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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे
चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] रामपरीक्षावर्णनम्
दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा नारद उवाच
ब्रह्मन् विधे प्रजानाथ महाप्राज्ञ कृपाकर । श्रावितं शङ्करयशःसतीशङ्करयोः शुभम् ॥ १ ॥ नारदजी बोले-हे ब्रह्मन् ! हे विधे ! हे प्रजानाथ ! हे महाप्राज्ञ ! हे कृपाकर ! आपने भगवान् शंकर तथा देवी सतीके मंगलकारी यशका श्रवण कराया है ॥ १ ॥ इदानीं ब्रूहि सत्प्रीत्या परं तद्यश उत्तमम् ।
किमकार्ष्टां हि तत्स्थौ वै चरितं दम्पती शिवौ ॥ २ ॥ अब इस समय पुनः प्रेमपूर्वक उनके उत्तम चरित्रका वर्णन कीजिये । उन दम्पती शिवा-शिवने वहाँ रहकर कौन-कौन-सा चरित्र किया था ? ॥ २ ॥ ब्रह्मोवाच
सतीशिवचरित्रं च शृणु मे प्रेमतो मुने । लौकिकीं गतिमाश्रित्य चिक्रीडाते सदान्वहम् ॥ ३ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! आप मुझसे सती और शिवके चरित्रका प्रेमपूर्वक श्रवण कीजिये । वे दोनों दम्पती वहाँ लौकिक गतिका आश्रय ले नित्य-निरन्तर क्रीडा करते थे ॥ ३ ॥ ततः सती महादेवी वियोगमलभन्मुने ।
स्वपतेः शङ्करस्येति वदन्त्येके सुबुद्धयः ॥ ४ ॥ हे मुने ! तदनन्तर महादेवी सतीको अपने पति शंकरका वियोग प्राप्त हुआ ऐसा कुछ श्रेष्ठ बुद्धिवाले विद्वानोंका कथन है ॥ ४ ॥ वागर्थाविव सम्पृक्तौ शक्तीशौ सर्वदा चितौ ।
कथं घटेत च तयोर्वियोगस्तत्त्वतो मुने ॥ ५ ॥ परंतु हे मुने ! वास्तवमें उन दोनों शक्ति और शक्तिमान्का परस्पर वियोग कैसे हो सकता है; क्योंकि चिन्मय वे दोनों वाणी और अर्थके समान एक-दूसरेसे सदा मिले-जुले हैं ॥ ५ ॥ लीलारुचित्वादथवा सङ्घटेताऽखिलं च तत् ।
कुरुते यद्यदीशौ च सतीशौ भवरीतिगौ ॥ ६ ॥ फिर भी सर्वसमर्थ सती एवं शिव लीलाप्रिय होनेके कारण लोक व्यवहारका अनुसरण करते हुए जो कुछ भी करते हैं, वह सब समीचीन ही है ॥ ६ ॥ सा त्यक्ता दक्षजा दृष्ट्वा पतिना जनकाध्वरे ।
शम्भोरनादरात्तत्र देहं तत्याज सङ्गता ॥ ७ ॥ दक्षकन्या सतीने जब देखा कि मेरे पतिने मुझे त्याग दिया है, तब वे अपने पिता दक्षके यज्ञमें गयीं और वहाँ भगवान् शंकरका अनादर देखकर उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया ॥ ७ ॥ पुनर्हिमालये सैवाविर्भूता नामतः सती ।
पार्वतीति शिवं प्राप तप्त्वा भूरि विवाहतः ॥ ८ ॥ वे ही सती पुनः हिमालयके घर पार्वतीके नामसे प्रकट हुई और कठोर तपस्या करके उन्होंने विवाहके द्वारा पुनः भगवान् शिवको प्राप्त कर लिया ॥ ८ ॥ सूत उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य ब्रह्मणः स तु नारदः । पप्रच्छ च विधातारं शिवाशिवमहद्यशः ॥ ९ ॥ सूतजी बोले-[हे महर्षियो !] ब्रह्माजीकी इस बातको सुनकर नारदजी ब्रह्माजीसे शिवा और शिवके महान् यशके विषयमें इस प्रकार पूछने लगे- ॥ ९ ॥ नारद उवाच
विष्णुशिष्य महाभाग विधे मे वद विस्तरात् । शिवाशिवचरित्रं तद्भवाचार परानुगम् ॥ १० ॥ नारदजी बोले-हे विष्णुशिष्य ! हे महाभाग ! हे विधे ! आप मुझे शिवाशिवके लोक-आचारसे सम्बन्ध रखनेवाले उनके चरित्रको विस्तारपूर्वक बताइये ॥ १० ॥ किमर्थं शङ्करो जायां तत्याज प्राणतः प्रियाम् ।
तस्मादाचक्ष्व मे तात विचित्रमिति मन्महे ॥ ११ ॥ हे तात ! भगवान् शंकरजीने प्राणोंसे भी प्यारी अपनी धर्मपत्नी सतीका किसलिये त्याग किया ? यह घटना बड़ी विचित्र जान पड़ती है, अत: इसे आप अवश्य कहिये ॥ ११ ॥ कुतोऽध्वरजपुत्रस्यानादरोभूच्छिवस्य ते ।
कथं तत्याज सा देहं गत्वा तत्र पितुः क्रतौ ॥ १२ ॥ आपके पुत्र दक्ष प्रजापतिने यज्ञमें भगवान् शंकरका अनादर क्यों किया और वहाँ अपने पिताके यज्ञमें जाकर सतीने अपने शरीरका त्याग क्यों किया ? ॥ १२ ॥ ततः किमभवत्तत्र किमकार्षीन्महेश्वरः ।
तत्सर्वं मे समाचक्ष्व श्रद्धायुक् तच्छ्रुतावहम् ॥ १३ ॥ पुनः उसके बाद क्या हुआ ? महेश्वरने क्या किया ? ये सब बातें मुझसे कहिये । मैं इस वृत्तान्तको श्रद्धायुक्त होकर सुनना चाहता हूँ ॥ १३ ॥ ब्रह्मोवाच
शृणु तात परप्रीत्या मुनिभिः सह नारद । सुतवर्य महाप्राज्ञ चरितं शशिमौलिनः ॥ १४ ॥ नमस्कृत्य महेशानं हर्यादिसुरसेवितम् । परब्रह्म प्रवक्ष्यामि तच्चरित्रं महाद्भुतम् ॥ १५ ॥ ब्रह्माजी बोले- मेरे पुत्रोंमें श्रेष्ठ हे महाप्राज्ञ ! हे तात ! हे नारद ! आप महर्षियोंके साथ बड़े प्रेमसे भगवान् चन्द्रमौलिका चरित्र सुनिये । श्रीविष्णु आदि देवताओंसे सेवित परब्रह्म परमेश्वरको नमस्कार करके मैं उनके महान् अद्भुत चरित्रका वर्णन करता हूँ ॥ १४-१५ ॥ सर्वेयं शिवलीला हि बहुलीलाकरः प्रभुः ।
स्वतन्त्रो निर्विकारी च सती सापि हि तद्विधा ॥ १६ ॥ अन्यथा कः समर्थो हि तत्कर्मकरणे मुने । परमात्मा परब्रह्म स एव परमेश्वरः ॥ १७ ॥ हे मुने ! यह सब शिवकी लीला है । वे प्रभु अनेक प्रकारकी लीला करनेवाले, स्वतन्त्र और निर्विकार हैं । देवी सती भी वैसी ही हैं । हे मुने ! अन्यथा वैसा कर्म करने में कौन समर्थ हो सकता है । परमेश्वर शिव ही परब्रह्म परमात्मा हैं । १६-१७ ॥ यं सदा भजते श्रीशोऽहं चापि सकलाः सुराः ।
मुनयश्च महात्मानः सिद्धाश्च सनकादयः ॥ १८ ॥ शेषः सदा यशो यस्य मुदा गायति नित्यशः । पारं न लभते तात स प्रभुः शङ्करः शिवः ॥ १९ ॥ जिनका भजन सदा श्रीपति विष्णु, मैं ब्रह्मा, समस्त देवतागण, महात्मा, मुनि, सिद्ध तथा सनकादि सदैव करते रहते हैं । शेषजी प्रसन्नतापूर्वक जिनके यशका निरन्तर गान करते रहते हैं, किंतु कभी भी उनका पार नहीं पाते हैं, वे ही शंकर सबके प्रभु तथा ईश्वर हैं ॥ १८-१९ ॥ तस्यैव लीलया सर्वोऽयमिति तत्त्वविभ्रमः ।
तत्र दोषो न कस्यापि सर्वव्यापी स प्रेरकः ॥ २० ॥ एकस्मिन्समये रुद्रः सत्या त्रिभुवने भवः । वृषमारुह्य पर्याटद्रसां लीलाविशारदः ॥ २१ ॥ यह सब तत्त्वविभ्रम उन्हींकी लीलासे हो रहा है । इसमें किसीका दोष नहीं है; क्योंकि वे सर्वव्यापी ही प्रेरक हैं । एक समयकी बात है तीनों लोकोंमें विचरण करनेवाले, लीलाविशारद भगवान् रुद्र सतीके साथ वृषभपर आरूढ़ हो पृथ्वीपर भ्रमण कर रहे थे ॥ २०-२१ ॥ आगत्य दण्डकारण्यं पर्यटन् सागराम्बराम् ।
दर्शयंस्तत्रगां शोभां सत्यै सत्यपणः प्रभुः ॥ २२ ॥ तत्र रामं ददर्शासौ लक्ष्मणेनान्वितं हरः । अन्विष्यन्तं प्रियां सीतां रावणेन हृतां छलात् ॥ २३ ॥ सागर और आकाशमें घूमते-घूमते दण्डकारण्यमें आकर सत्य प्रतिज्ञावाले वे प्रभु सतीको वहाँकी शोभा दिखाने लगे । वहाँ उन्होंने लक्ष्मणसहित श्रीरामको देखा, जो रावणद्वारा बलपूर्वक हरी गयी अपनी प्रिया पत्नी सीताकी खोज कर रहे थे ॥ २२-२३ ॥ हा सीतेति प्रोच्चरन्तं विरहाविष्टमानसम् ।
यतस्ततश्च पश्यन्तं रुदन्तं हि मुहुर्मुहुः ॥ २४ ॥ वे 'हा सीते !' इस प्रकार उच्च स्वरसे पुकार रहे थे, जहाँ-तहाँ देख रहे थे और बार-बार रो रहे थे, उनके मनमें विरहका आवेश छा गया था ॥ २४ ॥ समिच्छन्तं च तत्प्राप्तिं पृच्छन्तं तद्गतिं हृदा ।
कुजादिभ्यो नष्टधियमत्रपं शोकविह्वलम् ॥ २५ ॥ वे उनकी प्राप्तिकी इच्छा कर रहे थे, मनमें उनकी दशाका विचार कर रहे थे, वृक्ष आदिसे उनके विषयमें पूछ रहे थे, उनकी बुद्धि नष्ट हो गयी थी, वे लज्जासे रहित हो गये थे और शोकसे विह्वल थे ॥ २५ ॥ सूर्यवंशोद्भवं वीरं भूपं दशरथात्मजम् ।
भरताग्रजमानन्दरहितं विगतप्रभम् ॥ २६ ॥ पूर्णकामों वराधीनं प्राणमत्स्म मुदा हरः । रामं भ्रमन्तं विपिने सलक्ष्मणमुदारधीः ॥ २७ ॥ जयेत्युक्त्वाऽन्यतो गच्छन्नदात्तस्मै स्वदर्शनम् । रामाय विपिने तस्मिन् शङ्करो भक्तवत्सलः ॥ २८ ॥ वे सूर्यवंशमें उत्पन्न, वीर, भूपाल, दशरथनन्दन, भरताग्रज थे । आनन्दरहित होनेके कारण उनकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी । उस समय उदारचेता पूर्णकाम भगवान् शंकरने लक्ष्मणके साथ वनमें घूमते हुए माता कैकेयीके वरोंके अधीन उन रामको बड़ी प्रसन्नताके साथ प्रणाम किया और जय-जयकार करके वे दूसरी ओर चल दिये । उन भक्तवत्सल शंकरने उस वनमें श्रीरामको पुनः दर्शन नहीं दिया ॥ २६-२८ ॥ इतीदृशीं सतीं दृष्ट्वा शिवलीलां विमोहनीम् ।
सुविस्मिता शिवं प्राह शिवमायाविमोहिता ॥ २९ ॥ मोहमें डालनेवाली भगवान् शिवकी ऐसी लीलाको देखकर सतीको बड़ा आश्चर्य हुआ । वे उनकी मायासे मोहित हो उनसे इस प्रकार कहने लगीं- ॥ २९ ॥ सत्युवाच
देव देव परब्रह्म सर्वेश परमेश्वर । सेवन्ते त्वां सदा सर्वे हरिब्रह्मादयःसुराः ॥ ३० ॥ त्वं प्रणम्यो हि सर्वेषां सेव्यो ध्येयश्च सर्वदा । वेदान्तवेद्यो यत्नेन निर्विकारी परप्रभुः ॥ ३१ ॥ सती बोलीं-हे देवदेव । हे परब्रह्म ! हे सर्वेश ! हे परमेश्वर ! ब्रह्मा, विष्णु आदि सब देवता आपकी ही सेवा सदा करते रहते हैं । आप ही सबके द्वारा प्रणाम करनेयोग्य हैं । सबको आपका ही सर्वदा सेवन और ध्यान करना चाहिये । वेदान्तशास्वके द्वारा बलपूर्वक जानने योग्य निर्विकार तथा परमप्रभु आप ही हैं ॥ ३०-३१ ॥ काविमौ पुरुषौ नाथ विरहव्याकुलाकृती ।
विचरन्तौ वने क्लिष्टौ दीनौ वीरौ धनुर्धरौ ॥ ३२ ॥ तयोर्ज्येष्ठं कञ्जश्यामं दृष्ट्वा वै केन हेतुना । मुदितः सुप्रसन्नात्माऽभवो भक्त इवाधुना ॥ ३३ ॥ हे नाथ ! ये दोनों पुरुष कौन हैं, इनकी आकृति विरह-व्यथासे व्याकुल दिखायी पड़ रही है । ये दोनों धनुर्धर वीर वनमें विचरण करते हुए दुःखके भागी और दीन हो रहे हैं । उन दोनोंमें नीलकमलके समान ज्येष्ठ पुरुषको देखकर किस कारणसे आप आनन्दविभोर हो उठे और भक्तकी भाँति अत्यन्त प्रसन्नचित्त हो गये ? ॥ ३२-३३ ॥ इति मे संशयं स्वामिञ्शङ्कर श्रोतुमर्हसि ।
सेव्यस्य सेवके नैव घटते प्रणतिः प्रभो ॥ ३४ ॥ हे स्वामिन् ! हे शंकर ! आप मेरे संशयको दूर कीजिये । हे प्रभो ! सेव्य [स्वामी] अपने सेवकको प्रणाम करे-यह उचित नहीं जान पड़ता ॥ ३४ ॥ ब्रह्मोवाच
आदिशक्तिः सती देवी शिवा सा परमेश्वरी । शिवमायावशीभूत्वा पप्रच्छेत्थं शिवं प्रभुम् ॥ ३५ ॥ तदाकर्ण्य वचःसत्याः शङ्करः परमेश्वरः । तदा विहस्य स प्राह सतीं लीलाविशारदः ॥ ३६ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] कल्याणमयी परमेश्वरी आदिशक्ति सती देवीने शिवकी मायाके वशीभूत होकर जब भगवान् शिवसे इस प्रकार पूछा । तब सतीकी यह बात सुनकर लीला करने में प्रवीण परमेश्वर शंकरजी हँसकर सतीसे कहने लगे- ॥ ३५-३६ ॥ परमेश्वर उवाच
शृणु देवि सति प्रीत्या यथार्थं वच्मि नच्छलम् । वरदानप्रभावात्तु प्रणामं चैवमादरात् ॥ ३७ ॥ परमेश्वर बोले-हे देवि ! हे सति ! सुनो, मैं प्रसन्नतापूर्वक सत्य बात कह रहा हूँ । इसमें किसी प्रकारका छल नहीं है । वरदानके प्रभावसे ही मैंने इन्हें आदरपूर्वक प्रणाम किया है ॥ ३७ ॥ रामलक्ष्मणनामानौ भ्रातरौ वीरसम्मतौ ।
सूर्यवंशोद्भवौ देवि प्राज्ञौ दशरथात्मजौ ॥ ३८ ॥ हे देवि ! ये दोनों भाई वीरोंद्वारा सम्मानित हैं, इनके नाम श्रीराम और लक्ष्मण हैं, ये सूर्यवंशमें उत्पन्न हुए हैं, परम बुद्धिमान् हैं और राजा दशरथके पुत्र हैं ॥ ३८ ॥ गौरवर्णौ लघुर्बन्धुः शेषेशो लक्ष्मणाभिधः ।
ज्येष्ठो रामाभिधो विष्णुः पूर्णांशो निरुपद्रवः ॥ ३९ ॥ अवतीर्णं क्षितौ साधुरक्षणाय भवाय नः । इत्युक्त्वा विररामाऽसौ शम्भुस्मृतिकरः प्रभुः ॥ ४० ॥ इनमें जो गौरवर्णके छोटे भाई हैं, वे शेषके अंश हैं, उनका नाम लक्ष्मण है । इनमें ज्येष्ठ भाईका नाम श्रीराम है । ये भगवान् विष्णुके पूर्ण अंश तथा उपद्रवरहित हैं । ये साधुपुरुषोंकी रक्षा और हमलोगोंके कल्याणके लिये इस पृथिवीपर अवतरित हुए हैं । इतना कहकर सृष्टि करनेवाले भगवान् शम्भु चुप हो गये ॥ ३९-४० ॥ श्रुत्वाऽपीत्थं वचः शम्भोर्न विशश्वास तन्मनः ।
शिवमाया बलवती सैव त्रैलोक्यमोहिनी ॥ ४१ ॥ इस प्रकार शिवका वचन सुनकर भी उनके मनको विश्वास नहीं हुआ; क्योंकि शिवको माया बलवती है, वही तीनों लोकोंको मोहित किये रहती है ॥ ४१ ॥ अविश्वस्तं मनो ज्ञात्वा तस्याः शम्भुः सनातनः ।
अवोचद्वचनं चेति प्रभुलीलाविशारदः ॥ ४२ ॥ सतीके मनमें मेरी बातपर विश्वास नहीं हुआ है, ऐसा जानकर लीलाविशारद सनातन प्रभु शम्भु यह वचन कहने लगे- ॥ ४२ ॥ शिव उवाच
शृणु मद्वचनं देवि न विश्वसिति चेन्मनः । तव रामपरिक्षां हि कुरु तत्र स्वया धिया ॥ ४३ ॥ विनश्यति यथा मोहस्तत्कुरु त्वं सति प्रिये । गत्वा तत्र स्थितस्तावद्वटे भव परीक्षिका ॥ ४४ ॥ शिवजी बोले-हे देवि ! मेरी बात सुनो, यदि तुम्हारे मनको [ मेरे कथनपर विश्वास नहीं होता है, तो तुम वहाँ [जाकर अपनी ही बुद्धिसे श्रीरामकी परीक्षा स्वयं कर लो । हे सति ! हे प्रिये ! जिस प्रकार तुम्हारा भ्रम दूर हो, वैसा ही तुम करो । तुम वहाँ जाकर परीक्षा करो, तबतक मैं इस वटवृक्षके नीचे बैठा हूँ । ४३-४४ ॥ ब्रह्मोवाच
शिवाज्ञया सती तत्र गत्वाऽचिन्तयदीश्वरी । कुर्यां परीक्षां च कथं रामस्य वनचारिणः ॥ ४५ ॥ सीतारूपमहं धृत्वा गच्छेयं रामसन्निधौ । यदि रामो हरिः सर्वं विज्ञास्यति न चान्यथा ॥ ४६ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] भगवान् शिवकी आज्ञासे ईश्वरी सती वहाँ जाकर सोचने लगी कि मैं वनचारी रामकी कैसे परीक्षा करूँ । मैं सीताका रूप धारण करके रामके पास चलूँ । यदि राम [साक्षात्] विष्णु हैं, तो सब कुछ जान लेंगे, अन्यथा वे मुझे नहीं पहचानेंगे ॥ ४५-४६ ॥ इत्थं विचार्य सीता सा भूत्वा रामसमीपतः ।
आगमत्तत्परीक्षार्थं सती मोहपरायणा ॥ ४७ ॥ सीतारूपां सतीं दृष्ट्वा जपन्नाम शिवेति च । विहस्य तत्प्रविज्ञाय नत्वाऽवोचद्रघूद्वहः ॥ ४८ ॥ इस प्रकार विचार करके मोहमें पड़ी हुई वे सती सीताका रूप धारणकर श्रीरामके पास उनकी परीक्षा लेनेके लिये गयीं । सतीको सीताके रूपमें देखकर शिवनामका जप करते हुए रघुकुलश्रेष्ठ श्रीराम सब कुछ जानकर उन्हें प्रणाम करके हँसकर कहने लगे ॥ ४७-४८ ॥ राम उवाच
प्रेमतस्त्वं सति ब्रूहि क्व शम्भुस्ते नमो गतः । एकाकी विपिने कस्मादागता पतिना विना ॥ ४९ ॥ श्रीराम बोले-हे सति ! आपको नमस्कार है, आप प्रेमपूर्वक बताइये कि शिवजी कहाँ गये हैं, आप पतिके बिना अकेली ही इस वनमें क्यों आयी हैं ? ॥ ४९ ॥ त्यक्त्वा स्वरूपं कस्मात्ते धृतं रूपमिदं सति ।
ब्रूहि तत्कारणं देवि कृपां कृत्वा ममोपरि ॥ ५० ॥ हे सति ! आपने अपना रूप त्यागकर किसलिये यह रूप धारण किया है ? हे देवि ! मुझपर कृपा करके इसका कारण बताइये ? ॥ ५० ॥ ब्रह्मोवाच
इति रामवचः श्रुत्वा चकिताऽऽसीत्सती तदा । स्मृत्वा शिवोक्तं मत्वा चावितथं लज्जिता भृशम् ॥ ५१ ॥ रामं विज्ञाय विष्णुं तं स्वरूपं संविधाय च । स्मृत्वा शिवपदं चित्ते सत्युवाच प्रसन्नधीः ॥ ५२ ॥ ब्रह्माजी बोले-रामजीकी यह बात सुनकर सती उस समय आश्चर्यचकित हो गयीं । वे शिवजीकी कही हुई बातका स्मरण करके और उसे सत्य समझकर बहुत लज्जित हुई । श्रीरामको साक्षात् विष्णु जानकर अपना रूप धारण करके मन-ही-मन शिवके चरणोंका चिन्तनकर प्रसन्नचित्त हुई सतीने उनसे इस प्रकार कहा- ॥ ५१-५२ ॥ शिवो मया गणैश्चैव पर्यटन् वसुधां प्रभुः ।
इहागच्छच्च विपिने स्वतन्त्रः परमेश्वरः ॥ ५३ ॥ [हे रघुनन्दन !] स्वतन्त्र परमेश्वर प्रभु शिव मेरे तथा अपने पार्षदोंके साथ पृथिवीपर भ्रमण करते हुए इस वनमें आये हुए हैं ॥ ५३ ॥ अपश्यदत्र स त्वां हि सीतान्वेषणतत्परम् ।
सलक्ष्मणं विरहिणं सीतया श्लिष्टमानसम् ॥ ५४ ॥ नत्वा त्वां सगतो मूले वटस्य स्थित एव हि । प्रशंसन् महिमानं ते वैष्णवं परमं मुदा ॥ ५५ ॥ यहाँ उन्होंने सौताकी खोजमें लगे हुए, उनके विरहसे युक्त और दुखी चित्तवाले आपको लक्ष्मणसहित देखा । वे आपको प्रणाम करके चले गये और आपकी वैष्णवी महिमाकी प्रशंसा करते हुए अत्यन्त आनन्दके साथ वटवृक्षके नीचे बैठे हैं ॥ ५४-५५ ॥ चतुर्भुजं हरिं त्वां नो दृष्ट्वैव मुदितोऽभवत् ।
यथेदं रूपममलं पश्यन्नानन्दमाप्तवान् ॥ ५६ ॥ तच्छ्रुत्वा वचनं शम्भौर्भ्रममानीय चेतसि । तदाज्ञया परीक्षा ते कृतवत्यस्मि राघव ॥ ५७ ॥ वे आपके चतुर्भुज विष्णुरूपको देखे बिना ही आनन्दविभोर हो गये । इस निर्मल रूपको देखते हुए उन्हें बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ । शम्भुके वचनको सुनकर मेरे मन में भ्रान्ति उत्पन्न हो गयी । अतः हे राघव ! मैंने उनकी आज्ञा लेकर आपकी परीक्षा की है ॥ ५६-५७ ॥ ज्ञातं मे राम विष्णुस्त्वं दृष्टा ते प्रभुताऽखिला ।
निःसशंया तदापि त्वं शृणु तच्च महामते ॥ ५८ ॥ हे श्रीराम ! अब मुझे ज्ञात हो गया कि आप [साक्षात्] विष्णु हैं । मैंने आपकी सम्पूर्ण प्रभुता देख ली है । अब मेरा संशय दूर हो गया है, तो भी महामते ! आप मेरी बात सुनें ॥ ५८ ॥ कथं प्रणम्यस्त्वं तस्य सत्यं ब्रूहि ममाग्रतः ।
कुरु निःसंशयां त्वं मां शमलं प्राप्नुहि द्रुतम् ॥ ५९ ॥ मेरे सामने यह सच-सच बतायें कि आप उन शिवके वन्दनीय कैसे हो गये ? आप मुझे संशयरहित कीजिये और शीघ्र ही मुझे शान्ति प्रदान कीजिये ॥ ५९ ॥ ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्या रामश्चोत्फुल्ललोचनः । अस्मरत्स्वं प्रभुं शम्भुं प्रेमाभूद्धृदि चाधिकम् ॥ ६० ॥ सती विनाज्ञया शम्भुसमीपं नागमन्मुने । संवर्ण्य महिमानं च प्रावोचद्राघवः सतीम् ॥ ६१ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] उनकी यह बात सुनकर श्रीरामके नेत्र प्रफुल्लित हो उठे । उन्होंने अपने प्रभु शिवका स्मरण किया । इससे उनके हृदयमें अत्यधिक प्रेम उत्पन्न हो गया । हे मुने ! शिवकी आज्ञाके बिना वे राघव सतीके साथ भगवान् शिवके समीप नहीं गये तथा [मन-ही-मन] उनकी महिमाका वर्णन करके सतीसे कहने लगे ॥ ६०-६१ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये
सतीखण्डे रामपरीक्षावर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें रामपरीक्षा-वर्णन नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |