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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

सप्तविंशोऽध्यायः ॥

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दक्षयज्ञारम्भः
दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान


ब्रह्मोवाच
एकदा तु मुने तेन यज्ञः प्रारम्भितो महान् ।
तत्राहूतास्तदा सर्वे दीक्षितेन सुरर्षयः ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! एक समय दक्षने एक बड़े महान् यज्ञका प्रारम्भ किया और दीक्षाप्राप्त उसने उस यज्ञमें सभी देवताओं तथा ऋषियोंको बुलाया ॥ १ ॥

महर्षयोऽखिलास्तत्र निर्जराश्च समागताः ।
यद्यज्ञकरणार्थं हि शिवमायाविमोहिताः ॥ २ ॥
शिवकी मायासे विमोहित होकर सभी महर्षि तथा देवता यज्ञको सम्पन्न करानेके लिये आये ॥ २ ॥

अगस्त्यः कश्यपोऽत्रिश्च वामदेवस्तथा भृगुः ।
दधीचिर्भगवान् व्यासो भारद्वाजोऽथ गौतमः ॥ ३ ॥
पैलः पराशरो गर्गो भार्गवः ककुभः सितः ।
सुमन्तुत्रिककङ्‌काश्च वैशम्पायन एव च ॥ ४ ॥
एते चान्ये च बहवो मुनयो हर्षिता ययु ।
मम पुत्रस्य दक्षस्य सदाराः ससुता मखम् ॥ ५ ॥
अगस्त्य, कश्यप, अत्रि, वामदेव, भृगु, दधीचि, भगवान् व्यास, भारद्वाज, गौतम, पैल, पराशर, गर्ग, भार्गव, ककुभ, सित, सुमन्तु, त्रिक, कंक और वैशम्पायन-ये सब तथा अन्य बहुत-से मुनि अपने स्त्री-पुत्रोंको साथ लेकर मेरे पुत्र दक्षके यज्ञमें हर्षपूर्वक गये ॥ ३-५ ॥

तथा सर्वे सुरगणा लोकपाला महोदयाः ।
तथोपनिर्जराः सर्वे स्वोपकारबलान्विताः ॥ ६ ॥
सत्यलोकात्समानीतो नुतोऽहं विश्वकारकः ।
ससुतः सपरीवारो मूर्तवेदादिसंयुतः ॥ ७ ॥
[इनके अतिरिक्त] समस्त देवगण, महान् अभ्युदय-शाली लोकपालगण और सभी उपदेवता अपनी उपकारक सैन्यशक्तिके साथ वहाँ आये थे । दक्षने प्रार्थना करके पुत्र, परिवार और मूर्तिमान् वेदोसहित मुझ विश्वस्तष्टा ब्रह्माको भी सत्यलोकसे बुलवाया था ॥ ६-७ ॥

वैकुण्ठाच्च तथा विष्णुः सम्प्रार्थ्य विविधादरात् ।
सपार्षदपरीवारः समानीतो मखं प्रति ॥ ८ ॥
एवमन्ये समायाता दक्षयज्ञं विमोहिताः ।
सत्कृतास्तेन दक्षेन सर्वे ते हि दुरात्मना ॥ ९ ॥
भवनानि महार्हाणि सुप्रभाणि महान्ति च ।
त्वष्ट्रा कृतानि दिव्यानि तेभ्यो दत्तानि तेन वै ॥ १० ॥
इसी तरह भाँति-भाँतिसे सादर प्रार्थना करके वैकुण्ठलोकसे पार्षदों और परिवारसहित भगवान् विष्णु भी उस यज्ञमें बुलाये गये थे । इसी प्रकार अन्य लोग भी विमोहित होकर दक्षके यज्ञमें आये और दुरात्मा दक्षने उन सबका बड़ा सत्कार किया । विश्वकर्माके द्वारा बनाये गये अत्यन्त दीप्तिमान, विशाल, बहुमूल्य तथा दिव्य भवन दक्षने उन्हें [ठहरनेके लिये] दिये थे ॥ ८-१० ॥

तेषु सर्वेषु धिष्ण्येषु यथायोग्यं च संस्थिताः ।
सन्मानिता अराजंस्ते सकला विष्णुना मया ॥ ११ ॥
वर्त्तमाने महायज्ञे तीर्थे कनखले तदा ।
ऋत्विजश्च कृतास्तेन भृग्वाद्याश्च तपोधनाः ॥ १२ ॥
उन भवनोंमें मेरे तथा विष्णुके साथ वे सभी [देवा, महर्षिगण] दक्षसे यथायोग्य सम्मानित हो अपने-अपने स्थानोंपर स्थिर होकर शोभित होने लगे । उस समय कनखल नामक तीर्थमें आरम्भ हुए उस महायज्ञमें दक्षने भृगु आदि तपोधनोंको ऋत्विज बनाया ॥ ११-१२ ॥

अधिष्ठाता स्वयं विष्णुःसह सर्वमरुद्‌गणैः ।
अहं तत्राऽभवं ब्रह्मा त्रयीविधिनिदर्शकः ॥ १३ ॥
तथैव सरवे दिक्पाला द्वारपालाश्च रक्षकाः ।
सायुधाःसपरीवाराः कुतूहलकराःसदा ॥ १४ ॥
सम्पूर्ण मरुद्‌गणोंके साथ स्वयं भगवान् विष्णु [उस यजके अधिष्ठाता बने और मैं वेदत्रयीकी विधिको बतानेवाला ब्रह्मा बना था । इसी तरह सम्पूर्ण दिक्पाल अपने आयुधों और परिवारोंके साथ द्वारपाल एवं रक्षक बने थे, वे सदा कौतूहल पैदा करते थे ॥ १३-१४ ॥

उपतस्थे स्वयं यज्ञः सुरूपस्तस्य चाध्वरे ।
सर्वे महामुनिश्रेष्ठाः स्वयं वेदधराऽभवन् ॥ १५ ॥
तनूनपादपि निजं चक्रे रूपं सहस्रशः ।
हविषा ग्रहणायाशु तस्मिन् यज्ञे महोत्सवे ॥ १६ ॥
स्वयं यज्ञदेव सुन्दर रूप धारण करके उनके यज्ञमें उस समय उपस्थित थे और बड़े बड़े श्रेष्ठ मुनिलोग स्वयं वेदोंको धारण किये हुए थे । अग्निने भी उस यज्ञमहोत्सवमें शीघ्र ही हविष्य ग्रहण करनेके लिये अपने हजारों रूप प्रकट किये थे ॥ १५-१६ ॥

अष्टाशीतिसहस्राणि जुह्वति सह ऋत्विजः ।
उद्‌गातारश्चतुःषष्टि सहस्राणि सुरर्षयः ॥ १७ ॥
अध्वर्यवोऽऽथ होतारस्तावन्तो नारदादयः ।
सप्तर्षयः समा गाथाः कुर्वन्ति स्म पृथक्पृथक् ॥ १८ ॥
वहाँ अठासी हजार ऋत्विज एक साथ हवन करते थे । चौंसठ हजार देवर्षि उस यज्ञमें उद्‌गाता थे । अध्वर्यु एवं होता भी उतने ही थे । नारद आदि देवर्षि और सप्तर्षि पृथक्-पृथक् गाथा-गान कर रहे थे ॥ १७-१८ ॥

गन्धर्वविद्याधरसिद्धसङ्‌घा-
     नादित्यसङ्‌घान् सगणान् सयज्ञान् ।
सङ्‌ख्यावरान्नागचरान् समस्तान्
     वव्रे स दक्षो हि महाध्वरे स्वे ॥ १९ ॥
दक्षने अपने उस महायज्ञमें गन्धवों, विद्याधरों, सिद्धों, सभी आदित्यों और उनके गणों, यज्ञों एवं नागलोकमें विचरण करनेवाले समस्त नागोंका भी बहुत बड़ी संख्यामें वरण किया था ॥ १९ ॥

द्विजर्षिराजर्षिसुरर्षिसङ्‌घा
     नृपाःसमित्राः सचिवाःस सैन्याः ।
वसुप्रमुख्या गणदेवताश्च
     सर्वे वृतास्तेन मखोपवेत्त्राः ॥ २० ॥
दीक्षायुक्तस्तदा दक्षः कृतकौतुकमंगलः ।
भार्यया सहितो रेजे कृतस्वस्त्ययनो भृशम् ॥ २१ ॥
ब्रह्मर्षि, देवर्षि, राजर्षियोंके समुदाय और अपने मित्रों, मन्त्रियों तथा सेनाओंके साथ अनेक राजा भी वहाँ आये हुए थे । यजमान दक्षने उस यज्ञमें वसु आदि समस्त गण-देवताओंका भी वरण किया था । कौतुक और मंगलाचार करके जब दक्षने यज्ञकी दीक्षा ली तथा जब उनके लिये बारंबार स्वस्तिवाचन किया जाने लगा, तब वे अपनी पत्नीके साथ बड़ी शोभा पाने लगे ॥ २०-२१ ॥

तस्मिन् यज्ञे वृतः शम्भुर्न दक्षेण दुरात्मना ।
कपालीति विनिश्चित्य तस्य यज्ञार्हता न हि ॥ २२ ॥
कपालिभार्येति सती दयिता स्वसुतापि च ।
नाहूता यज्ञविषये दक्षेणागुणदर्शिना ॥ २३ ॥
[इतना सब करनेपर भी] दुरात्मा दक्षने उस यज्ञमें भगवान् शम्भुको नहीं बुलाया । उनकी दृष्टिमें कपालधारी होनेके कारण वे निश्चय ही यज्ञमें भाग लेनेयोग्य नहीं थे । दोषदर्शी दक्षने कपालीकी पत्नी होनेके कारण अपनी प्रिय पुत्री सतीको भी यज्ञमें नहीं बुलाया । २२-२३ ॥

एवं प्रवर्तमाने हि दक्षयज्ञे महोत्सवे ।
स्वकार्यलग्नास्तत्रासन् सर्वे तेऽध्वरसंमताः ॥ २४ ॥
एतस्मिन्नन्तरे तत्रादृष्ट्‍वा वै शंकरं प्रभुम् ।
प्रोद्विग्नमानसः शैवो दधीचो वाक्यमब्रवीत् ॥ २५ ॥
इस प्रकार दक्षके यज्ञ महोत्सवके आरम्भ हो जानेपर यज्ञमण्डपमें आये हुए सब ऋत्विज अपने-अपने कार्यमें संलग्न हो गये । इसी बीच वहाँ भगवान् शंकरको [उपस्थित] नदेखकर शिवभक्त दधीचिका चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और वे कहने लगे- ॥ २४-२५ ॥

दधीच उवाच
सर्वे शृणुत मद्वाक्यं देवर्षिप्रमुखा मुदा ।
कस्मान्नैवागतः शम्भुरस्मिन् यज्ञे महोत्सवे ॥ २६ ॥
दधीचि बोले-हे प्रमुख देवताओ तथा महर्षियो ! आप सब लोग प्रसन्नतापूर्वक मेरी बात सुनें । इस यज्ञमहोत्सवमें भगवान् शंकर क्यों नहीं आये हैं ? ॥ २६ ॥

एते सुरेशा मुनयो महत्तराः
     सलोकपालाश्च समागता हि ।
तथापि यज्ञस्तु न शोभते भृशं
     पिनाकिना तेन महात्मना विना ॥ २७ ॥
येनैव सर्वाण्यपि मंगलानि
     भवन्ति शंसन्ति महाविपश्चितः ।
सोऽसौ न दृष्टोऽत्र पुमान् पुराणो
     वृषध्वजो नीलगलः परेशः ॥ २८ ॥
अमंगलान्येव च मंगलानि
     भवन्ति येनाधिगतानि दक्षः ।
त्रिपञ्चकेनाप्यथ मंगलानि
     भवन्ति सद्यः परतः पुराणि ॥ २९ ॥
यद्यपि ये देवेश्वर, बड़े-बड़े मुनि और लोकपाल यहाँ आये हुए हैं, तथापि उन पिनाकधारी महात्मा शंकरके बिना यह यज्ञ अधिक शोभा नहीं पा रहा है । बड़े बड़े विद्वान् कहते हैं कि मंगलमय भगवान् शिवजीकी कृपादृष्टिसे ही समस्त मंगलकार्य सम्पन्न हो जाते हैं । जिनका ऐसा प्रभाव है, वे पुराणपुरुष, वृषभध्वज, परमेश्वर श्रीनीलकण्ठ यहाँ क्यों नहीं दिखायी दे रहे हैं ? हे दक्ष ! जिनके सम्पर्कमें आनेपर अथवा जिनके स्वीकार कर लेनेपर अमंगल भी मंगल हो जाते हैं तथा जिनके पन्द्रह नेत्रोंसे देखे जानेपर बड़े से बड़े मंगल तत्काल हो जाते हैं, उनका इस यज्ञमें पदार्पण होना अत्यन्त आवश्यक है ॥ २७-२९ ॥

तस्मात्त्वयैव कर्तव्यमाह्वानं परमेशितुः ।
त्वरितं ब्रह्मणा वापि विष्णुना प्रभुविष्णुना ॥ ३० ॥
इन्द्रेण लोकपालैश्च द्विजैः सिद्धैः सहाधुना ।
सर्वथाऽऽनयनीयोऽसौ शंकरो यज्ञपूर्त्तये ॥ ३१ ॥
इसलिये तुम्हें स्वयं ही परमेश्वर शिवजीको यहाँ बुलाना चाहिये अथवा ब्रह्मा, प्रभावशाली भगवान् विष्णु इन्द्र, लोकपालों, ब्राह्मणों और सिद्धोंकी सहायतासे सर्वथा प्रयत्न करके इस समय यज्ञकी पूर्तिके लिये उन भगवान् शंकरको यहाँ ले आना चाहिये ॥ ३०-३१ ॥

सर्वैर्भवद्‌भिर्गन्तव्यं यत्र देवो महेश्वरः ।
दाक्षायण्या समं शम्भुमानयध्वं त्वरान्विताः ॥ ३२ ॥
तेन सर्वं पवित्रं स्याच्छम्भुना परमात्मना ।
अत्रागतेन देवेशाः साम्बेन परमात्मना ॥ ३३ ॥
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या समग्रं सुकृतं भवेत् ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन ह्यानेतव्यो वृषध्वजः ॥ ३४ ॥
आप सब लोग उस स्थानपर जायँ, जहाँ महेश्वरदेव विराजमान हैं । वहाँसे दक्षनन्दिनी सतीके साथ भगवान् शम्भुको यहाँ तुरंत ले आयें । हे देवेश्वरो ! जगदम्बासहित उन परमात्मा शिवके यहाँ आ जानेसे सब कुछ पवित्र हो जायगा । जिनके स्मरणसे तथा नाम लेनेसे सारा कार्य पुण्यमय बन जाता है, अतः पूर्ण प्रयत्न करके उन भगवान् वृषभध्वजको यहाँ ले आना चाहिये ॥ ३२-३४ ॥

समागते शंकरेऽत्र पावनो हि भवेन्मखः ।
भविष्यत्यन्यथाऽपूर्णः सत्यमेतद्‌ब्रवीम्यहम् ॥ ३५ ॥
भगवान् शंकरके यहाँ आनेपर यह यज्ञ पवित्र हो जायगा, अन्यथा यह अपूर्ण ही रह जायगा, यह मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ ३५ ॥

ब्रह्मोवाच
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा दक्षो रोषसमन्वितः ।
उवाच त्वरितं मूढः प्रहसन्निव दुष्टधीः ॥ ३६ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] दधीचिका यह वचन सुनकर दुष्ट बुद्धिवाले मूढ़ दक्ष हँसते हुए शीघ्र ही रोषपूर्वक कहने लगे- ॥ ३६ ॥

मूलं विष्णुर्देवतानां यत्र धर्मः सनातनः ।
समानीतो मया सम्यक् किमूनं यज्ञकर्मणि ॥ ३७ ॥
भगवान् विष्णु सम्पूर्ण देवताओंके मूल हैं, जिनमें सनातनधर्म प्रतिष्ठित है । जब इन्हें मैंने सादर बुला लिया 1 है, तब इस यज्ञकर्ममें क्या कमी हो सकती है ? ॥ ३७ ॥

यस्मिन्वेदाश्च यज्ञाश्च कर्माणि विविधानि च ।
प्रतिष्ठितानि सर्वाणि सोऽसौ विष्णुरिहागतः ॥ ३८ ॥
जिनमें वेद, यज्ञ और नाना प्रकारके कर्म प्रतिष्ठित हैं, वे भगवान् विष्णु तो यहाँ आ ही गये हैं ॥ ३८ ॥

सत्यलोकात्समायातो ब्रह्मा लोकपितामहः ।
वेदैःसोपनिषद्‌भिश्च विविधैरागमैः सह ॥ ३९ ॥
लोकपितामह ब्रह्मा सत्यलोकसे वेदों, उपनिषदों और विविध आगमोंके साथ यहाँ आये हुए हैं ॥ ३९ ॥

तथा सुरगणैः साकमागतःसुरराट् स्वयम् ।
तथा यूयं समायाता ऋषयो वीतकल्मषाः ॥ ४० ॥
ये ये यज्ञोचिताः शान्ताः पात्रभूताः समागताः ।
वेदवेदार्थतत्त्वज्ञाः सर्वे यूयं दृढव्रताः ॥ ४१ ॥
अत्रैव च किमस्माकं रुद्रेणापि प्रयोजनम् ।
कन्या दत्ता मया विप्र ब्रह्मणा नोदितेन हि ॥ ४२ ॥
देवगणोंके साथ स्वयं देवराज इन्द्र भी आये हैं तथा निष्पाप आप ऋषिगण भी यहाँ आ गये हैं । जो. जो यज्ञमें सम्मिलित होनेयोग्य शान्त, सुपात्र हैं, वेद और वेदार्थक तत्वको जाननेवाले और दृढतापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले हैं-वे आप सब यहाँ पदार्पण कर चुके हैं, तब हमें यहाँ रुद्रसे क्या प्रयोजन है ! हे विप्र ! मैंने ब्रह्माजीके कहनेसे ही अपनी कन्या रुद्रको दी थी ॥ ४०-४२ ॥

हरोऽकुलीनोऽसौ विप्र पितृमातृविवर्जितः ।
भूतप्रेतपिशाचानां पतिरेको दुरत्ययः ॥ ४३ ॥
आत्मसम्भावितो मूढ स्तब्धो मौनी समत्सरः ।
कर्मण्यस्मिन्न योग्योऽसौ नानीतो हि मयाऽधुना ॥ ४४ ॥
हे विप्र ! हर कुलीन नहीं है, उसके माता-पिता नहीं हैं, वह भूतों-प्रेतों-पिशाचोंका स्वामी अकेला रहता है और उसका अतिक्रमण करना दूसरोंके लिये अत्यन्त कठिन है । वह आत्मप्रशंसक, मूढ़, जड़, मौनी और ईर्ष्यालु है । वह इस यज्ञकर्मके योग्य नहीं है, इसलिये मैंने उसको यहाँ नहीं बुलाया है ॥ ४३-४४ ॥

तस्मात्त्वयेदृशं वाक्यं पुनर्वाच्यं न हि क्वचित् ।
सर्वेर्भवद्‌भिः कर्तव्यो यज्ञो मे सफलो महान् ॥ ४५ ॥
अतः [दधीचिजी !] आप ऐसा पुनः कभी न कहें, आप सभी लोग मिलकर मेरे महान् यज्ञको सफल बनायें ॥ ४५ ॥

ब्रह्मोवाच
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य दधीचो वाक्यमब्रवीत् ।
सर्वेषां शृण्वतां देवमुनीनां सारसंयुतम् ॥ ४६ ॥
ब्रह्माजी बोले-दक्षकी यह बात सुनकर दधीचि सभी देवताओं तथा मुनियोंको सुनाते हुए सारयुक्त वचन कहने लगे- ॥ ४६ ॥

दधीच उवाच
अयज्ञोऽयं महाजातो विना तेन शिवेन हि ।
विनाशोऽपि विशेषेण ह्यत्र ते हि भविष्यति ॥ ४७ ॥
एवमुक्त्वा दधीचोऽसावेक एव विनिर्गतः ।
यज्ञवाटाच्च दक्षस्य त्वरितः स्वाश्रमं ययौ ॥ ४८ ॥
ततोन्ये शाङ्‌करा ये च मुख्याः शिवमतानुगाः ।
निर्ययुः स्वाश्रमान् सद्यः शापं दत्त्वा तथैव च ॥ ४९ ॥
दधीचि बोले-[हे दक्ष !] उन भगवान् शिवके बिना यह महान् यज्ञ भी अयज्ञ है । निश्चय ही इस यज्ञसे तुम्हारा विनाश होगा । इस प्रकार कहकर दधीचि दक्षकी यज्ञशालासे अकेले ही निकलकर अपने आश्रमको चल दिये । तदनन्तर जो मुख्य-मुख्य शिवभक्त थे तथा उनके मतका अनुसरण करनेवाले थे, वे भी दक्षको शाप देकर तुरंत वहाँसे अपने आश्रमोंको चले गये । ४७-४९ ॥

मुनौ विनिर्गते तस्मिन् मखादन्येषु दुष्टधीः ।
शिवद्रोही मुनीन् दक्षः प्रहसन्निदमब्रवीत् ॥ ५० ॥
मुनि दधीचि तथा दूसरे ऋषियोंके उस यज्ञमण्डपसे निकल जानेपर दुष्टबुद्धि तथा शिवद्रोही दक्ष मुसकराते हुए अन्य मुनियोंसे कहने लगे- ॥ ५० ॥

दक्ष उवाच
गतः शिवप्रियो विप्रो दधीचो नाम नामतः ।
अन्ये तथाविधा ये च गतास्ते मम चाध्वरात् ॥ ५१ ॥
एतच्छुभतरं जातं संमतं मे हि सर्वथा ।
सत्यं ब्रवीमि देवेश सुराश्च मुनयस्तथा ॥ ५२ ॥
दक्ष बोले-दधीचि नामक वे शिवप्रिय ब्राह्मण चले गये और उन्हींके समान जो दूसरे थे, वे भी मेरे यज्ञसे चले गये । यह तो बड़ा अच्छा हुआ । मुझे सदा यही अभीष्ट है । हे देवेश ! हे देवताओ और हे मुनियो ! मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ ५१-५२ ॥

विनष्टचित्ता मन्दाश्च मिथ्यावादरताः खलाः ।
वेदबाह्या दुराचारास्त्याज्यास्ते मखकर्मणि ॥ ५३ ॥
वेदवादरता यूयं सर्वे विष्णुपुरोगमाः ।
यज्ञं मे सफलं विप्राः सुराः कुर्वन्तु माऽचिरम् ॥ ५४ ॥
जो नष्टबुद्धिवाले, मूर्ख, मिथ्या भाषणमें रत, खल, वेदबहिष्कृत और दुराचारी हैं, उन लोगोंको यज्ञकर्ममें त्याग देना चाहिये । आप सभी लोग वेदवादमें परायण रहनेवाले हैं । अतः विष्णु आदि सब देवता और ब्राह्मण मेरे इस यज्ञको शीघ्र सफल बनायें ॥ ५३-५४ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य शिवमायाविमोहिताः ।
यन्मखे देवयजनं चक्रुःसर्वे सुरर्षयः ॥ ५५ ॥
ब्रह्माजी बोले-उसकी यह बात सुनकर शिवकी मायासे मोहित हुए समस्त देवता तथा ऋषि उस यज्ञमें देवताओंका पूजन करने लगे ॥ ५५ ॥

इति तन्मखशापो हि वर्णितो मे मुनीश्वर ।
यज्ञविध्वंसयोगोऽपि प्रोच्यते शृणु सादरम् ॥ ५६ ॥
हेमनीश्वर ! इस प्रकार मैंने उस यज्ञको दधीचिद्वारा प्रदत्त शापका वर्णन कर दिया । अब यज्ञके विध्वंसकी घटना भी बता रहा हूँ, आदरपूर्वक सुनिये ॥ ५६ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये
सतीखण्डे यज्ञप्रारम्भो नाम सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें यज्ञका प्रारम्भ नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २७ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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