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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे
एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ [ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ] देवैः कृता शिवस्तुतिः
देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति विष्ण्वादय ऊचुः
देवदेव महादेव लौकिकाचारकृत्प्रभो । ब्रह्म त्वामीश्वरं शम्भुं जानीमः कृपया तव ॥ १ ॥ विष्णु आदि बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! लोकाचारका प्रदर्शन करनेवाले हे प्रभो ! आपकी कृपासे हमलोग आप परमेश्वर शम्भुको परम ब्रह्म मानते हैं ॥ १ ॥ किं मोहयसि नस्तात मायया परया तव ।
दुर्ज्ञेयया सदा पुंसां मोहिन्या परमेश्वर ॥ २ ॥ । हे परमेश्वर ! हे तात ! आप सम्पूर्ण संसारको मोहनेवाली अपनी उत्कृष्ट तथा दुर्जेय मायासे हमें क्यों मोहित कर रहे हैं ? ॥ २ ॥ प्रकृतेः पुरुषस्यापि जगतो योनिबीजयोः ।
परब्रह्म परस्त्वं च मनोवाचामगोचरः ॥ ३ ॥ आप संसारके योनि एवं बीजभूत प्रकृति तथा पुरुषसे भी परे हैं । आप परब्रह्म हैं एवं मन तथा वाणीके विषयसे परे हैं ॥ ३ ॥ त्वमेव विश्वं सृजसि पास्यत्सि निजतन्त्रतः ।
स्वरूपां शिवशक्तिं हि क्रीडन्नूर्णपटो यथा ॥ ४ ॥ आप ही अपनी इच्छासे इस विश्वका सृजन करते हैं, पालन करते हैं तथा संहार भी करते हैं । जैसे मकड़ी अपने मुंहसे जाला बनाती है तथा उसको पुनः समेट लेती है, उसी प्रकार आप भी अपनी शक्तिके द्वारा अनेक प्रकारकी क्रीड़ाएँ करते रहते हैं ॥ ४ ॥ त्वमेव क्रतुमीशान ससर्जिथ दयापरः ।
दक्षेण सूत्रेण विभो सदा त्रय्यभिपत्तये ॥ ५ ॥ हे ईशान ! हे विभो ! आपने ही दयालु होकर वेदत्रयीकी रक्षाके लिये दक्षरूपी सूत्रके द्वारा यज्ञकी रचना की है ॥ ५ ॥ त्वयैव लोकेवसिताः सेतवो यान् धृतव्रताः ।
शुद्धान् श्रद्दधते विप्रा वेदमार्गविचक्षणाः ॥ ६ ॥ आपने ही संसारमें उन [वैदिक] मर्यादाओंकी स्थापना की है, जिनपर वेदमार्गपरायण तथा दृढ़-व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण लोग श्रद्धा करते हैं ॥ ६ ॥ कर्तुस्त्वं मंगलानां हि स्वपरं तु मुखे विभो ।
अमंगलानां च हितं मिश्रं वाथ विपर्ययम् ॥ ७ ॥ हे विभो ! आप ही मंगलोंके कर्ता हैं. आप ही अपनों और दूसरोंको सुख प्रदान करनेवाले है और आप ही अमंगलोंका भी हितकारी अथवा अहितकारी या मिश्रित फल देनेवाले हैं ॥ ७ ॥ सर्वकर्मफलानां हि सदा दाता त्वमेव हि ।
सर्वे हि प्रोक्ता हि यशस्तत्पतिस्त्वं श्रुतिश्रुतः ॥ ८ ॥ हे प्रभो ! आप ही सदा सब कौका फल प्रदान करनेवाले हैं । जगत्के समस्त प्राणी पशु कहे गये हैं, उनकी रक्षाके कारण ही आपका नाम पशुपति हैऐसा वेदोंमें कहा गया है ॥ ८ ॥ पृथग्धियः कर्मदृशोऽरुन्तुदाश्च दुराशयाः ।
वितुदन्ति परान् मूढा दुरुक्तैर्मत्सरान्विताः ॥ ९ ॥ आपसे भिन्न बुद्धि होनेके कारण ही कर्मपर विश्वास करनेवाले, मर्मभेदी वचन बोलनेवाले, दुरात्मा, दुद्धि लोग ही ईर्ष्यावश कटुवाक्योंसे दूसरोंको कष्ट पहुँचाते हैं ॥ ९ ॥ तेषां दैववधानां भो भूयात्त्वच्च वधो विभो ।
भगवन्परमेशान कृपां कुरु परप्रभो ॥ १० ॥ हे विभो ! दुर्दैवद्वारा मारे गये उन लोगोंका वध क्या आपके द्वारा होना चाहिये, हे भगवन् ! हे परमेशान ! हे परप्रभो ! आप कृपा कीजिये ॥ १० ॥ नमो रुद्राय शान्ताय ब्रह्मणे परमात्मने ।
कपर्दिने महेशाय ज्योत्स्नाय महते नमः ॥ ११ ॥ परम शान्त, रुद्र ब्रह्मको नमस्कार है । परमात्मा, जटाधारी, स्वयंप्रकाश महान् महेशको हमारा नमस्कार है ॥ ११ ॥ त्वं हि विश्वसृजां स्रष्टा धाता त्वं प्रपितामहः ।
त्रिगुणात्मा निर्गुणश्च प्रकृतेः पुरुषात्परः ॥ १२ ॥ आप ही प्रजापतियोंके स्रष्टा, धाता, प्रपितामह, त्रिगुण (सत्त्व, रज, तम)-स्वरूप, निर्गुण एवं प्रकृति तथा पुरुषसे परे हैं ॥ १२ ॥ नमस्ते नीलकण्ठाय वेधसे परमात्मने ।
विश्वाय विश्वबीजाय जगदानन्दहेतवे ॥ १३ ॥ । नीलकण्ठ, विधाता, परमात्मा, विश्व, विश्वके बीज और जगत्के आनन्दभूत आपको नमस्कार है ॥ १३ ॥ ओङ्कारस्त्वं वषट्कारः सर्वारम्भप्रवर्तकः ।
हन्तकाःस्वधाकारो हव्यकव्यान्नभुक् सदा ॥ १४ ॥ [हे प्रभो !] आप ही ॐकार, वषट्कार, सभीके आदिप्रवर्तक, हन्तकार, स्वधाकार एवं हव्य कव्यके सदा भोक्ता हैं ॥ १४ ॥ कृतः कथं यज्ञभङ्गस्त्वया धर्मपरायण ।
ब्रह्मण्यस्त्वं महादेव कथं यज्ञहनो विभो ॥ १५ ॥ हे धर्मपरायण ! आपने इस यजका विध्वंस क्यों किया ? हे महादेव ! आप तो ब्राह्मणोंके रक्षक हैं, तब हे विभो ! आप इस यज्ञके विनाशक कैसे बन गये ? ॥ १५ ॥ ब्राह्मणानां गवां चैव धर्मस्य प्रतिपालकः ।
शरण्योसि सदानन्त्यः सर्वेषां प्राणिनां प्रभो ॥ १६ ॥ हे प्रभो ! आप ब्राह्मण, गौ तथा धर्मकी रक्षा करनेवाले एवं सभी प्राणियोंको शरण प्रदान करनेवाले तथा अनन्त हैं ॥ १६ ॥ नमस्ते भगवन् रुद्र भास्करामिततेजसे ।
नमो भवाय देवाय रसायाम्बुमयाय ते ॥ १७ ॥ हे भगवन् ! हे रुद्र ! हे सूर्यके समान अमित तेजवाले ! आपको प्रणाम है । रसरूप, जलरूप, जगन्मय स्वरूप आप भव देवताको नमस्कार है ॥ १७ ॥ शर्वाय क्षितिरूपाय सदा सुरभिणे नमः ।
रुद्रायाग्निस्वरूपाय महातेजस्विने नमः ॥ १८ ॥ सुगन्धवाले पृथ्वीस्वरूप आप शर्थको नमस्कार है । अग्निस्वरूप महातेजस्वी आप रुद्रको नमस्कार है ॥ १८ ॥ ईशाय वायवे तुभ्यं संस्पर्शाय नमोनमः ।
पशूनां पतये तुभ्यं यजमानाय वेधसे ॥ १९ ॥ आप वायुरूप, स्पर्शरूप ईश्वरको नमस्कार है, आप पशुओंके पति, यजमान एवं विधाताको नमस्कार है ॥ १९ ॥ भीमाय व्योमरूपाय शब्दमात्राय ते नमः ।
महादेवाय सोमाय प्रवृत्ताय नमोऽस्तु ते ॥ २० ॥ आकाशस्वरूप शब्दवाले आप भीमको नमस्कार है । सोमस्वरूपसे कर्ममें प्रवृत्त करनेवाले आप महादेवको नमस्कार है ॥ २० ॥ उग्राय सूर्यरूपाय नमस्ते कर्मयोगिने ।
नमस्ते कालकालाय नमस्ते रुद्र मन्यवे ॥ २१ ॥ आप उग्र, सूर्यरूप कर्मयोगीको नमस्कार है । हे रुद्र ! कालोंके भी काल एवं क्रोधस्वरूप आपके लिये नमस्कार है ॥ २१ ॥ नमः शिवाय भीमाय शंकराय शिवाय ते ।
उग्रोऽसि सर्व भूतानां नियन्ता यच्छिवोऽसि नः ॥ २२ ॥ 'शिव, भीम एवं कल्याण करनेवाले आप शिवशंकरको नमस्कार है । [हे प्रभो !] आप उग्र हैं, सभी प्राणियोंके नियन्ता हैं एवं हमारा कल्याण करनेवाले हैं ॥ २२ ॥ मयस्कराय विश्वाय ब्रह्मणे ह्यार्तिनाशिने ।
अम्बिकापतये तुभ्यमुमायाः पतये नमः ॥ २३ ॥ आप मयस्कर [सुख प्रदान करनेवाले], विश्वरूप, ब्रह्म, दुःखोंका नाश करनेवाले, अम्बिकापति तथा उमापति हैं, आपको नमस्कार है ॥ २३ ॥ शर्वाय सर्वरूपाय पुरुषाय परात्मने ।
सदसद्व्यक्तिहीनाय महतः कारणाय ते ॥ २४ ॥ जाताय बहुधा लोके प्रभूताय नमो नमः । नीलाय नीलरुद्राय कद्रुद्राय प्रचेतसे ॥ २५ ॥ शर्व, सर्वरूप, पुरुषरूप, परात्मा, सत् एवं असत्की अभिव्यक्तिसे हीन, महत्तत्त्वके कारण, संसारमें अनेक प्रकारसे उत्पन्न होनेवाले, प्रभूतस्वरूप, नीलस्वरूप, नीलस्ट, कद्रुद्र एवं प्रचेताको बार-बार नमस्कार है ॥ २४-२५ ॥ मीढुष्टमाय देवाय शिपिविष्टाय ते नमः ।
महीयसे नमस्तुभ्यं हन्त्रे देवारिणां सदा ॥ २६ ॥ आप मीढुष्टम, देव तथा शिपिविष्टको नमस्कार है । देवताओंके शत्रुओंको मारनेवाले तथा सर्वश्रेष्ठको नमस्कार है ॥ २६ ॥ ताराय च सुताराय तरुणाय सुतेजसे ।
हरिकेशाय देवाय महेशाय नमोनमः ॥ २७ ॥ तारकमन्त्रस्वरूप, सबका उद्धार करनेवाले, तरुणरूप, परमतेजस्वी, हरिकेश, देव महेश्वरको बारबार नमस्कार है ॥ २७ ॥ देवानां शम्भवे तुभ्यं विभवे परमात्मने ।
परमाय नमस्तुभ्यं कालकण्ठाय ते नमः ॥ २८ ॥ हिरण्याय परेशाय हिरण्यवपुषे नमः । भीमाय भीमरूपाय भीमकर्मरताय च ॥ २९ ॥ देवताओंका कल्याण करनेवाले, सभी ऐश्वर्योसे युक्त, परमात्मा तथा परम आपको नमस्कार है । आप कालकण्ठको नमस्कार है । सुवर्णस्वरूप, परमेश, सुवर्णमय शरीरवाले, भीम, भीमरूप एवं भीमकर्ममें रत रहनेवाले आपको नमस्कार है ॥ २८-२९ ॥ भस्मदिग्धशरीराय रुद्राक्षाभरणाय च ।
नमो ह्रस्वाय दीर्घाय वामनाय नमोऽस्तु ते ॥ ३० ॥ भस्मसे लिप्त शरीरवाले, रुद्राक्षका आभूषण धारण करनेवाले तथा ह्रस्व-दीर्घ-वामनस्वरूपवाले आपको बार-बार नमस्कार है ॥ ३० ॥ दूरेवधाय ते देवाग्रेवधाय नमोनमः ।
धन्विने शूलिने तुभ्यं गदिने हलिने नमः ॥ ३१ ॥ नानायुधधरायैव दैत्यदानवनाशिने । सद्याय सद्यरूपाय सद्योजाताय वै नमः ॥ ३२ ॥ वामाय वामरूपाय वामनेत्राय ते नमः । अघोराय परेशाय विकटाय नमो नमः ॥ ३३ ॥ हे देव ! दूर रहनेवालों तथा आगे रहनेवालोंका वध करनेवाले आपको नमस्कार है । धनुष, शूल, गदा तथा हल धारण करनेवाले आपको नमस्कार है । अनेक आयुधोंको धारण करनेवाले, दैत्य-दानवोंका विनाश करनेवाले, सद्य, सद्यरूप तथा सद्योजात आपको नमस्कार है । वाम, वामरूप तथा वामनेत्र आपको नमस्कार है । अघोर, परेश एवं विकटको बार-बार नमस्कार है ॥ ३१-३३ ॥ तत्पुरुषाय नाथाय पुराणपुरुषाय च ।
पुरुषार्थप्रदानाय व्रतिने परमेष्ठिने ॥ ३४ ॥ ईशानाय नमस्तुभ्यमीश्वराय नमो नमः । ब्रह्मणे ब्रह्मरूपाय नमः साक्षात्परात्मने ॥ ३५ ॥ तत्पुरुष, नाथ, पुराणपुरुष, पुरुषार्थ प्रदान करनेवाले, व्रतधारी परमेष्ठीको नमस्कार है । ईशान, ईशस्वरूप आपको बार-बार नमस्कार है । ब्रह्म, ब्रह्मस्वरूप एवं साक्षात् परमात्मस्वरूपको नमस्कार है ॥ ३४-३५ ॥ उग्रोऽसि सर्वदुष्टानां नियन्तासि शिवोऽसि नः ।
कालकूटाशिने तुभ्यं देवाद्यवनकारिणे ॥ ३६ ॥ वीराय वीरभद्राय रक्षद्वीराय शूलिने । महादेवाय महते पशूनां पतये नमः ॥ ३७ ॥ आप उग्र हैं, सभी दुष्टोंका नियन्त्रण एवं हम देवताओंका कल्याण करनेवाले हैं । कालकूट विषका पान करनेवाले, देवताओं आदिकी रक्षा करनेवाले, वीर, वीरभद्र, वीरोंकी रक्षा करनेवाले, त्रिशूलधारी, पशुपति, महादेव, महान् आपको नमस्कार है । ३६-३७ ॥ वीरात्मने सुविद्याय श्रीकण्ठाय पिनाकिने ।
नमोनन्ताय सूक्ष्माय नमस्ते मृत्युमन्यवे ॥ ३८ ॥ पराय परमेशाय परात्परतराय ते । परात्पराय विभवे नमस्ते विश्वमूर्तये ॥ ३९ ॥ वीरात्मा, श्रेष्ठ विद्यावाले, श्रीकण्ठ, पिनाकी, अनन्त, सूक्ष्म, मृत्यु तथा क्रोधस्वरूपवाले आपको बार-बार नमस्कार है । पर, परमेश, परसे भी पर, परात्पर, सर्वैश्वर्य-सम्पन्न तथा विश्वमूर्ति आपको नमस्कार है ॥ ३८-३९ ॥ नमो विष्णुकलत्राय विष्णुक्षेत्राय मानवे ।
भैरवाय शरण्याय त्र्यम्बकाय विहारिणे ॥ ४० ॥ विष्णुको अपना मित्र माननेवाले, विष्णुको अपना कुटुम्ब माननेवाले, भानुरूप, भैरव, सबको शरण देनेवाले, त्रिलोचन एवं [सर्वत्र] विहार करनेवाले [शिवजी] को प्रणाम है ॥ ४० ॥ मृत्युञ्जयाय शोकाय त्रिगुणाय गुणात्मने ।
चन्द्रसूर्याग्निनेत्राय सर्वकारणसेतवे ॥ ४१ ॥ भवता हि जगत्सर्वं व्याप्तं स्वेनैव तेजसा । परब्रह्म निर्विकारी चिदानन्दः प्रकाशवान् ॥ ४२ ॥ मृत्युंजय, शोकस्वरूप, त्रिगुण, गुणरूप, सूर्य-चन्द्र-अग्निरूप नेत्रवाले तथा समस्त कारणोंके सेतुस्वरूप आपको नमस्कार है । आपने ही अपने तेजसे सारे जगत्को व्याप्त किया है । आप परब्रह्म, विकाररहित, चिदानन्द एवं प्रकाशवान् हैं ॥ ४१-४२ ॥ ब्रह्मविष्ण्विन्द्रचन्द्रादिप्रमुखाःसकलाः सुराः ।
मुनयश्चापरे त्वत्तः सम्प्रसूता महेश्वर ॥ ४३ ॥ हे महेश्वर ! ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, चन्द्र आदि समस्त देव तथा अन्य मुनिगण आपसे ही उत्पन्न हुए हैं ॥ ४३ ॥ यतो बिभर्षि सकलं विभज्य तनुमष्टधा ।
अष्टमूर्तिरितीशश्च त्वमाद्यः करुणामयः ॥ ४४ ॥ आप ही आठ प्रकारसे अपने शरीरको विभक्तकर जगत्की रक्षा करते हैं, इस कारण आप अष्टमूर्ति हैं । आप ही ईश्वर, जगत्के आदिकारण तथा करुणामय हैं ॥ ४४ ॥ त्वद्भयाद्वाति वातोयं दहत्यग्निर्भयात्तव ।
सूर्यस्तपति ते भीत्या मृत्युर्धावति सर्वतः ॥ ४५ ॥ आपके भयसे वायु सर्वदा बहता रहता है, आपके भयसे अग्नि जलती है, आपके भयसे सूर्य तपता है तथा आपके ही भयसे मृत्यु सर्वत्र दौड़ती रहती है ॥ ४५ ॥ दयासिन्धो महेशान प्रसीद परमेश्वर ।
रक्ष रक्ष सदैवास्मान् यस्मान्नष्टान् विचेतसः ॥ ४६ ॥ हे दयासिन्धो ! हे महेशान ! हे परमेश्वर ! आप प्रसन्न होइये । हमलोग नष्ट और कर्तव्यशून्य हो गये हैं, अतः हमलोगोंकी रक्षा कीजिये ॥ ४६ ॥ रक्षिताः सततं नाथ त्वयैव करुणानिधे ।
नानापद्भ्यो वयं शम्भो तथैवाद्य प्रपाहि नः ॥ ४७ ॥ हे करुणानिधान ! हे नाथ ! आपने सदैव ही आपत्तियोंमें हमलोगोंकी रक्षा की है । हे शम्भो ! उसी प्रकार आज भी हमलोगोंकी रक्षा कीजिये ॥ ४७ ॥ यज्ञस्योद्धरणं नाथ कुरु शीघ्रं प्रसादकृत् ।
असमाप्तस्य दुर्गेश दक्षस्य च प्रजापतेः ॥ ४८ ॥ हे नाथ ! हे दुर्गेश ! हे कृपा करनेवाले ! आप प्रजापति दक्षके अपूर्ण यज्ञका उद्धार कीजिये ॥ ४८ ॥ भगोऽक्षिणी प्रपद्येत यजमानश्च जीवतु ।
पूष्णो दन्ताश्च रोहन्तु भृगोः श्मश्रूणि पूर्ववत् ॥ ४९ ॥ भग देवता पूर्ववत् नेत्र प्राप्त कर लें, यजमान दक्ष जीवित हो जाये, पूषा अपने दाँतोंको पूर्ववत् प्राप्त कर लें तथा महर्षि भृगुकी दाढ़ी पूर्ववत् हो जाय ॥ ४९ ॥ भवताऽनुग्रहीतानां देवादीनांश्च सर्वशः ।
आरोग्यं भग्नगात्राणां शंकर त्वायुधाश्मभिः ॥ ५० ॥ हे शंकर ! शस्त्रोंसे तथा पत्थरोंसे छिन्न-भिन्न शरीरवाले तथा आपके द्वारा अनुगृहीत देवता आदिको आरोग्य प्राप्त हो जाय ॥ ५० ॥ पूर्णभागोस्तु ते नाथाऽवशिष्टेऽध्वरकर्मणि ।
रुद्रभागेन यज्ञस्ते कल्पितो नान्यथा क्वचित् ॥ ५१ ॥ हे नाथ ! इस शेष यज्ञकर्ममें आपका ही पूर्ण भाग हो । आपके उसी रुद्रभागसे ही यज्ञकी पूर्ति होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ ५१ ॥ इत्युक्त्वा सप्रजेशश्च रमेशश्च कृताञ्जलिः ।
दण्डवत्पतितो भूमौ क्षमापयितुमुद्यतः ॥ ५२ ॥ यह कहकर ब्रह्मासहित विष्णुदेव हाथ जोड़कर क्षमा करानेके लिये उद्यत हो दण्डके समान पृथिवीपर लेट गये ॥ ५२ ॥ इति श्रीशिव महापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये
सतीखण्डे देवस्तुतिवर्णनं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४१ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें देवताओद्वारा स्तुति वर्णन नामक इकतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४१ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |