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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

एकविंशोऽध्यायः ॥

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सतीशिवक्रीडावर्णनम्
कैलास पर्वतपर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ


नारद उवाच
समीचीनं वचस्तात सर्वज्ञस्य तवाऽनघ ।
महाद्‌भुतं श्रुतं नो वै चरितं शिवयोः शुभम् ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे तात ! है अनघ ! आप सर्वज्ञकी बात ठीक है । आपके द्वारा मैंने शिवाशिवके अत्यन्त अद्‌भुत एवं कल्याणकारी चरित्रको सुना ॥ १ ॥

विवाहश्च श्रुतःसम्यक् सर्वमोहापहारकः ।
परमज्ञानसम्पन्नो मङ्‌गलालय उत्तमः ॥ २ ॥
समस्त मोहोंको दूर करनेवाले, परम ज्ञानसम्पन्न, मंगलायन तथा उत्तम विवाहकर्मका वर्णन भी अच्छी प्रकारसे सुना ॥ २ ॥

भूय एव विवित्सा मे चरितं शिवयोः शुभम् ।
तद्वर्णय महाप्राज्ञ कृपां कृत्वाऽतुलामरम् ॥ ३ ॥
हे महाप्राज्ञ ! फिर भी शिवजी एवं सतीके अत्यन्त मनोहर एवं उत्तम चरित्रको सुननेकी प्रबल इच्छा है । अतः आप मुझपर दया करके पुनः उसका वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥

ब्रह्मोवाच
सम्यक्कारुणिकस्यैव मुने ते विचिकित्सितम् ।
यदहं नोदितः सौम्य शिवलीलानुवर्णने ॥ ४ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! आपकी इच्छा परम दयावान् शिवजीकी लीला सुननेमें लगी हुई है । यह तो परम सौभाग्यकी बात है, हे सौम्य ! जो आपने मुझे शिवजीकी लीलाका वर्णन करनेके लिये बार-बार प्रेरित किया है ॥ ४ ॥

विवाह्य दक्षजां देवीं सतीं त्रैलोक्यमातरम् ।
गत्वा स्वधाम सुप्रीत्या यदकार्षीन्निबोध मे ॥ ५ ॥
हे नारद ! शिवजीने दक्ष प्रजापतिकी कन्या एवं जगजननी देवी सतीके साथ विवाहकर उन्हें अपने स्थानपर ले जाकर जो कुछ भी किया, उसे अब सुनें ॥ ५ ॥

ततो हरःस स्वगणः स्वस्थानं प्राप्य मोदनम ।
देवर्षे तत्र वृषभादवातरदतिप्रियात् ॥ ६ ॥
हे देवर्षे ! दक्षसे विदा होनेके बाद महादेवजी गणोंसहित अपने आनन्ददायक स्थानपर जाकर बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने परमप्रिय वाहन नन्दीश्वरसे उतरे ॥ ६ ॥

यथायोग्यं निजस्थानं प्रविश्य स सतीसखः ।
मुमुदेऽतीव देवर्षे भवाचारकरः शिवः ॥ ७ ॥
हे देवर्षे ! इस प्रकार सांसारिक लीला करने में प्रवीण सतीपति सदाशिव यथायोग्य अपने स्थानमें प्रवेशकर अत्यन्त हर्षित हुए ॥ ७ ॥

ततो विरूपाक्ष इमां प्राप्य दाक्षायणीं गणान् ।
स्वीयान्निर्यापयामास नन्द्यादीन् गिरिकन्दरात् ॥ ८ ॥
इन महादेवजीने सतीको प्राप्त कर लेनेके उपरान्त अपने नन्दी आदि समस्त गणोंको पर्वतकी कन्दरासे बाहर भेज दिया ॥ ८ ॥

उवाच चैतांस्तान् सर्वान्नन्द्यादीनतिसूनृतम् ।
लौकिकीं रीतिमाश्रित्य करुणासागरः प्रभुः ॥ ९ ॥
विदा करते हुए उन नन्दीश्वर आदि समस्त गणोंसे करुणासागर शिवजी लौकिक रीतिका अनुसरण करते हुए मधुर वचनोंसे कहने लगे- ॥ ९ ॥

महेश उवाच
यदाहं च स्मराम्यत्र स्मरणादरमानसाः ।
समागमिष्यथ तदा मत्पार्श्‍वे मे गणा द्रुतम् ॥ १० ॥
महेश बोले-हे गणो ! जिस समय मैं आपलोगोंका स्मरण करूँ, तब आपलोग मेरे स्मरणका आदर करते हुए शीघ्र मेरे पास चले आइये ॥ १० ॥

इत्युक्ते वामदेवेन नद्याद्याः स्वगणाश्च ते ।
महावेगा महावीरा नानास्थानेषु संययुः ॥ ११ ॥
शिवजीके ऐसा कहनेपर महावेगवान् महावीर नन्दी आदि वे सभी गण अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ ११ ॥

ईश्वरोपि तया सार्द्धं तेषु यातेषु विभ्रमी ।
दाक्षायण्या समं रेमे रहस्ये मुदितो भृशम् ॥ १२ ॥
उन गणोंके चले जानेके अनन्तर परम कौतुकी शिवजी बड़ी प्रसन्नतापूर्वक एकान्तमें सतीके साथ विहार करने लगे ॥ १२ ॥

कदाचिद्वन्यपुष्पाणि समाहृत्य मनोहराम् ।
मालां विधाय सत्यास्तु हारस्थाने स योजयत् ॥ ३ ॥
शिवजी कभी वनोंसे तोड़कर लाये हुए पुष्पोंकी मनोहर माला बनाकर सतीके हार-स्थान अर्थात् हृदयामें पहनाते थे ॥ १३ ॥

कदाचिद्दर्पणे चैव वीक्षतीमात्मनः सतीम् ।
अनुगम्य हरो वक्त्रम् स्वीयमप्यवलोकयत् ॥ १४ ॥
कभी-कभी जब देवी सती अपना मुख दर्पणमें देख रही होती थीं, उस समय शिवजी भी सतीके पीछे जाकर अपना मुख देखने लगते थे ॥ १४ ॥

कदाचित्कुण्डलं तस्या उल्लास्योल्लास्य सङ्‌गतः ।
बध्नाति मोचयत्येव सा स्वयं मार्जयत्यपि ॥ १५ ॥
वे कभी सतीके कुण्डलोंको बार-बार पकड़कर हिलाने लगते थे, उन्हें सतीके कानों में पहनाते और फिर निकालने लगते थे ॥ १५ ॥

सरागौ चरणावस्याः पावकेनोज्ज्वलेन च ।
निसर्गरक्तौ कुरुते पूर्णरागौ वृषध्वजः ॥ १६ ॥
कभी वे भगवान् शंकर स्वभावतः लालवर्णवाले सतीके चरणोंको देदीप्यमान लाक्षारससे रंगकर अत्यधिक रागयुक्त कर देते थे ॥ १६ ॥

उच्चैरपि यदाख्येयमन्येषां पुरतो बहु ।
तत् कर्णे कथयत्यस्या हरो द्रष्टुं तदाननम् ॥ १७ ॥
सतीका मुखावलोकन करनेके उद्देश्यसे जो बात दूसरोंके समक्ष भी कही जा सकती थी, उसे सतीके कानोंमें कहते थे ॥ १७ ॥

न दूरमपि गन्ताऽसौ समागत्य प्रयत्नतः ।
अनुबध्नाति नामाक्षी पृष्ठदेशेऽन्यमानसाम् ॥ १८ ॥
वे कभी घरसे दूर नहीं जाते थे, यदि दूर जाते भी तो शीघ्रतासे वापस आ जाते थे और किसी बातको सोचती हुई सतीके नेत्रोंको पीछेसे आकर अपने हाथोंसे बन्द कर लेते थे ॥ १८ ॥

अन्तर्हितस्तु तत्रैव मायया वृषभध्वजः ।
तामालिलिङ्‌ग भीत्या स्वं चकिता व्याकुलाऽभवत् ॥ १९ ॥
कभी वे अपनी मायासे छिपकर वहीं जाकर सतीका आलिंगन करते तो वे भयभीत होकर अत्यन्त चकित होते हुए व्याकुल हो जाती थीं ॥ १९ ॥

सौवर्णपद्मकलिकातुल्ये तस्या कुचद्वये ।
चकार भ्रमराकारं मृगनाभिविशेषकम् ॥ २० ॥
हारमस्याः कुचयुगाद्वियोज्य सहसा हरः ।
न्ययोजयच्च तत्रैव स्वकरस्पर्शनं मुहुः ॥ २१ ॥
अङ्‌गदान्वलयानूर्मीन्विश्लेष्य च पुनः पुनः ।
तत्स्थानात्पुनरेवासौ तत्स्थाने प्रत्ययोजयत् ॥ २२ ॥
वे कभी सुवर्णकमलकी कलीके समान उनके वक्षःस्थलपर कस्तूरीसे भ्रमरके आकारकी चित्रकारी करते थे और कभी उनका हार उतार लेते थे और फिर उसे वहीं स्थापित भी कर देते थे । कभी सतीके अंगसे बाजूबंद, कंकण तथा अंगूठी बार-बार निकालकर उसे पुनः उसी स्थानपर पहना दिया करते थे ॥ २०-२२ ॥

कालिकेति समायाति सवर्णा ते सखी त्विमाम् ।
यास्यत्वस्यास्तथेक्षन्त्याः प्रोत्तुङ्‌गौ साहसं कुचौ ॥ २३ ॥
यह तुम्हारे ही समान स्वरूपवाली तुम्हारी कालिका नामकी सखी आ रही है-शिवजीद्वारा इस प्रकारके वचनोंको सुनकर जब सती उस सखीको देखनेके लिये चली, तो शिवजी उनका स्पर्श करने लगते ॥ २३ ॥

कदाचिन्मदनोन्मातचेतनः प्रमथाधिपः ।
चकार नर्म शर्माणि तथाकृत्प्रियया मुदा ॥ २४ ॥
कभी प्रमथाधिपति शिव कामके उन्मादसे व्यग्र होकर अपनी प्रियाके साथ कामकेलि-परिहास करने लगते थे ॥ २४ ॥

आहृत्य पद्मपुष्पाणि रम्यपुष्पाणि शङ्‌करः ।
सर्वाङ्‌गेषु करोति स्म पुष्पाभरणमादरात् ॥ २५ ॥
कभी शंकरजी कमलपुष्यों तथा अन्य मनोहर पुष्पोंको लाकर बड़े प्रेमसे उनका आभूषण बनाकर सतीके अंगोंमें पहनाते थे ॥ २५ ॥

गिरिकुञ्जेषु रम्येषु सत्या सह महेश्वरः ।
विजहार समस्तेषु प्रियया भक्तवत्सलः ॥ २६ ॥
इस प्रकार भक्तवत्सल महेश्वर समस्त रमणीय बनकुंजोंमें सतीके साथ विहार करने लगे ॥ २६ ॥

तया विना स्म नो याति नास्थितो न स्म चेष्टते ।
तया विना क्षणमपि शर्म लेभे न शङ्‌करः ॥ २७ ॥
देवी सतीके बिना शिवजी कहीं भी नहीं जाते थे, न बैठते थे और न ही किसी प्रकारकी चेष्टा ही करते थे । सतीके बिना उन्हें क्षणमात्र भी चैन नहीं पड़ता था ॥ २७ ॥

विहृत्य सुचिरं कालं कैलासगिरिकुञ्जरे ।
अगमद्धिमवत्प्रस्थं सस्मार स्वेच्छया स्मरन् ॥ २८ ॥
इस प्रकार कैलासपर्वतके प्रत्येक वनकुंजमें बहुत समयतक विहार करनेके पश्चात् वे पुनः हिमालयके शिखरपर गये और उन्होंने अपनी इच्छासे कामदेवका स्मरण किया ॥ २८ ॥

तस्मिन्प्रविष्टे कामे तु वसन्तः शङ्‌करान्तिके ।
वितस्तार निजं भावं हार्दं विज्ञाय यत्प्रभो ॥ २९ ॥
जिस समय काम उनके आश्रममें प्रविष्ट हुआ, उसके साथ ही वसन्तने भी शिवजीके अभिप्रायको जानकर अपना प्रभाव प्रकट किया ॥ २९ ॥

सर्वे च पुष्पिता वृक्षा लताश्चान्याश्च पुष्पिताः।
अम्भांसि फुल्लपद्मानि पद्माः सभ्रमरास्तथा । ३० ॥
उस पर्वतके सभी वृक्ष तथा लताएं पुष्पसे आच्छादित हो उठीं और जल खिले कमलोंसे तथा कमला भ्रमरोंसे युक्त हो गये ॥ ३० ॥

प्रविष्टे तत्र सदृतौ ववौ समलयो मरुत् ।
सुगन्धिगन्धपुष्पेण मोदकश्च सुगन्धियुक् ॥ ३१ ॥
उस समय उत्तम ऋतु वसन्तके प्रविष्ट होते ही सुगन्धित पुष्पोंकी गन्धसे समन्वित आनन्ददायक तथा सुगन्धिसे युक्त मलय पवन बहने लगा ॥ ३१ ॥

सन्ध्यार्द्रचन्द्रसङ्‌काशाः पलाशाश्च विरेजिरे ।
कामास्त्रवत्सुमनसः प्रमोदात्पादपाधरः ॥ ३२ ॥
सन्ध्याकालीन अरुण चन्द्रमाके सदृश पलाश शोभायमान होने लगे । सभी वृक्ष कामके अस्त्रके समान सुन्दर पुष्पोंसे अलंकृत हो गये ॥ ३२ ॥

बभुः पङ्‌कजपुष्पाणि सरःसु सङ्‌कलाञ्जनान् ।
संमोहयितुमुद्युक्ता सुमुखी वायुदेवता ॥ ३३ ॥
तड़ागोंमें कमलपुष्प खिल उठे । अनुकूल वायु संसारके मनुष्योंको मोहित करनेहेतु उद्यत दिखायी पड़ने लगी ॥ ३३ ॥

नागकेशरवृक्षाश्च स्वर्णवर्णैः प्रसूनकैः ।
बभुर्मदनकेत्वाम्रा मनोज्ञाः शङ्‌करान्तिके ॥ ३४ ॥
भगवान् शंकरके समीप नागकेसरके वृक्ष अपने सुवर्णके समान पुष्पोंसे कामदेवकी ध्वजाके समान मनोहर प्रतीत होने लगे ॥ ३४ ॥

लवङ्‌गवल्ली सुरभिगन्धेनोद्वास्य मारुतम् ।
मोहयामास चेतांसि भृशं कामिजने पुरा ॥ ३५ ॥
लवंगकी लता अपनी सुरभित गन्धसे वायुको सुवासित करके कामीजनोंके चित्तको मोहित करने लगी ॥ ३५ ॥

चारुचर्चितभृङ्‍ग्गौघाः सुस्वराश्चूतशालिनः ।
बभुर्मदनबाणौघपर्यङ्‌कमदनावृताः ॥ ३६ ॥
मँडरानेवाले तथा आम्रमंजरियोंमें गंजार करनेवाले भौंरोंके सुन्दर समूह कामदेवके बाणोंके समान तथा कामसे व्याप्त मदनके पयक जैसे प्रतीत हो रहे थे ॥ ३६ ॥

अम्भांसि मलहीनानि रेजुः फुल्लकुशाशयाः ।
मुनीनामिव चेतांसि प्रव्यक्तज्योतिरुद्‌गमम् ॥ ३७ ॥
ज्ञानरूपी प्रकाशको प्राप्तकर जिस प्रकार मुनियोंका मन प्रफुल्लित हो जाता है, उसी प्रकार खिले हुए कमलपुष्पोंसे युक्त निर्मल जल शोभा पा रहे थे ॥ ३७ ॥

तुषाराःसूर्यरश्मीनां सङ्‌गमादगमन् बहिः ।
प्रमत्वानीक्ष्यतेक्षाश्च सलिलीहृदयास्तदा ॥ ३८ ॥
सूर्यको किरणोंके सम्पर्कके कारण बर्फ पिघलकर बहने लगी । जल ही जिनका हृदय है, ऐसे कमल जलके बीच स्पष्टरूपसे दृष्टिगोचर हो रहे थे ॥ ३८ ॥

प्रसन्नाःसह चन्द्रेण निर्निशारास्तदाऽभवन् ।
विभावर्यः प्रियेणैवं कामिन्यस्तु मनोहराः ॥ ३९ ॥
रात्रिवेलामें तुषाररहित रात्रियाँ चन्द्रमासे युक्त होनेके कारण प्रियतमके साथ सुशोभित होनेवाली स्त्रियों जैसी प्रतीत हो रही थीं ॥ ३९ ॥

तस्मिन्काले महादेवः सह सत्या धरोत्तमे ।
रेमे स सुचिरं छन्दं निकुञ्जेषु नदीषु च ॥ ४० ॥
तथा तेन समं रेजे तदा दाक्षायिणि मुने ।
यथा हरः क्षणमपि शान्तिमाप तया विना ॥ ४१ ॥
सम्भोगविषये देवी सती तस्य मनः प्रिया ।
विशतीव हरस्याङ्‌गे पाययन्निव तद्‌रसम् ॥ ४२ ॥
ऐसे मनोहारी वसन्तकालमें महादेवजी सतीके साथ पर्वतकुंजों एवं नदियोंमें बहुत कालतक स्वच्छन्दतासे रमण करने लगे और हे मुने ! उस समय दक्षकन्या देवी सती भी महादेवजीके साथ शोभाको प्राप्त हुई । शिवजीको सतीके बिना क्षणमात्र भी शान्ति नहीं मिलती थी । शिवजीकी प्रिया सती भी उन्हें रसका पान कराती हुई प्रतीत हो रही थीं ॥ ४०-४२ ॥

तस्या कुसुममालाभिर्भूषयन्सकलां तनुम् ।
स्वहस्तरचिताभिस्तु नवशर्माकरोच्च सः ॥ ४३ ॥
शंकरजी खिले हुए नवीन पुष्पोंकी अपने हाथसे माला बनाकर सतीके अंगोंको सुशोभित करते हुए नये-नये मंगल कर रहे थे ॥ ४३ ॥

आलापैर्वीक्षितैर्हास्यैस्तथा सम्भाषणैर्हरः ।
तस्यादिदेश गिरिजां शंसतीवात्मसंविदम् ॥ ४४ ॥
आलाप, अवलोकन, हास्य और परस्पर सम्भाषण आदिके द्वारा वे शम्भु कभी उन गिरिजाको स्वयं सौतके रूपमें भी दिखा देते थे ॥ ४४ ॥

तद्वक्त्रचन्द्रपीयूषपानस्थिरतनुर्हरः ।
नानावैशेषिकीं तन्वीमवस्थां स कदाचन ॥ ४५ ॥
उन सतीके चन्द्रमुखका अमृतपान करनेमें सन्नद्ध शरीरवाले शिव अपने शरीरकी अनेक अवस्थाएँ कभी-कभी दिखाने लगते थे ॥ ४५ ॥

तद्वक्त्राम्बुजवासेन तत्सौन्दर्य्यैश्च नर्मभिः ।
गुणैरिव महादन्ती बद्धो नान्यविचेष्टितः ॥ ४६ ॥
वे शिवजी सतीके मुखकमलकी सुगन्धि, उनकी मनोहारी सुन्दरता तथा प्रीतिपूर्ण चेष्टाओंमें इस प्रकार बँध गये थे, जैसे कोई बंधा हुआ हाथी किसी भी प्रकारकी चेष्टा करनेमें अपनेको असमर्थ पाता है ॥ ४६ ॥

इति हिमगिरिकुञ्जप्रस्थभागे दरीषु
     प्रतिदिनमभिरेमे दक्षपुत्र्या महेशः ।
क्रतुभुजपरिमाणैः क्रीडतस्तस्य जाता
     दश दश च सुरर्षे वत्सराः पञ्च चान्ये ॥ ४७ ॥
इस प्रकार वे महेश्वर हिमालयपर्वतके कुंजों, शिखरोंपर और गुफाओंमें सतीके साथ प्रतिदिन रमण करने लगे । हे सुरर्षे ! इस प्रकार उनके विहार करते हुए देवताओंके वर्षके अनुसार पचीस वर्ष व्यतीत हो गये ॥ ४७ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये
सतीखण्डे सतीशिवक्रीडावर्णनं नामैकविंशोध्यायः ॥ २१ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें सतीशिवक्रीडावर्णन नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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