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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे
चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] ब्रह्मादीनां कैलासयात्रा शिवदर्शनं च
देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णलोकमें जाकर अपना दःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका केलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना नारद उचाच
विधे विधे महाप्राज्ञा शैवतत्त्वप्रदर्शक । श्राविता रमणीप्राया शिवलीला महाद्भुता ॥ १ ॥ वीरेण वीरभद्रेण दक्षयज्ञं विनाश्य वै । कैलासाद्रौ गते तात किमभूत्तद्वदाधुना ॥ २ ॥ नारदजी बोले-हे विधे ! हे महाप्राज्ञ ! हे शिवतत्त्वके प्रदर्शक ! आपने अत्यन्त अद्भुत एवं रमणीय शिवलीला सुनायी है । हे तात ! पराक्रमी वीरभद्र जब दक्षके यज्ञका विनाश करके कैलास पर्वतपर चले गये, तब क्या हुआ ? अब उसे बताइये ॥ १-२ ॥ ब्रह्मोवाच
अथ देवगणाःसर्वे मुनयश्च पराजिताः । रुद्रानीकैर्विभिन्नाङ्गा मम लोकं ययुस्तदा ॥ ३ ॥ स्वयम्भुवे नमस्कृत्य मह्यं संस्तूय भूरिशः । तत्स्वक्लेशं विशेषेण कार्त्स्येनैव न्यवेदयन् ॥ ४ ॥ ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] समस्त देवता और मुनि रुद्रके सैनिकोंसे पराजित तथा छिन्न-भिन्न अंगोंवाले होकर मेरे लोकको चले गये । वहाँ मुझ स्वयम्भूको नमस्कार करके और बार-बार मेरा स्तवन करके उन्होंने अपने विशेष क्लेशको पूर्णरूपसे बताया । ३-४ ॥ तदाकर्ण्य ततोहं वै पुत्रशोकेन पीडितः ।
अचिन्तयमतिव्यग्रो दूयमानेन चेतसा ॥ ५ ॥ तब उसे सुनकर मैं पुत्रशोकसे पीड़ित हो गया और अत्यन्त व्यग्र हो व्यथितचित्तसे विचार करने लगा ॥ ५ ॥ किं कार्यं कार्यमद्याशु मया देवसुखावहम् ।
येन जीवतु दक्षौऽसौ मखः पूर्णो भवेत्सुरः ॥ ६ ॥ इस समय मैं कौन-सा कार्य करूँ, जो देवताओंके लिये सुखकारी हो और जिससे देव दक्ष जीवित हो जायें तथा यज्ञ भी पूरा हो जाय ॥ ६ ॥ एवं विचार्य बहुधा नालभं शमहं मुने ।
विष्णुं तदा स्मरन् भक्त्या ज्ञानमाप तदोचितम् ॥ ७ ॥ हे मुने ! इस प्रकार बहुत विचार करनेपर जब मुझे शान्ति नहीं मिली, तब भक्तिपूर्वक विष्णुका स्मरण करते हुए मैंने उचित ज्ञान प्राप्त कर लिया ॥ ७ ॥ अथ देवैश्च मुनिभिर्विष्णोर्लोकमहं गतः ।
नत्वा स्तुत्वा च विविधैः स्तवैर्दुःखं न्यवेदयम् ॥ ८ ॥ यथाऽध्वरः प्रपूर्णः स्याद्देवयज्ञकरश्च सः । सुखिनःस्युः सुराः सर्वे मुनयश्च तथा कुरु ॥ ९ ॥ देव देव रमानाथ विष्णो देवसुखावह । वयं त्वच्छरणं प्राप्ताः सदेवमुनयो ध्रुवम् ॥ १० ॥ तदनन्तर देवताओं और मुनियोंके साथ मैं विष्णुलोकमें गया और उन्हें नमस्कार करके तथा अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति करके अपना दु:ख उनसे कहने लगा-हे देव ! जिस तरह भी यज्ञ पूर्ण हो, यज्ञकर्ता [दक्ष] जीवित हों और समस्त देवता तथा मुनि सुखी हो जायें, आप वैसा कीजिये । हे देवदेव ! हे रमानाथ ! हे देवसुखदायक विष्णो ! हम देवता और मुनिलोग निश्चय ही आपकी शरणमें आये हैं ॥ ८-१० ॥ ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचो मे हि ब्रह्मणः स रमेश्वरः । प्रत्युवाच शिवं स्मृत्वा शिवात्मा दीनमानसः ॥ ११ ॥ ब्रह्माजी बोले-मुझ ब्रह्माकी यह बात सुनकर शिवस्वरूप लक्ष्मीपति विष्णु शिवजीका स्मरण करके दुखीचित्त होकर इस प्रकार कहने लगे- ॥ ११ ॥ विष्णुरुवाच
तेजीयसि न सा भूता कृतागसि बुभूषताम् । तत्र क्षेमाय बहुधा बुभूषा हि कृतागसाम् ॥ १२ ॥ कृतपापाः सुरा सर्वे शिवे हि परमेश्वरे । पराददुर्यज्ञभागं तस्य शम्भोर्विधे यतः ॥ १३ ॥ विष्णु बोले-हे देवताओ ! परम समर्थ तेजस्वी पुरुषसे कोई अपराध बन जाय, तो भी उसके बदलेमें अपराध करनेवाले मनुष्योंके लिये उनका वह अपराध मंगलकारी नहीं हो सकता । हे विधे ! समस्त देवता परमेश्वर शिवके अपराधी हैं; क्योंकि इन्होंने उन शम्भुको यज्ञका भाग नहीं दिया ॥ १२-१३ ॥ प्रसादयध्यं सर्वे हि यूयं शुद्धेन चेतसा ।
अथापरप्रसादं तं गृहीताङ्घ्रियुगं शिवम् ॥ १४ ॥ अब आप सभी लोग शुद्ध हृदयसे शीघ्र ही प्रसन्न होनेवाले भगवान् शिवके पैर पकड़कर उन्हें प्रसन्न कीजिये ॥ १४ ॥ यस्मिन् प्रकुपिते देवे विनश्यत्यखिलं जगत् ।
सलोकपालयज्ञस्य शासनाज्जीवितं द्रुतम् ॥ १५ ॥ तमाशु प्रियया देवं विहीनं च दुरुक्तिभिः । क्षमापयध्वं हृद्विद्धं दक्षेण सुदुरात्मना ॥ १६ ॥ जिन भगवान्के कुपित होनेपर यह सारा जगत् नष्ट हो जाता है तथा जिनके शासनसे लोकपालोसहित यज्ञका जीवन शीघ्र ही समाप्त जाता है, उन प्रियाविहीन तथा अत्यन्त दुरात्मा दक्षके दुर्वचनोंसे बिंधे हुए हृदयवाले देव शंकरसे आपलोग शीघ्र ही क्षमा माँगिये ॥ १५-१६ ॥ अयमेव महोपायस्तच्छान्त्यै केवलं विधे ।
शम्भोः सन्तुष्टये मन्ये सत्यमेवोदितं मया ॥ १७ ॥ हे विधे ! उन शम्भुकी शान्ति तथा सन्तुष्टिके लिये केवल यही महान् उपाय है-ऐसा मैं समझता हूँ । यह मैंने सच्ची बात कही है ॥ १७ ॥ नाहं न त्वं सुराश्चान्ये मुनयोपि तनूभृतः ।
यस्य तत्त्वं प्रमाणं च न विदुर्बलवीर्ययोः ॥ १८ ॥ आत्मतन्त्रस्य तस्यापि परस्य परमात्मनः । कमुपायं विधित्सेद्वै परं मूढं विरोधिनम् ॥ १९ ॥ हे विधे ! न मैं, न तुम, न अन्य देवता, न मुनिगण और न दूसरे शरीरधारी ही जिनके बल तथा पराक्रमके तत्त्व तथा प्रमाणोंको जान पाते हैं, उन स्वतन्त्र परमात्मा परमेश्वरको विरुद्धकर प्रसन्न करनेका [प्रणिपात करनेके अतिरिक्त] कोई दूसरा उपाय नहीं हो सकता ॥ १८-१९ ॥ चलिष्येहमपि ब्रह्मन् सर्वैः सार्द्ध शिवालयम् ।
क्षमापयामि गिरिशं कृतागाश्च शिवे धुवम् ॥ २० ॥ हे ब्रह्मन् ! आपलोगोंके साथ मैं भी शिवालय चलूँगा और शिवके प्रति स्वयं अपराधी होनेपर भी उनसे क्षमा करवाऊँगा ॥ २० ॥ ब्रह्मोवाच
इत्थमादिश्य विष्णुर्मां ब्रह्माणं सामरादिकम् । सार्द्धं देवेर्मतिं चक्रे तद्गिरौ गमनाय सः ॥ २१ ॥ ब्रह्माजी बोले-देवता आदिके साथ मुझ ब्रह्माको इस प्रकार आदेश देकर भगवान् विष्णुने देवताओंके साथ कैलासपर्वतपर जानेका विचार किया ॥ २१ ॥ ययौ स्वधिष्ण्यनिलयं शिवस्याद्रिवरं शुभम् ।
कैलासं सामरमुनिप्रजेशादिमयो हरिः ॥ २२ ॥ देवता, मुनि, प्रजापति आदिको साथ लेकर वे विष्णु शिवजीके स्वप्रकाशस्वरूप शुभ तथा श्रेष्ठ कैलास पर्वतपर पहुँच गये ॥ २२ ॥ अतिप्रियं प्रभोर्नित्यं सुजुष्टं किन्नरादिभिः ।
नरेतरैरप्सरोभिर्योगसिद्धैमहोन्नतम् ॥ २३ ॥ कैलास भगवान् शिवको सदा ही प्रिय है, वह मनुष्योंके अतिरिक्त किन्नरों, अप्सराओं तथा योगसिद्ध महात्माओंसे सेवित था और बहुत ऊँचा था ॥ २३ ॥ नानामणिमयैः शृङ्गैः शोभमानं समन्ततः ।
नानाधातुविचित्रं वै नानाद्रुमलताकुलम् ॥ २४ ॥ वह चारों ओरसे अनेक मणिमय शिखरोंसे सुशोभित था, अनेक धातुओंसे विचित्र जान पड़ता था और अनेक प्रकारके वृक्ष तथा लताओंसे भरा हुआ था ॥ २४ ॥ नानामृगगणाकीर्णं नानापक्षिसमन्वितम् ।
नानाजलप्रस्रवणैरमरैः सिद्धयोषिताम् ॥ २५ ॥ रमणैवाहरन्तीनां नानाकन्दरसानुभिः । द्रुमजातिभिरन्याभी राजितं राजतप्रभम् ॥ २६ ॥ अनेक प्रकारके पशुओं-पक्षियों तथा अनेक प्रकारके झरनोंसे वह परिव्याप्त था । उसके शिखरपर सिद्धांगनाएँ अपने-अपने पतियोंके साथ विहार करती थीं । वह अनेक प्रकारकी कन्दराओं, शिखरों तथा अनेक प्रकारके वृक्षोंकी जातियोंसे सुशोभित था । उसकी कान्ति चाँदीके समान श्वेतवर्णकी थी ॥ २५-२६ ॥ व्याघ्रादिभिर्महासत्त्वैर्निर्घुष्टं क्रूरतोज्झितम् ।
सर्वशोभान्वितं दिव्यं महाविस्मयकारकम् ॥ २७ ॥ वह पर्वत बड़े-बड़े व्याघ्र आदि जन्तुओंसे युक्त, भयानकतासे रहित, सम्पूर्ण शोभासे सम्पन्न, दिव्य तथा अत्यधिक आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला था ॥ २७ ॥ पर्यस्तं गङ्गया सत्या स्थानपुण्यतरोदया ।
सर्वपावनसङ्कर्त्र्या विष्णुपद्या सुनिर्मलम् ॥ २८ ॥ वह सभीको पवित्र कर देनेवाली तथा अनेक तीर्थीका निर्माण करनेवाली विष्णुपदी सती श्रीगंगाजीसे घिरा हुआ तथा अत्यन्त निर्मल था ॥ २८ ॥ एवंविधं गिरिं दृष्ट्वा कैलासाख्यं शिवप्रियम् ।
ययुस्ते विस्मयं देवा विष्ण्वाद्या ःसमुनीश्वराः ॥ २९ ॥ शिवजीके परम प्रिय कैलास नामक इस प्रकारके पर्वतको देखकर मुनीश्वरोंसहित विष्णु आदि देवता आश्चर्यचकित हो गये ॥ २९ ॥ तःसमीपेऽलकां रम्यां ददृशुर्नाम ते पुरीम् ।
कुबेरस्य महादिव्यां रुद्रमित्रस्य निर्जराः ॥ ३० ॥ उन देवताओंने उस कैलासके सन्निकट शिवके मित्र कुबेरकी अलका नामक परम दिव्य तथा रम्य पुरीको देखा ॥ ३० ॥ वनं सौगन्धिकं चापि ददृशुस्तत्समीपतः ।
सर्वद्रुमान्वितं दिव्यं यत्र तन्नादमद्भुतम् ॥ ३१ ॥ उन्होंने उसके पास ही सौगन्धिक नामक दिव्य वन भी देखा, जो अनेक प्रकारके दिव्य वृक्षोंसे शोभित था और जहाँ [पक्षियोंकी] अद्भुत ध्वनि हो रही थी ॥ ३१ ॥ तद्वाह्यतस्तस्य दिव्ये सरितावति पावने ।
नन्दा चालकनन्दा च दर्शनात्पापहारिके ॥ ३२ ॥ उससे बाहर नन्दा एवं अलकनन्दा नामक दिव्य तथा परम पावन सरिताएँ बह रही थीं, जो दर्शनमात्रसे ही [ मनुष्यों के पापोंका विनाश कर देती हैं ॥ ३२ ॥ पपुः सुरस्त्रियो नित्यमवगूह्य स्वलोकतः ।
विगाह्य पुम्भिस्तास्तत्र क्रीडन्ति रतिकर्शिताः ॥ ३३ ॥ देवस्त्रियाँ प्रतिदिन अपने लोकसे आकर उनका जल पीतीं और स्नान करके रतिसे आकृष्ट होकर पुरुषोंके साथ विहार करती हैं ॥ ३३ ॥ हित्वा यक्षेश्वरपुरीं वनं सौगन्धिकं च यत् ।
गच्छन्तस्ते सुरा आराद्ददृशुः शाङ्करं वटम् ॥ ३४ ॥ उसके बाद उस अलकापुरी तथा सौगन्धिक वनको छोड़कर आगेकी ओर जाते हुए उन देवताओंने समीपमें ही शंकरजीके वटवृक्षको देखा ॥ ३४ ॥ पर्यक्कृताचलच्छायं पादोनविटपायतम् ।
शतयोजनकोत्सेधं निर्नीडं तापवर्जितम् ॥ ३५ ॥ महापुण्यवतां दृश्यं सुरम्यं चातिपावनम् । शम्भुयोगस्थलं दिव्यं योगिसेव्यं महोत्तमम् ॥ ३६ ॥ वह [वटवृक्ष] उस पर्वतके चारों ओर छाया फैलाये हुए था, उसकी शाखाएँ तीन ओर फैली हुई थीं, उसका घेरा सौ योजन ऊँचा था, वह घोंसलोंसे विहीन था और तापसे रहित था । उसका दर्शन [केवल] पुण्यात्माओंको ही होता है । वह अत्यन्त रमणीय, परम पावन, शिवजीका योगस्थल, दिव्य योगियोंके निवासके योग्य तथा अत्युत्तम था ॥ ३५-३६ ॥ मुमुक्षुशरणे तस्मिन् महायोगमये वटे ।
आसीनं ददृशुः सर्वे शिवं विष्ण्वादयः सुराः ॥ ३७ ॥ विष्णु आदि सभी देवताओंने महायोगमय तथा मुमुक्षुओंको शरण प्रदान करनेवाले उस वटवृक्षके नीचे बैठे हुए शिवजीको देखा ॥ ३७ ॥ विधिपुत्रैर्महासिद्धैः शिव भक्तिरतैः सदा ।
उपास्यमानं सुमुदा शान्तैः संशान्तविग्रहैः ॥ ३८ ॥ शान्त स्वभाववाले, अत्यन्त शान्त विग्रहवाले, शिवभक्तिमें तत्पर तथा महासिद्ध[सनक आदि] ब्रह्मपुत्र प्रसन्नताके साथ उनकी उपासना कर रहे थे ॥ ३८ ॥ तथा सख्या कुबेरेण भर्त्रा गुह्यकरक्षसाम् ।
सेव्यमानं विशेषेण स्वगणैर्ज्ञातिभिः सदा ॥ ३९ ॥ तापसाभीष्टसद्रूपं बिभ्रतं परमेश्वरम् । वात्सल्याद्विश्वसुहृदं भस्मादिसुविराजितम् ॥ ४० ॥ गुह्यकों एवं राक्षसोंके पति उनके मित्र कुबेर अपने गणों तथा कुटुम्बीजनोंके साथ विशेषरूपसे उनकी सेवा कर रहे थे । वे परमेश्वर शिव तपस्वीजनोंको प्रिय लगनेवाले सुन्दर रूपको धारण किये हुए थे, वात्सल्यके कारण वे सम्पूर्ण विश्वके मित्ररूप प्रतीत हो रहे थे और भस्म आदिसे उनके अंगोंकी बड़ी शोभा हो रही थी ॥ ३९-४० ॥ मुने तुभ्यं प्रवोचन्तं पृच्छते ज्ञानमुत्तमम् ।
कुशासने सूपविष्टं सर्वेषां शृण्वतां सताम् ॥ ४१ ॥ कृत्वोरौ दक्षिणे सव्यं चरणं चैव जानुनि । बाहुप्रकोष्ठाक्षमालं स्थितं सत्तर्कमुद्रया ॥ ४२ ॥ हे मुने ! आपके पूछनेपर कुशासनपर बैठे हुए वे शिव सभी सज्जनोंको सुनाते हुए आपको ज्ञानका उपदेश दे रहे थे । वे अपना बायाँ चरण अपनी दायीं जाँघपर और बायाँ हाथ बायें घुटनेपर रखे कलाईमें रुद्राक्षको माला डाले सुन्दर तर्कमुद्रामें विराजमान थे ॥ ४१-४२ ॥ एवंविधं शिवं दृष्ट्वा तदा विष्ण्वादयः सुराः ।
प्रणेमुस्त्वरितं सर्वे करौ बध्वा विनम्रकाः ॥ ४३ ॥ उपलभ्यागतं रुद्रो मया विष्णुं सतांगतिः । उत्थाय चक्रे शिरसाभिवन्दनमपि प्रभुः ॥ ४४ ॥ इस प्रकारके स्वरूपवाले शिवको देखकर उस समय विष्णु आदि सभी देवताओंने शीघ्रतासे नम्रतापूर्वक दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया । तब सज्जनोंके शरणदाता प्रभु रुद्रने मेरे साथ आये हुए विष्णुको देखकर उठ करके सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया ॥ ४३-४४ ॥ वन्दिताङ्घ्रिस्तदा सर्वैर्दिव्यैर्विष्ण्वादिभिः शिवः ।
ननामाथ यथा विष्णुं कश्यपं लोकसद्गतिः ॥ ४५ ॥ विष्णु आदि देवताओंने जब भगवान् शिवजीके चरणोंमें प्रणाम किया, तब उन्होंने भी उसी प्रकार मुझे नमस्कार किया, जिस प्रकार लोकोंको सद्गति प्रदान करनेवाले भगवान् विष्णु कश्यपको प्रणाम करते हैं ॥ ४५ ॥ सुरसिद्धगणाधीशमहर्षिसुनमस्कृतम् ।
समुवाच सुरैर्विष्णुं कृतसन्नतिमादरात् ॥ ४६ ॥ तब शिवजीने देवताओं, सिद्धों, गणाधीशों और महर्षियोंसे नमस्कृत तथा वन्दित विष्णुसे आदरपूर्वक वार्तालाप किया ॥ ४६ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये
सतीखण्डे शिवदर्शनवर्णनं नाम चत्वारिंशोध्यायः ॥ ४० ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें शिवके दर्शनका वर्णन नामक चालीसौं अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४० ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |