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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां द्वितीयः सतीखण्डे

द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥

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दक्षदुःखनिराकरणम्
भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ-मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति


ब्रह्मोवाच
श्रीब्रह्मेशप्रजेशेन सदैव मुनिना च वै ।
अनुनीतः शम्भुरासीत्प्रसन्नः परमेश्वरः ॥ १ ॥
आश्वास्य देवान् विष्ण्वादीन्विहस्य करुणानिधिः ।
उवाच परमेशानः कुर्वन् परमनुग्रहम् ॥ २ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] मुझ ब्रह्मा, लोकपाल, प्रजापति तथा मुनियोंसहित विष्णुके अनुनयविनय करनेपर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गये । विष्णु आदि देवताओंको आश्वासन देकर उनपर परम अनुग्रह करते हुए करुणानिधान परमेश्वर शिवजी हँसकर कहने लगे- ॥ १-२ ॥

श्रीमहादेव उवाच
शृणुतं सावधानेन मम वाक्यं सुरोत्तमौ ।
यथार्थं वच्मि वां तात वां क्रोधं सर्वदासहन् ॥ ३ ॥
नाघं तनौ तु बालानां वर्णमेवानुचिन्तये ।
मम मायाभिभूतानां दण्डस्तत्र धृतो मया ॥ ४ ॥
श्रीमहादेवजी बोले-हे श्रेष्ठ देवताओ ! आप दोनों सावधान होकर मेरी बात सुनें, मैं सच्ची बात कह रहा हूँ. हे तात ! मैं आप दोनोंका क्रोध सर्वदा सहता रहता हूँ । बालकों अर्थात् अज्ञानियोंके द्वारा किये गये अपराधका मैं न तो वर्णन करता हूँ और न चिन्तन ही करता हूँ । इसपर भी मेरी मायासे भ्रान्त प्राणियोंके शिक्षणार्थ ही मैं दण्ड धारण करता हूँ ॥ ३-४ ॥

दक्षस्य यज्ञभङ्‌गोयं न कृतश्च मया क्वचित् ।
परं द्वेष्टि परेषां यदात्मनस्तद्‌भविष्यति ॥ ५ ॥
परेषां क्लेदनं कर्म न कार्यं तत्कदाचन ।
परं द्वेष्टि परेषां यदात्मनस्तद्‌भविष्यति ॥ ६ ॥
दक्षके यज्ञका विध्वंस मैंने कभी नहीं किया है । दक्ष स्वयं ही दूसरोंसे द्वेष करते हैं । दूसरोंके प्रति जैसा व्यवहार किया जायगा, वह अपने लिये ही फलित होगा । अतः दूसरोंको कष्ट देनेवाला कार्य कभी नहीं करना चाहिये, जो दूसरोंसे द्वेष करता है, वह द्वेष अपने लिये ही होता है ॥ ५-६ ॥

दक्षस्य यज्ञशीर्ष्णो हि भवत्वजमुखं शिरः ।
मित्रनेत्रेण सम्पश्येद्यज्ञभागं भगः सुरः ॥ ७ ॥
पूषाभिधः सुरस्तात दद्‌भिर्यज्ञसुपुष्टिकृत् ।
याजमानो भग्नदन्तः सत्यमेतन्मयोदितम् ॥ ८ ॥
बस्तश्मश्रुर्भवेदेव भृगुर्मम विरोधकृत् ।
देवाः प्रकृतिसर्वाङ्‌गा ये म उच्छेदनं ददुः ॥ ९ ॥
बाहुभ्यामश्विनौ पूष्णो हस्ताभ्यां कृतवाहकः ।
भवन्त्वध्वर्यवश्चान्ये भवत्प्रीत्या मयोदितम् ॥ १० ॥
दक्षका मस्तक जल गया है, इसलिये इनके सिरके स्थानमें बकरेका सिर जोड़ दिया जाय । भग देवता मित्रकी आँखसे यज्ञका भाग देखें । हे तात ! पूषा नामक देवता, जिनके दाँत टूट गये हैं, यजमानके दाँतोंसे भलीभाँति पिसे हुए अन्नका भक्षण करें । यह मैंने सच्ची बात बतायी है । मेरा विरोध करनेवाले भृगुकी दाढ़ीके स्थानमें बकरेकी दाढ़ी लगा दी जाय । शेष सभी देवताओंके, जिन्होंने मुझे यज्ञका उच्छिष्ट भाग दिया, सारे अंग पहलेकी भाँति ठीक हो जायें । याज्ञिकोंमेंसे जिनकी भुजाएँ टूट गयी हैं, वे अश्विनीकुमारोंकी भुजाओंसे और जिनके हाथ नष्ट हो गये हैं, वे पूषाके हाथोंसे अपना काम चलायें । यह मैंने आपलोगोंके प्रेमवश कहा है ॥ ७-१० ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा परमेशानो विरराम दयान्वितः ।
चराचरपतिर्देवः सम्राट् वेदानुसारकृत् ॥ ११ ॥
तदा सर्वे सुराद्यास्ते श्रुत्वा शंकरभाषितम् ।
साधुसाध्विति सम्प्रोचुः परितुष्टाः सविष्ण्वजाः ॥ १२ ॥
ततः शम्भुं समामन्त्र्य मया विष्णुः सुरर्षिभिः ।
भूयस्तद्देवयजनं ययौ च परया मुदा ॥ १३ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] इस प्रकार कहकर वेदका अनुसरण करनेवाले सुरसम्राट् चराचरपति दयालु परमेश्वर महादेवजी चुप हो गये । भगवान् शंकरका वह वचन सुनकर श्रीविष्णु और ब्रह्मासहित सम्पूर्ण देवता सन्तुष्ट हो गये । वे तत्काल साधुवाद देने लगे । तदनन्तर भगवान् शम्भुको आमन्त्रित करके मुझ ब्रह्मा और देवर्षियोंके साथ भगवान् विष्णु अत्यन्त हर्षित हो पुनः दक्षकी यज्ञशालाकी ओर चले ॥ ११-१३ ॥

एवं तेषां प्रार्थनया विष्णुप्रभृतिभिः सुरैः ।
ययौ कनखलं शम्भुर्यज्ञवाटं प्रजापतेः ॥ १४ ॥
रुद्रस्तदा ददर्शाथ वीरभद्रेण यत्कृतम् ।
प्रध्वंसं तं क्रतोस्तत्र देवर्षीणां विशेषतः ॥ १५ ॥
इस प्रकार उनकी प्रार्थनासे भगवान् शम्भु विष्णु आदि देवताओंके साथ कनखलमें स्थित प्रजापति दक्षकी यज्ञशालामें गये । उस समय रुद्रदेवने वहाँ यज्ञका और विशेषतः देवताओं तथा ऋषियोंका विध्वंस, जो वीरभद्रके द्वारा किया गया था, उसे देखा ॥ १४-१५ ॥

स्वाहा स्वधा तथा पूषा तुष्टिर्धृतिः सरस्वती ।
तथान्ये ऋषयःसर्वे पितरश्चाग्नयस्तथा ॥ १६ ॥
येऽन्ये च बहवस्तत्र यक्षगन्धर्वराक्षसाः ।
त्रोटिता लुञ्चिताश्चैव मृताः केचिद्‌रणाजिरे ॥ १७ ॥
स्वाहा, स्वधा, पूषा, तुष्टि, धृति, सरस्वती, अन्य समस्त ऋषि, पितर, अग्नि तथा अन्यान्य बहुतसे यक्ष, गन्धर्व और राक्षस वहाँ पड़े थे । उनमेंसे कुछ लोगोंके अंग तोड़ डाले गये थे । कुछ लोगोंके बाल नोंच लिये गये थे और कितने ही उस समरांगणमें मरे पड़े थे ॥ १६-१७ ॥

यज्ञं तथाविधं दृष्ट्‍वा समाहूय गणाधिपम् ।
वीरभद्रं महावीर्यमुवाच प्रहसन् प्रभुः ॥ १८ ॥
वीरभद्र महाबाहो किं कृतं कर्म ते त्विदम् ।
महान् दण्डो धृतस्तात देवर्स्यादिषु सत्वरम् ॥ १९ ॥
दक्षमानय शीघ्रं त्वं येनेदं कृतमीदृशम् ।
यज्ञो विलक्षणस्तात यस्येदं फलमीदृशम् ॥ २० ॥
उस यज्ञकी वैसी दुरवस्था देखकर भगवान् शंकरने अपने गणनायक पराक्रमी वीरभद्रको बुलाकर हँसते हुए कहा-हे महाबाहु वीरभद्र ! यह तुमने कैसा काम किया ? हे तात ! थोड़ी ही देरमें देवता तथा ऋषि आदिको बड़ा भारी दण्ड दे दिया ! हे तात ! जिसने ऐसा [द्रोहपूर्ण] कार्य किया तथा इस विलक्षण यज्ञका आयोजन किया और जिसे ऐसा फल मिला, उस दक्षको तुम शीघ्र यहाँ ले आओ ॥ १८-२० ॥

ब्रह्मोवाच
एवमुक्तः शंकरेण वीरभद्रस्त्वरान्वितः ।
कबन्धमानयित्वाऽग्रे तस्य शम्भोरथाक्षिपत् ॥ २१ ॥
ब्रह्माजी बोले- भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर वीरभद्रने शीघ्रतापूर्वक दक्षका धड़ लाकर उन शम्भुके समक्ष डाल दिया ॥ २१ ॥

विशिरस्कं च तं दृष्ट्‍वा शंकरो लोकशंकरः ।
वीरभद्रमुवाचाग्रे विहसन् मुनिसत्तम ॥ २२ ॥
शिरः कुत्रेति तेनोक्तं वीरभद्रोऽब्रवीत्प्रभुः ।
मया शिरो हुतं चाग्नौ तदानीमेव शंकर ॥ २३ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! उसे सिररहित देख लोककल्याणकारी भगवान् शंकरने आगे खड़े हुए वीरभद्रसे हँसकर पूछा-दक्षका सिर कहाँ है ? तब प्रभावशाली वीरभद्रने कहा-हे शंकर ! मैंने तो उसी समय दक्षके सिरको आगमें होम कर दिया था ॥ २२-२३ ॥

इति श्रुत्वा वचस्तस्य वीरभद्रस्य शंकरः ।
देवान् तथाज्ञपत्प्रीत्या यदुक्तं तत्पुरा प्रभुः ॥ २४ ॥
विधाय कार्त्स्न्येन च तद्यदाह भगवान् भवः ।
मया विष्ण्वादयः सर्वे भृग्वादीनथ सत्वरम् ॥ २५ ॥
वीरभद्रकी यह बात सुनकर भगवान् शंकरने देवताओंको प्रसन्नतापूर्वक वैसी ही आज्ञा दी, जो पहलेसे दे रखी थी । भगवान् भवने उस समय जो कुछ कहा, उसकी मेरे द्वारा पूर्ति कराकर श्रीहरि आदि सब देवताओंने भृगु आदि सबको शीघ्र ही ठीक कर दिया ॥ २४-२५ ॥

अथ प्रजापतेस्तस्य सवनीयपशोः शिरः ।
बस्तस्य सन्दधुः शम्भोः कायेनारं सुशासनात् ॥ २६ ॥
सन्धीयमाने शिरसि शम्भुसद्दृष्टिवीक्षितः ।
सद्यः सुप्त इवोत्तस्थौ लब्धप्राणः प्रजापतिः ॥ २७ ॥
तदनन्तर शम्भुके आदेशसे प्रजापति दक्षके धड़के साथ सवनीय पशु-बकरेका सिर जोड़ दिया गया । उस सिरके जोड़े जाते ही शम्भुकी कृपादृष्टि पड़नेसे प्रजापति दक्ष प्राण प्राप्त करके तत्क्षण सोकर जगे हुए पुरुषकी भाँति उठकर खड़े हो गये ॥ २६-२७ ॥

उत्थितश्चाग्रतः शम्भुं ददर्श करुणानिधिम् ।
दक्षः प्रीतमतिः प्रीत्या संस्थितः सुप्रसन्नधीः ॥ २८ ॥
पुरा हर महाद्वेषकलिलात्माभवद्धि सः ।
शिवावलोकनात्सद्यः शरच्चन्द्र इवामलः ॥ २९ ॥
उठते ही दक्षने प्रसन्नचित्त होकर प्रेमपूर्वक अपने सामने करुणानिधि भगवान् शंकरको देखा । पहले महादेवजीसे द्वेष करनेके कारण उनका अन्तःकरण मलिन हो गया था, परंतु उस समय शिवजीके दर्शनसे वे तत्काल शरद् ऋतुके चन्द्रमाकी भाँति निर्मल हो गये ॥ २८-२९ ॥

भवं स्तोतुमना सोथ नाशक्नोदनुरागतः ।
उत्कण्ठाविकलत्वाच्च सम्परेतां सुतां स्मरन् ॥ ३० ॥
यद्यपि वे [प्रेमके वशीभूत होकर] मनमें शिवजीकी स्तुति करनेकी इच्छा कर रहे थे, किंतु उन्हें उसी समय सतीके ब्रह्माजी बोले-शरीरत्यागका स्मरण हो गया, इसलिये वे उत्कण्ठासे व्याकुल होनेके कारण स्तुति नहीं कर सके ॥ ३० ॥

अथ दक्षः प्रसन्नात्मा शिवं लज्जासमन्वितः ।
तुष्टाव प्रणतो भूत्वा शंकरं लोकशंकरम् ॥ ३१ ॥
तदनन्तर लज्जित होकर दक्ष प्रजापति प्रसन्नचित्त हो विनम्रतापूर्वक लोकका कल्याण करनेवाले शंकरकी स्तुति करने लगे ॥ ३१ ॥

दक्ष उवाच
नमामि देव वरदं वरेण्यं
     महेश्वरं ज्ञाननिधिं सनातनम् ।
नमामि देवाधिपतीश्वरं हरिं
     सदासुखाढ्यं जगदेकबान्धवम् ॥ ३२ ॥
दक्ष बोले-वरदानी, श्रेष्ठ, महेश्वर, ज्ञाननिधि, सनातन देवको नमस्कार करता हूँ । देवाधिदेवोंके भी ईश्वर, सुखरूप एवं संसारके एकमात्र बन्धु भगवान् शंकरजीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३२ ॥

नमामि विश्वेश्वर विश्वरूपं
     पुरातनं ब्रह्मनिजात्मरूपम् ।
नमामि शर्वं भवभावभावं
     परात्परं शंकरमानतोऽस्मि ॥ ३३ ॥
हे विश्वेश्वर ! [आप] विश्वरूप, पुरातन, ब्रह्मा तथा आत्मस्वरूपको मैं नमस्कार करता हूँ । मैं शर्वको नमस्कार करता हूँ । मैं संसारके भावोंका चिन्तन करनेवाले परात्पर शंकरको नमस्कार करता हूँ ॥ ३३ ॥

देवदेव महादेव कृपां कुरु नमोस्तु ते ।
अपराधं क्षमस्वाद्य मम शम्भो कृपानिधे ॥ ३४ ॥
अनुग्रहः कृतस्ते हि दण्डव्याजेन शंकर ।
खलोऽहं मूढधीर्देव ज्ञातं तत्त्वं मया न ते ॥ ३५ ॥
हे देवदेव ! हे महादेव ! आपको नमस्कार है, मुझपर कृपा कीजिये । हे कृपानिधे ! हे शम्भो ! आज मेरे अपराधको क्षमा कीजिये । हे शंकर ! आपने दण्डके बहाने ही मुझपर अनुग्रह किया है । मैं खल और मूर्ख हूँ; हे देव ! मुझे आपके तत्त्वका ज्ञान नहीं था ॥ ३४-३५ ॥

अद्य ज्ञातं मया तत्त्वं सर्वोपरि भवान्मतः ।
विष्णुब्रह्मादिभिःसेव्यो वेदवेद्यो महेश्वरः ॥ ३६ ॥
साधूनां कल्पवृक्षस्त्वं दुष्टानां दण्डधृक् सदा ।
स्वतन्त्रः परमात्मा हि भक्ताभीष्टवरप्रदः ॥ ३७ ॥
हे प्रभो ! आप विष्णु एवं ब्रह्मादि देवोंके भी सेव्य, वेदोंसे जाननेयोग्य तथा महेश्वर हैं । आज मुझे आपके तात्त्विक स्वरूपका ज्ञान हुआ है, आप सभी लोगोंमें श्रेष्ठ माने गये हैं । आप सत्पुरुषोंके लिये कल्पवृक्ष हैं और दुष्टोंको सदा दण्ड प्रदान करनेवाले हैं । आप सर्वथा स्वतन्त्र परमात्मा हैं एवं भक्तोंको अभीष्ट वर प्रदान करनेवाले हैं ॥ ३६-३७ ॥

विद्यातपोव्रतधरानसृजः प्रथमं द्विजा ।
आत्मतत्त्वं समावेत्तुं मुखतः परमेश्वरः ॥ ३८ ॥
आप परमेश्वरने ही अपने मुखसे विद्या, तप तथा व्रत धारण करनेवाले इन ब्राह्मणोंको तत्त्वका साक्षात्कार करनेके लिये उत्पन्न किया है ॥ ३८ ॥

सर्वापद्‌भ्यः पालयिता गोपतिस्तु पशूनिव ।
गृहीतदण्डो दुष्टांस्तान् मर्यादापरिपालकः ॥ ३९ ॥
मया दुरुक्तविशिखैः प्रविद्धः परमेश्वरः ।
अमरानतिदीनाशान् मदनुग्रहकारकः ॥ ४० ॥
समस्त गोरूप पशुओंकी रक्षा जिस प्रकार गोपतिद्वारा की जाती है, उसी प्रकार आप सभी विपत्तियोंसे रक्षा करते हैं । आप मर्यादाके परिपालक तथा दुर्जनोंके लिये दण्ड धारण करते हैं । हे भगवन् ! मैंने अनेक प्रकारके कटु वचनरूपी बाणोंसे आप परमेश्वरको बींध डाला था, फिर भी अत्यन्त क्षीण आशावाले इन देवताओंसहित मुझपर आपने दया ही की है ॥ ३९-४० ॥

स भवान् भगवान् शम्भो दीनबन्धो परात्परः ।
स्वकृतेन महार्हेण सन्तुष्टो भक्तवत्सल ॥ ४१ ॥
इसलिये हे शम्भो ! हे दीनबन्धो ! हे भक्तवत्सल ! आप परात्पर भगवान् मेरे द्वारा की गयी पूजासे सन्तुष्ट हो जाइये ॥ ४१ ॥

ब्रह्मोवाच
इति स्तुत्वा महेशानं शंकरं लोकशंकरम् ।
प्रजापतिर्विनीतात्मा विरराम महाप्रभुम् ॥ ४२ ॥
अथ विष्णुः प्रसन्नात्मा तुष्टाव वृषभध्वजम् ।
बाष्पगद्‌गदया वाण्या सुप्रणम्य कृताञ्जलिः ॥ ४३ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार लोकका कल्याण करनेवाले महाप्रभु महेश्वरकी विनम्रतापूर्वक स्तुतिकर प्रजापति मौन हो गये । उसके बाद भगवान् विष्णु प्रसन्नचित्त होकर दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करके गद्‌गद वाणीसे वृषभध्वज शिवकी स्तुति करने लगे- ॥ ४२-४३ ॥

विष्णुवाच
महादेव महेशान लोकानुग्रहकारक ।
परब्रह्म परात्मास्त्वं दीनबन्धो दयानिधे ॥ ४४ ॥
सर्वव्यापी स्वैरवर्ती वेदवेद्ययशाः प्रभोः ।
अनुग्रहः कृतस्तेन कृताश्चासुकृता वयम् ॥ ४५ ॥
विष्णु बोले-हे महादेव ! हे महेशान ! लोकपर अनुग्रह करनेवाले हे दीनबन्धो ! हे दयानिधे आप परब्रह्म परमात्मा हैं । हे प्रभो ! आप सर्वव्यापी स्वतन्त्र हैं, आपका यश वेदोंसे ही जाना जा सकता है । आपने हमलोगोंपर कृपा की है, उससे हमलोग कृतकृत्य हो गये ॥ ४४-४५ ॥

दक्षोऽयं मम भक्तस्त्वां यन्निनिन्द खलः पुरा ।
तत् क्षन्तव्यं महेशाद्य निर्विकारो यतो भवान् ॥ ४६ ॥
कृतो मयापराधोऽपि तव शंकर मूढतः ।
त्वद्‌गणेन कृतं युद्धं वीरभद्रेण पक्षतः ॥ ४७ ॥
हे महेश्वर ! इस मेरे भक्त दुष्ट दक्षने पूर्वमें आपकी जो निन्दा की है, उसे आप आज क्षमा कीजिये; क्योंकि आप निर्विकार हैं । हे शंकर ! मैंने भी मूर्खतावश आपका अपराध किया है, जो दक्षके पक्षसे आपके गण वीरभद्र के साथ युद्ध किया ॥ ४६-४७ ॥

त्वं मे स्वामी परब्रह्म दासोऽहं ते सदाशिव ।
पोष्यश्चापि सदा ते हि सर्वेषां त्वं पिता यतः ॥ ४८ ॥
हे सदाशिव ! आप मेरे स्वामी हैं, आप परब्रह्म हैं, मैं आपका दास हूँ, आप सभीके पिता हैं । इसलिये आपको हम सबका पालन करना चाहिये ॥ ४८ ॥

ब्रह्मोवाच
देवदेव महादेव करुणासागर प्रभो ।
स्वतन्त्रः परमात्मा त्वं परमेशोऽद्वयोऽव्ययः ॥ ४९ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे करुणासागर ! हे प्रभो ! आप स्वतन्त्र, परमात्मा, परमेश्वर, अद्वय तथा अविनाशी हैं ॥। ४९ ॥

मम पुत्रोपरि कृतो देवानुग्रह ईश्वर ।
स्वापमानं न गण्य त्वं दक्षयज्ञं समुद्धर ॥ ५० ॥
प्रसन्नो भव देवेश सर्वशापान्निराकुरु ।
सबोधः प्रेरकस्त्वं मे त्वमेवं विनिवारकः ॥ ५१ ॥
हे ईश्वर ! हे देव ! आपने मेरे इस पुत्रपर अनुग्रह किया है, अब आप अपना अपमान भूलकर दक्षके यज्ञका उद्धार कीजिये । हे देवेश ! अब आप प्रसन्न हो जाइये और अपने सभी प्रकारके शापोंसे इसका उद्धार कीजिये; आप ज्ञानवान् ही मुझे प्रेरणा देनेवाले हैं और आप ही निवारण करनेवाले हैं ॥ ५०-५१ ॥

इति स्तुत्वा महेशानं परमं च महामुने ।
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा विनम्रीकृतमस्तकः ॥ ५२ ॥
अथ शक्रादयो देवा लोकपालाः सुचेतसः ।
तुष्टुवुः शंकरं देवं प्रसन्नमुखपङ्‌कजम् ॥ ५३ ॥
हे महामुने ! इस प्रकार परमात्मा महेश्वरकी स्तुति करके दोनों हाथ जोड़कर मैंने अपने मस्तकको झुकाकर उन्हें प्रणाम किया । तदनन्तर इन्द्र आदि देवतागण एवं लोकपाल सावधान होकर प्रसन्न मुखकमलवाले शंकरजीकी स्तुति करने लगे ॥ ५२-५३ ॥

ततः प्रसन्नमनसः सर्वे देवास्तथा परे ।
सिद्धर्षयः प्रजेशाश्च तुष्टुवुः शंकरं मुदा ॥ ५४ ॥
तथोपदेवनागाश्च सदस्या ब्राह्मणास्तथा ।
प्रणम्य परया भक्त्या तुष्टुवुश्च पृथक् पृथक् ॥ ५५ ॥
उसके बाद अन्य सभी देवता, सिद्ध, ऋषि एवं प्रजापतिगण भी प्रसन्नताके साथ शिवजीकी स्तुति करने लगे । तत्पश्चात् उपदेवता, नाग, सदस्य तथा ब्राह्मणलोग भी सद्‌भक्तिसे प्रणामकर अलग-अलग स्तुति करने लगे ॥ ५४-५५ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां द्वितीये
सतीखण्डे दक्षदुःखनिराकरणवर्णनं नाम द्विचत्वारिंशो ऽध्यायः ॥ ४२ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके द्वितीय सतीखण्डमें दक्षके दुःखनिराकरणका वर्णन नामक बयालीसवां अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४२ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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