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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

षड्विंशोऽध्यायः ॥

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शिवसतीवियोगः
सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन


ब्रह्मोवाच
पुराभवच्च सर्वेषामध्वरो विधिना महान् ।
प्रयागे समवेतानां मुनीनां च महात्मनाम् ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! पूर्वकालमें प्रयागमें एकत्रित हुए समस्त मुनियों तथा महात्माओंका विधिविधानसे एक बहुत बड़ा यज्ञ हुआ ॥ १ ॥

तत्र सिद्धाः समाख्याताः सनकाद्याः सुरर्षयः ।
सप्रजापतयो देवा ज्ञानिनो ब्रह्मदर्शिनः ॥ २ ॥
उस यज्ञमें सिद्धगण, सनक आदि, देवर्षि, प्रजापति, देवता तथा ब्रह्मका साक्षात्कार करनेवाले ज्ञानी आये ॥ २ ॥

अहं समागतस्तत्र परिवारसमन्वितः ।
निगमैरागमैर्युक्तो मूर्तिमद्‌भिर्महाप्रभैः ॥ ३ ॥
मैं भी मूर्तिमान् महातेजस्वी निगमों और आगोंसे युक्त हो सपरिवार वहाँ गया था ॥ ३ ॥

समाजोऽभूद्विचित्रो हि तेषामुत्सवसंयुतः ।
ज्ञानवादोऽभवत्तत्र नानाशास्त्र समुद्‌भवः ॥ ४ ॥
अनेक प्रकारके उत्सवोंके साथ वहाँ उनका विचित्र समाज जुटा था । वहाँ अनेक शास्त्रोंसे सम्बन्धित ज्ञानचर्चा होने लगी ॥ ४ ॥

तस्मिन्नवसरे रुद्रः सभवानीगणः प्रभुः ।
त्रिलोकहितकृत्स्वामी तत्रागात्सूतिकृन्मुने ॥ ५ ॥
हे मुने ! उसी समय सती और पार्षदोंके साथ त्रिलोकहितकारी, सृष्टिकर्ता एवं सबके स्वामी भगवान् रुद्र भी वहाँ पहुँचे ॥ ५ ॥

दृष्ट्‍वा शिवं सुराः सर्वे सिद्धाश्च मुनयस्तथा ।
अनमंस्तं प्रभुं भक्त्या तुष्टुवुश्च तथा ह्यहम् ॥ ६ ॥
शिवको देखकर सम्पूर्ण देवताओं, सिद्धों, मुनियों और मैंने भक्तिभावसे उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की ॥ ६ ॥

तस्थुः शिवाज्ञया सर्वे यथास्थानं मुदान्विताः ।
प्रभुदर्शनसन्तुष्टा वर्णयन्तो निजं विधिम् ॥ ७ ॥
तत्पश्चात् शिवजीकी आज्ञा पाकर सब लोग प्रसन्नतापूर्वक यथास्थान बैठ गये । भगवान्के दर्शनसे सन्तुष्ट होकर सब लोग अपने भाग्यकी सराहना करने लगे ॥ ७ ॥

तस्मिन्नवसरे दक्षः प्रजापतिपतिः प्रभुः ।
आगमत्तत्र सुप्रीतः सुवर्चस्वी यदृच्छया ॥ ८ ॥
मां प्रणम्य स दक्षो हि न्युष्टस्तत्र मदाज्ञया ।
ब्रह्माण्डाधिपतिर्मान्यो मानी तत्त्वबहिर्मुखः ॥ ९ ॥
उसी समय प्रजापतियोंके स्वामी महातेजस्वी प्रभु दक्षप्रजापति घूमते हुए प्रसन्नतापूर्वक वहाँ अकस्मात् आये । वे मुझे प्रणामकर मेरी आज्ञासे वहाँ बैठ गये । वे दक्ष ब्रह्माण्डके अधिपति और सबके मान्य थे, परंतु अहंकारी तथा तत्त्वज्ञानसे शून्य थे ॥ ८-९ ॥

स्तुतिभिः प्रणिपातैश्च दक्षः सर्वैः सुरर्षिभिः ।
पूजितो वरतेजस्वी करौ बध्वा विनम्रकैः ॥ १० ॥
उस समय समस्त देवर्षियोंने नतमस्तक हो स्तुति और प्रणामद्वारा दोनों हाथ जोड़कर उत्तम तेजयुक्त दक्षका आदर-सत्कार किया ॥ १० ॥

नानाविहारकृन्नाथः स्वतन्त्र परमोतिकृत् ।
नानामत्तं तदा दक्षं स्वासनस्थो महेश्वरः ॥ ११ ॥
किंतु नाना प्रकारके लीलाविहार करनेवाले सबके स्वामी और परम रक्षक महेश्वरने उस समय दक्षको प्रणाम नहीं किया । वे अपने आसनपर बैठे ही रह गये ॥ ११ ॥

दृष्टाऽऽनतं हरं तत्र स मे पुत्रोऽप्रसन्नधीः ।
अकुपत्सहसा रुद्रे तदा दक्षः प्रजापतिः ॥ १२ ॥
महादेवजीको वहाँ मस्तक न झुकाते देख मेरे पुत्र दक्ष मन-ही-मन अप्रसन्न हो गये । दक्ष प्रजापति रुद्रपर कुपित हो गये ॥ १२ ॥

क्रूरदृष्ट्या महागर्वो दृष्ट्‍वा रुद्रं महाप्रभुम् ।
सर्वान्संश्रावयन्नुच्चैरवोचज्ज्ञानवर्जितः ॥ १३ ॥
ज्ञानशून्य तथा महान् अहंकारी दक्ष महाप्रभु रुद्रको क्रूर दृष्टिसे देखकर सबको सुनाते हुए उच्च स्वरमें कहने लगे- ॥ १३ ॥

दक्षौवाच
एते हि सर्वे च सुरासुरा भृशं
     नमन्ति मां विप्रवरास्तथर्षयः ।
कथं ह्यसौ दुर्जनवन्महामना
     त्वभूत्तु यः प्रेतपिशाचसंवृतः ॥ १४ ॥
दक्ष बोले-ये सब देवता, असुर, श्रेष्ठ ब्राह्मण तथा ऋषि मुझे विशेष रूपसे मस्तक झुकाते हैं, परंतु वह जो प्रेतों और पिशाचोंसे घिरा हुआ महामनस्वी है, वह दुष्ट मनुष्यके समान कैसे हो गया ? ॥ १४ ॥

श्मशानवासी निरपत्रपो ह्ययं
     कथं प्रणामं न करोति मेऽधुना ।
लुप्तक्रियो भूतपिशाचसेवितो
     मत्तोऽविधो नीतिविदूषकःसदा ॥ १५ ॥
श्मशानमें निवास करनेवाला निर्लज मुझे इस समय प्रणाम क्यों नहीं करता ? इसके [वेदोक्त] कर्म लुप्त हो गये हैं, यह भूतों और पिशाचोंसे सेवित हो मतवाला बना रहता है, शास्त्रीय विधिसे रहित है तथा नीतिमार्गको सदा कलंकित करता है ॥ १५ ॥

पाखण्डिनं दुर्जनपापशीलं
     दृष्ट्‍वा द्विजं प्रोद्धतनिन्दकञ्च ।
वध्वां सदासक्तरतिप्रवीणं
     तस्मादमुं शप्तुमहं प्रवृत्तः ॥ १६ ॥
इसके साथ रहनेवाले या इसका अनुसरण करनेवाले लोग पाखण्डी, दुष्ट, पापाचारी तथा ब्राह्मणको देखकर उद्दण्डतापूर्वक उसकी निन्दा करनेवाले होते हैं । यह स्वयं ही स्त्रीमें आसक्त रहनेवाला तथा रतिकर्ममें ही दक्ष है । अत: मैं इसे शाप देनेके लिये उद्यत हूँ ॥ १६ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्येवमुक्त्वा स महाखलस्तदा
     रुषान्वितो रुद्रमिदं ह्यवोचत् ।
शृण्वन्त्वमी विप्रवरास्तथा सुरा
     वध्यं हि मे चार्हथ कर्तुमेतम् ॥ १७ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार कहकर वे महादुष्ट दक्ष कुपित होकर रुद्रके प्रति कहने लगे । हे ब्राह्मणो एवं देवताओ ! यह रुद्र मेरे तथा आप सभीके द्वारा वध्य है ॥ १७ ॥

दक्ष उवाच
रुद्रो ह्ययं यज्ञबहिष्कृतो मे
     वर्णेष्वतीतोऽथ विवर्णरूपः ।
देवैर्न भागं लभतां सहैव
     श्मशानवासी कुलजन्महीनः ॥ १८ ॥
दक्ष बोले-मैं इस रुद्रको यज्ञसे बहिष्कृत करता हूँ । यह चारों वर्गों से बाहर, श्मशानमें निवास करनेवाला तथा उत्तम कुल और जन्मसे हीन है । इसलिये यह देवताओंके साथ यज्ञमें भाग न पाये ॥ १८ ॥

ब्रह्मोवाच
इति दक्षोक्तमाकर्ण्य भृग्वाद्या बहवो जनाः ।
अगर्हयन् दुष्टसत्त्वं रुद्रं मत्त्वामरैः समम् ॥ १९ ॥
। ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! दक्षकी कही हुई यह बात सुनकर भृगु आदि बहुतसे महर्षि रुद्रदेवको दुष्ट मानकर देवताओंके साथ उनकी निन्दा करने लगे ॥ १९ ॥

नन्दी निशम्य तद्वाक्यं लालाक्षोऽतिरुषान्वितः ।
अब्रवीत्त्वरितं दक्षं शापं दातुमना गणः ॥ २० ॥
दक्षकी बात सुनकर गणेश्वर नन्दीको बड़ा रोष हुआ । उनके नेत्र चंचल हो उठे और वे दक्षको शाप देनेके विचारसे तुरंत इस प्रकार कहने लगे- ॥ २० ॥

नन्दीश्वर उवाच
रे रे शठ महा मूढ दक्ष दुष्टमते त्वया ।
यज्ञबाह्यो हि मे स्वामी महेशो हि कृतः कथम् ॥ २१ ॥
यस्य स्मरणमात्रेण भवन्ति सफला मखाः ।
तीर्थानि च पवित्राणि सोऽयं शप्तो हरः कथम् ॥ २२ ॥
नन्दीश्वर बोले-हे शठ ! महामूढ़ ! हे दुष्टबुद्धि दक्ष ! तुमने मेरे स्वामी महेश्वरको यज्ञसे बहिष्कृत क्यों कर दिया ? जिनके स्मरणमात्रसे यज्ञ सफल और तीर्थ पवित्र हो जाते हैं, उन्हीं महादेवजीको तुमने शाप कैसे दे दिया ? ॥ २१-२२ ॥

वृथा ते ब्रह्मचापल्याच्छप्तोऽयं दक्ष दुर्मते ।
वृथोपहसितश्चैवादुष्टो रुद्रो महा प्रभुः ॥ २३ ॥
येनेदं पाल्यते विश्वं सृष्टमन्ते विनाशितम् ।
शप्तोयं स कथं रुद्रो महेशो ब्राह्मणाधम ॥ २४ ॥
हे दुर्बुद्धि दक्ष ! तुमने ब्राह्मणजातिको चपलतासे प्रेरित हो इन निर्दोष महाप्रभुद्रदेवको व्यर्थ ही शाप दिया और इनका उपहास किया है । हे ब्राह्मणाधम ! जिन्होंने इस जगत्की सृष्टि की है, जो इसका पालन करते हैं और अन्त में जिनके द्वारा इसका संहार होता है, उन्हीं महेश्वर रुद्रको तूने शाप कैसे दे दिया ? ॥ २३-२४ ॥

एवं निर्भत्सितस्तेन नन्दिना हि प्रजापतिः ।
नन्दिनं च शशापाथ दक्षो रोषसमन्वितः ॥ २५ ॥
नन्दीके इस प्रकार फटकारनेपर प्रजापति दक्ष रुष्ट हो गये और नन्दीको शाप दे दिया ॥ २५ ॥

दक्ष उवाच
यूयं सर्वे रुद्रगणा वेदबाह्या भवन्तु वै ।
वेदमार्गपरित्यक्तास्तथा त्यक्ता महर्षिभिः ॥ २६ ॥
पाखण्डवादनिरताः शिष्टाचारबहिष्कृताः ।
मदिरापाननिरता जटा भस्मास्थिधारिणः ॥ २७ ॥
दक्ष बोले-हे रुद्रगणो ! तुमलोग वेदसे बहिष्कृत हो जाओ, वैदिक मार्गसे भ्रष्ट हो जाओ, महर्षियोंद्वारा परित्यक्त हो जाओ, पाखण्डवादमें लग जाओ, शिष्टाचारसे दूर रहो, सिरपर जटा और शरीरमें भस्म एवं हड्डियोंके आभूषण धारण करो और मद्यपानमें आसक्त रहो ॥ २६-२७ ॥

ब्रह्मोवाच
इति शप्तास्तथा तेन दक्षेण शिवकिङ्‌कराः ।
तच्छ्रुत्वातिरुषाविष्टोभवन्नन्दी शिवप्रियः ॥ २८ ॥
ब्रह्माजी बोले-जब दक्षने शिवगणोंको इस प्रकार शाप दे दिया, तब उस शापको सुनकर शिवभक्त नन्दी अत्यन्त रोषमें भर गये ॥ २८ ॥

प्रत्युवाच द्रुतं पक्षं गर्वितं तं महाखलम् ।
शिलादतनयो नन्दी तेजस्वी शिववल्लभः ॥ २९ ॥
शिलादके पुत्र, शिवप्रिय, तेजस्वी नन्दी गर्वसे भरे हुए महादुष्ट दक्षको तत्काल इस प्रकार उत्तर देने लगे- ॥ २९ ॥

नन्दीश्वर उवाच
रे दक्ष शठ दुर्बुद्धे वृथैव शिवकिङ्‌कराः ।
शप्तास्ते ब्रह्मचापल्याच्छिवतत्त्वमजानता ॥ ३० ॥
नन्दीश्वर बोले-हे शठ ! हे दुर्बुद्धि दक्ष ! ब्रह्मचापल्यके कारण शिवतत्त्वको न जानते हुए तुमने शिवके पार्षदोंको व्यर्थ ही शाप दिया है ॥ ३० ॥

भृग्वाद्यैर्दुष्टचित्तैश्च मूढैःस उपहासितः ।
महाप्रभुर्महेशानो ब्राह्मणत्वादहंमते ॥ ३१ ॥
ये रुद्रविमुखाश्चात्र ब्राह्मणास्त्वादृशाः खलाः ।
रुद्रतेजःप्रभावत्वात्तेषां शापं ददाम्यहम् ॥ ३२ ॥
हे अहंकारी दक्ष ! दूषित चित्तवाले मूढ भृगु आदिने भी ब्राह्मणत्वके अभिमानमें आकर महाप्रभु महेश्वरका उपहास किया है । अतः यहाँ जो भगवान् रुद्रसे विमुख तुम-जैसे खल ब्राह्मण विद्यमान हैं, उनको मैं रुद्रतेजके प्रभावसे शाप दे रहा हूँ ॥ ३१-३२ ॥

वेदवादरता यूयं वेदतत्त्वबहिर्मुखाः ।
भवन्तु सततं विप्रा नान्यदस्तीति वादिनः ॥ ३३ ॥
कामात्मानः स्वर्गपराः क्रोधलोभमदान्विताः ।
भवन्तु सततं विप्रा भिक्षुका निरपत्रपाः ॥ ३४ ॥
तुम-जैसे ब्राह्मण [कर्मफलके प्रशंसक] वेदवादमें फँसकर वेदके तत्त्वज्ञानसे शून्य हो जायें, वे ब्राह्मण सदा भोगोंमें तन्मय रहकर स्वर्गको ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ मानते हुए स्वर्गसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है-ऐसा कहते रहें तथा क्रोध, लोभ एवं मदसे युक्त, निर्लज और भिक्षुक बने रहें ॥ ३३-३४ ॥

वेदमार्गं पुरस्कृत्य ब्राह्मणाः शूद्रयाजिनः ।
दरिद्रा वै भविष्यन्ति प्रतिग्रहरताः सदा ॥ ३५ ॥
असत्प्रतिग्रहाश्चैव सर्वे निरयगामिनः ।
भविष्यन्ति सदा दक्ष केचिद्वै ब्रह्मराक्षसाः ॥ ३६ ॥
[कितने ही] ब्राह्मण वेदमार्गको सामने रखकर शूद्रोंका यज्ञ करानेवाले और दरिद्र होंगे । वे सदा दान लेने में लगे रहेंगे । दूषित दान ग्रहण करनेके कारण वे सबके सब नरकगामी होंगे । हे दक्ष ! उनमेंसे कुछ ब्राह्मण तो ब्रह्मराक्षस होंगे ॥ ३५-३६ ॥

यः शिवं सुरसामान्यमुद्दिश्य परमेश्वरम् ।
द्रुह्यत्यजो दुष्टमतिस्तत्त्वतो विमुखो भवेत् ॥ ३७ ॥
यह अजन्मा प्रजापति दक्ष, जो परमेश्वर शिवको सामान्य देवता समझकर उनसे द्रोह करता है, यह दुष्ट बुद्धिवाला तत्त्वज्ञानसे विमुख हो जायगा ॥ ३७ ॥

कूटधर्मेषु गेहेषु सदा ग्राम्यसुखेच्छया ।
कर्मतन्त्रं वितनुता वेदवादं च शाश्वतम् ॥ ३८ ॥
विनष्टानन्दकमुखो विस्मृतात्मगतिः पशुः ।
भ्रष्टकर्मानयरतो दक्षो वस्तमुखोऽचिरात् ॥ ३९ ॥
शप्तास्ते कोपिना तत्र नन्दिना ब्राह्मणा यदा ।
हाहाकारो महानासीच्छप्तो दक्षेण चेश्वरः ॥ ४० ॥
यह विषयसुखकी इच्छासे कामनारूपी कपटसे युक्त धर्मवाले गृहस्थाश्चममें आसक्त रहकर कर्मकाण्डका तथा कर्मफलकी प्रशंसा करनेवाले सनातन वेदवादका ही विस्तार करता रहेगा । दक्षका आनन्ददायी मुख नष्ट हो जाय, यह आत्मज्ञानको भूलकर पशुके समान हो जाय और कर्मभ्रष्ट तथा अनीतिपरायण होकर शीघ्र ही बकरेके मुखसे युक्त हो जाय । इस प्रकार कुपित हुए नन्दीने जब ब्राह्मणोंको शाप दिया और दक्षने महादेवजीको शाप दिया, तब वहाँ महान् हाहाकार मच गया । ३८-४० ॥

तदाकर्ण्यामहत्यन्तमनिन्दं तं मुहुर्मुहुः ।
भृग्वादीनपि विप्रांश्च वेदसृट् शिव तत्त्ववित् ॥ ४१ ॥
[हे नारद !] दक्षका वह शाप सुनकर वेदोंके प्रतिपादक तथा शिवतत्त्वको जाननेवाले मैंने उस दक्षकी तथा भृगु आदि ब्राह्मणोंकी बारंबार निन्दा की ॥ ४१ ॥

ईश्वरोपि वचः श्रुत्वा नन्दिनः प्रहसन्निव ।
उवाच मधुरं वाक्यं बोधयंस्तं सदाशिवः ॥ ४२ ॥
सदाशिव महादेवजी भी नन्दीकी वह बात सुनकर हैंसते हुए और समझाते हुए मधुर वचन कहने लगे- ॥ ४२ ॥

सदाशिव उवाच
शृणु नन्दिन् महाप्राज्ञ न कर्तुं क्रोधमर्हसि ।
वृथा शप्तं ब्रह्मकुलं मत्वा शप्तं च मां भ्रमात् ॥ ४३ ॥
सदाशिव बोले-हे नन्दिन् ! [मेरी बात] सुनो । हे महाप्राज्ञ ! तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये । तुमने भ्रमसे यह समझकर कि मुझे शाप दिया गया है, व्यर्थमें ही ब्राह्मणकुलको शाप दे डाला ॥ ४३ ॥

वेदो मन्त्राक्षरमयः साक्षात्सूक्तमयो भृशम् ।
सूक्ते प्रतिष्ठितो ह्यात्मा सर्वेषामपि देहिनाम् ॥ ४४ ॥
तस्मादात्मविदो नित्यं त्वं मा शप रुषान्वितः ।
शप्या न वेदाः केनापि दुर्द्धियाऽपि कदाचन ॥ ४५ ॥
वेद मन्त्राक्षरमय और सूक्तमय हैं । [उसके प्रत्येक सूक्तमें समस्त देहधारियोंकी आत्मा प्रतिष्ठित है । उन मन्त्रोंके ज्ञाता नित्य आत्मवेत्ता हैं, इसलिये तुम रोषवश उन्हें शाप न दो । किसी कुत्सित बुद्धिवालेको भी कभी वेदोंको शाप नहीं देना चाहिये । ४४-४५ ॥

अहं शप्तो न चेदानीं तत्त्वतो बोद्धुमर्हसि ।
शान्तो भव महाधीमन् सनकादिविबोधकः ॥ ४६ ॥
यज्ञोऽहं यज्ञकर्माहं यज्ञाङ्‌गानि च सर्वशः ।
यज्ञात्मा यज्ञनिरतो यज्ञबाह्योऽहमेव वै ॥ ४७ ॥
इस समय मुझे शाप नहीं मिला है, इस बातको तुम्हें ठीक-ठीक समझना चाहिये । हे महामते ! तुम तो सनकादिको भी तत्त्वज्ञानका उपदेश देनेवाले हो, अतः शान्त हो जाओ । मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही यज्ञकर्म हूँ, यज्ञोंके अंग भी मैं ही हूँ, यज्ञकी आत्मा मैं ही हूँ, यज्ञपरायण यजमान मैं ही हूँ और यज्ञसे बहिष्कृत भी मैं ही हूँ ॥ ४६-४७ ॥

कोयं कस्त्वमिमे के हि सर्वोहमपि तत्त्वतः ।
इति बुद्ध्या हि विमृश वृथा शप्तास्त्वया द्विजाः ॥ ४८ ॥
तत्त्वज्ञानेन निर्हृत्य प्रपञ्चरचनो भव ।
बुधःस्वस्थो महाबुद्धे नन्दिन् क्रोधादिवर्जितः ॥ ४९ ॥
यज्ञ कौन है, तुम कौन हो और ये कौन हैं ? वास्तवमें सब मैं ही हूँ । तुम अपनी बुद्धिसे इस बातका विचार करो । तुमने ब्राह्मणोंको व्यर्थ ही शाप दिया है । हे महामते ! हे नन्दिन् ! तुम तत्त्वज्ञानके द्वारा प्रपंच-रचनाको दूर करके विवेकपरायण, स्वस्थ तथा क्रोध आदिसे रहित हो जाओ ॥ ४८-४९ ॥

ब्रह्मोवाच
एवं प्रबोधितस्तेन शम्भुना नन्दिकेश्वरः ।
विवेकपरमो भूत्वा शान्तोऽभूत्क्रोधवर्जितः ॥ ५० ॥
शिवोऽपि तं प्रबोध्याशु स्वगणं प्राणवल्लभम् ।
सगणःस ययौ तस्मात्स्वस्थानं प्रमुदान्वितः ॥ ५१ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार भगवान् शिवद्वारा समझाये जानेपर वे नन्दी परम ज्ञानसे युक्त और क्रोधरहित होकर शान्त हो गये । वे भगवान् शिव भी अपने प्राणप्रिय गण नन्दीको बोध प्रदान करके गणोंसहित वहाँसे प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानको चले गये । ५०-५१ ॥

दक्षोऽपि स रुषाऽऽविष्टस्तैर्द्विजैः परिवारितः ।
स्वस्थानं च ययौ चित्ते शिवद्रो हपरायणः ॥ ५२ ॥
इधर, रोषसे युक्त दक्ष भी चित्तमें शिवके प्रति द्रोहयुक्त होकर ब्राह्मणोंके साथ अपने स्थानको लौट गये ॥ ५२ ॥

रुद्रं तदानीं परिशप्यमानं
     संस्मृत्य दक्षः परया रुषान्वितः ।
श्रद्धां विहायैव स मूढबुद्धि-
     र्निन्दापरोऽभूच्छिवपूजकानाम् ॥ ५३ ॥
इत्युक्तो दक्षदुर्बुद्धिः शम्भुना परमात्मना ।
परां दुर्धिषणां तस्य शृणु तात वदाम्यहम् ॥ ५४ ॥
उस समय रुद्रको शाप दिये जानेकी घटनाका स्मरण करके दक्ष सदा महान् रोषसे भरे रहते थे । मूर्ख बुद्धिवाले वे शिवके प्रति श्रद्धाको त्यागकर शिवपूजकोंकी निन्दा करने लगे । हे तात ! इस प्रकार परमात्मा शम्भुके साथ [दुर्व्यवहार करके] दक्षने अपनी जिस दुष्ट बुद्धिका परिचय दिया था, वह मैंने आपको बता दिया, अब उनकी और बड़ी दुर्बुद्धिके विषयमें सुनिये, मैं बता रहा हूँ ॥ ५३-५४ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीयखण्डे
सत्युपाख्याने शिवेन दक्षविरोधो नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २६ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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