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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे
अष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] क्षुवदधीचविवादः
दधीचि मुनि और राजा क्षुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्रके अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति सूत उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य विधेरमितधीमतः । पप्रच्छ नारदः प्रीत्या विस्मितस्तं द्विजोत्तमः ॥ १ ॥ सूतजी बोले-अत्यन्त बुद्धिमान् ब्रह्माका यह वचन सुनकर द्विजश्रेष्ठ नारद विस्मित होकर प्रसन्नतापूर्वक उनसे पूछने लगे ॥ १ ॥ नारद उवाच
शिवं विहाय दक्षस्य सुरैर्यज्ञं हरिर्गतः । हेतुना केन तद्ब्रूहि यत्रावज्ञाऽ भवत्ततः ॥ २ ॥ जानाति किं स शम्भुं नो हरिः प्रलयविक्रमम् । रणं कथं च कृतवांस्तद्गणैरबुधो यथा ॥ ३ ॥ नारदजी बोले-[हे ब्रह्मन् !] भगवान् विष्णु शिवजीको छोड़कर [अन्य] देवताओंके साथ दक्षके यज्ञमें किस कारणसे गये, जहाँ उनका तिरस्कार ही हुआ, इसे बताइये । क्या वे प्रलयकारी पराक्रमवाले शंकरको नहीं जानते थे, उन्होंने अज्ञानीकी भाँति शिवगणोंके साथ युद्ध क्यों किया ? ॥ २-३ ॥ एष मे संशयो भूयांस्तं छिन्धि करुणानिधे ।
चरितं ब्रूहि शम्भोस्तु चित्तोत्साहकरं प्रभो ॥ ४ ॥ हे करुणानिधे ! यह मुझे बहुत बड़ा सन्देह है, आप उसे दूर कीजिये और प्रभो ! मनमें उत्साह पैदा करनेवाले शिवचरित्रको भी कहिये ॥ ४ ॥ ब्रह्मोवाच
द्विजवर्य शृणु प्रीत्या चरितं शशिमौलिनः । यत्पृच्छते कुर्वतश्च सर्वसंशयहारकम् ॥ ५ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे द्विजवर्य ! आप प्रेमपूर्वक शिवचरित्रका श्रवण कीजिये, जो पूछनेवालों तथा कहनेवालोंके सभी सन्देहोंको दूर करता है ॥ ५ ॥ दधीचस्य मुनेः शापाद्भ्रष्टज्ञानो हरिः पुरा ।
सामरो दक्षयज्ञं वै गतः क्षुवसहायकृत् ॥ ६ ॥ पूर्वकालमें दधीचि मुनिने राजा क्षुवकी सहायता करनेवाले श्रीहरिको शाप दे दिया था, इसलिये भ्रष्ट ज्ञानवाले वे विष्णु देवताओंके साथ दक्षके यज्ञमें चले गये ॥ ६ ॥ नारद उवाच
किमर्थं शप्तवान्विष्णुं दधीचो मुनिसत्तमः । कोपाकारः कृतस्तस्य हरिणा तत्सहायिना ॥ ७ ॥ नारदजी बोले-[हे ब्रान् !] मुनियोंमें श्रेष्ठ दधीचिने भगवान् विष्णुको शाप क्यों दिया ? क्षुवकी सहायता करनेवाले विष्णुने उनका कौन-सा अपकार किया था ॥ ७ ॥ ब्रह्मोवाच
समुत्पन्नो महातेजा राजा क्षुव इति स्मृतः । अभून्मित्रं दधीचस्य मुनीन्द्रस्य महाप्रभोः ॥ ८ ॥ चिरात्तपः प्रसङ्गाद्वै वादः क्षुवदधीचयोः । महानर्थकरः ख्यातस्त्रिलोकेष्वभवत्पुरा ॥ ९ ॥ ब्रह्माजी बोले-भुव नामसे प्रसिद्ध एक महातेजस्वी राजा उत्पन्न हुए थे । वे महाप्रभावशाली मुनीश्वर दधीचिके मित्र थे । पूर्वकालमें लम्बे समयसे तपके प्रसंगको लेकर क्षुव और दधीचिमें महान् अनर्थकारी विवाद आरम्भ हो गया, जो तीनों लोकोंमें विख्यात हो गया ॥ ८-९ ॥ तत्र त्रिवर्णतः श्रेष्ठो विप्र एव न संशयः ।
इति प्राह दधीचो हि शिवभक्तस्तु वेदवित् ॥ १० ॥ उस विवादमें वेदविद् शिवभक्त दधीचिने कहा कि तीनों वर्गों में ब्राह्मण ही श्रेष्ठ हैं, इसमें सन्देह नहीं ॥ १० ॥ तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य दधीचस्य महामुने ।
क्षुवः प्राहेति नृपतिः श्रीमदेन विमोहितः ॥ ११ ॥ महामुनि दधीचिकी यह बात सुनकर धनके मदसे विमोहित राजा क्षुवने इस प्रकार प्रतिवाद किया ॥ ११ ॥ क्षुव उवाच
अष्टानां लोकपालानां वपुर्धारयते नृपः । तस्मान्नृपो वरिष्ठो हि वर्णाश्रमपतिः प्रभुः ॥ १२ ॥ सर्वदेवमयो राजा श्रुति प्राहेति तत्परा । महती देवता या सा सोऽहमेव ततो मुने ॥ १३ ॥ क्षुव बोले-राजा [इन्द्र आदि] आठ लोकपालोंके स्वरूपको धारण करता है तथा समस्त वों और आश्रमोंका स्वामी एवं प्रभु है, इसलिये राजा ही सबसे श्रेष्ठ है । राजाकी श्रेष्ठता प्रतिपादन करनेवाली श्रुति भी कहती है कि राजा सर्वदेवमय है । इसलिये हे मुने ! जो सबसे बड़ा देवता है, वह मैं ही हूँ ॥ १२-१३ ॥ तस्माद्विप्राद्वरो राजा च्यवनेय विचार्यताम् ।
नावमन्तव्य एवातः पूज्योऽहं सर्वथा त्वया ॥ १४ ॥ अतः हे च्यवनपुत्र ! राजा ब्राह्मणसे श्रेष्ठ होता है, आप [इस सम्बन्धमें] विचार करें और मेरा अनादर न करें, मैं आपके लिये सर्वथा पूजनीय हूँ ॥ १४ ॥ ब्रह्मोवाच
श्रुत्वा तथा मतं तस्य क्षुवस्य मुनिसत्तमः । श्रुतिस्मृतिविरुद्धं तं चुकोपातीव भार्गवः ॥ १५ ॥ ब्रह्माजी बोले-उन क्षुवका श्रुतियों और स्मृतियोंके विरुद्ध यह मत सुनकर मुनिश्रेष्ठ दधीचि अत्यन्त कुपित हो उठे ॥ १५ ॥ अथ क्रुद्धो महातेजा गौरवाच्चात्मनो मुने ।
अताडयत्क्षुवं मूर्ध्नि दधीचो वाममुष्टितः ॥ १६ ॥ तब हे मुने ! आत्मगौरवके कारण कुपित हुए महातेजस्वी दधीचिने क्षुवके मस्तकपर [अपनी] बायीं मुट्ठीसे प्रहार किया ॥ १६ ॥ वज्रेण तं च चिच्छेद दधीचं ताडितः क्षुवः ।
जगर्जातीव सङ्क्रुद्धो ब्रह्माण्डाधिपतिः कुधीः ॥ १७ ॥ तत्पश्चात् [दधीचिके द्वारा] ताड़ित किये गये ब्रह्माण्डाधिपति दुष्ट चव अत्यन्त कुपित हो गरज उठे और उन्होंने वज्रसे दधीचिका सिर काट डाला ॥ १७ ॥ पपात भूमौ निहतो तेन वज्रेण भार्गवः ।
शुक्रं सस्मार क्षुवकृद्भार्गवस्य कुलन्धरः ॥ १८ ॥ उस वजसे आहत हो दधीचि पृथिवीपर गिर पड़े । क्षुवके द्वारा काटे गये भार्गववंशधर दधीचिने [गिरते समय] शुक्राचार्यका स्मरण किया ॥ १८ ॥ शुक्रोऽथ सन्धयामास ताडितं च क्षुवेन तु ।
योगी दधीचस्य तदा देहमागत्य स द्रुतम् ॥ १९ ॥ तब योगी शुक्राचार्यने आकर क्षुवके द्वारा दधीचिके काटे गये शरीरको तुरंत जोड़ दिया ॥ १९ ॥ सन्धाय पूर्ववद्देहं दधीचस्याह भार्गवः ।
शिवभक्ताग्रणीर्भृत्यञ्जयविद्याप्रवर्तकः ॥ २० ॥ दधीचिकी देहको पूर्वकी भाँति ठीक करके शिवभक्तशिरोमणि तथा मृत्युंजयविद्याके प्रवर्तक शुक्राचार्य उनसे कहने लगे- ॥ २० ॥ शुक्र उवाच
दधीच तात सम्पूज्य शिवं सर्वेश्वरं प्रभुम् । महामृत्युञ्जयं मन्त्रं श्रौतमग्र्यं वदामि ते ॥ २१ ॥ शुक्र बोले-हे तात ! दधीचि ! मैं सर्वेश्वर प्रभु शंकरका पूजन करके श्रेष्ठ वैदिक महामृत्युंजय मन्त्र का आपको उपदेश देता हूँ ॥ २१ ॥ त्र्यम्बकं यजामहे त्रैलोक्यं पितरं प्रभुम् ।
त्रिमण्डलस्य पितरं त्रिगुणस्य महेश्वरम् ॥ २२ ॥ ['त्र्यम्बकं यजामहे'] हम त्रिलोकीके पिता, तीन नेत्रवाले, तीनों मण्डलों (सूर्य, सोम तथा अग्नि) के पिता तथा तीनों गुणों (सत्त्व, रज तथा तम)-के स्वामी महेश्वरका पूजन करते हैं ॥ २२ ॥ त्रितत्त्वस्य त्रिवह्नेश्च त्रिधाभूतस्य सर्वतः ।
त्रिदिवस्य त्रिबाहोश्च त्रिधाभूतस्य सर्वतः ॥ २३ ॥ त्रिदेवस्य महादेवः सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम् । सर्वभूतेषु सर्वत्र त्रिगुणेषु कृतौ यथा ॥ २४ ॥ इन्द्रियेषु तथान्येषु देवेषु च गणेषु च । पुष्पे सुगन्धिवत्सूरः सुगन्धिममरेश्वरः ॥ २५ ॥ जो त्रितत्त्व (आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व और शिवतत्त्व), त्रिवह्नि (आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि) तथा पृथिवी, जल, तेज-इन तीनों भूतोंके एवं जो त्रिदिव (स्वर्ग), त्रिबाहु तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव-इन तीनों देवताओंके महान् ईश्वर महादेवजी हैं । 'सुगन्धि पुष्टिवर्धनम्' [महामृत्युंजयमन्त्रका यह द्वितीय चरण है] जैसे फूलोंमें उत्तम गन्ध होती है, उसी प्रकार वे भगवान् शिव सम्पूर्ण भूतोंमें, तीनों गुणोंमें, समस्त कृत्योंमें, इन्द्रियोंमें, अन्यान्य देवोंमें और गणों में उनके प्रकाशक सारभूत आत्माके रूपमें व्याप्त हैं । अतएव सुगन्धयुक्त एवं सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर हैं ॥ २३-२५ ॥ पुष्टिश्च प्रकृतेर्यस्मात्पुरुषाद्वै द्विजोत्तम ।
महदादिविशेषान्तविकल्पश्चापि सुव्रत ॥ २६ ॥ विष्णोः पितामहस्यापि मुनीनां च महामुने । इन्द्रियाणां च देवानां तस्माद्वै पुष्टिवर्द्धनः ॥ २७ ॥ हे द्विजोत्तम ! जिन महापुरुषसे प्रकृतिकी पुष्टि होती है । हे सुव्रत ! महत् तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त विकल्पके जो स्वरूप हैं । हे महामुने ! जो विष्णु, पितामह, मुनिगणों एवं इन्द्रियोंसहित समस्त देवताओंकी पुष्टिका वर्धन करते हैं, इसलिये वे पुष्टिवर्धन हैं ॥ २६-२७ ॥ तं देवममृतं रुद्रं कर्मणा तपसापि वा ।
