथा अविद्याको प्रकाशित करनेवाली मुक्ति अपने-आप मिल जाती है ॥ ३५ ॥ ये स्तुवन्ति जगन्मातर्भवानीमम्बिकेति च ।
जगन्मयीति दुर्गेति सर्वं तेषां भविष्यति ॥ ३६ ॥ हे जगदम्बे ! जो अम्बिका, जगन्मयी एवं दुर्गा-इन नामोंसे आप भवानीका स्तवन करते हैं, उनके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं ॥ ३६ ॥ ब्रह्मोवाच
इति स्तुता जगन्माता शिवा दक्षेण धीमता । तथोवाच तदा दक्षं यथा माता शृणोति न ॥ ३७ ॥ ब्रह्मा बोले-जब इस प्रकार जगन्माता शिवाकी स्तुति दक्षप्रजापतिने की, तब वे दक्षसे इस प्रकारसे कहने लगीं, जिससे कि माता वीरिणी न सुन सकें ॥ ३७ ॥ सर्वं मुमोह तथ्यं च तथा दक्षः शृणोतु तत् ।
नान्यस्तथा शिवा प्राह नानोतिः परमेश्वरी ॥ ३८ ॥ नाना प्रकारके रूपोंको धारण करनेवाली उन परमेश्वरी शिवाने सबको मोहित करके इस प्रकार सत्य कहा कि उसे केवल दक्ष ही सुन सकें, अन्य कोई नहीं ॥ ३८ ॥ देव्युवाच
अहमाराधिता पूर्वं सुतार्थं ते प्रजापते । ईप्सितं तव सिद्धं तु तपो धारय सम्प्रति ॥ ३९ ॥ देवी बोलीं-हे प्रजापते ! आपने मुझे पुत्रीरूपसे प्राप्त करनेहेतु पहले मेरी आराधना की थी, वह आपका अभीष्ट पूरा हुआ, अब आप पुनः तपस्या कीजिये ॥ ३९ ॥ ब्रह्मोवाच
एवमुक्त्वा तदा देवी दक्षं च निजमायया । आस्थाय शैशवं भावं जनन्यन्ते रुरोद सा ॥ ४० ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार दक्षासे कहकर वे देवी अपनी मायासे शिशुका रूप धारणकर माताके पास रोने लगीं ॥ ४० ॥ अथ तद्रोदनं श्रुत्वा स्त्रियो वाक्यं ससम्भ्रमाः ।
आगतास्तत्र सुप्रीत्या दास्योपि च ससम्भ्रमाः ॥ ४१ ॥ दृष्ट्वाऽसिक्नी सुतारूपं ननन्दुः सर्वयोषितः । सर्वे पौरजनाश्चापि चक्रुर्जयरवं तदा ॥ ४२ ॥ उस रोदनको सुनकर और उसे स्त्रीका शब्द जानकर स्त्रियाँ तथा समस्त दासियाँ भी आश्चर्यचकित हो प्रीतिपूर्वक वहाँ गयीं । असिक्नीकी सुताके रुपको देखकर सभी स्त्रियाँ परम प्रसन्न हुई । उस समय समस्त नगरवासियोंने भी जय-जयकार किया ॥ ४१-४२ ॥ उत्सवश्च महानासीद्गानवाद्यपुरःसरम् ।
दक्षोऽसिक्नी मुदं लेभे शुभं दृष्ट्वा सुताननम् ॥ ४३ ॥ दक्षः श्रुतिकुलाचारं चक्रे च विधिवत्तदा । दानं ददौ द्विजातिभ्योऽन्येभ्यश्च द्रविणं तथा ॥ ४४ ॥ नगरमें गाने-बजानेके साथ महान् उत्सव होने लगा । पुत्रीका सुन्दर मुख देखकर असिक्ती तथा दक्ष परम प्रसन्न हुए । दक्षप्रजापतिने विधिपूर्वक वेदविहित कुलाचार किया और ब्राह्मणोंको दान दिया तथा अन्य लोगोंको भी बहुत-सा धन दिया ॥ ४३-४४ ॥ बभूव सर्वतो गानं नर्तनं च यथोचितम् ।
नेदुर्वाद्यानि बहुशः सुमङ्गलपुरःसरम् ॥ ४५ ॥ वहाँ सभी ओर मंगलाचारपूर्वक गायन तथा नृत्य होने लगा और अनेक प्रकारके बाजे बजाने लगे ॥ ४५ ॥ अथ हर्यादयो देवाः सर्वे सानुचरास्तदा ।
मुनिवृन्दैः समागत्योत्सवं चक्रुर्यथाविधि ॥ ४६ ॥ [शिवाके जन्मके समय] विष्णु आदि सभी देवगण अपने अपने अनुचरों तथा मुनियोंके साथ आकर यथाविधि अनेक उत्सव करने लगे ॥ ४६ ॥ दृष्ट्वा दक्षसुतामम्बां जगतः परमेश्वरीम् ।
नेमुः सविनयाःसर्वे तुष्टुवुश्च शुभैः स्तवैः ॥ ४७ ॥ ऊचुः सर्वे प्रमुदिता गिरं जयजयात्मिकाम् । प्रशशंसुर्मुदा दक्षं वीरिणीं च विशेषतः ॥ ४८ ॥ दक्षकन्याके रूपमें [अवतरित हुई] उन परमेश्वरी जगदम्बाको देखकर देवताओंने विनयपूर्वक उन्हें प्रणाम किया और अनेक प्रकारके उत्तम स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति की । सभी देवता प्रसन्न होकर जयजयकार करने लगे और दक्ष तथा वीरिणीकी विशेष रूपसे प्रशंसा करने लगे । ४७-४८ ॥ तदोमेति नाम चक्रे तस्या दक्षस्तदाज्ञया ।
प्रशस्तायाः सर्वगुणसत्त्वादपि मुदान्वितः ॥ ४९ ॥ नामान्यन्यानि तस्यास्तु पश्चाज्जातानि लोकतः । महामङ्गलदान्येव दुःखघ्नानि विशेषतः ॥ ५० ॥ दक्षने प्रसन्न होकर विष्णु आदि देवताओंकी आज्ञासे सभी गुणोंसे सम्पन्न होनेके कारण उस प्रशस्त अम्बिकाका उमा-यह नाम रखा । उसके बाद लोकमें उनके अन्य नाम भी पड़े, जो मंगल करनेवाले तथा लोगोंके दुःख दूर करनेवाले थे ॥ ४९-५० ॥ दक्षस्तदा हरिं नत्वा मां सर्वानमरानपि ।
मुनीनपि करौ बद्ध्वा स्तुत्वा चानर्च भक्तितः ॥ ५१ ॥ उस समय दक्षप्रजापतिने हाथ जोड़कर विष्णु, मुझ ब्रह्मा, सम्पूर्ण मुनियों तथा देवताओंकी स्तुति करके भक्तिपूर्वक सभी लोगोंका पूजन किया ॥ ५१ ॥ अथ विष्ण्वादयःसर्वे सुप्रशस्याजनन्दनम् ।
प्रीत्या ययुस्वधामानि संस्मरन् सशिवं शिवम् ॥ ५२ ॥ तदनन्तर विष्णु आदि सभी देवगण दक्षकी प्रशंसा करके शिवा तथा शिवका स्मरण करते हुए अपने अपने स्थानोंको चले गये ॥ ५२ ॥ अतस्तां च सुतां माता सुसंस्कृत्य यथोचितम् ।
शिशुपानेन विधिना तस्यै स्तन्यादिकं ददौ ॥ ५३ ॥ उसके बाद माताने भी यथोचित रूपसे उस कन्याका संस्कारकर बालकोंकी स्तनपानविधिसे उसे अपना दूध पिलाया ॥ ५३ ॥ पालिता साथ वीरिण्या दक्षेण च महात्मना ।
ववृधे शुक्लपक्षस्य यथा शशिकलान्वहम् ॥ ५४ ॥ महात्मा प्रजापति दक्ष तथा वीरिणीने [बड़ी सावधानीके साथ] उस कन्याका लालन-पालन किया, जिससे वह शुक्लपक्षके चन्द्रमाकी कलाके समान प्रतिदिन बढ़ने लगी ॥ ५४ ॥ तस्यां तु सद्गुणाः सर्वे विविशुर्द्विजसत्तम ।
शैशवेऽपि यथा चन्द्रे कलाः सर्वा मनोहराः ॥ ५५ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! उस कन्यामें बाल्यकालमें ही सभी सद्गुण प्रविष्ट हो गये; जैसे चन्द्रमामें सभी मनोहर कलाएँ अपने-आप आ जाती हैं ॥ ५५ ॥ आचरन्निजभावेन सखीमध्यगता यदा ।
तदा लिलेख भर्गस्य प्रतिमामन्वहं मुहुः ॥ ५६ ॥ यदा जगौ सुगीतानि शिवा बाल्योचितानि सा । तदा स्थाणुं हरं रुद्रं सस्मार स्मरशासनम् ॥ ५७ ॥ जब वह सखियोंके बीचमें जाकर अपने भावमें मग्न होती थी, तब प्रतिदिन शंकरजीकी प्रतिमाका बारबार निर्माण करती थी । जब वह शिवा बालोचित गाने गाती, तो वह कामपर शासन करनेवाले हर, रुद्र तथा स्थाणुका [गानेके बहाने] स्मरण करती थी ॥ ५६-५७ ॥ ववृधेतीव दम्पत्योः प्रत्यहं करुणाऽतुला ।
तस्या बाल्येऽपि भक्तायास्तयोर्नित्यं मुहुर्मुहुः ॥ ५८ ॥ दक्ष प्रजापति तथा वीरिणीका स्नेह दिन-प्रतिदिन उस कन्यापर बढ़ता ही गया । यद्यपि वह बालिका थी, फिर भी वह अपने माता-पितामें बड़ी भक्ति रखती थी ॥ ५८ ॥ सर्वबालगुणाक्रान्तां सदा स्वालयकारिणीम् ।
तोषयामास पितरौ नित्यं नित्यं मुहुर्मुहुः ॥ ५९ ॥ सभी बालोचित गुणोंसे परिपूर्ण वह उमा देवी अपने घरके सभी कार्योको निपुणतासे सम्पन्नकर प्रतिदिन अपने माता-पिताको सन्तुष्ट करने लगी ॥ ५९ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां
सतीखण्डे सतीजन्मबाललीलावर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें सतीजन्म एवं बाललीलाका वर्णन नामक बौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |