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॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥

॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥

॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे

एकविंशोऽध्यायः ॥

पार्वत्यै नारदोपदेशः -
कामदेवके भस्म हो जानेपर पार्वतीका अपने घर आगमन, हिमवान् तथा मेनाद्वारा उन्हें धैर्य प्रदान करना, नारदद्वारा पार्वतीको पंचाक्षर मन्त्रका उपदेश -


नारद उवाच
विधे तात महाप्राज्ञ विष्णुशिष्य त्रिलोककृत् ।
अद्‌भुतेयं कथा प्रोक्ता शंकरस्य महात्मनः ॥ १ ॥
भस्मीभूते स्मरे शम्भुतृतीयनयनाग्निना ।
तस्मिन्प्रविष्टे जलधौ वद त्वं किमभूत्ततः ॥ २ ॥
नारदजी बोले-हे विधे ! हे तात ! हे महाप्राज्ञ ! हे विष्णुशिष्य ! हे त्रिलोककर्ता ! आपने महात्मा शंकरकी यह विलक्षण कथा सुनायी । शिवके तृतीय नेत्रकी अग्निसे कामदेवके भस्म हो जानेपर और [पुनः] उस अग्निके समुद्र में प्रवेश कर जानेपर फिर क्या हुआ ? ॥ १-२ ॥

किं चकार ततो देवी पार्वती कुधरात्मजः ।
गता कुत्र सखीभ्यां सा तद्वदाद्य दयानिधे ॥ ३ ॥
तदनन्तर हिमालयपुत्री पार्वतीदेवीने क्या किया और वे अपनी दोनों सखियोंके साथ कहाँ गयीं ? हे दयानिधे ! अब आप इसे बताइये ॥ ३ ॥

ब्रह्मोवाच
शृणु तात महाप्राज्ञ चरितं शशिमौलिनः ।
महोतिकारकस्यैव स्वामिनो मम चादरात् ॥ ४ ॥
यदाऽदहच्छम्भुनेत्रोद्‌भवो हि मदनं शुचिः ।
महाशब्दोऽद्‌भुतोऽभूद्वै येनाकाशः प्रपूरितः ॥ ५ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे तात ! हे महाप्राज्ञ ! अब आप महान् लीला करनेवाले मेरे स्वामी चन्द्रशेखरके चरित्रको आदरपूर्वक सुनिये । भगवान् शंकरके नेत्रसे उत्पन्न हुई अग्निने जब कामदेवको जला दिया, तब महान् अद्‌भुत महाशब्द प्रकट हुआ, जिससे आकाश पूर्णरूपसे गूंज उठा ॥ ४-५ ॥

तेन शब्देन महता कामं दग्धं समीक्ष्य च ।
सखीभ्यां सह भीता सा ययौ स्वगृहमाकुला ॥ ६ ॥
उस महान् शब्दके साथ ही कामदेवको दग्ध हुआ देखकर भयभीत और व्याकुल हुई पार्वती अपनी दोनों सखियोंके साथ अपने घर चली गयीं ॥ ६ ॥

तेन शब्देन हिमवान्परिवारसमन्वितः ।
विस्मितोऽभूदति क्लिष्टः सुतां स्मृत्वा गतां ततः ॥ ७ ॥
जगाम शोकं शैलेशः सुतां दृष्ट्‍वातिविह्वलाम् ।
रुदतीं शम्भुविरहादाससादाचलेश्वरः ॥ ८ ॥
आसाद्य पाणिना तस्या मार्जयन्नयनद्वयम् ।
मा बिभीहि विधेऽरोदीरित्युक्त्वा तां तदाग्रहीत् ॥ ९ ॥
क्रोडे कृत्वा सुतां शीघ्रं हिमवानचलेश्वरः ।
स्वमालयमथानिन्ये सान्त्वयन्नतिविह्वलाम् ॥ १० ॥
उस शब्दसे परिवारसहित हिमवान् भी बड़े आश्चर्य में पड़ गये और वहाँ गयी हुई अपनी पुत्रीका स्मरण करके उन्हें बड़ा क्लेश हुआ । [इतनेमें ही पार्वती भी आ गयीं] । वे शम्भुके विरहसे रो रही थीं । अपनी पुत्रीको अत्यन्त विह्वल देखकर शैलराज हिमवान्को बड़ा शोक हुआ और वे शीघ्र ही उनके पास पहुंचे । वे हाथसे उनकी दोनों आँखोंको पोंछकर बोले-हे शिवे ! डरो मत, रोओ मत-ऐसा कहकर उन्हें पकड़ लिया । इसके बाद पर्वतराज हिमवान्ने अत्यन्त विह्वल हुई पुत्री पार्वतीको शीघ्र ही गोदमें उठा लिया और वे उन्हें सान्त्वना देते हुए अपने घर ले आये ॥ ७-१० ॥

अन्तर्हिते स्मरं दग्ध्वा हरे तद्विरहाच्छिवा ।
विकलाभूद् भृशंसा वै लेभे शर्म न कुत्रचित् ॥ ११ ॥
कामदेवका दाह करके महादेवजीके अन्तर्धान हो जानेपर उनके विरहसे पार्वती अत्यन्त व्याकुल हो गयीं और उन्हें कहीं भी शान्ति नहीं मिल रही थी ॥ ११ ॥

पितुर्गृहं तदा गत्वा मिलित्वा मातरं शिवा ।
पुनर्जातं तदा मेने स्वात्मानं सा धरात्मजा ॥ १२ ॥
पिताके घर जाकर जब वे अपनी मातासे मिलीं, उस समय पार्वतीने अपना नया जन्म हुआ माना ॥ १२ ॥

निनिन्द च स्वरूपं सा हा हतास्मीत्यथाब्रवीत् ।
सखीभिर्बोधिता चापि न बुबोध गिरीन्द्रजा ॥ १३ ॥
वे अपने रूपकी निन्दा करने लगी और कहने लगी । हाय ! मैं मारी गयी । सखियोंके समझानेपर भी वे गिरिराजकुमारी कुछ समझ नहीं पाती थीं ॥ १३ ॥

स्वपती च पिबन्ती च सा स्नाती गच्छती शिवा ।
तिष्ठन्ती च सखीमध्ये न किञ्चित्सुखमाप ह ॥ १४ ॥
वे सोते-जागते, खाते-पीते, नहाते-धोते, चलतेफिरते और सखियोंके बीचमें बैठते समय किंचिन्मात्र भी सुखाका अनुभव नहीं करती थीं । मेरे स्वरूप, जन्म तथा कर्मको धिक्कार है-ऐसा कहती हुई वे सदा महादेवजीकी प्रत्येक चेष्टाका चिन्तन करती रहती थीं ॥ १४-१५ ॥

धिक्स्वरूपं मदीयं च तथा जन्म च कर्म च ।
इति ब्रुवन्ती सततं स्मरन्ती हरचेष्टितम् ॥ १५ ॥
एवं सा पार्वती शम्भुविरहोत्क्लिष्टमानसा ।
सुखं न लेभे किञ्चिद्वाऽब्रवीच्छिवशिवेति च ॥ १६ ॥
इस प्रकार वे पार्वती भगवान् शिवके विरहसे मन-ही-मन अत्यन्त क्लेशका अनुभव करती और किंचिन्मात्र भी सुख नहीं पाती थीं, वे सदा शिव-शिव कहा करती थीं ॥ १६ ॥

निवसन्ती पितुर्ग्गेहे पिनाकिगतचेतना ।
शुशोचाथ शिवा तात मुमोह च मुहुर्मुहुः ॥ १७ ॥
पिताके घरमें रहकर भी वे चित्तसे पिनाकपाणि भगवान् शंकरके पास पहुँची रहती थीं । हे तात ! शिवा शोकमग्न हो बारंबार मञ्छित हो जाती थीं ॥ १७ ॥

शैलाधिराजोप्यथ मेनकापि
     मैनाकमुख्यास्तनयाश्च सर्वे ।
तां सान्त्वयामासुरदीनसत्त्वा
     हरं विसस्मार तथापि नो सा ॥ १८ ॥
अथ देवमुने धीमन्हिमवत्प्रस्तरे तदा ।
नियोजितो बलभिदाऽगमस्त्वं कामचारतः ॥ १९ ॥
ततस्त्वं पूजितस्तेन भूधरेण महात्मना ।
कुशलं पृष्टवांस्तं वै तदाविष्टो वरासने ॥ २० ॥
शैलराज हिमवान्, उनकी पत्नी मेनका तथा उनके मैनाक आदि सभी पुत्र, जो बड़े उदारचित्त थे, उन्हें सदा सान्त्वना देते रहते थे तथापि वे भगवान् शंकरको भूल न सकी । हे बुद्धिमान् देवर्षे ! तदनन्तर [एक दिन] इन्द्रकी प्रेरणासे इच्छानुसार घूमते हुए आप हिमालयपर्वतपर पहुंचे । उस समय महात्मा हिमवान्ने आपका सत्कार किया । तब आप [उनके द्वारा दिये हुए] उत्तम आसनपर बैठकर उनसे कुशल पूछने लगे ॥ १८-२० ॥

ततः प्रोवाच शैलेशः कन्याचरितमादितः ।
हरसेवान्वितं कामदहनं च हरेण ह ॥ २१ ॥
उसके बाद पर्वतराज हिमवान्ने अपनी कन्याके चरित्रका आरम्भसे वर्णन किया कि किस तरह उसने महादेवजीकी सेवा की और किस तरह हरके द्वारा कामदेवका दहन हुआ ॥ २१ ॥

श्रुत्वावोचो मुने त्वं तु तं शैलेशं शिवं भज ।
तमामन्त्र्योदतिष्ठस्त्वं संस्मृत्य मनसा शिवम् ॥ २२ ॥
तं समुत्सृज्य रहसि कालीं तामगमस्त्वरा ।
लोकोपकारको ज्ञानी त्वं मुने शिववल्लभः ॥ २३ ॥
आसाद्य कालीं सम्बोध्य तद्धिते स्थित आदरात् ।
अवोचस्त्वं वचस्तथ्यं सर्वेषां ज्ञानिनां वरः ॥ २४ ॥
हे मुने ! यह सब सुनकर आपने गिरिराजसे कहा-हे शैलेश्वर ! भगवान् शिवका भजन कीजिये । फिर उनसे विदा लेकर आप उठे और मन ही मन शिवका स्मरणकर शैलराजको छोड़कर शीघ्र ही एकान्तमें कालीके पास आ गये । हे मुने ! आप लोकोपकारी, ज्ञानी तथा शिवके प्रिय भक्त हैं, ज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं, अत: कालीके समीप जाकर उसे सम्बोधित करके उसीके हितमें स्थित हो उससे आदरपूर्वक यह वचन कहने लगे- ॥ २२-२४ ॥

नारद उवाच
शृणु कालि वचो मे हि सत्यं वच्मि दयारतः ।
सर्वथा ते हितकरं निर्विकारं सुकामदम् ॥ २५ ॥
सेवितश्च महादेवस्त्वयेह तपसा विना ।
गर्ववत्या यदध्वंसीद्दीनानुग्रहकारकः ॥ २६ ॥
विरक्तश्च स ते स्वामी महायोगी महेश्वरः ।
विसृष्टवान्स्मरं दग्ध्वा त्वां शिवे भक्तवत्सलः ॥ २७ ॥
नारदजी बोले-हे कालि ! तुम मेरी बात सुनो । मैं दयावश यह सत्य बात कह रहा हूँ । मेरा वचन तुम्हारे लिये सर्वथा हितकर, निर्दोष तथा उत्तम वस्तुओंको देनेवाला होगा । तुमने यहाँ महादेवजीकी सेवा अवश्य की थी, परंतु बिना तपस्याके गर्वयुक्त होकर की थी । दीनोंपर अनुग्रह करनेवाले शिवने तुम्हारे उसी गर्वको नष्ट किया है । हे शिवे ! तुम्हारे स्वामी महेश्वर विरक्त और महायोगी हैं, उन भक्तवत्सलने कामदेवको जलाकर तुम्हें [सकुशल] छोड़ दिया है । २५-२७ ॥

तस्मात्त्वं सुतपोयुक्ता चिरमाराधयेश्वरम् ।
तपसा संस्कृतां रुद्रः स द्वितीयां करिष्यति ॥ २८ ॥
त्वं चापि शंकरं शम्भुं न त्यक्ष्यसि कदाचन ।
नान्यं पतिं हठाद्देवि ग्रहीष्यसि शिवादृते ॥ २९ ॥
इसलिये तुम उत्तम तपस्यामें निरत हो चिरकालतक महेश्वरकी आराधना करो । तपस्याके द्वारा संस्कारयुक्त हो जानेपर रुद्रदेव तुम्हें अपनी भार्या अवश्य बनायेंगे और तुम भी कभी उन कल्याणकारी शम्भुका परित्याग नहीं करोगी । हे देवि ! तुम हठपूर्वक शिवजीके अतिरिक्त किसी दूसरेको पतिरूपमें स्वीकार नहीं करोगी ॥ २८-२९ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचस्ते हि मुने सा भूधरात्मजा ।
किञ्चिदुच्छ्‍वसिता काली प्राह त्वां साञ्जलिर्मुदा ॥ ३० ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! आपकी यह बात सुनकर गिरिराजकुमारी काली कुछ उच्छ्रास लेती हुई हाथ जोड़कर आपसे प्रसन्नतापूर्वक कहने लगीं- ॥ ३० ॥

शिवोवाच
त्वं तु सर्वज्ञ जगतामुपकारकर प्रभो ।
रुद्रस्याराधनार्थाय मन्त्रं देहि मुने हि मे ॥ ३१ ॥
न सिद्ध्यति क्रिया कापि सर्वेषां सद्‌गुरुं विना ।
मया श्रुता पुरा सत्यं श्रुतिरेषा सनातनी ॥ ३२ ॥
शिवा बोलीं-हे सर्वज्ञ ! जगत्का उपकार करनेवाले हे प्रभो ! हे मुने ! रुद्रदेवको आराधनाके लिये मुझे किसी मन्त्रका उपदेश कीजिये । क्योंकि सद्‌गुरुके बिना किसीकी कोई भी क्रिया सिद्ध नहीं होती-ऐसा मैंने सुन रखा है और यही सनातन श्रुति भी है । ३१-३२ ॥

ब्रह्मोवाच
इति श्रुत्वा वचस्तस्याः पार्वत्या मुनिसत्तमः ।
पञ्चाक्षरं शम्भुमन्त्रं विधिपूर्वमुपादिशः ॥ ३३ ॥
अवोचश्च वचस्तां त्वं श्रद्धामुत्पादयन्मुने ।
प्रभावं मन्त्रराजस्य तस्य सर्वाधिकं मुने ॥ ३४ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! पार्वतीका यह वचन सुनकर आप मुनिश्रेष्ठने पंचाक्षर मन्त्र ['नमः शिवाय'] का उन्हें विधिपूर्वक उपदेश दिया और हे मुने ! मन्त्रराजमें श्रद्धा उत्पन्न करनेहेतु आपने उसका सबसे अधिक प्रभाव बताया । हे मुने ! आपने उनसे यह वचन कहा- ॥ ३३-३४ ॥

नारद उवाच
शृणु देवि मनोरस्य प्रभावं परमाद्‌भुतम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण शंकरः सुप्रसीदति ॥ ३५ ॥
मन्त्रोयं सर्वमन्त्राणामधिराजश्च कामदः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदोऽत्यन्तं शंकरस्य महाप्रियः ॥ ३६ ॥
नारदजी बोले-हे देवि ! इस मन्त्रके अत्यन्त अद्‌भुत प्रभावको सुनो, जिसके सुननेमात्रसे शंकर परम प्रसन्न हो जाते हैं । यह मन्त्रराज सब मन्त्रोंका राजा, मनोवांछित फल प्रदान करनेवाला, शंकरको बहुत ही प्रिय तथा साधकको भोग और मोक्ष देनेवाला है ॥ ३५-३६ ॥

सुभगे येन जप्तेन विधिना सोऽचिराद् द्रुतम् ।
आराधितस्ते प्रत्यक्षो भविष्यति शिवो ध्रुवम् ॥ ३७ ॥
हे सौभाग्यशालिनि ! इसका विधिपूर्वक जप करनेसे तुम्हारे द्वारा आराधित हुए भगवान् शिव अवश्य और शीघ्र ही तुम्हारी आँखोंके सामने प्रकट हो जायेंगे ॥ ३७ ॥

चिन्तयती च तद्‌रूपं नियमस्था शराक्षरम् ।
जप मन्त्रं शिवे त्वं हि सन्तुष्यति शिवो द्रुतम् ॥ ३८ ॥
हे शिवे ! नियमोंमें तत्पर रहकर उनके स्वरूपका चिन्तन करती हुई तुम पंचाक्षर मन्त्रका जप करो, इससे शिव शीघ्र ही सन्तुष्ट होंगे ॥ ३८ ॥

एवं कुरु तप साध्वि तपःसाध्यो महेश्वरः ।
तपस्येव फलं सर्वैः प्राप्यते नान्यथा क्वचित् ॥ ३९ ॥
हे साध्वि ! इस प्रकार तम तपस्या करो, क्योंकि तपस्यासे महेश्वर वशमें हो सकते हैं ? तपस्यासे ही सबको मनोनुकूल फलकी प्राप्ति होती है, अन्यथा नहीं ॥ ३९ ॥

ब्रह्मोवाच
एवमुक्त्वा तदा कालीं नारद त्वं शिवप्रियः ।
यादृच्छिकोऽगमस्त्वं तु स्वर्गं देवहिते रतः ॥ ४० ॥
पार्वती च तदा श्रुत्वा वचनं तव नारद ।
सुप्रसन्ना तदा प्राप पञ्चाक्षरमनूत्तमम् ॥ ४१ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! कालीसे इस प्रकार कहकर भगवान् शिवके प्रिय [भक्त], इच्छानुसार विचरण करनेवाले तथा देवताओंके हितमें तत्पर रहनेवाले आपने स्वर्गलोकको प्रस्थान किया । हे नारद ! तब आपकी बातको सुनकर पार्वती बहुत प्रसन्न हुई; क्योंकि उन्हें परम उत्तम पंचाक्षर मन्त्रराजकी प्राप्ति हो गयी थी ॥ ४०-४१ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये
पार्वतीखण्डे नारदोपदेशो नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें नारदोपदेशवर्णन नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥



श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु


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