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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

द्वाविंशोऽध्यायः ॥

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शिवाशिवविहारवर्णनम्
सती और शिवका विहार-वर्णन


ब्रह्मोवाच
कदाचिदथ दक्षस्य तनया जलदागमे ।
कैलासक्ष्माभृतः प्राह प्रस्थस्थं वृषभध्वजम् ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-किसी समय वर्षाऋतमें जब श्रीमहादेवजी कैलासपर्वतके शिखरपर विराजमान थे, उस समय सती शिवजीसे कहने लगीं- ॥ १ ॥

सत्युवाच
देव देव महादेव शम्भो मत्प्राणवल्लभ ।
शृणु मे वचनं नाथ श्रुत्वा तत्कुरु मानद ॥ २ ॥
सती बोलीं-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे शम्भो ! हे मेरे प्राणवल्लभ ! हे नाथ ! मेरे वचनको सुनिये और हे मानद ! सुन करके उसे कीजिये ॥ २ ॥

घनागमोऽयं सम्प्राप्तः कालः परमदुःसहः ।
अनेकवर्णमेघौघः सङ्‌गीताम्बरदिक्चयाः ॥ ३ ॥
हे नाथ ! यह परम कष्टदायक वर्षाकाल आ गया है तथा अनेक वर्णके मेघोंके गर्जनसे आकाश तथा दिशाएँ व्याप्त हो गयी हैं ॥ ३ ॥

विवान्ति वाता हृदयं हारयन्तीत वेगिनः ।
कदम्बरजसा धौताः पाथोबिन्दुविकर्षणाः ॥ ४ ॥
कदम्बके परागसे समन्वित, जलबिन्दुओंको लेकर बहनेवाली मनोहारिणी तथा तीव्रगतिवाली वायु प्रवाहित हो रही है ॥ ४ ॥

मेघानां गर्जितैरुच्चैर्धारासारं विमुञ्चताम् ।
विद्युत्पताकिनां तीव्रैः क्षुब्धं स्यात्कस्य नो मनः ॥ ५ ॥
इस वर्षाकालमें जलसमूहकी धाराओंसे वृष्टि करते हुए तथा चमकती हुई बिजलीकी पताकावाले इन मेघोंकी गर्जनाके कारण किसका मन विक्षुब्ध नहीं हो जाता ॥ ५ ॥

न सूर्यो दृश्यते नापि मेघच्छन्नो निशापतिः ।
दिवापि रात्रिवद्‌भाति विरहिव्यसनाकरः ॥ ६ ॥
विरहीजनोंको दुःखदायी कर देनेवाला यह वर्षाकाल महाभयानक है । इस समय आकाशके मेघाच्छन्न होनेके कारण दिनमें न तो सूर्यका दर्शन हो पा रहा है और न तो रात्रिमें चन्द्रमा ही दिखायी पड़ता है । [इस कालमें] दिन भी रात्रिके समान ही प्रतीत हो रहा है ॥ ६ ॥

मेघा नैकत्र तिष्ठन्तो ध्वनन्त पवनेरिताः ।
पतन्त इव लोकानां दृश्यन्ते मूर्ध्नि शङ्‌कर ॥ ७ ॥
प्रचण्ड वायुके झोंकोंके कारण मेघ शब्द करते हुए आकाशमें कहीं भी स्थिर नहीं हो पा रहे हैं । हे शंकर ! ये मेघ ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, जैसे अभी लोगोंके सिरपर गिर जायँगे ॥ ७ ॥

वाताहता महावृक्षा नर्तन्त इव चाम्बरे ।
दृश्यन्ते हर भीरूणां त्रासदाः कामुकेप्सिता ॥ ८ ॥
हे शंकर ! हवाके वेगसे ये बड़े बड़े वृक्ष आकाशमें नाचते हुए-से प्रतीत हो रहे हैं । ये कामीजनोंके लिये सुख देनेवाले तथा भीरुजनोंको भयभीत करनेवाले हैं ॥ ८ ॥

स्निग्धनीलाञ्जनस्याशु सदिवौघस्य पृष्ठतः ।
बलाकराजी वात्युच्चैर्यमुनापृष्ठफेनवत् ॥ ९ ॥
काले तथा चिकने बादलोंवाले आकाशके ऊपर उड़ती हुई बकपंक्ति यमुनानदीके ऊपर बहते हुए फेन-जैसी प्रतीत हो रही है ॥ ९ ॥

क्षपायामीश वलयो दृश्यन्ते करभाश्रिताः ।
अम्बुधाविव सन्दीप्तपावको वडवामुखः ॥ १० ॥
ईश ! काली रात्रिमें बादलोंमें छिपा हुआ यह चन्द्रमण्डल समुद्रमें प्रदीप्त हुई वडवाग्निके समान प्रतीत हो रहा है ॥ १० ॥

प्रारोहन्तीह सस्यानि मन्दरे प्राङ्‌गणेष्वपि ।
किमन्यत्र विरूपाक्ष सस्योद्‌भूतिः वदाम्यहम् ॥ ११ ॥
हे विरूपाक्ष ! इस मन्दराचल पर्वतशिखरके प्रांगणमें भी वर्षाकालीन घासें उग आयी हैं, फिर अन्य स्थानोंकी चर्चा ही क्या करूँ ? ॥ ११ ॥

श्यामलै राजतै रक्तैर्विशदोऽयं हिमाचलः ।
मन्दराश्रयमेघौघः पत्रैर्दुग्धाम्बुधिर्यथा ॥ १२ ॥
मन्दराचलपर आश्रय ग्रहण करनेवाले इन काले, श्वेत तथा रक्तवर्णके मेघोंसे यह विशाल हिमालय इस प्रकार प्रतीत हो रहा है, जैसे पत्तोंसे पूर्ण दुग्धाका समुद्र हो ॥ १२ ॥

असमश्रीश्च कुटिलं भेजे यस्याथ किंशुकान् ।
उच्चावचान् कलौ लक्ष्मीर्गन्ता सन्त्यज्य सज्जनान् ॥ १३ ॥
श्री (शोभा) सभी वृक्षोंको त्यागकर केवल विषमतासे किंशुक वृक्षोंको शोभित कर रही है, जिस प्रकार महालक्ष्मी कलियुगमें सज्जनोंको त्यागकर सभी ऊँचे नीचे पुरुषोंको प्राप्त होती हैं ॥ १३ ॥

मन्दराचलमेघानां शब्देन हृषिता मुहुः ।
केकायन्ते प्रतिवनं सततं पृष्ठसूचकम् ॥ १४ ॥
मन्दराचल पर्वतके शिखरपर वास करनेवाले बादलोंके शब्दसे हर्षित होकर मोर वनमें अपनी पीठ दिखाकर नृत्य कर रहे हैं ॥ १४ ॥

मेघोत्सुकानां मधुरश्चातकानां मनोहरः ।
धारासारशरैस्तापं पेतुः प्रतिपथोद्‌गतम् ॥ १५ ॥
मेघानां पश्य मद्देहे दुर्नयं करकोत्करैः ।
ये छादयन्त्यनुगते मयूरांश्चातकांस्तथा ॥ १६ ॥
मेघोंके लिये उत्सुक इन चातकोंकी मधुर ध्वनि इस वर्षाकालमें सुनायी पड़ रही है और पथिकगण तीव्र जल वर्षाके कारण रास्तेमें होनेवाली थकानको दूर कर रहे हैं । हे शंकर ! मेरी देहपर मेघोंद्वारा ओले गिराये जानेसे उत्पन्न हुई इस दुर्नीतिको देखिये, जो अपने अनुगामी मोर तथा चातकोंपर भी उपलकी वर्षाकर उन्हें ओलोंसे आच्छादित कर रहे हैं ॥ १५-१६ ॥

शिखिसारङ्‌गयोर्दृष्ट्‍वा मित्रादपि पराभवम् ।
हर्षं गच्छन्ति गिरिशं विदूरमपि मानसम् ॥ १७ ॥
हे गिरिश ! मोर तथा सारंग भी अपने मित्र (बादल)-से पराभवको प्राप्तकर दूर होनेपर भी हर्षपूर्वक मानसरोवरको चले जा रहे हैं ॥ १७ ॥

एतस्मिन्विषमे काले नीलं काकाश्चकोरकाः ।
कुर्वन्ति त्वां विना गेहान् कथं शान्तिमवाप्स्यसि ॥ १८ ॥
हे सदाशिव !] इस विषम परिस्थितिमें [केवल] आपको छोड़कर कौआ और चकोर पक्षी भी अपना घोंसला बना रहे हैं । अब आप ही बताइये, घरके बिना आप किस प्रकार शान्ति प्राप्त करेंगे ? ॥ १८ ॥

महतीवाद्य नो भीतिर्मा मेघोत्था पिनाकधृक् ।
यतस्व यस्माद्वासाय माचिरं वचनान्मम ॥ १९ ॥
हे पिनाकधारिन् ! मुझे इन मेघोंसे बहुत बड़ा भय उत्पन्न हो गया है, इसलिये मेरे कहनेसे निवासके लिये शीघ्र ही घर बनानेका प्रयत्न कीजिये ॥ १९ ॥

कैलासे वा हिमाद्रौ वा महाकाश्यामथ क्षितौ ।
तत्रोपयोग्यं संवासं कुरु त्वं वृषभध्वज ॥ २० ॥
हे वृषभध्वज ! आप कैलासपर्वतपर, हिमालयपर अथवा महाकोशीपर या पृथ्वीपर अपने योग्य निवासस्थान बनाइये ॥ २० ॥

ब्रह्मोवाच
एवमुक्तस्तया शम्भुर्दाक्षायण्या तथाऽसकृत् ।
सञ्जहास च शीर्षस्थचन्द्ररश्मिस्मितालयम् ॥ २१ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] इस प्रकार दक्षकन्या सतीके द्वारा बार-बार कहे जानेपर शिवजी अपने सिरपर स्थित चन्द्रमाके प्रकाशपुंजके समान उज्ज्वल मुखसे हँसने लगे ॥ २१ ॥

अथोवाच सतीं देवीं स्मिताभिन्नौष्ठसम्पुटः ।
महात्मा सर्वतत्त्वज्ञस्तोषयन्परमेश्वरः ॥ २२ ॥
तदनन्तर मुसकराहटके कारण खुले ओठोंवाले वे सर्वतत्त्वज्ञाता महात्मा परमेश्वर महादेवजी सतीको प्रसन्न करते हुए कहने लगे- ॥ २२ ॥

ईश्वरः उवाच
यत्र प्रीत्यै मया कार्यो वासस्तव मनोहरे ।
मेघास्तत्र न गन्तारः कदाचिदपि मत्प्रिये ॥ २३ ॥
ईश्वर बोले-हे मनोहरे ! हे मेरी प्रिये ! तुम्हारी प्रीतिके लिये मैं तुम्हारे रहनेके योग्य निवासस्थान उस जगहपर बना दूंगा, जहाँ मेघ कभी भी नहीं जा सकेंगे ॥ २३ ॥

मेघा नितम्बपर्यन्तं सञ्चरन्ति महीभृतः ।
सदा प्रालेयसानोस्तु वर्षास्वपि मनोहरे ॥ २४ ॥
हे मनोहरे ! वर्षाकालमें भी ये मेघ हिमालय पर्वत (मध्य भाग) के नीचे ही नीचे घूमते रहते हैं ॥ २४ ॥

कैलासस्य तथा देवि पादगाः प्रायशो घनाः ।
सञ्चरन्ति न गच्छन्ति तत ऊर्ध्वं कदाचन ॥ २५ ॥
उसी प्रकार हे देवि ! ये मेघ इस कैलासपर्वतके भी नीचे ही नीचे घूमते हैं, कैलास पर्वतके ऊपर नहीं जाते हैं ॥ २५ ॥

सुमेरोर्वा गिरेरूर्ध्वं न गच्छन्ति बलाहकाः ।
जम्बूमूलं समासाद्य पुष्करावर्तकादयः ॥ २६ ॥
पुष्कर, आवर्तक आदि मेघ भी जम्बूके मूलभागतक ही रह जाते हैं । ये जम्बूके ऊपर रहनेवाले सुमेरु पर्वतके शिखरपर नहीं जाते हैं ॥ २६ ॥

इत्युक्तेषु गिरीन्द्रेषु यस्योपरि भवेद्धि ते ।
मनोरुचिर्निवासाय तमाचक्ष्व द्रुतं हि मे ॥ २७ ॥
हे प्रिये ! इन वर्णित पर्वतोंमें जिस पर्वतपर तुम्हारी निवास करनेकी इच्छा हो, उस पर्वतको शीघ्र ही बताओ ॥ २७ ॥

स्वेच्छाविहारैस्तव कौतुकानि
     सुवर्णपक्षानिलवृन्दवृन्दैः ।
शब्दोत्तरङ्‌गैर्मधुरस्वनैस्तै-
     र्मुदोपगेयानि गिरौ हिमोत्थे ॥ २८ ॥
इस हिमालय पर्वतपर निवास करनेसे स्वच्छन्द विहार करनेवाले सुवर्णके सदृश पंखवाले ये अनिल नामक पक्षिसमूह ऊँचे-ऊँचे मधुर शब्दोंसे तुम्हारे कौतुक (केलिक्रीडा) का गान करेंगे ॥ २८ ॥

सिद्धाङ्‌गनास्ते रचितासना भुवं
     काङ्‍क्षन्ति चैवोपहृतं सकौतुकम् ।
स्वेच्छाविहारे मणिकुट्टिमे गिरौ
     कुर्वन्ति चेष्यन्ति फलादिदानकैः ॥ २९ ॥
सिद्धोंकी कमनीय स्त्रियाँ मणियोंके द्वारा कूटकर बनायी गयी इस हिमालयकी भूमिपर स्वेच्छाविहारकालमें कौतुकसे तुम्हारे बैठनेके लिये आसनका निर्माणकर स्वच्छ पृथिवीको तुम्हारे लिये अर्पण करेंगी और अनेक प्रकारके फल-मूल आदि लाकर देनेकी इच्छा करेंगी ॥ २९ ॥

फणीन्द्रकन्या गिरिकन्यकाश्च
     या नागकन्याश्च तुरङ्‌गमुख्याः ।
सर्वास्तु तास्ते सततं सहायतां
     समाचरिष्यन्त्यनुमोदविभ्रमैः ॥ ३० ॥
नागकन्याएँ, पर्वतकन्याएँ एवं तुरंगमुखी किन्नरियाँ-ये सभी मनको मोहनेवाले अपने हावभावसे सदैव तुम्हारी सहायता करेंगी॥३०॥

रूपं तदेवमतुलं वदनं सुचारु
     दृष्ट्‍वाङ्‌गना निजवपुर्निजकान्तिसह्यम् ।
हेला निजे वपुषि रूपगणेषु नित्यं
     कर्तार इत्यनिमिषेक्षणचारुरूपाः ॥ ३१ ॥
तुम्हारे इस अतुलनीय रूप तथा मनोहारी मुखको देखकर वहाँकी स्त्रियाँ अपने पतिके लिये मनोहर लगनेवाले शरीर, अपने रूप तथा गुणोंको धिक्कार करेंगी तथा तुम्हारी और निरन्तर देखती रहेंगी॥३१॥

या मेनका पर्वतराजजाया
     रूपैर्गुणैः ख्यातवती त्रिलोके ।
सा चापि ते तत्र मनोनुमोदं
     नित्यं करिष्यत्यनुनाथनाद्यैः ॥ ३२ ॥
पर्वतराज हिमालयकी पत्नी मेनका, जो अपने रूप तथा गुणसे त्रिलोकमें विख्यात हैं, वे भी तुम्हारे मनोऽनुकूल ऐश्वर्य, आशीर्वाद तथा प्रार्थनासे तुम्हें प्रसन्न करना चाहेंगी॥३२॥

पुरस्थवर्गैर्गिरिराजवन्द्यैः
     प्रीतिं विचिन्वद्‌भिरुदाररूपा ।
शिक्षा सदा ते खलु शोचितापि
     कार्याऽन्वहं प्रीतियुता गुणाद्यैः ॥ ३३ ॥
गिरिराजसे वन्दनाके योग्य समस्त पुरजन तुम्हें प्रसन्न करनेका सदा प्रयत्न करेंगे और यदि अत्यन्त उदाररूपा तुमको कभी शोक हुआ तो वे लोग तुम्हें शिक्षा देंगे तथा अपने गुणोंसे प्रसन्न रखेंगे॥ ३३ ॥

विचित्रैः कोकिलालापामोदैः कुञ्जगणावृतम् ।
सदा वसन्तप्रभवं गन्तुमिच्छसि किं प्रिये ॥ ३४ ॥
हे प्रिये! कोकिलकि विचित्र मधुर आलापोंसे परिपूर्ण कुंजसमूहोंसे आवृत स्थानमें जहाँ वसन्तकी उत्पत्तिका स्थान है, क्या तुम उस स्थानमें जाना चाहती हो? ॥३४॥

नानाबहुजलापूर्णसरः शीतसमावृतम् ।
पद्मिनीशतशोयुक्तमचलेन्द्रं हिमालयम् ॥ ३५ ॥
सर्वकामप्रदैर्वृक्षैः शाद्वलैः कल्पसञ्ज्ञकैः ।
सक्षणं पश्य कुसुमान्यथाश्वकरिगोव्रजम् ॥ ३६ ॥
प्रशान्तश्वापदगणं मुनिभिर्यतिभिर्वृतम् ।
देवालयं महामाये नानामृगगणैर्युतम् ॥ ३७ ॥
जहाँ विविध प्रकारके अनेक तालाब सैकड़ों कमलिनियोंसे समन्वित शीतल जलसे परिपूर्ण हैं, जहाँ अश्व, हाथी तथा गौओंका निवास है, हे देवि! वहाँ सभी प्रकारकी कामनाओंको प्रदान करनेवाले कल्पसंज्ञक वृक्षोंसे घिरे हुए सुन्दर मनोहारी पुष्पोंको तथा हरे-भरे नवीन घासके मैदानोंको प्रफुल्लित नेत्रोंसे देखना। हे महामाये। इस प्रकारके उस हिमालयपर हिंसक | जन्तुगण भी शान्तिपूर्वक निवास करते हैं, वह अनेक प्रकारके मृगगणोंसे युक्त है, वहाँपर स्थित देवालयोंमें | मुनियों तथा यतियोंका निवास है। ३५-३७॥

स्फाटिकैः स्वर्णवप्राद्यै राजतैश्च विराजितम् ।
मानसादिसरोरङ्‌गैरभितः परिशोभितम् ॥ ३८ ॥
हिरण्मयै रत्ननालैः पङ्‌कजैर्मुकुलैर्वृतम् ।
शिशुमारैस्तथासङ्‌ख्यैः कच्छपैर्मकरैः करैः ॥ ३९ ॥
उस पर्वतके शिखर स्फटिक, सुवर्ण एवं चाँदीसे व्याप्त हैं, वह मानसादि सरोवरोंसे चारों ओरसे सुशोभित है। वह सुवर्णसे बने हुए, रत्नोंके दण्डवाले अधखिले कमलोंसे व्याप्त है। शिशुमार एवं असंख्य कच्छप एवं मकरोंसे वह मानसरोवर परिव्याप्त है॥३८-३९॥

निषेवितं मञ्जुलैश्च तथा नीलोत्पलादिभिः ।
देवेशि तस्मान्मुक्तैश्च सर्वगन्धैश्च कुङ्‌कुमैः ॥ ४० ॥
लसद्‌गन्धजलैः शुभ्रैरापूर्णैः स्वच्छकान्तिभिः ।
शाद्वलैस्तरुणैस्तुङ्‌गैस्तीरस्थैरुपशोभितम् ॥ ४१ ॥
नृत्यद्‌भिरिव शाखोटैर्वर्जयन्तं स्वसम्भवम् ।
कामदेवैः सारसैश्च मत्तचक्राङ्‌गशोभितैः ॥ ४२ ॥
वह मनोहर नीलकमलों और उत्पलकमलोंसे शोभित है। हे देवेशि! वह [कमलपुष्पोंसे] गिरते हुए सुगन्धित कुंकुमोंसे व्याप्त है। गन्धोंसे समन्वित स्वच्छ | जलोंसे वह मानसरोवर पूर्ण है। मानसरोवरका तट हरे-भरे, ऊँचे एवं नवीन घासवाले भूमिभागसे सुशोभित है । यहाँके शाखोटके वृक्ष इस प्रकार प्रतीत हो रहे हैं, जैसे अपनी शाखाको हिलाकर नृत्य कर रहे हों । अपनी इच्छाके अनुसार अनेक प्रकारके रूप धारण करनेवाले देवताओं, सारसों एवं मतवाले चक्रवाकोंसे मानसरोवर सुशोभित हो रहा है ॥ ४०-४२ ॥