स्वाध्यायेन च योगेन ध्यानेन च प्रजापते ॥ २८ ॥ वे देव रुद्र अमृतस्वरूप हैं । जो पुण्यकर्मसे, तपस्यासे, स्वाध्यायसे, योगसे अथवा ध्यानसे उनकी आराधना करता है, उसे वे प्राप्त हो जाते हैं ॥ २८ ॥ सत्येनान्येन सूक्ष्माग्रान्मृत्युपाशाद्भवः स्वयम् ।
बन्धमोक्षकरो यस्मादुर्वारुकमिव प्रभुः ॥ २९ ॥ जिस प्रकार ककड़ीका पौधा अपने फलसे स्वयं ही लताको बन्धनमें बाँधे रखता है और पक जानेपर स्वयं ही उसे बन्धनसे मुक्त कर देता है, ठीक उसी प्रकार बन्धमोक्षकारी प्रभु सदाशिव अपने सत्यसे जगत्के समस्त प्राणियोंको मृत्युके पाशरूप सूक्ष्म बन्धनसे छुड़ा देते हैं ॥ २९ ॥ मृतसञ्जीवनीमन्त्रो मम सर्वोत्तमः स्मृतः ।
एवं जपपरः प्रीत्या नियमेन शिवं स्मरन् ॥ ३० ॥ यह मृतसंजीवनी मन्त्र है, जो मेरे मतसे सर्वोत्तम है । हे दधीचि ! आप मेरे द्वारा दिये गये इस मन्त्रका शिवध्यानपरायण होकर नियमसे जप कीजिये ॥ ३० ॥ जप्त्वा हुत्वाभिमन्त्र्यैव जलं पिब दिवानिशम् ।
शिवस्य सन्निधौ ध्यात्वा नास्ति मृत्युभयं क्वचित् ॥ ३१ ॥ जप और हवन भी इसी मन्त्रसे करें और इसी मन्त्रसे अभिमन्त्रितकर दिन और रातमें जल भी पीजिये तथा शिव-विग्रहके पास स्थित हो उन्हींका ध्यान करते रहिये, इससे कभी भी मृत्युका भय नहीं रहता ॥ ३१ ॥ कृत्वा न्यासादिकं सर्वं सम्पूज्य विधिवच्छिवम् ।
संविधायेदं निर्व्यग्रः शंकरं भक्तवत्सलम् ॥ ३२ ॥ सब न्यास आदि करके विधिवत् शिवकी पूजा करके व्यग्रतारहित हो भक्तवत्सल सदाशिवका ध्यान करें ॥ ३२ ॥ ध्यानमस्य प्रवक्ष्यामि यथा ध्यात्वा जपन्मनुम् ।
सिद्धमन्त्रो भवेद्धीमान् यावच्छम्भुप्रभावतः ॥ ३३ ॥ अब मैं सदाशिवके ध्यानको बता रहा हूँ, जिसके अनुसार उनका ध्यान करके मन्त्रजप करना चाहिये । इस प्रकार [जप करनेसे] बुद्धिमान् पुरुष भगवान् शिवके प्रभावसे उस मन्त्रको सिद्ध कर लेता है ॥ ३३ ॥ हस्ताम्भोजयुगस्थकुम्भयुगला-
दुद्धृत्यतोयं शिरः । सिञ्चन्तं करयोर्युगेन दधतं स्वाङ्केभकुम्भौ करौ । अक्षस्रङ्मृगहस्तमम्बुजगतं मूर्द्धस्थचन्द्रस्रवत् पीयूषार्द्रतनुं भजे सगिरिजं त्र्यक्षं च मृत्युञ्जयम् ॥ ३४ ॥ [ध्यानमन्त्रका अर्थ इस प्रकार है] अपने दो करकमलोंमें स्थित दोनों कुम्भोंसे जलको निकालकर ऊपरवाले दोनों हाथोंसे सिरपर अभिषेक करते हुए. कुम्भसहित अपने अन्य दोनों हाथोंको अपनी गोदमें धारण करते हुए, शेष दो हाथोंसे अक्षमाला तथा मृगमुद्रा धारण करनेवाले, कमलके आसनपर विराजमान, सिरपर स्थित चन्द्रमासे टपकते हुए अमृतकणसे भीगे हुए शरीरवाले तथा तीन नेत्रवाले पार्वतीसहित महामृत्युंजय भगवान्का मैं - ध्यान करता हूँ ॥ ३४ ॥ ब्रह्मोवाच
उपदिश्येति शुक्रस्तं दधीचिं मुनिसत्तमम् । स्वस्थानमगमत्तात संस्मरन् शंकरं प्रभुम् ॥ ३५ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे तात ! मुनिश्रेष्ठ दधीचिको इस प्रकार उपदेश देकर शुक्राचार्य भगवान् शंकरका स्मरण करते हुए अपने स्थानको चले गये ॥ ३५ ॥ तस्य तद्वचनं श्रुत्वा दधीचो हि महामुनिः ।
वनं जगाम तपसे महाप्रीत्या शिवं स्मरन् ॥ ३६ ॥ उनकी बात सुनकर महामुनि दधीचि बड़े प्रेमसे शिवजीका स्मरण करते हुए तपस्याके लिये वनमें गये ॥ ३६ ॥ तत्र गत्वा विधानेन महामृत्युञ्जयाभिधम् ।
तं मनुं प्रजपन् प्रीत्या तपस्तेपे शिवं स्मरन् ॥ ३७ ॥ वहाँ जाकर वे विधिपूर्वक महामृत्युंजय नामक उस मन्त्रका जप करते हुए और प्रेमपूर्वक शिवका चिन्तन करते हुए तपस्या करने लगे ॥ ३७ ॥ तन्मनुं सुचिरं जप्त्वा तपसाराध्य शंकरम् ।
शिवं सन्तोषयामास महामृत्युञ्जयं हि सः ॥ ३८ ॥ दीर्घकालतक उस महामृत्युंजय मन्त्रका जप करके तपस्याद्वारा शंकरकी आराधना करके उन्होंने शिवको प्रसन्न कर लिया ॥ ३८ ॥ अथ शम्भुः प्रसन्नात्मा तज्जपाद्भक्तवत्सलः ।
आविर्बभूव पुरतस्तस्य प्रीत्या महामुने ॥ ३९ ॥ हे महामुने ! तब उस जपसे प्रसन्नचित्त हुए भक्तवत्सल शिव उनके सामने प्रेमपूर्वक प्रकट हो गये ॥ ३९ ॥ तं दृष्ट्वा स्वप्रभुं शम्भुं स मुमोद मुनीश्वरः ।
प्रणम्य विधिवद्भक्त्या तुष्टाव सुकृताञ्जलिः ॥ ४० ॥ अपने प्रभु शम्भुका [साक्षात् दर्शन करके वे मुनीश्वर आनन्दित हो गये और उन्हें विधिपूर्वक प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ भक्तिभावसे स्तवन करने लगे ॥ ४० ॥ अथ प्रीत्या शिवस्तात प्रसन्नश्च्यावनिं मुने ।
वरं ब्रूहीति स प्राह सुप्रसन्नेन चेतसा ॥ ४१ ॥ तच्छ्रुत्वा शम्भुवचनं दधीचो भक्तसत्तमः । साञ्जलिर्नतकः प्राह शंकरं भक्तवत्सलम् ॥ ४२ ॥ हे तात ! हे मुने ! उसके बाद मुनिके प्रेमसे आनन्दित उन शिवने अत्यन्त प्रसन्नचित्तसे दधीचिसे कहा-वर माँगो । शिवका वह वचन सुनकर भक्त श्रेष्ठ दधीचि दोनों हाथ जोड़कर नतमस्तक हो भक्तवत्सल शंकरसे कहने लगे ॥ ४१-४२ ॥ दधीच उवाच
देवदेव महादेव मह्यं देहि वरत्रयम् । वज्रास्थित्वमवध्यत्वमदीनत्वं हि सर्वतः ॥ ४३ ॥ दधीचि बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! मुझे तीन वर दीजिये, मेरी हड्डी वज्र हो जाय, कोई भी मेरा वध न कर सके और मैं सर्वथा अदीन रहूँ ॥ ४३ ॥ ब्रह्मोवाच
तदुक्तवचनं श्रुत्वा प्रसन्नः परमेश्वरः । वरत्रयं ददौ तस्मै दधीचाय तथास्त्विति ॥ ४४ ॥ वरत्रयं शिवात्प्राप्य सानन्दश्च महामुनिः । क्षुवस्थानं जगामाशु वेदमार्गे प्रतिष्ठितः ॥ ४५ ॥ ब्रह्माजी बोले-उनके कहे हुए वचनको सुनकर प्रसन्न हुए परमेश्वरने 'तथास्तु' कहा और उन दधीचिको तीनों वर दे दिये । शिवजीसे तीन वर पाकर वेदमार्गमें प्रतिष्ठित महामुनि आनन्दमग्न हो गये और शीघ्र ही राजा क्षुवके स्थानपर गये ॥ ४४-४५ ॥ ब्रह्मोवाच
प्राप्यावध्यत्वमुग्रात्स वज्रास्थित्वमदीनताम् । अताडयच्च राजेन्द्रं पादमूलेन मूर्द्धनि ॥ ४६ ॥ उग्र स्वभाववाले महादेवजीसे अवध्यता, अस्थिके वज्रमय होने और अदीनताका वर पाकर दधीचिने राजेन्द्र क्षुवके मस्तकपर पादमूलसे प्रहार किया ॥ ४६ ॥ क्षुवो दधीचं वज्रेण जघानोरस्यथो नृपः ।
क्रोधं कृत्वा विशेषेण विष्णुगौरवगर्वितः ॥ ४७ ॥ तब विष्णुकी महिमासे गर्वित राजा क्षुवने भी क्रोधित होकर दधीचिकी छातीपर वज्रसे प्रहार किया ॥ ४७ ॥ नाभून्नाशाय तद्वज्रं दधीचस्य महात्मनः ।
प्रभावात्परमेशस्य धातृपुत्रो विसिस्मिये ॥ ४८ ॥ दृष्ट्वाप्यवध्यत्वमदीनतां च वज्रस्य चात्यन्तपरप्रभावम् । क्षुवो दधीचस्य मुनीश्वरस्य विसिस्मिये चेतसि धातृपुत्रः ॥ ४९ ॥ वह वा परमेश्वर शिवके प्रभावसे महात्मा दधीचिका [कुछ भी] अनिष्ट न कर सका, इससे ब्रह्मपुत्र क्षुवको आश्चर्य हुआ । मुनीश्वर दधीचिकी अवध्यता, अदीनता तथा वज्रसे बढ़कर प्रभाव देखकर ब्रह्मकुमार क्षुवके मनमें बड़ा विस्मय हुआ ॥ ४८-४९ ॥ आराधयामास हरिं मुकुन्द-
मिन्द्रानुजं काननमाशु गत्वा । प्रपन्नपालश्च पराजितो हि दधीचमृत्युञ्जयसेवकेन ॥ ५० ॥ वे शरणागतपालक नरेश मृत्युंजयके सेवक दधीचिसे पराजित होकर शीघ्र ही वनमें जाकर इन्द्रके छोटे भाई मुकुन्द हरिकी आराधना करने लगे ॥ ५० ॥ पूजया तस्य सन्तुष्टो भगवान् मधुसूदनः ।
प्रददौ दर्शनं तस्मै दिव्यं वै गरुडध्वजः ॥ ५१ ॥ उनकी पूजासे सन्तुष्ट होकर गरुडध्वज भगवान् मधुसूदनने उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान की ॥ ५१ ॥ दिव्येन दर्शनेनैव दृष्ट्वा देवं जनार्दनम् ।
तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिः प्रणम्य गरुडध्वजम् ॥ ५२ ॥ उस दिव्य दृष्टिसे गरुडध्वज जनार्दन देवका दर्शन करके और उन्हें प्रणाम करके क्षुवने प्रिय वचनोंके द्वारा उनकी स्तुति की ॥ ५२ ॥ सम्पूज्य चैवं त्रिदशेश्वराद्यैः
स्तुत्वा स्तुतं देवमजेयमीशम् । विज्ञापयामास निरीक्ष्य भक्त्या जनार्दनाय प्रणिपत्य मूर्ध्ना ॥ ५३ ॥ इस प्रकार इन्द्र आदिसे स्तुत उन अजेय ईश्वर देवका पूजन और स्तवन करके वे [राजा क्षुव] भक्तिभावसे उनकी ओर देखकर मस्तक झुकाकर प्रणाम करके उन जनार्दनसे कहने लगे- ॥ ५३ ॥ राजोवाच
भगवन् ब्राह्मणः कश्चिद्दधीच इति विश्रुतः । धर्मवेत्ता विनीतात्मा सखा मम पुराऽभवत् ॥ ५४ ॥ राजा बोले-हे भगवन् ! दधीचि नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण हैं, जो धर्मके ज्ञाता तथा विनम्र स्वभाववाले हैं, वे पहले मेरे मित्र थे ॥ ५४ ॥ अवध्यः सर्वदा सर्वैः शंकरस्य प्रभावतः ।
