![]() |
॥ श्रीगणेशाय नमः श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ॥
॥ श्रीशिवमहापुराणम् ॥ ॥ द्वितीया रुद्रसंहितायां तृतीयः पार्वतीखण्डे
त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ शिवेन पार्वतीसान्त्वनम् -
हिमालय आदिका तपस्यानिरत पार्वतीके पास जाना, पार्वतीका पिता हिमालय आदिको अपने तपके विषयमें दृढ़ निश्चयकी बात बताना, पार्वतीके तपके प्रभावसे त्रैलोक्यका संतप्त होना, सभी देवताओंका भगवान् शंकरके पास जाना ब्रह्मोवाच एवं तपत्यां पार्वत्यां शिवप्राप्तौ मुनीश्वर । चिरकालो व्यतीयाय प्रादुर्भूतो हरो न हि ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुनीश्वर ! शिवजीकी प्राप्तिके लिये इस प्रकार तपस्या करती हुई पार्वतीका बहुत समय व्यतीत हो गया, तो भी शंकर प्रकट नहीं हुए ॥ १ ॥ हिमालयस्तदागत्य पार्वतीं कृतनिश्चयाम् । सभार्यः ससुतामात्य उवाच परमेश्वरीम् ॥ २ ॥ तब अपने संकल्पमें दृढ़ निश्चयवाली परमेश्वरी पार्वतीके समीप अपनी भार्या, पुत्र तथा मन्त्रियोसहित आकर गिरिराज हिमालय उनसे कहने लगे- ॥ २ ॥ हिमालय उवाच मा खिद्यतां महाभागे तपसानेन पार्वती । रुद्रो न दृश्यते बाले विरक्तो नात्र संशयः ॥ ३ ॥ हिमालय बोले-हे महाभागे ! हे पार्वति ! तुम इस तपसे दुखी मत होओ, हे बाले ! रुद्र विरक्त हैं, इसलिये तुम्हें दर्शन नहीं दे रहे हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३ ॥ त्वं तन्वी सुकुमाराङ्गी तपसा च विमोहिता । भविष्यसि न सन्देहः सत्यं सत्यं वदामि ते ॥ ४ ॥ दुबली-पतली तथा सुकुमार अंगोंवाली तुम इस तपस्यासे मूछित हो जाओगी, इसमें सन्देह नहीं है, यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ ॥ ४ ॥ तस्मादुत्तिष्ठ चैहि त्वं स्वगृहं वरवर्णिनि । किं तेन तव रुद्रेण येन दग्धः पुरा स्मरः ॥ ५ ॥ इसलिये हे वरवर्णिनि ! तुम उठो और अपने घर चलो । उन रुद्रसे तुम्हारा कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा, जिन्होंने पहले कामदेवको ही भस्म कर दिया है ? ॥ ५ ॥ अतो हि निर्विकारत्वात्त्वामादातुं वरां हरः । नागमिष्यति देवेशि तं कथं प्रार्थयिष्यसि ॥ ६ ॥ गगनस्थो यथा चन्द्रो ग्रहीतुं न हि शक्यते । तथैव दुर्गमं शम्भुं जानीहि त्वमिहानघे ॥ ७ ॥ जब र्निविकार होनेके कारण वे शिव तुम्हें ग्रहण करने नहीं आयेंगे, तो हे देवेशि ! तुम उनसे प्रार्थना भी क्यों करोगी ? जिस प्रकार आकाशमें रहनेवाले चन्द्रमाको ग्रहण नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार हे अनघे ! तुम शिवजीको भी दुर्गम समझो ॥ ६-७ ॥ ब्रह्मोवाच तथैव मेनया चोक्ता तथा सह्याद्रिणा सती । मेरुणा मन्दरेणैव मैनाकेन तथैव सा ॥ ८ ॥ एवमन्यैः क्षितिध्रैश्च क्रौञ्चादिभिरनातुरा । तथैव गिरिजा प्रोक्ता नानावादविधायिभिः ॥ ९ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार मेना, सह्याद्रि, मेरु, मन्दार एवं मैनाकने भी उन सतीको बहुत समझाया, अन्य क्रौंचादि पर्वतोंने भी अनेक कारणोंको प्रदर्शित करते हुए आतुरतासे रहित उन पार्वतीको समझाया ॥ ८-९ ॥ ब्रह्मोवाच एवं प्रोक्ता यदा तन्वी सा सर्वैस्तपसि स्थिता । उवाच प्रहसन्त्येव हिमवन्तं शुचिस्मिता ॥ १० ॥ इस प्रकार सब लोगकि समझा लेनेके बाद तपस्यामें संलग्न वे पवित्र मुसकानवाली तन्वी पार्वती हँसती हुई [अपने पिता] हिमालयसे कहने लगी- ॥ १० ॥ पार्वत्युवाच पुरा प्रोक्तं मया तात मातः किं विस्मृतं त्वया । अधुनापि प्रतिज्ञां च शृणुध्वं मम बान्धवाः ॥ ११ ॥ पार्वती बोलीं-हे माता ! हे पिता ! मैंने जो बात पहले कही थी, क्या आपलोग उसे भूल गये ? हे बन्धुगण ! इस समय आपलोग भी मेरी प्रतिज्ञा सुनें ॥ ११ ॥ विरक्तोसौ महादेवो येन दग्धा रुषा स्मरः । तं तोषयामि तपसा शंकरं भक्तवत्सलम् ॥ १२ ॥ जिन्होंने क्रोधसे कामदेवको जला दिया, वे महादेव निश्चय ही विरक्त हैं, किंतु उन भक्तवत्सल शंकरको मैं अपनी तपस्यासे सन्तुष्ट करूंगी ॥ १२ ॥ सर्वे भवन्तो गच्छन्तु स्वं स्वं धाम प्रहर्षिताः । भविष्यत्येव तुष्टोऽसौ नात्र कार्या विचारणा ॥ १ ३ ॥ दग्धो हि मदनो येन येन दग्धं गिरेर्वनम् । तमानयिष्ये चात्रैव तपसा केवलेन हि ॥ १४ ॥ तपोबलेन महता सुसेव्यो हि सदाशिवः । जानीध्वं हि महाभागाः सत्यं सत्यं वदामि वः ॥ १५ ॥ आप सभी लोग परम प्रसन्न होकर अपने अपने घरोंको जायें । वे अवश्य ही प्रसन्न होंगे, इसमें सन्देह नहीं । जिन्होंने कामदेवको भस्म कर दिया तथा जिन्होंने पर्वतके वनको भी जला दिया, उन सदाशिवको मैं केवल अपनी तपस्यासे यहाँ अवश्य बुलाऊँगी । हे महाभागो ! वे सदाशिव महान् तपोबलसे अवश्य प्रसन्न हो जाते हैं, यह निश्चित जानिये, मैं आपलोगोंसे सत्य कह रही हूँ ॥ १३-१५ ॥ आभाष्य चैवं गिरिजा च मेनकां मैनाकबन्धुं पितरं हिमालयम् । तूष्णीं बभूवाशु सुभाषिणी शिवा समन्दरं पर्वतराजबालिका ॥ १६ ॥ जग्मुस्तथोक्ताः शिवया हि पर्वता यथागतेनापि विचक्षणास्ते । प्रशंसमाना गिरिजां मुहुर्मुहुः सुविस्मिता हेमनगेश्वराद्याः ॥ १७ ॥ ब्रह्माजी बोले-पर्वतराजकी पुत्री सुभाषिणी पार्वती अपनी माता मेनका, भाई मैनाक, मन्दर तथा पिता हिमालयसे इतना कहकर चुप हो गयौं । इस प्रकार जब शिवाने उनसे कहा, तब वे विचक्षण हिमनग आदि पर्वत बार-बार गिरिजाकी प्रशंसा करते हुए जहाँसे आये थे, वहाँ अत्यन्त विस्मित हो चले गये ॥ १६-१७ ॥ गतेषु तेषु सूर्येषु सखीभिः परिवारिता । तपस्तेपे तदधिकं परमार्थसुनिश्चया ॥ १८ ॥ तपसा महता तेन तप्तमासीच्चराचरम् । त्रैलोक्यं हि मुनिश्रेष्ठ सदेवासुरमानुषम् ॥ १९ ॥ उन सबके चले जानेपर सखियोसहित वे पार्वती परमार्थक निश्चयसे युक्त हो और अधिक दृढ़तासे महान् तपस्या करने लगीं । हे मुनिश्रेष्ठ । उस महान् तपस्यासे देवता, असुर एवं मनुष्यसहित चराचर त्रैलोक्य सन्तप्त हो उठा ॥ १८-१९ ॥ तदा सुरासुराः सर्वे यक्षकिन्नरचारणाः । सिद्धाःसाध्याश्च मुनयो विद्याधरमहोरगाः ॥ २० ॥ सप्रजापतयश्चैव गुह्यकाश्च तथापरे । कष्टात् कष्टतरं प्राप्ताः कारणं न विदुः स्म तत् ॥ २१ ॥ उस समय समस्त सुर, असुर, यक्ष, किन्नर, चारण, सिद्ध, साध्य, मुनि, विद्याधर, महान् उरग, प्रजापति एवं गुलाक तथा अन्य प्राणी बड़े कष्टको प्राप्त हुए, किंतु वे इसका कारण न समझ सके । २०-२१ ॥ सर्वे मिलित्वा शक्राद्या गुरुमामन्त्र्य विह्वलाः । सुमेरौ तप्तसर्वाङ्गा विधिं मां शरणं ययुः ॥ २२ ॥ तत्र गत्वा प्रणम्याशु विह्वला नष्टसुत्विषः । ऊचुःसर्वे च संस्तूय ह्यैकपद्येन मां हि ते ॥ २३ ॥ तपते हुए समस्त अंगवाले तथा व्याकुल वे सभी इन्द्र आदि परस्पर मिलकर गुरु बृहस्पतिसे परामर्श करके मुझ ब्रह्माकी शरणमें सुमेरु पर्वतपर गये । नष्ट कान्तिवाले तथा व्याकुल वे सब वहाँ पहुँचकर शीघ्र प्रणाम करके तथा स्तुति करके एक साथ मुझसे कहने लगे- ॥ २२-२३ ॥ देवा ऊचुः त्वया सृष्टमिदं सर्वं जगदेतच्चराचरम् । सन्तप्तमति कस्माद्वै न ज्ञातं कारणं विभो ॥ २४ ॥ देवता बोले-हे विभो ! इस चराचर सम्पूर्ण जगत्का आपने ही निर्माण किया है, किंतु इस समय यह सारी सृष्टि क्यों जल रही है, इसका कारण ज्ञात नहीं हो पा रहा है । २४ ॥ तद्ब्रूहि कारणं ब्रह्मन् ज्ञातुमर्हसि नः प्रभो । दग्धभूततनून्देवान् त्वत्तो नान्योऽस्ति रक्षक ॥ २५ ॥ हे प्रभो ! हे ब्रह्मन् ! इसका कारण आप बताइये; क्योंकि आप ही इसे जाननेमें समर्थ हैं । हम देवगणोंका सारा शरीर जल रहा है । दग्ध होते हुए शरीरवाले हम देवताओंका आपके अतिरिक्त कोई अन्य रक्षक नहीं है ॥ २५ ॥ ब्रह्मोवाच इत्याकर्ण्य वचस्तेषामहं स्मृत्वा शिवं हृदा । विचार्य मनसा सर्वं गिरिजायास्तपः फलम् ॥ २६ ॥ ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार देवताओंकी बातको सुनकर मैं शिवजीका स्मरणकर हृदयमें सोचने लगा कि यह सब पार्वतीकी तपस्याका फल है ॥ २६ ॥ दग्धं विश्वमिति ज्ञात्वा तैः सर्वैरिह सादरात् । हरये तत्कथयितुं क्षीराब्धिमगमं द्रुतम् ॥ २७ ॥ सारा विश्व जल जायगा, यह जानकर मैं भगवान् विष्णुसे निवेदन करनेके लिये उन सभीके साथ आदरपूर्वक शीघ्र क्षीरसागर गया ॥ २७ ॥ तत्र गत्वा हरिं दृष्ट्वा विलसन्तं सुखासने । सुप्रणम्य सुसंस्तूय प्रावोचं साञ्जलिः सुरैः ॥ २८ ॥ देवगणोंके साथ वहाँ जाकर मैंने देखा कि नारायण सुखपूर्वक आसनपर विराजमान हैं, उस समय मैं उन्हें प्रणामकर तथा स्तुति करके हाथ जोड़कर कहने लगा- ॥ २८ ॥ त्राहि त्राहि महाविष्णो तप्तान्नः शरणागतान् । तपसोग्रेण पार्वत्यास्तपत्याः परमेण हि ॥ २९ ॥ हे महाविष्णो ! तपस्यामें संलग्न पार्वतीकी परम कठोर तपस्यासे हमलोग सन्तप्त हो रहे हैं, अतः हम शरणागतोंकी आप रक्षा कीजिये ॥ २९ ॥ इत्याकर्ण्य वचस्तेषामस्मदादि दिवौकसाम् । शेषासने समाविष्टोऽस्मानुवाच रमेश्वरः ॥ ३० ॥ हम देवताओंका यह वचन सुनकर शेषासनपर बैठे हुए रमेश्वर हमलोगोंसे कहने लगे- ॥ ३० ॥ विष्णुरुवाच ज्ञातं सर्वं निदानं मे पार्वती तपसोऽद्य वै । युष्माभिः सहितस्त्वद्य व्रजामि परमेश्वरम् ॥ ३१ ॥ महादेवं प्रार्थयामो गिरिजाप्रापणाय तम् । पाणिग्रहार्थमधुना लोकानां स्वस्तयेऽमराः ॥ ३२ ॥ विष्णुजी बोले-मैंने सारा कारण जान लिया है । आप सब लोग पार्वतीकी तपस्यासे सन्तप्त हो रहे हैं, अतः मैं आपलोगोंके साथ अभी परमेश्वरके पास चल रहा हूँ । हे देवगणो ! हमलोग सदाशिवके समीप चलकर उनसे प्रार्थना करें कि वे पार्वतीका पाणिग्रहण करें; क्योंकि शिवजीके द्वारा पार्वतीका पाणिग्रहण करनेपर ही लोकका कल्याण होगा ॥ ३१-३२ ॥ वरं दातुं शिवायै हि देवदेवः पिनाकधृक् । यथा चैष्यति तत्रैव करिष्यामोऽधुना हि तत् ॥ २३ ॥ देवाधिदेव पिनाकधारी सदाशिव पार्वतीको वर प्रदान करनेके लिये जिस प्रकार उद्यत हों, उसी प्रकारका उपाय हमलोगोंको इस समय करना चाहिये ॥ ३३ ॥ तस्माद्वयं गमिष्यामो यत्र रुद्रो महाप्रभुः । तपसोग्रेण संयुक्तोऽद्यास्ते परममंगलः ॥ ३४ ॥ इसलिये अब हमलोग उस स्थानपर चलेंगे, जहाँ परम मंगल महाप्रभु रुद्र इस समय उग्र तपस्या में लीन हैं ॥ ३४ ॥ ब्रह्मोवाच विष्णोस्तद्वचनं श्रुत्वा सर्व ऊचुः सुरादयः । महाभीता हठात् क्रुद्धाद्दग्धुकामात् लयङ्करात् ॥ ३५ ॥ ब्रह्माजी बोले-विष्णुजीकी वह बात सुनकर प्रलय करनेवाले और क्रोधपूर्वक हठसे कामदेवको नष्ट करनेवाले शंकरसे भयभीत वे देवता विष्णुसे कहने लगे- ॥ ३५ ॥ देवा ऊचुः महाभयङ्करं क्रुद्धं कालानलसमप्रभम् । न यास्यामो वयं सर्वे विरूपाक्षं महाप्रभुम् ॥ ३६ ॥ यथा दग्धः पुरा तेन मदनो दुरतिक्रमः । तथैव क्रोधयुक्तो नः स धक्ष्यति न संशयः ॥ ३७ ॥ देवतागण बोले-[हे विष्णो !] महाभयंकर, क्रोधी, कालाग्निके समान प्रभावाले तथा विरूपाक्ष महाप्रभुके पास हमलोग नहीं जायेंगे क्योंकि उन्होंने जिस प्रकार दुराधर्ष कामदेवको भस्म कर दिया, उसी प्रकार क्रोधमें भरकर वे हमलोगोंको भी भस्म कर देंगे, इसमें सन्देह नहीं है । ३६-३७ ॥ ब्रह्मोवाच - तदाकर्ण्य वचस्तेषां शक्रादीनां रमेश्वरः । सान्त्वयंस्तान्सुरान्सर्वान्प्रोवाच स हरिर्मुने ॥ ३८ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! इन्द्रादि देवताओंकी यह बात सुनकर वे विष्णु उन सभी देवताओंको धीरज बँधाते हुए कहने लगे- ॥ ३८ ॥ हरिरुवाच हे सुरा मद्वचः प्रीत्या शृणुतादरतोऽखिलाः । न वो धक्ष्यति स स्वामी देवानां भयनाशनः ॥ ३९ ॥ तस्माद्भवद्भिर्गन्तव्यं मया सार्द्धं विचक्षणैः । शम्भुं शुभकरं मत्वा शरणं तस्य सुप्रभोः ॥ ४० ॥ विष्णुजी बोले-हे देवगणो ! आप सभी लोग आदरपूर्वक मेरी बात सुनिये, वे सदाशिव आपलोगोंको भस्म नहीं करेंगे क्योंकि वे देवताओंके भयको नष्ट करनेवाले हैं । इसलिये आप सभी बुद्धिमान् लोग शम्भुको कल्याणकारी मानकर मेरे साथ उन परम प्रभुके पास चलिये ॥ ३९-४० ॥ शिवं पुराणं पुरुषमधीशं वरेण्यरूपं हि परं पुराणम् । तपोजुषाणां परमात्मरूपं परात्परं तं शरणं व्रजामः ॥ ४१ ॥ वे शिव ही पुराणपुरुष, सबके अधीश्वर, सबसे श्रेष्ठ, तपस्या करनेवाले, परमात्मस्वरूप और परात्पर हैं, हमलोगोंको उन्हींका आश्रय लेना चाहिये ॥ ४१ ॥ ब्रह्मोवाच एवमुक्तास्तदा देवा विष्णुना प्रभविष्णुना । जग्मुः सर्वे तेन सह द्रष्टुकामाः पिनाकिनम् ॥ ४२ ॥ प्रथमं शैलपुत्र्यास्तत्तपो द्रष्टुं तदाश्रमम् । जग्मुर्मार्गवशात्सर्वे विष्ण्वाद्यःसकुतूहलाः ॥ ४३ ॥ ब्रह्माजी बोले-जब सर्वसमर्थ विष्णुने इस प्रकार देवगणोंसे कहा, तब वे सब उनके साथ पिनाकी भगवान् सदाशिवके दर्शन करनेकी इच्छासे चले । विष्णु आदि देवगण मार्गमें पड़नेके कारण सर्वप्रथम कुतूहलवश उस आश्रममें गये, जहाँ पार्वती तपस्या कर रही थीं ॥ ४२-४३ ॥ पार्वत्याः सुतपो दृष्ट्वा तेजसा व्यापृतास्तदा । प्रणेमुस्तां जगद्धात्रीं तेजोरूपां तपःस्थिताम् ॥ ४४ ॥ प्रशंसन्तस्तपस्तस्याः साक्षात्सिद्धितनोः सुराः । जग्मुस्तत्र तदा ते च यत्रास्ते वृषभध्वजः ॥ ४५ ॥ तदनन्तर सभी देवताओंने पार्वतीका तप देखकर उनके तेजसे व्याप्त हो तेजोरूपवाली तथा तपमें अधिष्ठित उन जगदम्बाको प्रणाम किया और साक्षात् सिद्धिका शरीर धारण करनेवाली उन पार्वतीके तपकी प्रशंसा करते हुए वे देवगण वहाँ गये, जहाँ वृषध्वज थे ॥ ४४-४५ ॥ तत्र गत्वा च ते देवास्त्वां मुने प्रैषयंस्तदा । पश्यतो दूरतस्तस्थुः कामभस्मकृतो हरात् ॥ ४६ ॥ नारद त्वं शिवस्थानं तदा गत्वाऽभयःसदा । शिवभक्तो विशेषेण प्रसन्नं दृष्टवान् प्रभुम् ॥ ४७ ॥ पुनरागत्य यत्नेन देवानाहूय तांस्ततः । निनाय शंकरस्थानं तदा विष्ण्वादिकान्मुने ॥ ४८ ॥ हे मुने ! वहाँ पहुँचकर उन देवताओंने [सर्वप्रथम] आपको शिवके समीप भेजा और वे स्वयं कामको नष्ट करनेवाले भगवान् शंकरको देखते हुए दूर ही स्थित रहे । उस समय हे नारद ! विशेषरूपसे शिवभक्त आपने निर्भय होकर शिवजीके स्थानपर जाकर शिवजीको प्रसन्न मुद्रामें देखा । हे मुने ! तदनन्तर लौटकर यत्नपूर्वक उन विष्णु आदि देवताओंको बुलाकर आप शिवजीके स्थानपर उन्हें ले गये ॥ ४६-४८ ॥ अथ विष्ण्वादयःसर्वे तत्र गत्वा शिवं प्रभुम् । ददृशुःसुखमासीनं प्रसन्नं भक्तवत्सलम् ॥ ४९ ॥ योगपट्टस्थितं शम्भुं गणैश्च परिवारितम् । तपोरूपं दधानं च परमेश्वररूपिणम् ॥ ५० ॥ तदनन्तर विष्णु आदि सभी देवताओंने शिवजीके स्थानमें जाकर प्रसन्न मनसे उन भक्तवत्सल भगवान सदाशिवको सुखपूर्वक बैठे हुए देखा । वे योगासन लगाये हुए अपने गणोंसे घिरे थे । वे परमेश्वररूपी शंकर साक्षात् तपस्याके विग्रहवान् रूप थे ॥ ४९-५० ॥ ततो विष्णुर्मयाऽन्ये च सुरसिद्धमुनीश्वराः । प्रणम्य तुष्टुवुः सूक्तैर्वेदोपनिषदन्वितैः ॥ ५१ ॥ तब विष्णु एवं मेरे साथ रहनेवाले अन्य देव, मुनि तथा सिद्धगण उन परमेश्वर शिवजीको प्रणामकर वेद एवं उपनिषदोंके सूतोंद्वारा उनकी स्तुति करने लगे ॥ ५१ ॥ इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वती- खण्डे पार्वतीसान्त्वनशिवदेवदर्शनवर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत द्वितीय रुगसंहिताके तृतीय पार्वतीखण्डमें पार्वतीसान्त्वन शिवदेवदर्शनवर्णन नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥ श्रीगौरीशंकरार्पणमस्तु |