मधुराराविभिर्मोदकारिभिर्भ्रमरादिभिः ।
शब्दायमानं च मुदा कामोद्दीपनकारकम् ॥ ४३ ॥
परम आनन्दको प्रदान करनेवाले भौंरोंके मधुर शब्दोंसे गुंजित वह मानसरोवर महान् उद्दीपन करनेवाला है । ४३ ॥

वासवस्य कुबेरस्य यमस्य वरुणस्य च ।
अग्नेः कोणपराजस्य मारुतस्य परस्य च ॥ ४४ ॥
पुरीभिः शोभिशिखरं मेरोरुच्चैः सुरालयम् ।
रम्भाशचीमेनकादिरम्भोरुगणसेवितम् ॥ ४५ ॥
मेरुपर्वतके ऊँचे शिखरपर इन्द्र, कुबेर, यम, वरुण, अग्नि, निति, वायु तथा ईशानकी पुरियाँ हैं, जहाँ देवताओंका निवासस्थान है । रम्भा, शची एवं मेनकादि अप्सराओंसे वह मेरुशिखर सुशोभित है ॥ ४४-४५ ॥

किं त्वमिच्छसि सर्वेषां पर्वतानां हि भूभृताम् ।
सारभूते महारम्ये संविहर्तुं महागिरौ ॥ ४६ ॥
[हे देवि !] क्या तुम उन समस्त पर्वतोंके राजा तथा पृथिवीके सारभूत महारम्य सुमेरु पर्वतपर विहार करना चाहती हो ? ॥ ४६ ॥

तत्र देवी सखियुता साप्सरोगणमण्डिता ।
नित्यं करिष्यति शची तव योग्यां सहायताम् ॥ ४७ ॥
वहाँ [निवास करनेसे] सखियों एवं अप्सराओंसहित शची देवी तुम्हारी उचित सहायता करेंगी ॥ ४७ ॥

अथवा मम कैलासे पर्वतेन्द्रे सदाश्रये ।
स्थानमिच्छसि वित्तेशपुरीपरिविराजिते ॥ ४८ ॥
गङ्‌गाजलौघप्रयते पूर्णचन्द्रसमप्रभे ।
दरीषु सानुषु सदा ब्रह्मकन्याभ्युदीरिते ॥ ४९ ॥
अथवा तुम मेरे आश्रयभूत कैलासपर, जो पर्वतेन्द्रके नामसे विख्यात है, उसपर निवास करना चाहती हो, जहाँपर कुबेरकी अलकापुरी है । जहाँ गंगाकी जलधारा बह रही है, जो स्वयं पूर्णचन्द्रके समान समुज्ज्वल है और जिस कैलासको कन्दराओं तथा शिखरोंपर ब्रह्मकन्याएँ मनोहर गान करती हैं ॥ ४८-४९ ॥

नानामृगगणैर्युक्ते पद्माकरशतावृते ।
सर्वैर्गुणैश्च सद्वस्तु सुमेरोरपि सुन्दरि ॥ ५० ॥
यह कैलास अनेक प्रकारके मृगगणोंके समूहोंसे युक्त, सैकड़ों कमलोंसे परिपूर्ण एवं सुमेरुपर्वतकी अपेक्षा समस्त गुणोंसे युक्त तथा सुन्दर है ॥ ५० ॥

स्थानेष्वेतेषु यत्रापि तवान्तःकरणे स्पृहा ।
तं द्रुतं मे समाचक्ष्व वासकर्तास्मि तत्र ते ॥ ५१ ॥
[हे देवि !] इन स्थानोंमें जहाँ कहीं भी तुम्हारी रहनेकी इच्छा हो, उस स्थानको शीघ्र मुझे बताओ । मैं वहाँपर तुम्हारे निवासस्थानका निर्माण करूँगा ॥ ५१ ॥

ब्रह्मोवाच
इतीरिते शङ्‌करेण तदा दाक्षायणी शनैः ।
इदमाह महादेवं लक्षणं स्वप्रकाशनम् ॥ ५२ ॥
ब्रह्माजी बोले-शंकरके इस प्रकार कहनेपर सतीदेवी अपने निवासभूत स्थानका लक्षण इस प्रकार कहने लगीं- ॥ ५२ ॥

सत्युवाच
हिमाद्रावेव वसतुमहमिच्छे त्वया सह ।
न चिरात्कुरु संवासं तस्मिन्नेव महागिरौ ॥ ५३ ॥
सती बोलीं-हे देव ! मैं आपके साथ इस पर्वतराज हिमालयपर ही निवास करना चाहती हूँ, आप इसी पर्वतपर शीघ्रतापूर्वक निवासस्थानका निर्माण कीजिये ॥ ५३ ॥

ब्रह्मोवाच
अथ तद्वाक्यमाकर्ण्य हरः परममोहितः ।
हिमाद्रिशिखरं तुङ्‌गं दाक्षायण्या समं ययौ ॥ ५४ ॥
ब्रह्माजी बोले-सतीद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर शंकरजी अत्यधिक मोहित हो गये और सतीको साथ लेकर हिमालयपर्वतके ऊँचे शिखरपर चले गये ॥ ५४ ॥

सिद्धाङ्‌गनागणयुतमगम्यं चैव पक्षिभिः ।
अगमच्छिखरं रम्यं सरसीवनराजितम् ॥ ५५ ॥
विचित्ररूपैः कमलैः शिखरं रत्नकर्बुरम् ।
बालार्कसदृशं शम्भुराससाद सतीसख ॥ ५६ ॥
सिद्धांगनाओंसे युक्त, पक्षियोंसे सर्वथा अगम्य, अनेक छोटी-छोटी बावलियोंसे युक्त, विचित्र कमलोंसे चित्रित और प्रात:कालीन सूर्यके समान सुशोभित उस शिखरपर शिवजी सती देवीके साथ चले गये ॥ ५५-५६ ॥

स्फटिकाभ्रमये तस्मिन् शादवलद्रुमराजिते ।
विचित्रपुष्पावलिभिः सरसोभिश्च संयुते ॥ ५७ ॥
प्रफुल्लतरुशाखाग्रं गुञ्जद्‌भ्रमरसेवितम् ।
पङ्‌केरुहैः प्रफुल्लैश्च नीलोत्पलचयैस्तथा ॥ ५८ ॥
वह स्फटिकमणिके समान समुज्ज्वल, हरे-भरे वृक्षोंसे तथा घासोंसे परिपूर्ण, विचित्र पुष्पोंवाली बावलियोंसे युक्त था, उस शिखरके वृक्षोंकी शाखाओंका अग्रभाग विकसित पुष्पोंसे शोभित था, भरि गुंजार कर रहे थे, वह नील एवं अनेक वर्णके कमलोंसे परिव्याप्त था ॥ ५७-५८ ॥

शोभितं चक्रवाकाद्यैः कादम्बैर्हंससङ्‌कुलैः ।
प्रमत्तसारसैः क्रौञ्चैर्नीलस्कन्धैश्च शब्दितैः ॥ ५९ ॥
चक्रवाक, कदम्ब, हंस, शुक, सारस और नीली गर्दनवाले क्रौंच पक्षियोंके शब्दोंसे वह शिखर शब्दायमान हो रहा था ॥ ५९ ॥

पुंस्कोकिलानां निनदैर्मधुरैर्गणसेवितैः ।
तुरङ्‌गवदनैः सिद्धैरप्सरोभिश्च गुच्छकैः ॥ ६० ॥
उस शिखरपर पुंस्कोकिल मनोहर शब्द कर रहे थे, वह अनेक प्रकारके गणों, किन्नरियों, सिद्धों, अप्सराओं तथा गुह्यकोंसे सेवित था ॥ ६० ॥

विद्याधरीभिर्देवीभिः किन्नरीभिर्विहारितम् ।
पुरन्ध्रीभिः पार्वतीभिः कन्याभिरभिसङ्‌गतम् ॥ ६१ ॥
विद्याधरियाँ, देवियाँ तथा किन्नरियाँ वहाँ विहार कर रही थी तथा पर्वतीय स्त्रियों एवं कन्याओंसे वह युक्त था ॥ ६१ ॥

विपञ्चीतान्त्रिकामत्तमृदङ्‌गपटहस्वनैः ।
नृत्यद्‌भिरप्सरोभिश्च कौतुकोत्थैश्च शोभितम् ॥ ६२ ॥
वीणा, सितार, मृदंग एवं पटहके वाद्ययन्त्रोंपर नृत्या एवं कौतुक करती हुई अप्सराओंके समूहसे वह शिखर सुशोभित हो रहा था ॥ ६२ ॥

देविकाभिर्दीर्घिकाभिर्गन्धिभिः सुसमावृतम् ।
प्रफुल्लकुसुमैर्नित्यं सकुञ्जैरुपशोभितम् ॥ ६३ ॥
देविकाओं, दीर्घिकाओं, खिले हुए तथा सुगन्धित पुष्पों और निकुंजोंसे वह शोभायमान हो रहा था ॥ ६३ ॥

शैलराजपुराभ्यर्णे शिखरे वृषभध्वजः ।
सह सत्या चिरं रेमे एवम्भूतेषु शोभनम् ॥ ६४ ॥
इस प्रकारकी शोभासे युक्त पर्वतराज हिमालयके शिखरपर शंकरजी सती देवीके साथ बहुत कालतक रमण करते रहे ॥ ६४ ॥

तस्मिन्स्वर्गसमे स्थाने दिव्यमानेन शङ्‌करः ।
दशवर्षसहस्राणि रेमे सत्या समं मुदा ॥ ६५ ॥
महादेवजी उस स्वर्गके समान दिव्य स्थानमें सतीके साथ देवताओंके वर्षके गणनानुसार दस हजार वर्षतक प्रसन्नतापूर्वक विहार करते रहे ॥ ६५ ॥

स कदाचित्ततः स्थानादन्यद्याति स्थलं हरः ।
कदाचिन्मेरुशिखरं देवी देववृतं सदा ॥ ६६ ॥
वे कभी उस स्थानको छोड़कर सतीके साथ किसी दूसरे स्थानपर चले जाते थे और कभी देवी देवताओंसे व्याप्त मेरु शिखरपर चले जाते थे ॥ ६६ ॥

द्वीपान्नाना तथोद्यानवनानि वसुधातलम् ।
गत्वागत्वा पुनस्तत्राभ्येत्य रेमे सतीसुखम् ॥ ६७ ॥
इस पृथ्वीतलके अनेक प्रकारके द्वीपों, उद्यानों एवं वनोंमें जाकर पुन: वहाँ आकर सतीके साथ रमण करने लगते थे ॥ ६७ ॥

न जज्ञे स दिवा रात्रौ न ब्रह्मणि तपःसमम् ।
सत्यां हि मनसा शम्भुः प्रीतिमेव चकार ह ॥ ६८ ॥
शिवजीका मन यज्ञ, ब्रह्म तथा समाधिमें नहीं लगता था, वे शम्भु दिन-रात मनसे सतीमें ही प्रीति करते रहते थे ॥ ६८ ॥

एवं महादेवमुखं सत्यपश्यत्स्म सर्वदा ।
महादेवोऽपि सर्वत्र सदाऽद्राक्षीत्सतीमुखम् ॥ ६९ ॥
इसी प्रकार सती भी निरन्तर महादेवजीके मुखका अवलोकन करती रहती थीं और शिवजी भी सतीके मुखको देखते रहते थे ॥ ६९ ॥

एवमन्योन्यसंसर्गादनुरागमहीरुहम् ।
वर्द्धयामासतुः कालीशिवौ भावाम्बुसेचनैः ॥ ७० ॥
इस प्रकार वे शिव तथा सती परस्परके संयोगसे स्नेहरूपी जलद्वारा अनुरागरूपी वृक्षको सिंचितकर बढ़ाने लगे ॥ ७० ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये
सतीखण्डे शिवाशिवविहारवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें शिवा-शिवविहारवर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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