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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

त्रयोविंशोऽध्यायः ॥

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भक्तिप्रभाववर्णनम्
सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण


ब्रह्मोवाच
एवं कृत्वा विहारं वै शङ्‌करेण च सा सती ।
सन्तुष्टा साभवच्चाति विरागा समजायत ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! इस प्रकार शंकरजीके साथ विहार करके वे सती कामसे सन्तुष्ट हो गयीं और उनके मनमें वैराग्य उत्पन्न होने लगा ॥ १ ॥

एकस्मिन्दिवसे देवी सती रहसि सङ्‌गता ।
शिवं प्रणम्य सद्‌भक्त्या न्यस्योच्चैः सुकृताञ्जलिः ॥ २ ॥
सुप्रसन्नं प्रभुं नत्वा सा दक्षतनया सती ।
उवाच साञ्जलिर्भक्त्या विनयावनता ततः ॥ ३ ॥
एक दिनकी बात है, देवी सती एकान्तमें भगवान् शंकरसे मिलीं और उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणामकर दोनों हाथ जोड़कर खड़ी हो गयीं । भगवान् शंकरको प्रसन्नचित्त जानकर विनयभावसे दक्षकुमारी सती कहने लगी- ॥ २-३ ॥

सत्युवाच
देवदेव महादेव करुणासागर प्रभो ।
दीनोद्धर महायोगिन् कृपां कुरु ममोपरि ॥ ४ ॥
सती बोलीं-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणासागर ! हे प्रभो ! हे दीनोद्धारपरायण ! हे महायोगिन् ! मुझपर कृपा कीजिये ॥ ४ ॥

त्वं परः पुरुषःस्वामी रजःसत्त्वतमः परः ।
निर्गुणः सगुणः साक्षी निर्विकारी महाप्रभुः ॥ ५ ॥
आप परमपुरुष हैं, इस जगत्के स्वामी हैं, रजोगुण-तमोगुण एवं सत्त्वगुणसे परे हैं, निर्गुण हैं, सगुण भी हैं, सबके साक्षी हैं, निर्विकार हैं और महाप्रभु हैं ॥ ५ ॥

धन्याहं ते प्रिया जाता कामिनी सुविहारिणी ।
जातस्त्वं मे पतिः स्वामिन्भक्तिवात्सल्यतो हर ॥ ६ ॥
मैं धन्य हूँ, जो आपकी कामिनी और आपके साथ सुन्दर विहार करनेवाली आपकी प्रिया हुई । हे स्वामिन् ! हे हर ! आप अपनी भक्तवत्सलताके कारण ही मेरे स्वामी हुए ॥ ६ ॥

कृतो बहुसमा नाथ विहारः परमस्त्वया ।
सन्तुष्टाहं महेशान निवृत्तं मे मनस्ततः ॥ ७ ॥
हे नाथ ! मैंने आपके साथ बहुत दिनोंतक विहार किया । हे महेशान ! इससे मैं सन्तुष्ट हो गयी हैं । अब मेरा मन उधरसे हट गया है ॥ ७ ॥

ज्ञातुमिच्छामि देवेश परं तत्त्वं सुखावहम् ।
यं न संसारदुःखाद्वै तरेज्जीवोऽञ्जसा हर ॥ ८ ॥
हे देवेश ! अब मैं परमतत्त्वका ज्ञान प्राप्त करना चाहती हूँ, जो सुख प्रदान करनेवाला है तथा हे हर ! जिसको जान लेनेपर समस्त जीव संसारदुःखसे अनायास ही उद्धार प्राप्त कर लेते हैं ॥ ८ ॥

यत्कृत्वा विषयी जीवः स लभेत्परमं पदम् ।
संसारी न भवेन्नाथ तत्त्वं वद कृपां कुरु ॥ ९ ॥
हे नाथ ! जिस कर्मका अनुष्ठान करके विषयी जीव भी परमपदको प्राप्त कर लेता है तथा पुनः संसारबन्धनमें नहीं पड़ता है, उस परमतत्त्वको आप बताइये, मुझपर कृपा कीजिये ॥ ९ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्यपृच्छत्स्म सद्‌भक्त्या शङ्‌करं सा सती मुने ।
आदिशक्तिर्महेशानी जीवोद्धाराय केवलम् ॥ १० ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! इस प्रकार आदिशक्ति महेश्वरी सतीने केवल जीवोंके उद्धारके लिये उत्तम भक्तिभावसे भगवान् शंकरसे इस प्रकार पूछा ॥ १० ॥

आकर्ण्य तच्छिवः स्वामी स्वेच्छयोपात्तविग्रहः ।
अवोचत्परमप्रीतःसतीं योगविरक्तधीः ॥ ११ ॥
तब इसे सुनकर स्वेच्छासे शरीर धारण करनेवाले तथा योगके द्वारा भोगसे विरक्त चित्तवाले स्वामी शिवजी अत्यन्त प्रसन्न होकर सतीसे कहने लगे- ॥ ११ ॥

शिव उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि दाक्षायणि महेश्वरि ।
परं तत्त्वं तदेवानुशयी मुक्तो भवेद्यतः ॥ १२ ॥
शिवजी बोले-हे देवि ! हे दक्षनन्दिनि ! हे महेश्वरि ! सुनो, मैं उस परमतत्त्वका वर्णन करता हूँ, जिससे वासनाबद्ध जीव तत्काल मुक्त हो जाता है ॥ १२ ॥

परतत्त्वं विजानीहि विज्ञानं परमेश्वरी ।
द्वितीयं स्मरणं यत्र नाहं ब्रह्मेति शुद्धधीः ॥ १३ ॥
हे सती ! तुम विज्ञानको परमतत्त्व जानो । विज्ञान वह है, जिसके उदय होनेपर 'मैं ब्रह्म हूँ', ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाता है । ब्रह्मके सिवा दूसरी किसी वस्तुका स्मरण नहीं रहता तथा उस विज्ञानी पुरुषकी बुद्धि सर्वथा शुद्ध हो जाती है ॥ १३ ॥

तद्दुर्लभं त्रिलोकेस्मिंस्तज्ज्ञाता विरलः प्रिये ।
यादृशो यः स दासोऽहं ब्रह्मसाक्षात्परात्परः ॥ १४ ॥
हे प्रिये ! वह विज्ञान दुर्लभ है, त्रिलोकीमें उसका ज्ञाता कोई विरला ही होता है । वह जो और जैसा भी है, सदा मेरा स्वरूप ही है । साक्षात् परात्पर ब्रह्म है ॥ १४ ॥

तन्माता मम भक्तिश्च भुक्तिमुक्तिफलप्रदा ।
सुलभा मत्प्रसादाद्धि नवधा सा प्रकीर्तिता ॥ १५ ॥
भक्तौ ज्ञाने न भेदो हि तत्कर्तुः सर्वदा सुखम् ।
विज्ञानं न भवत्येव सति भक्तिविरोधिनः ॥ १६ ॥
इस प्रकारके विज्ञानकी माता केवल मेरी भक्ति है, जो भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करती है । वह मेरी कृपासे सुलभ होती है । वह भक्ति नौ प्रकारकी कही गयी है । हे सति ! भक्ति और ज्ञानमें कोई भेद नहीं है । भक्त और ज्ञानी दोनोंको ही सदा सुख प्राप्त होता है । भक्तिके विरोधीको विज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती ॥ १५-१६ ॥

भक्त्याधीनः सदाहं वै तत्प्रभावाद्‌गृहेष्वपि ।
नीचानां जातिहीनानां यामि देवि न संशयः ॥ १७ ॥
हे देवि ! मैं सदा भक्तके अधीन रहता हूँ और भक्तिके प्रभावसे जातिहीन नीच मनुष्योंके घरोंमें भी चला जाता हूँ, इसमें संशय नहीं है ॥ १७ ॥

सा भक्तिर्द्विविधा देवि सगुणा निर्गुणा मता ।
वैधी स्वाभाविकी या या वरा सा त्ववरा स्मृता ॥ १८ ॥
नैष्ठिक्यनैष्ठिकी भेदाद्‍द्विविधे द्विविधे हि ते ।
षड्विधा नैष्ठिकी ज्ञेया द्वितीयैकविधा स्मृता ॥ १९ ॥
हे देवि ! वह भक्ति दो प्रकारकी कही गयी है, सगुण और निर्गुण । जो वैधी अर्थात् शास्त्रविधिसे प्रेरित और स्वाभाविकी भक्ति होती है, वह श्रेष्ठ है और इससे भिन्न जो कामनामूलक भक्ति है, वह निम्नकोटिकी कही गयी है । सगुण और निर्गुण भक्ति-ये दोनों प्रकारकी भक्तियाँ नैष्ठिकी और अनैष्ठिकीके भेदसे दो प्रकारकी हो जाती हैं । नैष्ठिकी भक्ति छ: प्रकारवाली जाननी चाहिये और अनैष्ठिकी एक ही प्रकारकी कही गयी है ॥ १८-१९ ॥

विहिताविहिताभेदात्तामनेकां विदुर्बुधाः ।
तयोर्बहुविधत्वाच्च तत्त्वं त्वन्यत्र वर्णितम् ॥ २० ॥
ते नवाङ्‌गे उभे ज्ञेये वर्णिते मुनिभिः प्रिये ।
वर्णयामि नवाङ्‌गानि प्रेमतः शृणु दक्षजे ॥ २१ ॥
विद्वान् पुरुष विहिता और अविहिता आदि भेदसे उसे अनेक प्रकारको मानते हैं । इन द्विविध भक्तियोंके बहुतसे भेद-प्रभेद होनेके कारण इनके तत्त्वका अन्यत्र वर्णन किया गया है । हे प्रिये ! मुनियोंने सगुण और निर्गुण दोनों भक्तियोंके नौ अंग बताये हैं । हे दक्षनन्दिनि । मैं उन नौ अंगोंका वर्णन करता हूँ, तुम प्रेमसे सुनो ॥ २०-२१ ॥

श्रवणं कीर्तनं चैव स्मरणं सेवनं तथा ।
दास्यं तथाऽर्चनं देवि वन्दनं मम सर्वदा ॥ २२ ॥
सख्यमात्मार्पणं चेति नवाङ्‌गानि विदुर्बुधाः ।
उपाङ्‌गानि शिवे तस्या बहूनि कथितानि वै ॥ २३ ॥
हे देवि ! श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवन, दास्य, अर्चना, सदा मेरा वन्दन, सख्य और आत्मसमर्पण - विद्वानोंने भक्तिके ये नौ अंग माने हैं । हे शिवे ! इसके अतिरिक्त उस भक्तिके बहुत-से उपांग भी कहे गये है ॥ २२-२३ ॥

शृणु देवि नवाङ्‌गानां लक्षणानि पृथक् पृथक् ।
मम भक्तेर्मनो दत्त्वा भक्ति मुक्तिप्रदानि हि ॥ २४ ॥
कथादेर्नित्यसम्मानं कुर्वन्देहादिभिर्मुदा ।
स्थिरासनेन तत्पानं यत्तच्छ्रवणमुच्यते ॥ २५ ॥
हे देवि ! अब तुम मन लगाकर मेरी भक्तिके नौ अंगोंके पृथक्-पृथक् लक्षण सुनो, जो भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं । जो स्थिर आसनपर बैठकर तनमन आदिसे मेरे कथा-कीर्तन आदिका नित्य सम्मान करते हुए प्रसन्नतापूर्वक [अपने श्रवणपुटोंसे] उसका पान किया जाता है, उसे श्रवण कहते हैं ॥ २४-२५ ॥

हृदाकाशेन सम्पश्यन् जन्मकर्माणि वै मम ।
प्रीत्योच्चोच्चारणं तेषामेतत्कीर्तनमुच्यते ॥ २६ ॥
व्यापकं देवि मां दृष्ट्‍वा नित्यं सर्वत्र सर्वदा ।
निर्भयत्वं सदा लोके स्मरणं तदुदाहृतम् ॥ २७ ॥
जो हृदयाकाशके द्वारा मेरे दिव्य जन्म एवं कौका चिन्तन करता हुआ प्रेमसे वाणीद्वारा उनका उच्च स्वरसे उच्चारण करता है, उसके इस भजनसाधनको कीर्तन कहा जाता है । हे देवि ! मुझ नित्य महेश्वरको सदा और सर्वत्र व्यापक जानकर संसारमें निरन्तर निर्भय रहनेको स्मरण कहा गया है [यह निर्गुण स्मरण भक्ति है । ] ॥ २६-२७ ॥

अरुणोदयमारभ्य सेवाकालेऽञ्चिता हृदा ।
वाक्पाणिपादैस्तस्यार्चा सेवनं तदुदाहृतम् ॥ २८ ॥
अरुणोदयकालसे प्रारम्भकर शयनपर्यन्त तत्पर चित्तसे निर्भय होकर भगवद्विग्रहकी सेवा करनेको स्मरण कहा जाता है [यह सगुण स्मरण भक्ति है ॥ २८ ॥

सदा सेव्यानुकूल्येन सेवनं तद्धि गोगणैः ।
हृदयामृतभोगेन प्रियं दास्यमुदाहृतम् ॥ २९ ॥
हर समय सेव्यकी अनुकूलताका ध्यान रखते हुए हृदय और इन्द्रियोंसे जो निरन्तर सेवा की जाती है, वही सेवन नामक भक्ति है । अपनेको प्रभुका किंकर समझकर हृदयामृतके भोगसे स्वामीका सदा प्रिय-सम्पादन करना दास्य कहा गया है ॥ २९ ॥

सदा भृत्यनुकूल्येन विधिना मे परात्मने ।
अर्पणं षोडशानां वै पाद्यादीनां तदर्चनम् ॥ ३० ॥
अपनेको सदा सेवक समझकर शास्त्रीय विधिसे मुझ परमात्माको सदा पाद्य आदि सोलह उपचारोंका जो समर्पण करना है, उसे अर्चन कहा जाता है ॥ ३० ॥

मन्त्रोच्चारणध्यानाभ्यां मनसा वचसा क्रमात् ।
यदष्टाङ्‌गेन भूस्पर्शं तद्वै वन्दनमुच्यते ॥ ३१ ॥
वाणीसे मन्त्रका उच्चारण करते हुए तथा मनसे ध्यान करते हुए आठों अंगोंसे भूमिका स्पर्श करते हुए जो इष्टदेवको अष्टांग प्रणाम किया जाता है, उसे वन्दन कहा जाता है ॥ ३१ ॥

मङ्‌गलामङ्‌गलं यद्यत्करोतीतीश्वरो हि मे ।
सर्वं तन्मङ्‌गलायेति विश्वासः सख्यलक्षणम् ॥ ३२ ॥
ईश्वर मंगल-अमंगल जो कुछ भी करता है, वह सब मेरे मंगलके लिये है-ऐसा दृढ़ विश्वास रखना सख्य भक्तिका लक्षण है ॥ ३२ ॥

कृत्वा देहादिकं तस्य प्रीत्यै सर्वं तदर्पणम् ।
निर्वाहाय च शून्यत्वं यत्तदात्मसमर्पणम् ॥ ३३ ॥
देह आदि जो कुछ भी अपनी कही जानेवाली वस्तु है, वह सब भगवान्की प्रसन्नताके लिये उन्हींको समर्पित करके अपने निर्वाहके लिये कुछ भी बचाकर न रखना अथवा निर्वाहको चिन्तासे भी रहित हो जाना, आत्मसमर्पण कहा जाता है ॥ ३३ ॥

नवाङ्‌गानीति मद्‌भक्तेर्भुक्तिमुक्तिप्रदानि च ।
मम प्रियाणि चातीव ज्ञानोत्पत्तिकराणि च ॥ ३४ ॥
उपाङ्‌गानि च मद्‌भक्तेर्बहूनि कथितानि वै ।
बिल्वादिसेवनादीनि समूह्यानि विचारतः ॥ ३५ ॥
मेरी भक्तिके ये नौ अंग हैं, जो भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं । इनसे ज्ञान प्रकट हो जाता है तथा ये साधन मुझे अत्यन्त प्रिय हैं । मेरी भक्तिके अनेक उपांग भी कहे गये हैं । जैसे बिल्व आदिका सेवन, इनको विचारसे समझ लेना चाहिये ॥ ३४-३५ ॥

इत्थं साङ्‌गोपाङ्‌गभक्तिर्मम सर्वोत्तमा प्रिये ।
ज्ञानवैराग्यजननी मुक्तिदासी विराजते ॥ ३६ ॥
सर्वकर्मफलोत्पत्तिः सर्वदा त्वत्समप्रिया ।
यच्चित्ते सा स्थिता नित्यं सर्वदा सोति मत्प्रियः ॥ ३७ ॥
हे प्रिये ! इस प्रकार मेरी सांगोपांग भक्ति सबसे उत्तम है । यह ज्ञान-वैराग्यकी जननी है और मुक्ति इसकी दासी है । हे देवि ! भक्ति सर्वदा सभी कमाँके फलोंको देनेवाली है, यह भक्ति मुझे सदा तुम्हारे समान ही प्रिय है । जिसके चित्तमें नित्य निरन्तर यह भक्ति निवास करती है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है ॥ ३६-३७ ॥

त्रैलोक्ये भक्तिसदृशः पन्था नास्ति सुखावहः ।
चतुर्युगेषु देवेशि कलौ तु सुविशेषतः ॥ ३८ ॥
कलौ तु ज्ञानवैरागो वृद्धरूपौ निरुत्सवौ ।
ग्राहकाभावतो देवि जातौ जर्जरतामति ॥ ३९ ॥
हे देवेशि ! तीनों लोकों और चारों युगोंमें भक्तिके समान दूसरा कोई सुखदायक मार्ग नहीं है । कलियुगमें तो यह विशेष सुखद एवं सुविधाजनक है; क्योंकि कलियुगमें प्रायः ज्ञान और वैराग्य दोनों ही ग्राहकके अभावके कारण वृद्ध, उत्साहशून्य और जर्जर हो जाते हैं । ३८-३९ ॥

कलौ प्रत्यक्षफलदा भक्तिः सर्वयुगेष्वपि ।
तत्प्रभावादहं नित्यं तद्वशो नात्र संशयः ॥ ४० ॥
परंतु भक्ति कलियुगमें तथा अन्य सभी युगोंमें भी प्रत्यक्ष फल देनेवाली है । भक्तिके प्रभावसे मैं सदा भक्तके वशमें रहता हूँ, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४० ॥

यो भक्तिमान्पुमाँल्लोके सदाहं तत्सहायकृत् ।
विघ्नहर्ता रिपुस्तस्य दण्ड्यो नात्र च संशयः ॥ ४१ ॥
संसारमें जो भक्तिमान् पुरुष है, उसकी मैं सदा सहायता करता हूँ और उसके कष्टोंको दूर करता हूँ । उस भक्तका जो शत्रु होता है, वह मेरे लिये दण्डनीय है, इसमें संशय नहीं है ॥ ४१ ॥

भक्तहेतोरहं देवि कालं क्रोधपरिप्लुतः ।
अदहं वह्निना नेत्रभवेन निजरक्षकः ॥ ४२ ॥
हे देवि ! मैं अपने भक्तोंका रक्षक हूँ, भक्तकी रक्षाके लिये ही मैंने कुपित होकर अपने नेत्रजनित अग्निसे कालको भी भस्म कर डाला था ॥ ४२ ॥

भक्तहेतोरहं देवि रव्युपर्यभवं किल ।
अतिक्रोधान्वितः शूलं गृहीत्वाऽन्वजयं पुरा । ४३ ॥
हे देवि ! भक्तकी रक्षाके लिये मैं पूर्वकालमें सूर्यपर भी अत्यन्त क्रोधित हो उठा था और मैंने त्रिशूल लेकर सूर्यको भी जीत लिया था ॥ ४३ ॥

भक्तहेतोरहं देवि रावणं सगणं क्रुधा ।
त्यजति स्म कृतो नैव पक्षपातो हि तस्य वै ॥ ४४ ॥
भक्तहेतोरहं देवि व्यासं हि कुमतिग्रहम् ।
काश्या न्यसारयं क्रोधाद्दण्डयित्वा च नन्दिना ॥ ४५ ॥
हे देवि ! मैंने भक्तके लिये सैन्यसहित रावणको भी क्रोधपूर्वक त्याग दिया और उसके प्रति कोई पक्षपात नहीं किया । हे देवि ! भक्तोंके लिये ही मैंने कुमतिसे ग्रस्त व्यासको नन्दीद्वारा दण्ड दिलाकर उन्हें काशीके बाहर निकाल दिया ॥ ४४-४५ ॥

किं बहूक्तेन देवेशि भक्त्याधीनः सदा ह्यहम् ।
तत्कर्तुः पुरुषस्यातिवशगो नात्र संशयः ॥ ४६ ॥
हे देवेशि ! बहुत कहनेसे क्या लाभ, मैं सदा ही भक्तके अधीन रहता हूँ और भक्ति करनेवाले पुरुषके अत्यन्त वशमें हो जाता हूँ, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४६ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्थमाकर्ण्य भक्तेस्तु महत्त्वं दक्षजा सती ।
जहर्षातीव मनसि प्रणनाम शिवं मुदा ॥ ४७ ॥
ब्रह्माजी बोले-[नारद !] इस प्रकार भक्तिका महत्त्व सुनकर दक्षकन्या सतीको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक भगवान् शिवको मनही-मन प्रणाम किया ॥ ४७ ॥

पुनः पप्रच्छ सद्‌भक्त्या तत्काण्डविषयं मुने ।
शास्त्रं सुखकरं लोके जीवोद्धारपरायणम् ॥ ४८ ॥
हे मुने ! देवी सतीने पुनः भक्तिविषयक शास्त्रके विषयमें बड़े आदरपूर्वक पूछा, जो लोकमें सुखदायक तथा जीवोंके उद्धारका साधन है ॥ ४८ ॥

सयन्त्रमन्त्रशास्त्रं च तन्माहात्म्यं विशेषतः ।
अन्यानि धर्मवस्तूनि जीवोद्धारकराणि हि ॥ ४९ ॥
हे मुने ! उन्होंने यन्त्र, मन्त्रशास्त्र, उनके माहात्म्य तथा अन्य जीवोद्धारक धर्ममय साधनोंके विषयमें विशेष रूपसे जाननेकी इच्छा प्रकट की ॥ ४९ ॥

शङ्‌करोपि तदाकर्ण्य सतीं प्रश्नं प्रहृष्टधीः ।
वर्णयामास सुप्रीत्या जीवोद्धाराय कृत्स्नशः ॥ ५० ॥
सतीके इस प्रश्नको सुनकर शंकरजीके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने जीवोंके उद्धारके लिये सब शास्त्रोंका प्रेमपूर्वक वर्णन किया ॥ ५० ॥

तत्र शास्त्रं सयन्त्रं हि सपञ्चाङ्‌गं महेश्वरः ।
बभाषे महिमानं च तत्तद्दैववरस्य वै ॥ ५१ ॥
महेश्वरने पाँचों अंगसहित तन्त्रशास्त्र, यन्त्रशास्त्र तथा भिन्न-भिन्न देवेश्वरोंकी महिमाका वर्णन किया ॥ ५१ ॥

सेतिहासकथां तेषां भक्तमाहात्म्यमेव च ।
सवर्णाश्रमधर्मांश्च नृपधर्मान् मुनीश्वर ॥ ५२ ॥
सुतस्त्रीधर्ममाहात्म्यं वर्णाश्रममनश्वरम् ।
वैद्यशास्त्रं तथा ज्योतिःशास्त्रं जीवसुखावहम् ॥ ५३ ॥
सामुद्रिकं परं शास्त्रमन्यच्छास्त्राणि भूरिशः ।
कृपां कृत्वा महेशानो वर्णयामास तत्त्वतः ॥ ५४ ॥
हे मुनीश्वर ! महेश्वरने कृपा करके इतिहास-कथासहित उन देवताओंके भक्तोंकी महिमा, वर्णाश्रमधर्म, राजधर्म, पुत्र और स्त्रीके धर्मकी महिमा, कभी नष्ट न होनेवाले वर्णाश्रम, जीवोंको सुख देनेवाले वैद्यकशास्त्र एवं ज्योतिषशास्त्र, उत्तम सामुद्रिकशास्त्र तथा अन्य भी बहुतसे शास्त्रोंका तत्त्वतः वर्णन किया ॥ ५२-५४ ॥

इत्थं त्रिलोकसुखदौ सर्वज्ञौ च सतीशिवौ ।
लोकोपकारकरणौ धृतसद्‌गुणविग्रहौ ॥ ५५ ॥
चिक्रीडाते बहुविधे कैलासे हिमवद्‌गिरौ ।
अन्यस्थलेषु च तदा परब्रह्मस्वरूपिणौ ॥ ५६ ॥
इस प्रकार लोकोपकार करनेके लिये सद्‌गुणसम्पन्न शरीर धारण करनेवाले, तीनों लोकोंको सुख देनेवाले सर्वज्ञ परब्रह्मस्वरूप शिव और सतीने हिमालयपर्वतके कैलासशिखरपर तथा अन्यान्य स्थानोंमें अनेक प्रकारकी लीलाएं की । ५५-५६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये
सतीखण्डे भक्तिप्रभाववर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें भक्तिके प्रभावका वर्णन नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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