तमाराध्य महादेवं मृत्युञ्जयमनामयम् ॥ ५५ ॥ वे निर्विकार मृत्युंजय महादेवकी आराधना करके उन्हीं शिवजीके प्रभावसे सबके द्वारा सदाके लिये अवध्य हो गये हैं ॥ ५५ ॥ सावज्ञं वामपादेन मम मूर्ध्नि सदस्यपि ।
ताडयामास वेगेन स दधीचो महातपाः ॥ ५६ ॥ उवाच तं च गर्वेण न बिभेमीति सर्वतः । मृत्युञ्जयाप्तसुवरो गर्वितो ह्यतुलं हरिः ॥ ५७ ॥ [एक दिन] उन महातपस्वी दधीचिने भरी सभामें अपने बायें पैरसे मेरे मस्तकपर बड़े वेगसे अवहेलनापूर्वक प्रहार किया और बड़े गर्वसे मुझसे कहा-मैं किसीसे नहीं डरता । हे हरे ! वे मृत्युंजयसे उत्तम वर पाकर अनुपम गर्वसे भर गये हैं ॥ ५६-५७ ॥ ब्रह्मोवाच
अथ ज्ञात्वा दधीचस्य ह्यवध्यत्वं महात्मनः । सस्मारास्य महेशस्य प्रभावमतुलं हरिः ॥ ५८ ॥ एवं स्मृत्वा हरिः प्राह क्षुवं विधिसुतं द्रुतम् । विप्राणां नास्ति राजेन्द्र भयमण्वपि कुत्रचित् ॥ ५९ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे नारद !] महात्मा दधीचिकी अवध्यताको जानकर श्रीहरिने महेश्वरके अतुलित प्रभावका स्मरण किया । इस प्रकार स्मरण करके विष्णु ब्रह्मपुत्र क्षुवसे शीघ्र बोले-राजेन्द्र ! ब्राह्मणोंको कहीं भी थोड़ा-सा भी भय नहीं है । ५८-५९ ॥ विशेषाद्रुद्रभक्तानां भयं नास्ति च भूपते ।
दुःखं करोति विप्रस्य शापार्थं ससुरस्य मे ॥ ६० ॥ हे भूपते ! विशेष रूपसे रुद्रभक्तोंके लिये तो भय है ही नहीं । यदि मैं आपकी ओरसे कुछ करूं तो ब्राह्मण दधीचिको दुःख होगा और वह मुझ जैसे देवताके लिये भी शापका कारण बन जायगा ॥ ६० ॥ भविता तस्य शापेन दक्षयज्ञे सुरेश्वरात् ।
विनाशो मम राजेन्द्र पुनरुत्थानमेव च ॥ ६१ ॥ हे राजेन्द्र ! दधीचिके शापसे दक्षके यज्ञमें सुरेश्वर शिवके द्वारा मेरा विनाश होगा और फिर उत्थान भी होगा ॥ ६१ ॥ तस्मात्समेत्य राजेन्द्र सर्वयज्ञो न भूयते ।
करोमि यत्नं राजेन्द्र दधीचविजयाय ते ॥ ६२ ॥ हे राजेन्द्र ! दधीचिके शापके कारण ही सभी देवताओं, मेरे तथा ब्रह्माके उपस्थित रहनेपर भी दक्षका यज्ञ सफल नहीं होगा । हे महाराज ! मैं आपके लिये दधीचिको जीतनेका प्रयास करूंगा ॥ ६२ ॥ श्रुत्वा वाक्यं क्षुवः प्राह तथास्त्विति हरेर्नृपः ।
तस्थौ तत्रैव तत्प्रीत्या तत्कामोत्सुकमानसः ॥ ६३ ॥ विष्णुका यह वचन सुनकर राजा भुवने कहा-ऐसा ही हो । इस प्रकार कहकर वे उस कार्यके लिये मन-ही-मन उत्सुक हो प्रसन्नतापूर्वक वहीं ठहर गये ॥ ६३ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीय
सतीखण्डे क्षुवदधीचवादवर्णनं नामाष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुजसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें क्षुव और दधीचिके विवादका वर्णन नामक अड़तीसवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३८ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |