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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे
पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] शिवसतीवियोगः
श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग राम उवाच
एकदा हि पुरा देवि शम्भुः परमसूतिकृत् । विश्वकर्माणमाहूय स्वलोके परतः परे ॥ १ ॥ तेन स्वधेनुशालायां कारयामास विस्तृतम् । रम्यं च भवनं सम्यक् तत्र सिंहासनं वरम् ॥ २ ॥ श्रीराम बोले-देवि ! प्राचीन कालमें एक समय परम स्रष्टा भगवान् शम्भुने अपने परम धाममें विश्वकर्माको बुलाकर उनके द्वारा अपनी गोशालामें एक विस्तृत तथा रमणीय भवन बनवाया और उसमें एक श्रेष्ठ सिंहासनका भी निर्माण कराया ॥ १-२ ॥ तत्र छत्रं महादिव्यं सर्वदाऽद्भुतमुत्तमम् ।
कारयामास विघ्नार्थं शङ्करो विश्वकर्मणा ॥ ३ ॥ उस सिंहासनपर भगवान् शंकरने विघ्ननिवारणार्थ विश्वकर्माद्वारा एक छत्र बनवाया, जो बहुत ही दिव्य, सदाके लिये अद्भुत और परम उत्तम था ॥ ३ ॥ शक्रादीनां जुहावाशु समस्तान् देवतागणान् ।
सिद्धगन्धर्वनागादीनुपदेशांश्च कृत्स्नशः ॥ ४ ॥ देवान् सर्वानागमांश्च विधिपुत्रान्मुनीनपि । देवीः सर्वा अप्सरोभिर्नानावस्तुसमन्विताः ॥ ५ ॥ उसके बाद उन्होंने इन्द्र आदि देवगणों, सिद्धों, गन्धर्वो, नागों तथा सम्पूर्ण उपदेवोंको भी शीघ्र वहाँ बुलवाया । समस्त वेदों, आगमों, ब्रह्माजीके पुत्रों, मुनियों तथा अप्सराओंसहित अनेक प्रकारकी वस्तुओंसे युक्त समस्त देवियोंको भी आमन्त्रित किया ॥ ४-५ ॥ देवानां च तथर्षीणां सिद्धानां फणिनामपि ।
आनयन् मङ्गलकराः कन्याः षोडश षोडश ॥ ६ ॥ वीणामृदङ्गप्रमुखवाद्यान्नानाविधान् मुने । उत्सवं कारयामास वादयित्वा सुगायनैः ॥ ७ ॥ [इनके अतिरिक्त] देवताओं, ऋषियों, सिद्धों और नागोंकी मंगलकारिणी सोलह-सोलह कन्याओंको भी बुलवाया । हे मुने ! उन्होंने वीणा, मृदंग आदि नाना प्रकारके वाद्योंको बजवाकर सुन्दर गीतोंद्वारा महान् उत्सव कराया ॥ ६-७ ॥ राजाभिषेकयोग्यानि द्रव्याणि सकलौषधैः
प्रत्यक्षतीर्थपाथोभिः पञ्चकुम्भांश्च पूरितान् । ८ ॥ तथान्यां संविधा दिव्या आनयत्स्वगणैस्तदा । ब्रह्मघोषं महारावं कारयामास शङ्करः ॥ ९ ॥ सम्पूर्ण औषधियोंके साथ राज्याभिषेकके योग्य द्रव्य, प्रत्यक्ष तीर्थोके जलोंसे भरे हुए पाँच कलश तथा बहुत-सी दिव्य सामग्रियोंको भगवान् शंकरने अपने पार्षदोंद्वारा मँगवाया और वहाँ उच्च स्वरसे वेदमन्त्रोंका घोष करवाया ॥ ८-९ ॥ अथो हरिं समाहूय वैकुण्ठात्प्रीतमानसः ।
तद्भक्त्या पूर्णया देवि मोदतिस्म महेश्वरः ॥ १० ॥ सुमुहूर्ते महादेवस्तत्र सिंहासने वरे । उपवेश्य हरिं प्रीत्या भूषयामास सर्वशः ॥ ११ ॥ हे देवि ! भगवान् विष्णुकी पूर्ण भक्तिसे महेश्वरदेव सदा प्रसन्न रहते हैं । इसलिये प्रसन्नचित्त होकर वैकुण्ठधामसे श्रीहरिको बुलाकर शुभ मुहूर्तमें उन्हें श्रेष्ठ सिंहासनपर बैठाकर महादेवजीने स्वयं ही प्रेमपूर्वक उन्हें सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित किया ॥ १०-११ ॥ आबद्धरम्यमुकुटं कृतकौतुकमङ्गलम् ।
अभ्यषिञ्चन्महेशस्तु स्वयं ब्रह्माण्डमण्डपे ॥ १२ ॥ दत्तवान्निखिलैश्वर्यं यन्नैजं नान्यगामि यत् । ततस्तुष्टाव तं शम्भुः स्वतन्त्रो भक्तवत्सलः ॥ १३ ॥ ब्रह्माणं लोककर्तारमवोचद्वचनं त्विदम् । व्यापयन्स्वं वराधीनं स्वतन्त्रो भक्तवत्सलः ॥ १४ ॥ उनके मस्तकपर मनोहर मुकुट बाँधकर और उत्सव-मंगलाचार करके महेश्वरने स्वयं ब्रह्माण्डमण्डपमें श्रीहरिका अभिषेक किया और उन्हें अपना वह सारा ऐश्वर्य प्रदान किया, जो वे दूसरोंको नहीं देते थे । तदनन्तर भक्तवत्सल स्वतन्त्र शम्भुने श्रीहरिका स्तवन किया । तत्पश्चात् अपनी पराधीनता (भक्तपरवशता)को सर्वत्र प्रसिद्ध करते हुए लोककर्ता ब्रह्माजीसे कहा- ॥ १२-१४ ॥ महेश उवाच
अतः प्रभृति लोकेश मन्निदेशादयं हरिः । मम वन्द्यः स्वयं विष्णुर्जातःसर्वः शृणोति हि ॥ १५ ॥ सर्वैर्देवादिभिस्तात प्रणमत्वममुं हरिम् । वर्णयन्तु हरिं वेदा ममैते मामिवाज्ञया ॥ १६ । महेश्वर बोले-लोकेश ! आजसे मेरी आज्ञाके अनुसार ये विष्णु हरि स्वयं मेरे वन्दनीय हो गये, इस बातको सभी सुन लें । हे तात ! आप सम्पूर्ण देवता आदिके साथ इन श्रीहरिको प्रणाम कीजिये और ये वेद मेरी आज्ञासे मेरी ही तरह इन श्रीहरिका वर्णन करें ॥ १५-१६ ॥ राम उवाच
इत्युक्त्वाथ स्वयं रुद्रोऽनमद्वै गरुडध्वजम् । विष्णुभक्तिप्रसन्नात्मा वरदो भक्तवत्सलः ॥ १७ ॥ ततो ब्रह्मादिभिर्देवैः सर्वरूपसुरैस्तथा । मुनिसिद्धादिभिश्चैवं वन्दितोभूद्धरिस्तदा ॥ १८ ॥ श्रीराम बोले-विष्णुकी भक्तिसे प्रसन्नचित्त हुए वरदायक भक्तवत्सल रुद्रदेवने ऐसा कहकर स्वयं ही गरुडध्वज श्रीहरिको प्रणाम किया । तदनन्तर ब्रह्मा आदि देवताओं, अन्य सभी देवों, मुनियों और सिद्धों आदिने भी उस समय श्रीहरिकी वन्दना की ॥ १७-१८ ॥ ततो महेशो हरयेऽशंसद्दिविषदां तदा ।
महावरान् सुप्रसन्नो धृतवान्भक्तवत्सलः ॥ १९ ॥ इसके बाद अत्यन्त प्रसन्न हुए भक्तवत्सल महेश्वरने देवताओंके समक्ष श्रीहरिको महान् वर प्रदान किये ॥ १९ ॥ महेश उवाच
त्वं कर्ता सर्वलोकानां भर्ता हर्ता मदाज्ञया । दाता धर्मार्थकामानां शास्ता दुर्णयकारिणाम् ॥ २० ॥ जगदीशो जगत्पूज्यो महाबलपराक्रमः । अजेयस्त्वं रणे क्वापि ममापि हि भविष्यसि ॥ २१ ॥ महेश्वर बोले-[हे हरे !] आप मेरी आज्ञासे सम्पूर्ण लोकोंके कर्ता, पालक, संहारक, धर्म अर्थ-कामके दाता तथा अन्याय करनेवालोंको दण्ड देनेवाले होंगे । आप महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न, जगत्पूज्य, जगदीश्वर होंगे और कहीं-कहीं मुझसे भी अजेय होंगे ॥ २०-२१ ॥ शक्तित्रयं गृहाण त्वमिच्छादिप्रापितं मया ।
नानालीलाप्रभावत्वं स्वतन्त्रत्वं भवत्रये ॥ २२ ॥ आप मुझसे मेरी दी हुई तीन प्रकारकी ये शक्तियाँ ग्रहण करें-इच्छा आदिकी सिद्धि, अनेक प्रकारकी लीलाओंको प्रकट करनेकी शक्ति और तीनों लोकोंमें नित्य स्वतन्त्र रहनेको शक्ति ॥ २२ ॥ त्वद्द्वेष्टारो हरे नूनं मया शास्याः प्रयत्नतः ।
त्वद्भक्तानां मया विष्णो देयं निर्वाणमुत्तमम् ॥ २३ ॥ हे हरे ! आपसे द्वेष करनेवाले निश्चय ही मेरे द्वारा प्रयत्नपूर्वक दण्डनीय होंगे । हे विष्णो ! मैं आपके भक्तोंको उत्तम मोक्ष प्रदान करूँगा ॥ २३ ॥ मायां चापि गृहाणेमां दुष्प्रणोद्यां सुरादिभिः ।
यया संमोहितं विश्वमचिद्रूपं भविष्यति ॥ २४ ॥ आप इस मायाको भी ग्रहण करें, जिसका निवारण करना देवता आदिके लिये भी कठिन है और जिससे मोहित होनेपर यह विश्व जड़रूप हो जायगा ॥ २४ ॥ मम बाहुर्मदीयस्तं दक्षिणोऽसौ विधिर्हरे ।
अस्यापि हि विधेः पाता जनितापि भविष्यसि ॥ २५ ॥ हरे ! आप मेरी बायीं भुजा हैं और विधाता दाहिनी भुजा हैं । आप इन विधाताके भी उत्पादक और पालक होंगे ॥ २५ ॥ हृदयं मम यो रुद्रः स एवाहं न संशयः ।
पूज्यस्तव सदा सोऽपि ब्रह्मादीनामपि ध्रुवम् ॥ २६ ॥ अत्र स्थित्वा जगत्सर्वं पालय त्वं विशेषतः । नानावतारभेदैश्च सदा नानोतिकर्तृभिः ॥ २७ ॥ मेरे हृदयरूप जो रुद्र हैं, वहीं मैं हूँ, इसमें संशय नहीं है । वे रुद्र आपके और ब्रह्मा आदि देवताओंके भी निश्चय ही पूज्य हैं । आप यहाँ रहकर अनेक प्रकारकी लीलाएँ करनेवाले अपने विभिन्न अवतारोंद्वारा विशेषरूपसे सम्पूर्ण जगत्का पालन करें ॥ २६-२७ ॥ मम लोके तदेवं वै स्थानं च परमर्द्धिमत् ।
गोलोक इति विख्यातं भविष्यति महोज्ज्वलम् ॥ २८ ॥ मेरे लोकमें आपका यह परम वैभवशाली और अत्यन्त उज्ज्वल स्थान गोलोक नामसे विख्यात होगा ॥ २८ ॥ भविष्यन्ति हरे ये तेऽवतारा भुवि रक्षकाः ।
मद्भक्तास्तान् ध्रुवं प्रीताः पश्यन्तिस्म निजाद्वरात् ॥ २९ ॥ हे हरे ! भूतलपर जो आपके अवतार होंगे, वे सबके रक्षक और मेरे भक्त होंगे । मैं उनका दर्शन करूँगा । वे मेरे बरसे सदा प्रसन्न रहेंगे ॥ २९ ॥ राम उवाच
अखण्डैश्वर्यमासाद्य हरेरित्थं हरःस्वयम् । कैलासे स्वगणैस्तस्मिन् स्वैरं क्रीडत्युमापतिः ॥ ३० ॥ तदाप्रभृति लक्ष्मीशो गोपवेषोऽभवत्तथा । अयासीत्तत्र सुप्रीत्या गोपगोपोगवां पतिः ॥ ३१ ॥ श्रीरामजी बोले-इस प्रकार श्रीहरिको अपना अखण्ड ऐश्वर्य प्रदानकर उमापति भगवान् हर स्वयं कैलासपर्वतपर रहते हुए अपने पार्षदोंके साथ स्वच्छन्द क्रीड़ा करने लगे । तभीसे भगवान् लक्ष्मीपतिने गोपवेश धारण कर लिया और वे गोप-गोपी तथा गौऑक अधिपति होकर बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ रहने लगे ॥ ३०-३१ ॥ सोऽपि विष्णुः प्रसन्नात्मा जुगोप निखिलं जगत् ।
नानावतारसन्धर्ताऽवनकर्ता शिवाज्ञया ॥ ३२ ॥ वे विष्णु भी प्रसन्नचित्त होकर समस्त जगत्की रक्षा करने लगे । वे शिवजीकी आज्ञासे नाना प्रकारके अवतार धारण करके जगत्का पालन करने लगे ॥ ३२ ॥ इदानीं स चतुर्द्धात्रावातरच्छङ्कराज्ञया ।
रामोहं तत्र भरतो लक्ष्मणः शत्रुहेति च ॥ ३३ ॥ इस समय वे श्रीहरि भगवान् शंकरकी आज्ञासे चार रूपोंमें अवतीर्ण हुए हैं । उनमें एक मैं राम हूँ और भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हैं ॥ ३३ ॥ अथ पित्राज्ञया देवि ससीतालक्ष्मणः सति ।
आगतोहं वने चाद्य दुःखितौ दैवतोऽभवम् ॥ ३४ ॥ निशाचरेण मे जाया हृता सीतेति केनचित् । अन्वेष्यामि प्रियां चात्र विरही बन्धुना वने ॥ ३५ ॥ हे देवि ! हे सति ! मैं पिताकी आज्ञासे सीता और लक्ष्मणके साथ वनमें आया हूँ और भाग्यवश इस समय मैं दुखी हूँ । यहाँ किसी निशाचरने मेरी पत्नीका हरण कर लिया है और मैं विरही होकर भाईके साथ बनमें अपनी प्रियाकी खोज कर रहा हूँ ॥ ३४-३५ ॥ दर्शनं ते यदि प्राप्तं सर्वथा कुशलं मम ।
भविष्यति न सन्देहो मातस्ते कृपया सति ॥ ३६ ॥ सीताप्राप्तिवरं देवि भविष्यति न संशयः । तं हत्वा दुःखदं पापं राक्षसं त्वदनुग्रहात् ॥ ३७ ॥ हे सति ! हे मातः ! जब आपका दर्शन प्राप्त हो गया, तब आपकी कृपासे सर्वथा मेरा कुशल ही होगा, इसमें सन्देह नहीं है । हे देवि ! आपका दर्शन मेरे लिये सीता-प्राप्तिका वरस्वरूप होगा, आपकी कृपासे उस दुःख देनेवाले पापी राक्षसको मारकर मैं सीताको प्राप्त कर लूँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३६-३७ ॥ महद्भाग्यं ममाद्यैव यद्यकार्ष्टां कृपां युवाम् ।
यस्मिन् सकरुणौ स्यातां स धन्यः पुरुषो वरः ॥ ३८ ॥ आज मेरा महान् सौभाग्य है, जो आप दोनोंने मुझपर कृपा की । जिसपर आप दोनों दयाई हो जायें, वह पुरुष धन्य और श्रेष्ठ है ॥ ३८ ॥ इत्थमाभाष्य बहुधा सुप्रणम्य सतीं शिवाम् ।
तदाज्ञया वने तस्मिन् विचचार रघूद्वहः ॥ ३९ ॥ अथाकर्ण्य सती वाक्यं रामस्य प्रयतात्मनः । हृष्टाऽभूत्सा प्रशंसन्तं शिवभक्तिरतं हृदि ॥ ४० ॥ इस प्रकार बहुत-सी बातें कहकर कल्याणमयी सती देवीको प्रणाम करके रघुकुलशिरोमणि श्रीराम उनकी आज्ञासे उस वनमें विचरने लगे । पवित्र हृदयवाले रामकी शिव-भक्तिपरायण तथा शिवप्रशंसापरक बात सुनकर सती मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई । ३९-४० ॥ स्मृत्वा स्वकर्म मनसाऽकार्षीच्छोकं सुविस्तरम् ।
प्रत्यगच्छदुदासीना विवर्णा शिवसन्निधौ ॥ ४१ ॥ [तदनन्तर] अपने कर्मको याद करके उनके मनमें बड़ा शोक हुआ । उनकी अंगकान्ति फीकी पड़ गयी और वे उदास होकर शिवजीके पास लौट आयीं ॥ ४१ ॥ पथि साचिन्तयद् देवी सञ्चलन्ती पुनः पुनः ।
नाङ्गीकृतं शिवोक्तं मे रामं प्रति कुधीः कृता ॥ ४२ ॥ किमुत्तरमहं दास्ये गत्वा शङ्करसन्निधौ । इति सञ्चिन्त्य बहुधा पश्चात्तापोऽभवत्तदा ॥ ४३ ॥ मार्गमें जाती हुई देवी सती बारम्बार चिन्ता करने लगीं कि मैंने भगवान् शिवकी बात नहीं मानी और श्रीरामके प्रति कुत्सित बुद्धि कर ली । अव शंकरजीके पास जाकर उन्हें क्या उत्तर दूँगी, इस प्रकारके विचार करनेपर उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ ॥ ४२-४३ ॥ गत्वा शम्भुसमीपं च प्रणनाम शिवं हृदा ।
विषण्णवदना शोकव्याकुला विगतप्रभा ॥ ४४ ॥ शिवजीके पास जाकर उन सतीने उन्हें हृदयसे प्रणाम किया । उनके मुखपर विषाद छा गया । वे शोकसे व्याकुल और निस्तेज हो गयी थीं ॥ ४४ ॥ अथ तां दुःखितां दृष्ट्वा पप्रच्छ कुशलं हरः ।
प्रोवाच वचनं प्रीत्या तत्परीक्षा कृता कथम् ॥ ४५ ॥ श्रुत्वा शिववचो नाहं किमपि प्रणतानना । सती शोकविषण्णा सा तस्थौ तत्र समीपतः ॥ ४६ ॥ सतीको दुखी देखकर भगवान् हरने उनका कुशल-क्षेम पूछा और प्रेमपूर्वक कहा-तुमने किस प्रकार उनकी परीक्षा ली ? शिवजीकी यह बात सुनकर मैंने कोई परीक्षा नहीं ली-ऐसा कहकर वे सती सिर झुकाये शोकाकुल होकर उनके पास खड़ी हो गयीं ॥ ४५-४६ ॥ अथ ध्यात्वा महेशस्तु बुबोध चरितं हृदा ।
दक्षजाया महायोगी नानालीलाविशारदः ॥ ४७ ॥ इसके बाद महायोगी तथा अनेकविध लीला करने में प्रवीण भगवान् महेश्वरने मनमें ध्यान लगाकर दक्षपुत्री सतीका सारा चरित्र जान लिया ॥ ४७ ॥ सस्मार स्वपणं पूर्वं यत्कृतं हरिकोपतः ।
तत्प्रार्थितोथ रुद्रोऽसौ मर्यादा प्रतिपालकः ॥ ४८ ॥ विषादोऽभूत्प्रभोस्तत्र मनस्येवमुवाच ह । धर्मवक्ता धर्मकर्त्ता धर्मावनकरः सदा ॥ ४९ ॥ उन्हें अपनी उस प्रतिज्ञाका स्मरण हो आया, जिसे हरिके विशेष आग्रह करनेपर मर्यादाप्रतिपालक उन रुद्रने विवाहके लिये देवताओंके द्वारा निवेदन किये जानेपर पूर्वमें किया था । उन महाप्रभुके मनमें विषाद उत्पन्न हो गया । तब धर्मवक्ता, धर्मकर्ता तथा धर्मरक्षक प्रभुने अपने मनमें कहा- ॥ ४८-४९ ॥ शिव उवाच
कुर्यां चेद्दक्षजायां हि स्नेहं पूर्वं यथा महान् । नश्येन्मम पणः शुद्धो लोकलीलानुसारिणः ॥ ५० ॥ शिवजी बोले- यदि मैं सतीसे अब पूर्ववत् स्नेह करूँ, तो लोकलीलाका अनुसरण करनेवाले मुझ शिवकी महान् प्रतिज्ञा ही नष्ट हो जायगी ॥ ५० ॥ ब्रह्मोवाच
इत्थं विचार्य बहुधा हृदा तामत्यजत्सतीम् । पणं न नाशयामास वेदधर्मप्रपालकः ॥ ५१ ॥ ततो विहाय मनसा सतीं तां परमेश्वरः । जगाम स्वगिरिं भेदं जगावद्धा स हि प्रभुः ॥ ५२ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार मनमें अनेक तरहसे विचारकर वेद और धर्मके प्रतिपालक शंकरजीने हृदयसे सतीका त्याग कर दिया, किंतु अपनी प्रतिज्ञाको नष्ट नहीं किया । तत्पश्चात् परमेश्वर शिवजी मनसे सतीको त्यागकर अपने कैलासपर्वतकी ओर चल दिये । उन प्रभुने अपने निश्चयको किसीके सामने प्रकट नहीं किया ॥ ५१-५२ ॥ चलन्तं पथि तं व्योमवाण्युवाच महेश्वरम् ।
सर्वान् संश्रावयंस्तत्र दक्षजां च विशेषतः ॥ ५३ ॥ मार्गमें जाते हुए महेश्वरको, अन्य सबको तथा विशेषकर सतीको सुनाते हुए आकाशवाणी हुई ॥ ५३ ॥ व्योमवाण्युवाच
धन्यस्त्वं परमेशान त्वत्समोऽद्य तथा पणः । न कोप्यन्यस्त्रिलोकेऽस्मिन् महायोगी महाप्रभुः ॥ ५४ ॥ आकाशवाणी बोली-हे परमेश्वर ! आप धन्य हैं, इस त्रिलोकीमें आपके समान कोई भी नहीं है, जिसने आजतक ऐसी प्रतिज्ञा की हो, आप महायोगी तथा महाप्रभु हैं ॥ ५४ ॥ ब्रह्मोवाच
श्रुत्वा व्योमवचो देवी शिवं पप्रच्छ विप्रभा । कं पणं कृतवान्नाथ ब्रूहि मे परमेश्वर ॥ ५५ ॥ ब्रह्माजी बोले-यह आकाशवाणी सुनकर कान्तिसे हीन देवी सतीने शिवसे पूछा-हे नाथ ! आपने कौनसी प्रतिज्ञा की है ? हे परमेश्वर ! मुझे बताइये ॥ ५५ ॥ इति पृष्टोपि गिरिशः सत्या हितकरः प्रभुः ।
नोद्वाहं स्वं पणं तस्यै यद्धर्यग्रेऽकरोत्पुरा ॥ ५६ ॥ सतीके इस प्रकार पूछनेपर भी सबका हित करनेवाले प्रभुने पहले अपने विवाहके विषयमें भगवान् विष्णुके सामने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे नहीं बताया ॥ ५६ ॥ तदा सती शिवं ध्यात्वा स्वपतिं प्राणवल्लभम् ।
सर्वं बुबोध हेतुं तं प्रियत्यागमयं मुने ॥ ५७ ॥ हे मुने ! उस समय सती अपने प्राणवल्लभ पति भगवान् शिवका ध्यान करके प्रियतमके द्वारा अपने त्याग-सम्बन्धी समस्त कारणको जान गयीं ॥ ५७ ॥ ततोऽतीव शुशोचाशु बुध्वा सा त्यागमात्मनः ।
शम्भुना दक्षजा तस्मान्निःश्वसन्ती मुहुर्मुहुः ॥ ५८ ॥ शम्भुने मेरा त्याग किया है-इस बातको जानकर दक्षकन्या सती बार-बार श्वास भरती हुई शीघ्र ही अत्यन्त शोकमें डूब गयीं, बारम्बार सिसकने लगीं ॥ ५८ ॥ शिवस्तस्याः समाज्ञाय गुप्तं चक्रे मनोभवम् ।
सत्ये पणं स्वकीयं हि कथा बह्वीर्वदन् प्रभुः ॥ ५९ ॥ सतीके मनोभावको जानकर प्रभु शिवने उनके लिये जो प्रतिज्ञा की थी, उसे गुप्त ही रखा और वे दूसरी बहुत-सी कथाएँ कहने लगे ॥ ५९ ॥ सत्या प्राप स कैलासं कथयन् विविधाः कथा ।
वरे स्थित्वा निजं रूपं दधौ योगी समाधिभृत् ॥ ६० ॥ तत्र तस्थौ सतीधाम्नि महाविषण्णमानसा । न बुबोध चरित्रं तत्कश्चिच्च शिवयोर्मुने ॥ ६१ ॥ महान्कालो व्यतीयाय तयोरित्थं महामुने । स्वोपात्तदेहयोः प्रभ्वोर्लोकलीलानुसारिणोः ॥ ६२ ॥ इस प्रकार नाना प्रकारकी कथाएँ कहते हुए वे सतीके साथ कैलासपर जा पहुंचे और श्रेष्ठ आसनपर स्थित हो समाधि लगाकर अपने स्वरूपका ध्यान करने लगे । सती अत्यन्त व्याकुलचित्त होकर अपने धाममें रहने लगीं । हे मुने ! शिवा और शिवके उस चरित्रको किसीने नहीं जाना । हे महामुने ! इस प्रकार स्वेच्छासे शरीर धारण करके लोकलीलाका अनुसरण करनेवाले उन दोनों प्रभुओंका बहुत काल व्यतीत हो गया ॥ ६०-६२ ॥ ध्यानं तत्याज गिरिशस्ततः स परमोतिकृत् ।
तज्ज्ञात्वा जगदम्बा हि सती तत्राजगाम सा ॥ ६३ ॥ ननामाथ शिवं देवी हृदयेन विदूयता । आसनं दत्तवाञ्शम्भुः स्वसन्मुख उदारधीः ॥ ६४ ॥ कथयामास सुप्रीत्या कथा बह्वीर्मनोरमाः । निः शोका कृतवान् सद्यो लीलां कृत्वा च तादृशीम् ॥ ६५ ॥ तत्पश्चात् उत्तम लीला करनेवाले महादेवजीने ध्यान तोड़ा-यह जानकर जगदम्बा सती वहाँ आयीं और उन्होंने व्यथित हदयसे शिवको प्रणाम किया । उदार चित्तवाले शम्भुने उन्हें अपने सामने [बैठनेके लिये] आसन दिया और वे बड़े प्रेमसे बहुत-सी मनोरम कथाएँ कहने लगे । उन्होंने वैसी ही लीला करके सतीके शोकको तत्काल दूर कर दिया ॥ ६३-६५ ॥ पूर्ववत्सा सुखं लेभे तत्याज स्वपणं न सः ।
नेत्याश्चर्यं शिवे तात मन्तव्यं परमेश्वरे ॥ ६६ ॥ इत्थं शिवाशिवकथां वदन्ति मुनयो मुने । किल केचिदविद्वांसो वियोगश्च कथं तयोः ॥ ६७ ॥ वे पूर्ववत् सुखी हो गयीं, फिर भी शिवजीने अपनी प्रतिज्ञाको नहीं तोड़ा । हे तात ! परमेश्वर शिवजीके विषयमें यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं समझनी चाहिये । हे मुने ! मुनि लोग शिव और शिवाकी ऐसी ही कथा कहते हैं । कुछ मूर्ख लोग उन दोनोंमें वियोग मानते हैं, परंतु उनमें वियोग कैसे सम्भव है ! ॥ ६६-६७ ॥ शिवाशिवचरित्रं को जानाति परमार्थतः ।
स्वेच्छया क्रीडतस्तौ हि चरितं कुरुतःसदा ॥ ६८ ॥ वागर्थाविव सम्पृक्तौ सदा खलु सतीशिवौ । तयोर्वियोगःसम्भाव्यःसम्भवेदिच्छया तयोः ॥ ६९ ॥ शिवा और शिवके वास्तविक चरित्रको कौन जान सकता है ? वे दोनों सदा अपनी इच्छासे क्रीड़ा करते और [भाँति-भाँतिकी] लीलाएँ करते हैं । सती और शिव वाणी और अर्थकी भाँति एक-दूसरेसे नित्य संयुक्त हैं । उन दोनोंमें वियोग होना असम्भव है, उनकी इच्छासे ही लीलामें वियोग हो सकता है ॥ ६८-६९ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये
सतीखण्डे सतीवियोगो नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें सतीवियोगवर्णन नामक पच्चीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |